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| == कुटुम्ब एकात्मता का प्रारम्भ बिन्दु == | | == कुटुम्ब एकात्मता का प्रारम्भ बिन्दु == |
− | परमात्मा ने जब विश्वरूप धारण किया तब सर्वप्रथम वह स्त्रीधारा और पुरुषधारा में विभाजित हुआ । इस | + | परमात्मा ने जब विश्वरूप धारण किया तब सर्वप्रथम वह स्त्रीधारा और पुरुषधारा में विभाजित हुआ । इस स्त्रीधारा और पुरुषधारा का युग्म बना । दोनों साथ मिलकर पूर्ण हुए और सृष्टि के सृजन का प्रारम्भ हुआ । इस युग्म की द्वंद्वात्मकता सृष्टि के हर अस्तित्व का प्रमुख लक्षण है । दो में से किसी एक से सृजन नहीं होता है । दोनों अकेले अधूरे हैं, दो मिलकर पूर्ण होते हैं, एक होते हैं । दो में से कोई एक मुख्य और दूसरा गौण नहीं होता है, दोनों बराबर होते हैं । दोनों एक सिक्के के दो पक्ष के समान सम्पृक्त हैं, अलग नहीं हो सकते हैं । दो जब एक बनकर सृजन करते हैं तब सृष्ट पदार्थ भी दोनों तत्त्वों से युक्त होता है । द्वंद्व का एकात्म स्वरूप ही सृजन करता है । |
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− | स्त्रीधारा और पुरुषधारा का युग्म बना । दोनों साथ मिलकर
| + | संसार में एकदूसरे से सर्वथा अपरिचित स्त्री और पुरुष विवाहसंस्कार से बद्ध होकर पतिपत्नी बनते हैं तब यही द्वंद्वात्मकता और एकात्मकता साकार होती है । सृष्टि की स्त्रीधारा पत्नी में और पुरुषधारा पति में होती है । दोनों एकात्म सम्बन्ध से जुड़ते हैं और सन्तान को जन्म देते हैं । सन्तान में माता और पिता दोनों एकात्म रूप में ही होते हैं। सृष्टि परमात्मा से निःसृत हुई, अब उसे परमात्मा में विलीन होना है । यह यात्रा एकात्मता की यात्रा है जिसका प्रारम्भ पति-पत्नी की एकात्मता से होता है । यह एकात्म सम्बन्ध का प्रारम्भ दो से एक बनने का है । शारीरिक से आत्मिक स्तर तक की एकात्मता पतिपत्नी के सम्बन्ध में कल्पित और अपेक्षित की गई है । इसलिये पतिपत्नी दो नहीं, एक ही माने जाते हैं । पतिपत्नी कुट्म्ब का केन्द्रबिन्दु हैं । ये दो केन्द्र नहीं, एक ही हैं । संकल्पना का यह एक केन्द्र व्यवस्था में भी साकार होता है । जगत के किसी भी कार्य में पतिपत्नी साथ साथ ही होते हैं । सन्तान को दोनों मिलकर जन्म देते हैं, यज्ञ या पूजा जैसा अनुष्ठान दोनों मिलकर ही कर सकते हैं, रानी के बिना राजा का राज्याभिषेक नहीं हो सकता, कन्यादान अकेला पिता या अकेली माता नहीं कर सकती । पतिपत्नी एकदूसरे के पापपुण्य में समान रूप से हिस्सेदार होते हैं । एक का पाप दूसरे को लगता है और पुण्य भी दूसरे को मिलता है । पतिपत्नी के सम्बन्ध का विस्तार जन्मजन्मान्तर में भी होने की कल्पना की गई है । भारतीय मानस को यह कल्पना बहुत प्रिय है । दो में से किसी एक को संन्यासी होना है तो दूसरे की अनुमति और सहमति के बिना नहीं हो सकता । इस एकात्म सम्बन्ध की संकल्पना के कारण ही विवाहविच्छेद् को भारतीय मानस में स्वीकृति नहीं है । पति-पत्नी के सम्बन्ध का वर्तमान कानूनी स्वरूप इस गहराई की तुलना में बहुत छिछला है । यह छिछलापन कुट्म्ब में, विद्यालय में और समाज में जब उचित शिक्षा नहीं मिलती इस कारण से है । साथ ही विपरीत शिक्षा मिलती है और संकट निर्माण होते हैं यह भी वास्तविकता है । परन्तु सर्व प्रकार से रक्षा करने लायक यह तत्त्व है । |
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− | पूर्ण हुए और सृष्टि के सृजन का प्रारम्भ हुआ । इस युग्म
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− | की ट्रन्द्रात्मकता सृष्टि के हर अस्तित्व का प्रमुख लक्षण है ।
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− | दो में से किसी एक से सृजन नहीं होता है । दोनों अकेले
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− | अधूरे हैं, दो मिलकर पूर्ण होते हैं, एक होते हैं । दो में से
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− | कोई एक मुख्य और दूसरा गौण नहीं होता है, दोनों बराबर
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− | होते हैं । दोनों एक सिक्के के दो पक्ष के समान सम्पृक्त हैं,
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− | अलग नहीं हो सकते हैं । दो जब एक बनकर सृजन करते
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− | हैं तब सृष्ट पदार्थ भी दोनों तत्त्वों से युक्त होता है । ट्रन्द्र का
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− | एकात्म स्वरूप ही सृजन करता है ।
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− | संसार में एकदूसरे से सर्वथा अपरिचित स्त्री और पुरुष | |
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− | विवाहसंस्कार से बद्ध होकर पतिपत्नी बनते हैं तब यही | |
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− | Geta sk varia साकार होती है । सृष्टि की
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− | श्९२
