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उत्पादन के क्षेत्र में यन्त्र ने केन्द्रीकरण कर दिया है। यन्त्र एक साथ अधिक उत्पादन करता है, तेज गति से उत्पादन करता है इसलिये उत्पादन का केन्द्रीकरण होना अपरिहार्य है। उत्पादन के साथ साथ मालिकी का भी केन्द्रीकरण होता है । मालिकों की संख्या कम और मालिकी का क्षेत्र बढता जाता है । साथ ही काम करनेवाले लोग भी अनावश्यक बन जाते हैं। बेरोजगारी का जनक भी यही है। इस व्यवस्था में अरबोंपति और खरबोंपति तो बनते हैं परन्तु वे गिनेचुने ही होते हैं, अरबों और खरबों बेरोजगार, बिना कामकाज के लोग भी साथ साथ पैदा होते हैं।
 
उत्पादन के क्षेत्र में यन्त्र ने केन्द्रीकरण कर दिया है। यन्त्र एक साथ अधिक उत्पादन करता है, तेज गति से उत्पादन करता है इसलिये उत्पादन का केन्द्रीकरण होना अपरिहार्य है। उत्पादन के साथ साथ मालिकी का भी केन्द्रीकरण होता है । मालिकों की संख्या कम और मालिकी का क्षेत्र बढता जाता है । साथ ही काम करनेवाले लोग भी अनावश्यक बन जाते हैं। बेरोजगारी का जनक भी यही है। इस व्यवस्था में अरबोंपति और खरबोंपति तो बनते हैं परन्तु वे गिनेचुने ही होते हैं, अरबों और खरबों बेरोजगार, बिना कामकाज के लोग भी साथ साथ पैदा होते हैं।
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कामनापूर्ति के लिये ठोस भौतिक पदार्थों की आवश्यकता होती है। उनका उत्पादन केन्द्रीकृत हो जाने के कारण बेरोजगार लोगों की संख्या बढती है। उन्हें जीवित रहने के लिये और कामनाओं की पूर्ति के लिये पदार्थों की तो आवश्यकता रहती ही है। इसकी पूर्ति के लिये अनेक अनुत्पादक गतिविधियाँ शुरू होती हैं। इसमें से ही आज के अनेक महान शब्दों अथवा महान संकल्पनाओं का जन्म हुआ है। इनमें एक है मैनेजमेण्ट, दसरा है मनोरंजन उद्योग, शिक्षाउद्योग, स्वास्थ्यउद्योग आदि । घटनाओं और पदार्थों को ही नहीं तो मनुष्यों को मैनेज किया जाता है। लोग दो भागों में बँटे हैं, एक हैं मैनेज करने वाले और दूसरे हैं मैनेज होने वाले । मैनेज करनेवालों की भी एक श्रेणीबद्ध शृंखला बनती है - बडा मैनेजर और छोटा मैनेजर । मैनेजमेन्ट वर्तमान विश्वविद्यालयों का एक प्रतिष्ठित विषय है। संगीत, नृत्य, नाटक, काव्य आदि मनोरंजन उद्योग के पदार्थ बन गये हैं। उनका सारा मूल्य पैसे में रूपान्तरित हो गया है। सारी सृजनशीलता और कल्पनाशीलता पैसे के अधीन बन गई है । उसकी सार्थकता ही पैसे से है। शिक्षा ज्ञान की व्यवस्था नहीं रह गई है अपितु ज्ञान को अर्थ के अधीन बनाने की व्यवस्था है। विश्वविद्यालयों का दर्जा तय करने वालों में एक प्रमुख आयाम उसकी अर्थोत्पादकता भी है । सेवा भी अर्थ के अधीन एक पदार्थ है। अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा 'सर्विस सैक्टर - सेवा क्षेत्र' है जिसमें भौतिक पदार्थों को छोडकर अन्य सभी मार्गों से दूसरों का काम कर पैसा कमाया जाता है।
