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| कुछ भी हो जीवनविकास के लिए यदि शिक्षा है तो वह केवल विद्यालय में नहीं अपितु घर में प्राप्त होती थी । घर में शिक्षा के पहलू इस प्रकार कहे जा सकते हैं | | कुछ भी हो जीवनविकास के लिए यदि शिक्षा है तो वह केवल विद्यालय में नहीं अपितु घर में प्राप्त होती थी । घर में शिक्षा के पहलू इस प्रकार कहे जा सकते हैं |
| * बालक को जन्म देना पतिपत्नी का परम कर्तव्य है । वास्तव में विवाह किया ही इसलिए जाता है कि हम पितृकऋण से उऋण हो सकें । पितृकऋण से उऋण होना सांस्कृतिक कर्तव्य है क्योंकि बालक को जन्म देने से ही नई पीढ़ी निर्माण होती है और नई पीढ़ी को पूर्व पीढ़ी द्वारा परिवारगत जो भी सांस्कृतिक विरासत होती है वह नई पीढ़ी को हस्तान्तरित की जा सकती है । यदि नई पीढ़ी जनमी ही नहीं तो परम्परा खंडित होती है । परम्परा खंडित होने का निमित्त बनना बहुत बड़ा सामाजिक सांस्कृतिक अपराध है । इसे ही भारत में पाप माना जाता था । आज हम व्यक्तिकेन्द्री जीवनदृष्टि से प्रभावित हो गये हैं इसलिए सामाजिक सांस्कृतिक दायित्व को महत्त्वपूर्ण मानते नहीं हैं । परन्तु हमें स्मरण में रखना चाहिए कि भारत परम्परा निर्वहण के कारण ही चिरंजीवी बना है । | | * बालक को जन्म देना पतिपत्नी का परम कर्तव्य है । वास्तव में विवाह किया ही इसलिए जाता है कि हम पितृकऋण से उऋण हो सकें । पितृकऋण से उऋण होना सांस्कृतिक कर्तव्य है क्योंकि बालक को जन्म देने से ही नई पीढ़ी निर्माण होती है और नई पीढ़ी को पूर्व पीढ़ी द्वारा परिवारगत जो भी सांस्कृतिक विरासत होती है वह नई पीढ़ी को हस्तान्तरित की जा सकती है । यदि नई पीढ़ी जनमी ही नहीं तो परम्परा खंडित होती है । परम्परा खंडित होने का निमित्त बनना बहुत बड़ा सामाजिक सांस्कृतिक अपराध है । इसे ही भारत में पाप माना जाता था । आज हम व्यक्तिकेन्द्री जीवनदृष्टि से प्रभावित हो गये हैं इसलिए सामाजिक सांस्कृतिक दायित्व को महत्त्वपूर्ण मानते नहीं हैं । परन्तु हमें स्मरण में रखना चाहिए कि भारत परम्परा निर्वहण के कारण ही चिरंजीवी बना है । |
− | * घर सांस्कृतिक परम्परा निभाने का एक महत्त्वपूर्ण केन्द्र है और बालक परम्परा निर्वहण का महत्त्वपूर्ण माध्यम । इस दृष्टि से बालक की शिक्षा की व्यवस्था की जाती थी। भारत के मनीषियों ने जाना कि कोई भी व्यक्ति अकेले में जीवन व्यतीत नहीं कर सकता । वह अपने साथ अपने पूर्वजन्म के संस्कार लेकर आता है । वे उसके चरित्र में बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं । साथ ही उसे माता की पाँच और पिता की चौदह पीढ़ियों के संस्कार मिलते हैं । तीसरे, वह जिस संस्कृति में जनमा है उस संस्कृति के संस्कार भी उसके चरित्र का हिस्सा होते हैं । वह जिस वातावरण में जन्मता है उस वातावरण के संस्कार भी उस पर होते हैं । ये सब उसकी शिक्षा के अंग हैं । बालक का पूर्व जन्म और अपनी पाँच और चौदह पीढ़ीयाँ तो हमारे हाथ में नहीं हैं परन्तु मातापिता स्वयं को तो अच्छे बालक को जन्म देने के लिये समर्थ बना सकते हैं । अत: मातापिता को इस लायक बनाने का हर प्रकार से प्रयास किया जाता था । भारत में अधिजननशास्त्र का. बहुत विकास हुआ है । यह शास्त्र घर में जन्म पूर्व से ही बालक के चरित्रनिर्माण के लिये क्या करना और क्या नहीं करना इसका ही शास्त्र है । | + | * घर सांस्कृतिक परम्परा निभाने का एक महत्त्वपूर्ण केन्द्र है और बालक परम्परा निर्वहण का महत्त्वपूर्ण माध्यम । इस दृष्टि से बालक की शिक्षा की व्यवस्था की जाती थी। भारत के मनीषियों ने जाना