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उपर्युक्त फ्लो चार्ट में हम देखते हैं कि तीन प्रकार की प्रणालियाँ हैं। सबकी जड़ में ब्रह्माण्ड है। उससे नि:सृत पृथ्वी तक की एक प्राकृतिक प्रणाली है। इसके बाद बीच में वैश्विक समाज से लेकर व्यक्ति तक की एक मानव निर्मित प्रणाली है। आगे व्यक्ति के शरीर से लेकर कोषिका तक की फिर से एक प्राकृतिक प्रणाली है। इन तीनों प्रणालियों में जो जड़ में (नीचे) है वह ऊपर के घटक का अंगी है। और जो ऊपर है वह नीचे वाले का अंग है। उससे भी ऊपर जो घटक है वह अंग का भी अंग होने से उपांग है। जैसे ब्रह्माण्ड अंगी है और आकाशगंगा अंग है। सूर्यमाला आकाशगंगा का अंग है। आकाशगंगा सूर्यमाला की अंगी है। इस कारण सूर्यमाला ब्रह्माण्ड का उपांग है। जैसे व्यक्ति यह समाज का अंग है। समाज राष्ट्र का अंग है। इसलिए व्यक्ति यह राष्ट्र का उपांग है।  अंग और अंगी संबंध जब होते हैं तब अंगी को अधिक महत्व होता है। वैसे तो दोनों एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। लेकिन अंगी अंग को अधिक प्रभावित करता है। इसलिए अंग से संबंधित कोई भी परिवर्तन अंगी के हित का विरोधी नहीं होना चाहिए। विशेष परिस्थिति में अंगी के हित के लिए अंग के हित से समझौता हो सकता है। जैसे जब मनुष्य के सिर पर चोट आने की सम्भावना मनुष्य देखता है तो सहज ही उसके हाथ सर की रक्षा के लिए आगे बढ जाते हैं। यहाँ शरीर यह अंगी है। और उसके सर, पैर, हाथ, पेट आदि भिन्न भिन्न अवयव अंग हैं। सिर पर चोट आने से भी शरीर की हानि होगी। इसी तरह हाथ को चोट आने से भी शरीर की हानि होगी। लेकिन सिर पर चोट आने से होनेवाली शरीर की हानि और हाथ पर चोट आने से होनेवाली शरीर की हानि में हाथ की चोट से होनेवाली हानि कम है। इसलिए हाथ यह अंत:प्रेरणा से ही सिर की रक्षा के लिए आगे बढ़ते हैं। इसे ही अंगांगी संबंध कहते हैं।   
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उपर्युक्त फ्लो चार्ट में हम देखते हैं कि तीन प्रकार की प्रणालियाँ हैं। सबकी जड़ में ब्रह्माण्ड है। उससे नि:सृत पृथ्वी तक की एक प्राकृतिक प्रणाली है। इसके बाद मध्य में वैश्विक समाज से लेकर व्यक्ति तक की एक मानव निर्मित प्रणाली है। आगे व्यक्ति के शरीर से लेकर कोषिका तक की फिर से एक प्राकृतिक प्रणाली है। इन तीनों प्रणालियों में जो जड़ में (नीचे) है वह ऊपर के घटक का अंगी है। और जो ऊपर है वह नीचे वाले का अंग है। उससे भी ऊपर जो घटक है वह अंग का भी अंग होने से उपांग है। जैसे ब्रह्माण्ड अंगी है और आकाशगंगा अंग है। सूर्यमाला आकाशगंगा का अंग है। आकाशगंगा सूर्यमाला की अंगी है। इस कारण सूर्यमाला ब्रह्माण्ड का उपांग है। जैसे व्यक्ति यह समाज का अंग है। समाज राष्ट्र का अंग है। इसलिए व्यक्ति यह राष्ट्र का उपांग है।  अंग और अंगी संबंध जब होते हैं तब अंगी को अधिक महत्व होता है। वैसे तो दोनों एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। लेकिन अंगी अंग को अधिक प्रभावित करता है। इसलिए अंग से संबंधित कोई भी परिवर्तन अंगी के हित का विरोधी नहीं होना चाहिए। विशेष परिस्थिति में अंगी के हित के लिए अंग के हित से समझौता हो सकता है। जैसे जब मनुष्य के सिर पर चोट आने की सम्भावना मनुष्य देखता है तो सहज ही उसके हाथ सर की रक्षा के लिए आगे बढ जाते हैं। यहाँ शरीर यह अंगी है। और उसके सर, पैर, हाथ, पेट आदि भिन्न भिन्न अवयव अंग हैं। सिर पर चोट आने से भी शरीर की हानि होगी। इसी तरह हाथ को चोट आने से भी शरीर की हानि होगी। लेकिन सिर पर चोट आने से होनेवाली शरीर की हानि और हाथ पर चोट आने से होनेवाली शरीर की हानि में हाथ की चोट से होनेवाली हानि कम है। इसलिए हाथ यह अंत:प्रेरणा से ही सिर की रक्षा के लिए आगे बढ़ते हैं। इसे ही अंगांगी संबंध कहते हैं।   
    