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कामनापूर्ति के लिये ठोस भौतिक पदार्थों की आवश्यकता होती है। उनका उत्पादन केन्द्रीकृत हो जाने के कारण बेरोजगार लोगों की संख्या बढती है। उन्हें जीवित रहने के लिये और कामनाओं की पूर्ति के लिये पदार्थों की तो आवश्यकता रहती ही है। इसकी पूर्ति के लिये अनेक अनुत्पादक गतिविधियाँ आरम्भ होती हैं। इसमें से ही आज के अनेक महान शब्दों अथवा महान संकल्पनाओं का जन्म हुआ है। इनमें एक है मैनेजमेण्ट, दसरा है मनोरंजन उद्योग, शिक्षाउद्योग, स्वास्थ्यउद्योग आदि । घटनाओं और पदार्थों को ही नहीं तो मनुष्यों को मैनेज किया जाता है। लोग दो भागों में बँटे हैं, एक हैं मैनेज करने वाले और दूसरे हैं मैनेज होने वाले । मैनेज करनेवालों की भी एक श्रेणीबद्ध शृंखला बनती है - बडा मैनेजर और छोटा मैनेजर । मैनेजमेन्ट वर्तमान विश्वविद्यालयों का एक प्रतिष्ठित विषय है। संगीत, नृत्य, नाटक, काव्य आदि मनोरंजन उद्योग के पदार्थ बन गये हैं। उनका सारा मूल्य पैसे में रूपान्तरित हो गया है। सारी सृजनशीलता और कल्पनाशीलता पैसे के अधीन बन गई है । उसकी सार्थकता ही पैसे से है। शिक्षा ज्ञान की व्यवस्था नहीं रह गई है अपितु ज्ञान को अर्थ के अधीन बनाने की व्यवस्था है। विश्वविद्यालयों का दर्जा तय करने वालों में एक प्रमुख आयाम उसकी अर्थोत्पादकता भी है । सेवा भी अर्थ के अधीन एक पदार्थ है। अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा 'सर्विस सैक्टर - सेवा क्षेत्र' है जिसमें भौतिक पदार्थों को छोडकर अन्य सभी मार्गों से दूसरों का काम कर पैसा कमाया जाता है।
    
भारत की दृष्टि से यह अर्थव्यवस्था नहीं है, अनर्थ व्यवस्था है। यह अल्पबुद्धि, स्वार्थबुद्धि और दुष्टबुद्धि का लक्षण है। यह विनाशक है इसमें तो कोई सन्देह नहीं।
 
भारत की दृष्टि से यह अर्थव्यवस्था नहीं है, अनर्थ व्यवस्था है। यह अल्पबुद्धि, स्वार्थबुद्धि और दुष्टबुद्धि का लक्षण है। यह विनाशक है इसमें तो कोई सन्देह नहीं।
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तन्त्रज्ञान का शाब्दिक अर्थ भले ही अलग हो तो भी वह टैकनोलोजी के लिये स्वीकृत शब्द है। पश्चिम की टैकनोलोजी से आज सारा विश्व अभिभूत है।
 
तन्त्रज्ञान का शाब्दिक अर्थ भले ही अलग हो तो भी वह टैकनोलोजी के लिये स्वीकृत शब्द है। पश्चिम की टैकनोलोजी से आज सारा विश्व अभिभूत है।
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उन्नीसवीं शताब्दी में भाप का इन्जन, टेलीफोन तथा विद्युत की ऊर्जा की खोज से नई टैकनोलोजी की शुरूआत हुई। सूत पहले भी काता जाता था और वस्त्र पहले भी बुने जाते थे परन्तु उस समय सूत कातने वाले और वस्त्र बुने वाले यन्त्र थे वे मनुष्य के हाथ की ऊर्जा से चलते थे। विश्व की जीवनशैली बदल देने वाले यन्त्र नहीं हैं, यन्त्रों को संचालित करने वाली ऊर्जा है। बिजली भाप, पेट्रोल और अब अणु ऊर्जा ने भारी बदल किया है । इस