कि कोई भी व्यक्ति अकेले में जीवन व्यतीत नहीं कर सकता । वह अपने साथ अपने पूर्वजन्म के संस्कार लेकर आता है । वे उसके चरित्र में बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं । साथ ही उसे माता की पाँच और पिता की चौदह पीढ़ियों के संस्कार मिलते हैं । तीसरे, वह जिस संस्कृति में जनमा है उस संस्कृति के संस्कार भी उसके चरित्र का हिस्सा होते हैं । वह जिस वातावरण में जन्मता है उस वातावरण के संस्कार भी उस पर होते हैं । ये सब उसकी शिक्षा के अंग हैं । बालक का पूर्व जन्म और अपनी पाँच और चौदह पीढ़ीयाँ तो हमारे हाथ में नहीं हैं परन्तु मातापिता स्वयं को तो अच्छे बालक को जन्म देने के लिये समर्थ बना सकते हैं । अत: मातापिता को इस लायक बनाने का हर प्रकार से प्रयास किया जाता था । भारत में अधिजननशास्त्र का बहुत विकास हुआ है । यह शास्त्र घर में जन्म पूर्व से ही बालक के चरित्रनिर्माण के लिये क्या करना और क्या नहीं करना इसका ही शास्त्र है । |
| * मनुष्य के जीवन को सांस्कृतिक दृष्टि से नियमित और व्यवस्थित करने हेतु भारतीय समाजचिंतकों ने सोलह संस्कारों की व्यवस्था दी है । इन सोलह संस्कारों में से नौ संस्कार व्यक्ति की आयु के प्रथम पाँच वर्षों में ही हो जाते हैं । ये संस्कार शारीरिक और मानसिक विकास की दृष्टि से ही होते हैं । खूबी की बात यह है कि गर्भाधान संस्कार तो बालक का आगमन अभी माता के गर्भाशय में हुआ भी नहीं है तब होते हैं । गर्भावस्था में माता के माध्यम से बालक का चरित्रनिर्माण बहुत सावधानी पूर्वक किया जाता है । बालक का जन्म, जन्म के बाद की उसकी सुरक्षा, उसका संगोपन, उसके संस्कार आदि का भी विस्तृत विधान हमारे शास्त्रों में निरूपित है और हमारी परम्परा में जीवित है । केवल उसे व्यवस्थित करने की आवश्यकता है । | | * मनुष्य के जीवन को सांस्कृतिक दृष्टि से नियमित और व्यवस्थित करने हेतु भारतीय समाजचिंतकों ने सोलह संस्कारों की व्यवस्था दी है । इन सोलह संस्कारों में से नौ संस्कार व्यक्ति की आयु के प्रथम पाँच वर्षों में ही हो जाते हैं । ये संस्कार शारीरिक और मानसिक विकास की दृष्टि से ही होते हैं । खूबी की बात यह है कि गर्भाधान संस्कार तो बालक का आगमन अभी माता के गर्भाशय में हुआ भी नहीं है तब होते हैं । गर्भावस्था में माता के माध्यम से बालक का चरित्रनिर्माण बहुत सावधानी पूर्वक किया जाता है । बालक का जन्म, जन्म के बाद की उसकी सुरक्षा, उसका संगोपन, उसके संस्कार आदि का भी विस्तृत विधान हमारे शास्त्रों में निरूपित है और हमारी परम्परा में जीवित है । केवल उसे व्यवस्थित करने की आवश्यकता है । |
| * घर में जो शिक्षा मिलती है वह घर की जीवनशैली की और कुलपरम्परा कि होती है । वह बहुत छोटी अवस्था से इन सबके संस्कार प्राप्त करता है। बालक भाषा सीखता है और अभिव्यक्ति की क्षमता भी सीखता है। वह आदतें भी सीखता है और अनेक प्रकार के कौशल भी । वह जीवनमूल्य भी सीखता है और शैली भी ग्रहण करता है। वह अनुकरण से भी सीखता है और प्रेरणा से भी सीखता है । वह घर के सारे कामों को साथ साथ करके भी सीखता है और अपनी बुद्धि से भी सीखता है । वह निरीक्षण से भी सीखता है और परीक्षण से भी सीखता है । वह स्वयं प्रेरणा से और स्वयं पुरुषार्थ से सीखता है । वह मातापिता और बड़ों के संरक्षण में अनेक प्रकार से लाड़ प्यार पाकर सीखता है । वह आनन्द से सीखता है, उत्साह से सीखता है। सीखना उसके लिये बोज नहीं है, न घर के अन्य लोगों के लिये । आज हम शिक्षक विद्यार्थी अनुपात को लेकर परेशान हैं । हम कहते हैं कि एक शिक्षक तीस, चालीस