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− | स्त्रीधारा पत्नी में और पुरुषधारा पति में होती है । दोनों | |
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− | एकात्म सम्बन्ध से जुड़ते हैं और सन्तान को जन्म देते हैं । | |
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− | सन्तान में माता और पिता दोनों एकात्म रूप में ही होते | |
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− | हैं। | |
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− | सृष्टि परमात्मा से निःसृत हुई, अब उसे परमात्मा में | |
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− | विलीन होना है । यह यात्रा एकात्मता की यात्रा है जिसका | |
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− | प्रारम्भ पति-पत्नी की एकात्मता से होता है । यह एकात्म | |
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− | सम्बन्ध का प्रारम्भ दो से एक बनने का है । शारीरिक से | |
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− | आत्मिक स्तर तक की एकात्मता पतिपत्नी के सम्बन्ध में | |
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− | कल्पित और अपेक्षित की गई है । इसलिये पतिपत्नी दो | |
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− | नहीं, एक ही माने जाते हैं । | |
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− | पतिपत्नी कुट्म्ब का केन्द्रबिन्दु हैं । ये दो केन्द्र नहीं, | |
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− | एक ही हैं । संकल्पना का यह एक केन्द्र व्यवस्था में भी | |
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− | साकार होता है । Herat के किसी भी कार्य में पतिपत्नी | |
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− | साथ साथ ही होते हैं । सन्तान को दोनों मिलकर जन्म देते | |
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− | हैं, यज्ञ या पूजा जैसा अनुष्ठान दोनों मिलकर ही कर सकते | |
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− | हैं, रानी के बिना राजा का राज्याभिषेक नहीं हो सकता, | |
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− | कन्यादान अकेला पिता या अकेली माता नहीं कर सकती । | |
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− | पतिपत्नी एकदूसरे के पापपुण्य में समान रूप से हिस्सेदार | |
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− | होते हैं । एक का पाप दूसरे को लगता है और पुण्य भी | |
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− | दूसरे को मिलता है । पतिपत्नी के सम्बन्ध का विस्तार | |
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− | जन्मजन्मान्तर में भी होने की कल्पना की गई है । भारतीय | |
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− | मानस को यह कल्पना बहुत प्रिय है । दो में से किसी एक | |
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− | को संन्यासी होना है तो दूसरे की अनुमति और सहमति के | |
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− | बिना नहीं हो सकता । इस एकात्म सम्बन्ध की संकल्पना | |
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− | के कारण ही विवाहविच्छेद् को भारतीय मानस में स्वीकृति | |
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− | नहीं है । पति-पत्नी के सम्बन्ध का वर्तमान कानूनी स्वरूप | |
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− | इस गहराई की तुलना में बहुत छिछला है । यह छिछलापन | |
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− | कुट्म्ब में, विद्यालय में और समाज में जब उचित शिक्षा | |
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− | नहीं मिलती इस कारण से है । साथ ही विपरीत शिक्षा | |
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− | पर्व ५ : कुटुम्बशिक्षा एवं लोकशिक्षा
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− | मिलती है और संकट निर्माण होते हैं यह भी वास्तविकता | |
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− | है । परन्तु सर्व प्रकार से रक्षा करने लायक यह तत्त्व है । | |
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| == कुटुम्ब की धुरी स्त्री है == | | == कुटुम्ब की धुरी स्त्री है == |
− | ‘a We गृहमित्याहु: गृहिणी गृहमुच्यते' यह कथन
| + | "न गृहं गृहमित्याहु गृहिणी गृहमुच्यते" |
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− | सर्वपरिचित है । गृहिणी का अर्थ है गृह का मूर्त स्त्रीरूप । | + | यह कथन सर्वपरिचित है । गृहिणी का अर्थ है गृह का मूर्त स्त्रीरूप । |
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| इस स्त्रीलिंगी संज्ञा का पुट्लिंग रूप है गृही । परन्तु पुरुष को | | इस स्त्रीलिंगी संज्ञा का पुट्लिंग रूप है गृही । परन्तु पुरुष को |