ऊर्जा के आविष्कार से पूर्व जिस ऊर्जा से यन्त्र संचालित होते थे वह ऊर्जा मनुष्य का और पशु का बल था। जैसे कि कुएं से पानी निकालने का काम सरल बनाने हेतु घिटनी थी परन्तु घडे को खींचने वाले मनुष्य के हाथ होते थे । जमीन जोतने के लिये हल था परन्तु हल को चलानेवाले बैल होते थे । परिवहन के साधन भी थे, केवल भूमि पर नहीं तो जलमार्ग से यात्रा के लिये भी वाहन थे परन्तु उन्हें चलाने में मनुष्य और पशुओं की ऊर्जा प्रयुक्त होती थी। उन्नीसवीं शताब्दी में जैसे ही अन्य ऊर्जाओं का आविष्कार हुआ परिवहन, यातायात, पदार्थों के उत्पादन आदि क्षेत्रों में बडा तहलका मच गया । टैकनोलोजी का स्वरूप ही बदल गया।
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उन्नीसवीं शताब्दी में भाप का इन्जन, टेलीफोन तथा विद्युत की ऊर्जा की खोज से नई टैकनोलोजी की आरम्भआत हुई। सूत पहले भी काता जाता था और वस्त्र पहले भी बुने जाते थे परन्तु उस समय सूत कातने वाले और वस्त्र बुने वाले यन्त्र थे वे मनुष्य के हाथ की ऊर्जा से चलते थे। विश्व की जीवनशैली बदल देने वाले यन्त्र नहीं हैं, यन्त्रों को संचालित करने वाली ऊर्जा है। बिजली भाप, पेट्रोल और अब अणु ऊर्जा ने भारी बदल किया है । इस ऊर्जा के आविष्कार से पूर्व जिस ऊर्जा से यन्त्र संचालित होते थे वह ऊर्जा मनुष्य का और पशु का बल था। जैसे कि कुएं से पानी निकालने का काम सरल बनाने हेतु घिटनी थी परन्तु घडे को खींचने वाले मनुष्य के हाथ होते थे । जमीन जोतने के लिये हल था परन्तु हल को चलानेवाले बैल होते थे । परिवहन के साधन भी थे, केवल भूमि पर नहीं तो जलमार्ग से यात्रा के लिये भी वाहन थे परन्तु उन्हें चलाने में मनुष्य और पशुओं की ऊर्जा प्रयुक्त होती थी। उन्नीसवीं शताब्दी में जैसे ही अन्य ऊर्जाओं का आविष्कार हुआ परिवहन, यातायात, पदार्थों के उत्पादन आदि क्षेत्रों में बडा तहलका मच गया । टैकनोलोजी का स्वरूप ही बदल गया।
    
शुद्ध भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में जिज्ञासा से प्रेरित होकर जो आविष्कार हुए वे निश्चितरूप से प्रशंसनीय ही थे। परन्तु अल्पबुद्धि, स्वार्थबुद्धि और दुष्टबुद्धियुक्त मनुष्य के हाथ में जब प्रभावी साधन आता है तो उसका प्रयोग कैसा होगा यह सहज ही समझ में आनेवाली बात है। विज्ञान एक प्रभावी साधन है, वह न तो अच्छा होता है न बुरा, उसका प्रयोग करनेवाले पर निर्भर करता है कि उसके प्रयोग का परिणाम अच्छा होगा कि बुरा । विज्ञान के आविष्कार हुए तब पश्चिम की खुशी और गर्व की सीमा नहीं रही। दैवयोग से उस समय इंग्लैण्ड का आधिपत्य विश्व के बड़े हिस्से पर था । इसलिये विज्ञान के आविष्कारों से जन्मे उत्साह और आनन्द का प्रभाव अन्य देशों पर भी पडा।
 
