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'''<u><big>पुरी (जगन्नाथपुरी)</big></u>'''
 
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उड़ीसा में गंगासागर तटपर स्थित जगन्नाथपुरी शैव, वैष्णव और बौद्ध, तीनों सम्प्रदायों के भक्तों का श्रद्धा-केंद्र है और पूरे वर्षभर प्रतिदिन सहस्त्रों लोग यहाँ दर्शनार्थ पहुँचते हैं। यह परमेश्वर के चार पावन धामों में से एक है। जगदगुरु शंकराचार्य का गोवर्धन मठ तथा चैतन्य महाप्रभु मठ भी पुरी में है। विख्यात जगन्नाथ मन्दिर करोड़ो लोगों का श्रद्धा-केंद्र है जिसे पुराणों में पुरुषोत्तम तीर्थ कहा गया है। वर्तमान जगन्नाथ मन्दिर 12 वीं शताब्दी में अनन्तचोल गंग नामक गंगवंशीय राजा ने बनवाया था, किन्तु ब्रह्मपुराण और स्कन्दपुराण के अनुसार (इस से पूर्व) यहाँ उज्जयिनी-नरेश इन्द्रद्युम्न ने मन्दिर-निर्माण कराया था। इस मंदिर में श्रीकृष्ण, बलरामऔरसुभद्रा की काष्ठ-मूतियाँ हैं। जगन्नाथ के महान् रथ की यात्रा भारत की एक प्रमुख यात्रा मानी जाती है। लाखों लोग भगवान् जगन्नाथ के रथ को खींचकर चलाते हैं। इस तीर्थ की एक विशेषता यह है कि यहाँ जाति-पाँति के छुआछुत का भेदभाव नहीं माना जाता। लोकोक्ति प्रसिद्ध है- 'जगत्राथ' का भात, जगत् पसारे हाथ, पूछेजात न पात।' पुरी के सिद्धि विनायक मन्दिर की विनायक मूर्ति मूर्तिकला की दृष्टि से भी दर्शनीय कृति है।  
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उड़ीसा में गंगासागर तटपर स्थित जगन्नाथपुरी शैव, वैष्णव और बौद्ध, तीनों सम्प्रदायों के भक्तों का श्रद्धा-केंद्र है और पूरे वर्षभर प्रतिदिन सहस्त्रों लोग यहाँ दर्शनार्थ पहुँचते हैं। यह परमेश्वर के चार पावन धामों में से एक है। जगदगुरु शंकराचार्य का गोवर्धन मठ तथा चैतन्य महाप्रभु मठ भी पुरी में है। विख्यात जगन्नाथ मन्दिर करोड़ो लोगों का श्रद्धा-केंद्र है जिसे पुराणों में पुरुषोत्तम तीर्थ कहा गया है। वर्तमान जगन्नाथ मन्दिर 12 वीं शताब्दी में अनन्तचोल गंग नामक गंगवंशीय राजा ने बनवाया था, किन्तु ब्रह्मपुराण और स्कन्दपुराण के अनुसार (इस से पूर्व) यहाँ उज्जयिनी-नरेश इन्द्रद्युम्न ने मन्दिर-निर्माण कराया था। इस मंदिर में श्रीकृष्ण, बलरामऔरसुभद्रा की काष्ठ-मूतियाँ हैं। जगन्नाथ के महान् रथ की यात्रा भारत की एक प्रमुख यात्रा मानी जाती है। लाखों लोग भगवान् जगन्नाथ के रथ को खींचकर चलाते हैं। इस तीर्थ की एक विशेषता यह है कि यहाँ जाति-पाँति के छुआछुत का भेदभाव नहीं माना जाता। लोकोक्ति प्रसिद्ध है- 'जगतराथ' का भात, जगत पसारे हाथ, पूछेजात न पात।' पुरी के सिद्धि विनायक मन्दिर की विनायक मूर्ति मूर्तिकला की दृष्टि से भी दर्शनीय कृति है।  
    
'''<u><big>तक्षशिला</big></u>'''  
 
'''<u><big>तक्षशिला</big></u>'''  
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'''<u><big>व्यास</big></u>'''  
 