इसी चित्र में अब व्यक्ति, कुटुम्ब और समाज में सम्बन्ध का अब विचार करेंगे। व्यक्तियों का समूह कुटुम्ब है। कुटुम्बों का समूह समाज है। व्यक्ति कुटुम्ब का अंग है। कुटुम्ब व्यक्ति का अंगी है। कुटुम्ब के हित में ही व्यक्ति का हित है। समाज के हित में ही प्रत्येक कुटुम्ब का हित है। जैसा हमने ऊपर देखा की सर, पैर, हाथ, पेट ये सब शरीर के अंग हैं, उसी तरह से ग्राम में रहनेवाले सभी कुटुम्ब ग्राम के अंग हैं। और ग्राम उन सब का अंगी है। किसी एक कुटुम्ब को थोड़ी हानि होने से यदि ग्राम की हानि को रोका जा सकता है तो उस कुटुम्ब ने ग्राम के अंग के रूप में इसे स्वीकार करना चाहिए। इसी में उस कुटुम्ब का भी और ग्राम का भी भला होता है। इसी तरह से बड़ी, जड़ की इकाई के हित में छोटी या ऊस बड़ीपर निर्भर इकाई का व्यवहार होना आवश्यक है। ऐसा होने से अंग और अंगी दोनों लाभान्वित होते हैं।  इसलिए कहा है<ref>चाणक्यनीति तृतीय अध्याय</ref>:<blockquote>त्यजेदेकम् कुलस्यार्थे ग्रामास्यार्थे कुलं त्यजेत् ।</blockquote><blockquote>ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् ।।</blockquote><blockquote>अर्थ : कुल के हित में व्यक्ति के हित को, ग्राम के हित में कुल के हित को, जनपद (जिला) के हित में ग्राम के हिता को और यदि आत्मा का हनन होता है तो पृथिवी का भी त्याग करना चाहिए याने जीवन को भी न्यौछावर कर देना चाहिए। </blockquote>
 
इसी चित्र में अब व्यक्ति, कुटुम्ब और समाज में सम्बन्ध का अब विचार करेंगे। व्यक्तियों का समूह कुटुम्ब है। कुटुम्बों का समूह समाज है। व्यक्ति कुटुम्ब का अंग है। कुटुम्ब व्यक्ति का अंगी है। कुटुम्ब के हित में ही व्यक्ति का हित है। समाज के हित में ही प्रत्येक कुटुम्ब का हित है। जैसा हमने ऊपर देखा की सर, पैर, हाथ, पेट ये सब शरीर के अंग हैं, उसी तरह से ग्राम में रहनेवाले सभी कुटुम्ब ग्राम के अंग हैं। और ग्राम उन सब का अंगी है। किसी एक कुटुम्ब को थोड़ी हानि होने से यदि ग्राम की हानि को रोका जा सकता है तो उस कुटुम्ब ने ग्राम के अंग के रूप में इसे स्वीकार करना चाहिए। इसी में उस कुटुम्ब का भी और ग्राम का भी भला होता है। इसी तरह से बड़ी, जड़ की इकाई के हित में छोटी या ऊस बड़ीपर निर्भर इकाई का व्यवहार होना आवश्यक है। ऐसा होने से अंग और अंगी दोनों लाभान्वित होते हैं।  इसलिए कहा है<ref>चाणक्यनीति तृतीय अध्याय</ref>:<blockquote>त्यजेदेकम् कुलस्यार्थे ग्रामास्यार्थे कुलं त्यजेत् ।</blockquote><blockquote>ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् ।।</blockquote><blockquote>अर्थ : कुल के हित में व्यक्ति के हित को, ग्राम के हित में कुल के हित को, जनपद (जिला) के हित में ग्राम के हिता को और यदि आत्मा का हनन होता है तो पृथिवी का भी त्याग करना चाहिए याने जीवन को भी न्यौछावर कर देना चाहिए। </blockquote>

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