शुद्ध भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में जिज्ञासा से प्रेरित होकर जो आविष्कार हुए वे निश्चितरूप से प्रशंसनीय ही थे। परन्तु अल्पबुद्धि, स्वार्थबुद्धि और दुष्टबुद्धियुक्त मनुष्य के हाथ में जब प्रभावी साधन आता है तो उसका प्रयोग कैसा होगा यह सहज ही समझ में आनेवाली बात है। विज्ञान एक प्रभावी साधन है, वह न तो अच्छा होता है न बुरा, उसका प्रयोग करनेवाले पर निर्भर करता है कि उसके प्रयोग का परिणाम अच्छा होगा कि बुरा । विज्ञान के आविष्कार हुए तब पश्चिम की खुशी और गर्व की सीमा नहीं रही। दैवयोग से उस समय इंग्लैण्ड का आधिपत्य विश्व के बड़े हिस्से पर था । इसलिये विज्ञान के आविष्कारों से जन्मे उत्साह और आनन्द का प्रभाव अन्य देशों पर भी पडा।
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यन्त्रों का एक साथी उत्पाद है पेट्रोलियम और दूसरा है प्लास्टिक । इन दोनों ने सुविधा तो बहुत निर्माण की है परन्तु पर्यावरण का महासंकट भी पैदा किया है। सारा विश्व आज ग्लोबल वोर्मिग - वैश्विक तापमान वृद्धि - से चिन्तित है। तापमान बढ़ने का कारण पेट्रोल, प्लास्टिक और वातानुकूलन ही तो है। विश्व के अनेक देशों को त्सुनामी, भूकम्प, अतिवृष्टि, अकाल, हिमवर्षा जैसे प्राकृतिक संकटों का सामना करना पड़ रहा है । ऋतुओं का सन्तुलन बिगड रहा है । एक और गर्मी बढ रही है तो दूसरी ओर ठण्ड भी बढ़ रही है । यह बदल भी नियमित नहीं है । इन संकटों का कारण भी पेट्रोल, प्लास्टिक और वातानुकूलन ही है।
 
यन्त्रों का एक साथी उत्पाद है पेट्रोलियम और दूसरा है प्लास्टिक । इन दोनों ने सुविधा तो बहुत निर्माण की है परन्तु पर्यावरण का महासंकट भी पैदा किया है। सारा विश्व आज ग्लोबल वोर्मिग - वैश्विक तापमान वृद्धि - से चिन्तित है। तापमान बढ़ने का कारण पेट्रोल, प्लास्टिक और वातानुकूलन ही तो है। विश्व के अनेक देशों को त्सुनामी, भूकम्प, अतिवृष्टि, अकाल, हिमवर्षा जैसे प्राकृतिक संकटों का सामना करना पड़ रहा है । ऋतुओं का सन्तुलन बिगड रहा है । एक और गर्मी बढ रही है तो दूसरी ओर ठण्ड भी बढ़ रही है । यह बदल भी नियमित नहीं है । इन संकटों का कारण भी पेट्रोल, प्लास्टिक और वातानुकूलन ही है।
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परन्तु अब मन की स्थिति ऐसी हो गई है कि संकट भी झेले नहीं जा सकते हैं और संकटों के कारणों को भी छोडा नहीं जा सकता है। विश्व सम्मेलनों में संकटों की चर्चा की जाती है परन्तु उपाय ऐसे होते हैं जो संकटों को और बढायें । यन्त्रों ने मनुष्य की शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक शक्तियों का ह्रास किया है। सुविधा और शक्ति दोनों परस्पर विरोधी बन गये हैं। वाहनों के कारण गति बढी तो साथ साथ पैरों की चलने की क्षमता कम हुई, कैलकुलेटर ने गिनती करना शुरू किया तो बुद्धि की गणनक्षमता कम हुई, संगणक ने जानकारी का संग्रह करना शुरू किया तो स्मरणशक्ति और खोजी वृत्ति कम हुई, टीवी ने नृत्यगीत के कार्यक्रम शुरू किये तो हृदय की रसानुभूति की शक्ति कम हुई, साथ ही साथ सृजनशीलता भी कम हुई, यन्त्रों ने वस्त्र बुनना, छपाई