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शास्त्रा अनुसार एवं शास्त्र अनुरूप  सम्पूर्ण कार्यो को करना सदाचार है। संयम, ब्रह्मचर्य का पालन, ज्ञान अर्जित करना , माता-पिता-आचार्य एवं गुरुजनों की सेवा एवं ईश्वर की आराधना इत्यादि सभी शास्त्र अंतर्गत होने के कारण सदाचार के अन्तर्गत आ जाते हैं। इसलिये बालकों के हित के विस्तार पर अलग-अलग विचार किया जाता है और  भी बहुत-सी बातें बालको के लिये उपयोगी हैं, जिनमेंसे यहाँ सदाचार के भाव से कुछ बताई जाती हैं। बालकों को प्रथम आचार की ओर ध्यान देना चाहिये,क्योंकि आचार से ही सारे धर्मो की उत्पत्ति होती है।
 
शास्त्रा अनुसार एवं शास्त्र अनुरूप  सम्पूर्ण कार्यो को करना सदाचार है। संयम, ब्रह्मचर्य का पालन, ज्ञान अर्जित करना , माता-पिता-आचार्य एवं गुरुजनों की सेवा एवं ईश्वर की आराधना इत्यादि सभी शास्त्र अंतर्गत होने के कारण सदाचार के अन्तर्गत आ जाते हैं। इसलिये बालकों के हित के विस्तार पर अलग-अलग विचार किया जाता है और  भी बहुत-सी बातें बालको के लिये उपयोगी हैं, जिनमेंसे यहाँ सदाचार के भाव से कुछ बताई जाती हैं। बालकों को प्रथम आचार की ओर ध्यान देना चाहिये,क्योंकि आचार से ही सारे धर्मो की उत्पत्ति होती है।
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महाभारतअनुशासन पर्व के अध्याय १४९में भीष्मजीने कहा है-<blockquote>सर्वागमानामाचारः प्रथम परिकल्पते।</blockquote><blockquote>आचारप्रभवो धर्मो धर्मस्य प्रभुरच्युतः ।|</blockquote>सभी शास्त्रों के अनुसार सबसे पहले आचार के बारे में प्रमुख रूप से बताया जाता है | आचार से ही धर्म की उत्पत्ति होती है और धर्म के प्रभु श्री सचिदानंद भगवान् हैं।'इस आचार के मुख्य दो रूप हैं-शौचाचार और सदाचार। जल और मिट्टी आदि से शरीर को तथा भोजन,
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महाभारतअनुशासन पर्व के अध्याय १४९में भीष्मजीने कहा है-<blockquote>सर्वागमानामाचारः प्रथम परिकल्पते।</blockquote><blockquote>आचारप्रभवो धर्मो धर्मस्य प्रभुरच्युतः ।|</blockquote>सभी शास्त्रों के अनुसार सबसे पहले आचार के बारे में प्रमुख रूप से बताया जाता है | आचार से ही धर्म की उत्पत्ति होती है और धर्म के प्रभु श्री सचिदानंद भगवान् हैं।'इस आचार के मुख्य दो रूप हैं-शौचाचार और सदाचार। जल, मिट्टी और अन्य साधनों से शरीर को स्वच्छ करना तथा भोजन, वस्त्र, घर और बर्तन आदि को शास्त्र के दिए हुए नियमो द्वारा साफ रखना शौचाचार है।
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सभी लोगो के साथ योग्य व्यवहार करना एवं शास्त्रोक्त पद्धति  उत्तम
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कर्मोंका आचरण करना
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सदाचार है। इससे दुर्गुण और
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दुराचारोंका नाश होकर बाहर और भीतरकी पवित्रता होती
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है तथा सद्गुणोंका आविर्भाव होता है।
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प्रथम प्रात:काल सूर्योदयसे पूर्व उठकर शौच*-स्नान
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करना चाहिये। फिर नित्यकर्म करके बड़ोंके चरणोंमें प्रणाम
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करना चाहिये। इसके बाद शरीरकी आरोग्यता एवं बलकी
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वृद्धिके लिये पश्चिमोत्तान, शीर्षासन, विपरीतकरणी आदि
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आसन एवं व्यायाम करना चाहिये। फिर दुग्धपान करके
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विद्याका अभ्यास करें। आसन और व्यायाम सायंकाल करनेकी
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इच्छा हो तो बिना दुग्धपान किये ही विद्याभ्यास करें।
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विद्या पढ़नेके बाद दिनके दूसरे पहरमें ठीक समयपर
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आचमन करके सावधानीके साथ पवित्र और सात्त्विक भोजन
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करें।
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यह खयाल रखना चाहिये कि भूखसे अधिक भोजन
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कभी न किया जाय। मनुजी कहते हैं-
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<nowiki>*</nowiki> मल त्याग करके तीन बार मृत्तिकासहित जलसे गुदा धोवे, फिर
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जबतक दुर्गन्ध एवं चिकनाई रहे तबतक केवल जलसे धोवे। मल या मूत्रके
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त्याग करनेके बाद उपस्थको भी जलसे धोवे। मल त्यागनेके बाद मृत्तिका लेकर
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दस बार बायें हाथको और सात बार दोनों हार्थोको मिलाकर धोना चाहिये।
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जलसे मृत्तिकासहित पैरोंको एक बार तथा पात्रको तीन बार धोना चाहिये। हाथ
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और पैर धोनेके उपरान्त मुखके सारे छिद्रोंको धोकर दातुन करके कम-से-कम
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बारह कुल्ले करने चाहिये।
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