'''<u><big>व्यास</big></u>'''  
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आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा का दिन व्यास-पूजा अर्थात् गुरुपूजा-दिवस के रूप में मनाया जाता है। मान्यता है कि प्रत्येक मन्वन्तर में भगवान्विष्णु'व्यास' अवतारग्रहण कर वेदों का उद्धार करते हैं। आज तक 28 व्यासावतार हुए हैं। प्रचलित वैवस्वत मन्वन्तर में कृष्ण-द्वैपायन व्यास का आविर्भाव हुआ। पराशर और सत्यवती के पुत्र कृष्ण-द्वैपायन व्यास ने 18 पुराणों की रचना की और अपने कुछ शिष्यों को वेदों का ज्ञान प्रदान कर उनके द्वारा उन्होंने वेदों की भिन्न-भिन्न शाखाओं का विस्तार कराया,ब्रह्मसूत्रों की रचना कर उपनिषदों का रहस्य जगत् के सामने रखा, महाभारत जैसे अत्युत्कृष्ट महाकाव्य की रचना की जिसमें भारतीय संस्कृति को सुन्दर आख्यानों-उपाख्यानों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। नारद की आज्ञा से भक्तिरसपूर्ण श्रीमद्भागवत ग्रंथ का प्रणयन कर उन्होंने मन:शान्ति प्राप्त की। व्यास ने वैदिक संस्कृति की परम्परा को सुरक्षित रखने के लिए वेदों के तत्वों को विविध माध्यमों से लोक में प्रचारित किया।  
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आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा का दिन व्यास-पूजा अर्थात् गुरुपूजा-दिवस के रूप में मनाया जाता है। मान्यता है कि प्रत्येक मन्वन्तर में भगवान्विष्णु'व्यास' अवतारग्रहण कर वेदों का उद्धार करते हैं। आज तक 28 व्यासावतार हुए हैं। प्रचलित वैवस्वत मन्वन्तर में कृष्ण-द्वैपायन व्यास का आविर्भाव हुआ। पराशर और सत्यवती के पुत्र कृष्ण-द्वैपायन व्यास ने 18 पुराणों की रचना की और अपने कुछ शिष्यों को वेदों का ज्ञान प्रदान कर उनके द्वारा उन्होंने वेदों की भिन्न-भिन्न शाखाओं का विस्तार कराया,ब्रह्मसूत्रों की रचना कर उपनिषदों का रहस्य जगत के सामने रखा, महाभारत जैसे अत्युत्कृष्ट महाकाव्य की रचना की जिसमें भारतीय संस्कृति को सुन्दर आख्यानों-उपाख्यानों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। नारद की आज्ञा से भक्तिरसपूर्ण श्रीमद्भागवत ग्रंथ का प्रणयन कर उन्होंने मन:शान्ति प्राप्त की। व्यास ने वैदिक संस्कृति की परम्परा को सुरक्षित रखने के लिए वेदों के तत्वों को विविध माध्यमों से लोक में प्रचारित किया।  
    
'''<u><big>वसिष्ठ</big></u>'''
 
'''<u><big>वसिष्ठ</big></u>'''
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'''<big>बुद्ध</big>'''  
 