करना और रंगना शुरू किया तो वस्त्र से सम्बन्धित कारीगरी का ह्रास हुआ। यन्त्रों ने सर्व प्रकार की कारीगरी के साथ जुड़े सृजनशीलता, कल्पनाशीलता, कौशल, निपुणता, उत्कृष्टता, विविधता, मौलिकता और उसमें से मिलने वाले आनन्द को नष्ट कर दिया, एक सर्जक और निर्माता को मजदूर बना दिया । एक और सर्जक नहीं रहा तो दूसरी ओर भावक भी नहीं रहा । यह बहुत बड़ा सांस्कृतिक नुकसान है। स्थिति यहाँ तक पहुँची कि यह सब खोने का खेद भी नहीं रहा । श्रेष्ठ का कनिष्ठ बनाने का यह तरीका है।
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परन्तु अब मन की स्थिति ऐसी हो गई है कि संकट भी झेले नहीं जा सकते हैं और संकटों के कारणों को भी छोडा नहीं जा सकता है। विश्व सम्मेलनों में संकटों की चर्चा की जाती है परन्तु उपाय ऐसे होते हैं जो संकटों को और बढायें । यन्त्रों ने मनुष्य की शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक शक्तियों का ह्रास किया है। सुविधा और शक्ति दोनों परस्पर विरोधी बन गये हैं। वाहनों के कारण गति बढी तो साथ साथ पैरों की चलने की क्षमता कम हुई, कैलकुलेटर ने गिनती करना आरम्भ किया तो बुद्धि की गणनक्षमता कम हुई, संगणक ने जानकारी का संग्रह करना आरम्भ किया तो स्मरणशक्ति और खोजी वृत्ति कम हुई, टीवी ने नृत्यगीत के कार्यक्रम आरम्भ किये तो हृदय की रसानुभूति की शक्ति कम हुई, साथ ही साथ सृजनशीलता भी कम हुई, यन्त्रों ने वस्त्र बुनना, छपाई करना और रंगना आरम्भ किया तो वस्त्र से सम्बन्धित कारीगरी का ह्रास हुआ। यन्त्रों ने सर्व प्रकार की कारीगरी के साथ जुड़े सृजनशीलता, कल्पनाशीलता, कौशल, निपुणता, उत्कृष्टता, विविधता, मौलिकता और उसमें से मिलने वाले आनन्द को नष्ट कर दिया, एक सर्जक और निर्माता को मजदूर बना दिया । एक और सर्जक नहीं रहा तो दूसरी ओर भावक भी नहीं रहा । यह बहुत बड़ा सांस्कृतिक नुकसान है। स्थिति यहाँ तक पहुँची कि यह सब खोने का खेद भी नहीं रहा । श्रेष्ठ का कनिष्ठ बनाने का यह तरीका है।
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यन्त्रों ने जिस प्रकार एक एक मनुष्य की सर्व प्रकार की शक्तियों का ह्रास किया है उसी प्रकार समाज में भी वर्गों वर्गों में असन्तुलन निर्माण कर दिया है। मालिक और नोकर का भेद तो है ही, काम करवाने वालों और करवाने वालों का भेद तो है ही, काम करने को हेय मानने की वृत्तितो है ही, साथ में जीवन की अनेक सुन्दर और श्रेष्ठ बातों की कीमत पैसे से आँकना भी शुरू हो गया है । नृत्य, गीत, संगीत की कला के जानकार कम हो गये, वै पैसे लेकर ही अपनी कला की प्रस्तुति करते हैं और असंख्य लोग केवल दर्शक और श्रोता बनकर निष्क्रिय मनोरंजन प्राप्त करते हैं । अर्थात् गायक और भावक एक नहीं है । गायक को पैसा मिलता है, सुननेवाले को केवल सुनने का आनन्द मिलता है, गाने का नहीं । गायक और भावक के मध्य में यन्त्र आ गये हैं। अब तो यन्त्रों का दखल इतना बढ़ गया है कि गायक को भी पता नहीं होता कि वह गाता है वह किस रूप में प्रस्तुत होगा। सर्व प्रकार के सृजन और निर्माता का यही हाल हुआ है। यह स्थिति समाज को मानसिक विघटन तक ले जाती है। व्यक्तित्व का विघटन तो इससे होता ही है।
