इसी चित्र में अब व्यक्ति, कुटुम्ब और समाज में सम्बन्ध का अब विचार करेंगे। व्यक्तियों का समूह कुटुम्ब है। कुटुम्बों का समूह समाज है। व्यक्ति कुटुम्ब का अंग है। कुटुम्ब व्यक्ति का अंगी है। कुटुम्ब के हित में ही व्यक्ति का हित है। समाज के हित में ही प्रत्येक कुटुम्ब का हित है। जैसा हमने ऊपर देखा की सर, पैर, हाथ, पेट ये सब शरीर के अंग हैं, उसी तरह से ग्राम में रहनेवाले सभी कुटुम्ब ग्राम के अंग हैं। और ग्राम उन सब का अंगी है। किसी एक कुटुम्ब को थोड़ी हानि होने से यदि ग्राम की हानि को रोका जा सकता है तो उस कुटुम्ब ने ग्राम के अंग के रूप में इसे स्वीकार करना चाहिए। इसी में उस कुटुम्ब का भी और ग्राम का भी भला होता है। इसी तरह से बड़ी, जड़ की इकाई के हित में छोटी या ऊस बड़ीपर निर्भर इकाई का व्यवहार होना आवश्यक है। ऐसा होने से अंग और अंगी दोनों लाभान्वित होते हैं। इसलिए कहा है<ref>चाणक्यनीति तृतीय अध्याय</ref>:<blockquote>त्यजेदेकम् कुलस्यार्थे ग्रामास्यार्थे कुलं त्यजेत् ।</blockquote><blockquote>ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् ।।</blockquote><blockquote>अर्थ : कुल के हित में व्यक्ति के हित को, ग्राम के हित में कुल के हित को, जनपद (जिला) के हित में ग्राम के हिता को और यदि आत्मा का हनन होता है तो पृथिवी का भी त्याग करना चाहिए याने जीवन को भी न्यौछावर कर देना चाहिए। </blockquote> | इसी चित्र में अब व्यक्ति, कुटुम्ब और समाज में सम्बन्ध का अब विचार करेंगे। व्यक्तियों का समूह कुटुम्ब है। कुटुम्बों का समूह समाज है। व्यक्ति कुटुम्ब का अंग है। कुटुम्ब व्यक्ति का अंगी है। कुटुम्ब के हित में ही व्यक्ति का हित है। समाज के हित में ही प्रत्येक कुटुम्ब का हित है। जैसा हमने ऊपर देखा की सर, पैर, हाथ, पेट ये सब शरीर के अंग हैं, उसी तरह से ग्राम में रहनेवाले सभी कुटुम्ब ग्राम के अंग हैं। और ग्राम उन सब का अंगी है। किसी एक कुटुम्ब को थोड़ी हानि होने से यदि ग्राम की हानि को रोका जा सकता है तो उस कुटुम्ब ने ग्राम के अंग के रूप में इसे स्वीकार करना चाहिए। इसी में उस कुटुम्ब का भी और ग्राम का भी भला होता है। इसी तरह से बड़ी, जड़ की इकाई के हित में छोटी या ऊस बड़ीपर निर्भर इकाई का व्यवहार होना आवश्यक है। ऐसा होने से अंग और अंगी दोनों लाभान्वित होते हैं। इसलिए कहा है<ref>चाणक्यनीति तृतीय अध्याय</ref>:<blockquote>त्यजेदेकम् कुलस्यार्थे ग्रामास्यार्थे कुलं त्यजेत् ।</blockquote><blockquote>ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् ।।</blockquote><blockquote>अर्थ : कुल के हित में व्यक्ति के हित को, ग्राम के हित में कुल के हित को, जनपद (जिला) के हित में ग्राम के हिता को और यदि आत्मा का हनन होता है तो पृथिवी का भी त्याग करना चाहिए याने जीवन को भी न्यौछावर कर देना चाहिए। </blockquote> |