'''<big>बुद्ध</big>'''  
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बौद्ध मत के अनुसार सत्यज्ञान (बोध) – प्राप्त महापुरुष,जिनको बुद्ध कहा जाता है,अनेक हुए हैं। वर्तमान बौद्ध मत ('धर्मचक्र') के प्रवर्तक गौतमबुद्ध का बोध प्राप्त करने से पूर्व का नाम सिद्धार्थ था। इनका जन्म कपिलवस्तु में शाक्यगण-प्रमुख राजा शुद्धोदन के घर हुआ था। जगत् के जीवों के दु:खों से द्रवित होकर तीस वर्ष की युवावस्था में सिद्धार्थ अपनी पत्नी यशोधरा,पुत्र राहुल और राजप्रासाद के सुख-आराम को छोड़कर शांति की खोज में निकल पड़े। कई वर्षतक घोर तप करने पर भी उन्हें शांति नहीं मिली। अन्त में गया के समीप पिप्पलिवन में एक पीपल के नीचे जब वे ध्यानमग्न थे,उन्हें बोध (ज्ञान) प्राप्त हुआ। उन्होंने अपना प्रथम उपदेश वाराणसी के समीप सारनाथ में दिया। अब वे 'बुद्ध' कहलाने लगे और जिस वृक्ष के नीचे उन्हें बोध प्राप्त हुआ था वह'बोधिवृक्ष' कहलाया। दार्शनिक वाद- विवाद में न पड़कर वेदु:खनिवृत्ति के मार्ग पर बल देते थे। उन्होंने चार आर्य सत्यों, अष्टांग मध्यम मार्ग, अहिंसा और करुणा का उपदेश दिया। अपने बताये मार्ग का प्रचार करने के लिए उन्होंने अनुयायी भिक्षुओं और भिक्षुणियों का संघ स्थापित किया। उनके उपदेशों का व्यापक प्रभाव पड़ा और बौद्धमत भारत तथा अन्य अनेक देशों में फैल गया। अस्सी वर्ष की आयु में कुशीनगर में उनका देहान्त हुआ। जातक ग्रंथों में बुद्ध के पूर्व-जन्मों की कथाएँ हैं। बौद्ध मतानुसार आगे भविष्य में भी अनेक बुद्ध होंगे।  
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बौद्ध मत के अनुसार सत्यज्ञान (बोध) – प्राप्त महापुरुष,जिनको बुद्ध कहा जाता है,अनेक हुए हैं। वर्तमान बौद्ध मत ('धर्मचक्र') के प्रवर्तक गौतमबुद्ध का बोध प्राप्त करने से पूर्व का नाम सिद्धार्थ था। इनका जन्म कपिलवस्तु में शाक्यगण-प्रमुख राजा शुद्धोदन के घर हुआ था। जगत के जीवों के दु:खों से द्रवित होकर तीस वर्ष की युवावस्था में सिद्धार्थ अपनी पत्नी यशोधरा,पुत्र राहुल और राजप्रासाद के सुख-आराम को छोड़कर शांति की खोज में निकल पड़े। कई वर्षतक घोर तप करने पर भी उन्हें शांति नहीं मिली। अन्त में गया के समीप पिप्पलिवन में एक पीपल के नीचे जब वे ध्यानमग्न थे,उन्हें बोध (ज्ञान) प्राप्त हुआ। उन्होंने अपना प्रथम उपदेश वाराणसी के समीप सारनाथ में दिया। अब वे 'बुद्ध' कहलाने लगे और जिस वृक्ष के नीचे उन्हें बोध प्राप्त हुआ था वह'बोधिवृक्ष' कहलाया। दार्शनिक वाद- विवाद में न पड़कर वेदु:खनिवृत्ति के मार्ग पर बल देते थे। उन्होंने चार आर्य सत्यों, अष्टांग मध्यम मार्ग, अहिंसा और करुणा का उपदेश दिया। अपने बताये मार्ग का प्रचार करने के लिए उन्होंने अनुयायी भिक्षुओं और भिक्षुणियों का संघ स्थापित किया। उनके उपदेशों का व्यापक प्रभाव पड़ा और बौद्धमत भारत तथा अन्य अनेक देशों में फैल गया। अस्सी वर्ष की आयु में कुशीनगर में उनका देहान्त हुआ। जातक ग्रंथों में बुद्ध के पूर्व-जन्मों की कथाएँ हैं। बौद्ध मतानुसार आगे भविष्य में भी अनेक बुद्ध होंगे।  
    
'''<big>जिनेन्द्र</big>'''
 
'''<big>जिनेन्द्र</big>'''
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'''<big>निम्बाकाचार्य</big>'''  
 
'''<big>निम्बाकाचार्य</big>'''  
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आन्ध्र में गोदावरी-तट पर वैदूर्यपत्तन के पास निम्बार्क का आविर्भाव हुआ। ये द्वैताद्वैत मत के प्रवक्ता थे, जिसके अनुसार जीव और जगत् ब्रह्म से भिन्न भी हैं और अभिन्न भी। दक्षिण में जन्मे निम्बाकाचार्य मथुरा के समीप ध्रुव क्षेत्र मे आश्रम बनाकर रहते थे। वेदान्त-पारिजात-सौरभ इनका वेदान्त सूत्रों पर लिखा भाष्य है। इन्होंने प्रस्थानक्रयी के स्थान पर प्रस्थानचतुष्ट्य को प्रधान माना और उसमें से चौथे प्रस्थान श्रीमद्भागवत को ही परम प्रमाण स्वीकार किया। भारतीय भाषाओंमें मध्य-काल में रचे गये वैष्णव भक्ति-साहित्य पर निम्बाकाचार्य के मत का बहुत प्रभाव पड़ा है।  
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आन्ध्र में गोदावरी-तट पर वैदूर्यपत्तन के पास निम्बार्क का आविर्भाव हुआ। ये द्वैताद्वैत मत के प्रवक्ता थे, जिसके अनुसार जीव और जगत ब्रह्म से भिन्न भी हैं और अभिन्न भी। दक्षिण में जन्मे निम्बाकाचार्य मथुरा के समीप ध्रुव क्षेत्र मे आश्रम बनाकर रहते थे। वेदान्त-पारिजात-सौरभ इनका वेदान्त सूत्रों पर लिखा भाष्य है। इन्होंने प्रस्थानक्रयी के स्थान पर प्रस्थानचतुष्ट्य को प्रधान माना और उसमें से चौथे प्रस्थान श्रीमद्भागवत को ही परम प्रमाण स्वीकार किया। भारतीय भाषाओंमें मध्य-काल में रचे गये वैष्णव भक्ति-साहित्य पर निम्बाकाचार्य के मत का बहुत प्रभाव पड़ा है।  
    
'''<big>रामानुजाचार्य (युगाब्द 4118-4237)</big>'''  
 
'''<big>रामानुजाचार्य (युगाब्द 4118-4237)</big>'''  

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