− | यह पूर्णमंत्र इस प्रकार है<ref>Krishna Yajurveda Taittiriya Upanishad (2.2.2)</ref>:<blockquote>'ॐ सहनाववतु ॥१॥ </blockquote><blockquote>सहनौ भुनक्तु ॥२॥</blockquote><blockquote>सह वीर्यं करवावहै ॥३॥ </blockquote><blockquote>तेजस्विना वधीतमस्तु ।।४ ॥ </blockquote><blockquote>मा विद्विषावहै ॥५॥</blockquote>मंत्र का शब्दशः अर्थ यह है - ॐ रूपी ब्रह्म या ईश्वर हम दोनों (गुरु और शिष्य) पर एक साथ कृपा करे, हमारा रक्षण अथवा पालन करे, हम दोनों साथ मिलकर प्रयत्न करें, हमारा अध्ययन तेजस्वी बनें, हम दोनों परस्पर द्वेष न करें । अब, इस मंत्र का विस्तार से विचार करते हैं । ॐ यह अक्षर ब्रह्म का परिचायक है । ॐ एकाक्षर ब्रह्म है । ब्रह्म ही परमोच्च ईश्वर है यह कहना सर्वथा उचित है । ब्रह्म अथवा ईश्वर ही जगत् का अन्तिम एवं श्रेष्ठ तत्त्व है । उसने ही इस विश्व का सृजन किया है । ईश्वर ही इस जगत् का सृजक, पालक एवं संहारक है । हम सब यह कहते ही हैं कि “यह सब ईश्वर की लीला है।' सब कुछ ईश्वर की इच्छा से होता है । मनुष्य की इच्छानुसार सब कुछ होता है ऐसा नहीं है । ईश्वर के मन में जो होता है वही बनता है । ईश्वर की इच्छा अनुकूल होने पर ही मनुष्य का भला होता है । इसलिए सर्वसमर्थ ईश्वर की कृपा हम दोनों को प्राप्त हो ऐसी अपेक्षा गुरु एवं शिष्य प्रथम वाक्य में व्यक्त करते हैं । ईश्वर की कृपा गुरु और शिष्य दोनों पर होनी आवश्यक है । अकेले गुरु अथवा अकेले शिष्य पर होगी तो नहीं चलेगा । ईश्वर की कृपा होने के पश्चात् ही गुरु और शिष्य प्रसन्न मन से अध्ययन अध्यापन कार्य प्रारम्भ कर सकते हैं । | + | यह पूर्णमंत्र इस प्रकार है<ref>Krishna Yajurveda Taittiriya Upanishad (2.2.2)</ref>:<blockquote>'ॐ सहनाववतु ॥१॥ </blockquote><blockquote>सहनौ भुनक्तु ॥२॥</blockquote><blockquote>सह वीर्यं करवावहै ॥३॥ </blockquote><blockquote>तेजस्विना वधीतमस्तु ।।४ ॥ </blockquote><blockquote>मा विद्विषावहै ॥५॥</blockquote>मंत्र का शब्दशः अर्थ यह है - ॐ रूपी ब्रह्म या ईश्वर हम दोनों (गुरु और शिष्य) पर एक साथ कृपा करे, हमारा रक्षण अथवा पालन करे, हम दोनों साथ मिलकर प्रयत्न करें, हमारा अध्ययन तेजस्वी बनें, हम दोनों परस्पर द्वेष न करें । अब, इस मंत्र का विस्तार से विचार करते हैं । ॐ यह अक्षर ब्रह्म का परिचायक है । ॐ एकाक्षर ब्रह्म है । ब्रह्म ही परमोच्च ईश्वर है यह कहना सर्वथा उचित है । ब्रह्म अथवा ईश्वर ही जगत का अन्तिम एवं श्रेष्ठ तत्त्व है । उसने ही इस विश्व का सृजन किया है । ईश्वर ही इस जगत का सृजक, पालक एवं संहारक है । हम सब यह कहते ही हैं कि “यह सब ईश्वर की लीला है।' सब कुछ ईश्वर की इच्छा से होता है । मनुष्य की इच्छानुसार सब कुछ होता है ऐसा नहीं है । ईश्वर के मन में जो होता है वही बनता है । ईश्वर की इच्छा अनुकूल होने पर ही मनुष्य का भला होता है । इसलिए सर्वसमर्थ ईश्वर की कृपा हम दोनों को प्राप्त हो ऐसी अपेक्षा गुरु एवं शिष्य प्रथम वाक्य में व्यक्त करते हैं । ईश्वर की कृपा गुरु और शिष्य दोनों पर होनी आवश्यक है । अकेले गुरु अथवा अकेले शिष्य पर होगी तो नहीं चलेगा । ईश्वर की कृपा होने के पश्चात् ही गुरु और शिष्य प्रसन्न मन से अध्ययन अध्यापन कार्य प्रारम्भ कर सकते हैं । |