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यन्त्रों ने जिस प्रकार एक एक मनुष्य की सर्व प्रकार की शक्तियों का ह्रास किया है उसी प्रकार समाज में भी वर्गों वर्गों में असन्तुलन निर्माण कर दिया है। मालिक और नोकर का भेद तो है ही, काम करवाने वालों और करवाने वालों का भेद तो है ही, काम करने को हेय मानने की वृत्तितो है ही, साथ में जीवन की अनेक सुन्दर और श्रेष्ठ बातों की कीमत पैसे से आँकना भी आरम्भ हो गया है । नृत्य, गीत, संगीत की कला के जानकार कम हो गये, वै पैसे लेकर ही अपनी कला की प्रस्तुति करते हैं और असंख्य लोग केवल दर्शक और श्रोता बनकर निष्क्रिय मनोरंजन प्राप्त करते हैं । अर्थात् गायक और भावक एक नहीं है । गायक को पैसा मिलता है, सुननेवाले को केवल सुनने का आनन्द मिलता है, गाने का नहीं । गायक और भावक के मध्य में यन्त्र आ गये हैं। अब तो यन्त्रों का दखल इतना बढ़ गया है कि गायक को भी पता नहीं होता कि वह गाता है वह किस रूप में प्रस्तुत होगा। सर्व प्रकार के सृजन और निर्माता का यही हाल हुआ है। यह स्थिति समाज को मानसिक विघटन तक ले जाती है। व्यक्तित्व का विघटन तो इससे होता ही है।
    
भारत की दृष्टि से यह अत्यन्त आत्मघाती कृति है। भारत यन्त्रों का निर्माण और उपयोग करना नहीं जानता है ऐसा तो नहीं है । श्रेष्ठ प्रकार की सुविधायें, कारीगरी, कला, दैनन्दिन उपयोग की वस्तुयें, शिल्प, स्थापत्य आदि के क्षेत्र में उत्कृष्टता और श्रेष्ठता के शिखर भारत ने सर किये हैं। वैभव और उपभोग के मामले में भारत की बराबरी करने वाला अब तक कोई नहीं रहा है। भारत तो क्या इजिप्त के पिरामिड भी स्थापत्य के उत्तम नमूने रहे हैं । इनमें यन्त्रों का प्रयोग हुआ ही है। परन्तु वे व्यक्ति और समाज के लिये विघटनकारी सिद्ध नहीं हुए थे। पश्चिम जब यन्त्रों का आविष्कार और प्रयोग करता है तब उसका परिणाम घातक होता है।
 
भारत की दृष्टि से यह अत्यन्त आत्मघाती कृति है। भारत यन्त्रों का निर्माण और उपयोग करना नहीं जानता है ऐसा तो नहीं है । श्रेष्ठ प्रकार की सुविधायें, कारीगरी, कला, दैनन्दिन उपयोग की वस्तुयें, शिल्प, स्थापत्य आदि के क्षेत्र में उत्कृष्टता और श्रेष्ठता के शिखर भारत ने सर किये हैं। वैभव और उपभोग के मामले में भारत की बराबरी करने वाला अब तक कोई नहीं रहा है। भारत तो क्या इजिप्त के पिरामिड भी स्थापत्य के उत्तम नमूने रहे हैं । इनमें यन्त्रों का प्रयोग हुआ ही है। परन्तु वे व्यक्ति और समाज के लिये विघटनकारी सिद्ध नहीं हुए थे। पश्चिम जब यन्त्रों का आविष्कार और प्रयोग करता है तब उसका परिणाम घातक होता है।

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