बच्चों को एक साथ पढ़ा नहीं सकता । परन्तु व्यावहारिक कारणों से हम यह अनुपात कम नहीं कर सकते । परन्तु घर में तो एक विद्यार्थी और दो, तीन, चार या उससे भी अधिक शिक्षक होते हैं । वे सब बिना वेतन के होते हैं । सीखने के लिये न तो गणवेश चाहिए न बस्ता, न वाहन चाहिए न शुल्क, न समयसारिणी है न गृहकार्य । साहाजिक ढंग से, आनन्द से, प्रेम से प्रभावी ढंग से शिक्षा होती है । | | * घर में जो शिक्षा मिलती है वह घर की जीवनशैली की और कुलपरम्परा कि होती है । वह बहुत छोटी अवस्था से इन सबके संस्कार प्राप्त करता है। बालक भाषा सीखता है और अभिव्यक्ति की क्षमता भी सीखता है। वह आदतें भी सीखता है और अनेक प्रकार के कौशल भी । वह जीवनमूल्य भी सीखता है और शैली भी ग्रहण करता है। वह अनुकरण से भी सीखता है और प्रेरणा से भी सीखता है । वह घर के सारे कामों को साथ साथ करके भी सीखता है और अपनी बुद्धि से भी सीखता है । वह निरीक्षण से भी सीखता है और परीक्षण से भी सीखता है । वह स्वयं प्रेरणा से और स्वयं पुरुषार्थ से सीखता है । वह मातापिता और बड़ों के संरक्षण में अनेक प्रकार से लाड़ प्यार पाकर सीखता है । वह आनन्द से सीखता है, उत्साह से सीखता है। सीखना उसके लिये बोज नहीं है, न घर के अन्य लोगों के लिये । आज हम शिक्षक विद्यार्थी अनुपात को लेकर परेशान हैं । हम कहते हैं कि एक शिक्षक तीस, चालीस बच्चों को एक साथ पढ़ा नहीं सकता । परन्तु व्यावहारिक कारणों से हम यह अनुपात कम नहीं कर सकते । परन्तु घर में तो एक विद्यार्थी और दो, तीन, चार या उससे भी अधिक शिक्षक होते हैं । वे सब बिना वेतन के होते हैं । सीखने के लिये न तो गणवेश चाहिए न बस्ता, न वाहन चाहिए न शुल्क, न समयसारिणी है न गृहकार्य । साहाजिक ढंग से, आनन्द से, प्रेम से प्रभावी ढंग से शिक्षा होती है । |
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| * कुटुम्ब में शिक्षा संभव होने के लिये घर में संस्कारक्षम वातावरण होना चाहिए, बड़ों का चरित्र प्रेरणादायी होना चाहिए । बालक का चरित्र ठीक नहीं है तो मातापिता को दोष दिया जाता है और बालक के यश का श्रेय मातापिता को दिया जाता है । ऐसा करके मातापिता की ज़िम्मेदारी का भी स्वीकार किया गया है । इसी प्रकार गुरु अपने शिष्य की और शिष्य अपने गुरु की कीर्ति से जाना जाता है । | | * कुटुम्ब में शिक्षा संभव होने के लिये घर में संस्कारक्षम वातावरण होना चाहिए, बड़ों का चरित्र प्रेरणादायी होना चाहिए । बालक का चरित्र ठीक नहीं है तो मातापिता को दोष दिया जाता है और बालक के यश का श्रेय मातापिता को दिया जाता है । ऐसा करके मातापिता की ज़िम्मेदारी का भी स्वीकार किया गया है । इसी प्रकार गुरु अपने शिष्य की और शिष्य अपने गुरु की कीर्ति से जाना जाता है । |
| * भारतीय व्यवस्था में अर्थार्जन कुटुंबजीवन का ही हिस्सा था, अत: अधथर्जिन के लिये विद्यालय में पढ़ने के लिये जाने का कोई प्रयोजन नहीं था । जिस प्रकार सब मिलकर घर के और सारे काम करते थे उसी प्रकार सब मिलकर अर्थार्जन भी कर लेते थे । कुटुम्ब का व्यवसाय भी निश्चित होता था । अत: व्यवसाय सीखना अपने आप हो जाता था । अन्य कोई व्यवसाय सीखना है तो सिखाने वाले के पास जाना होता था और उसके घर रहकर सीखा जाता था । घर से बाहर जाकर सीखना भी व्यक्तिगत विषय ही था। | | * भारतीय व्यवस्था में अर्थार्जन कुटुंबजीवन का ही हिस्सा था, अत: अधथर्जिन के लिये विद्यालय में पढ़ने के लिये जाने का कोई प्रयोजन नहीं था । जिस प्रकार सब मिलकर घर के और सारे काम करते थे उसी प्रकार सब मिलकर अर्थार्जन भी कर लेते थे । कुटुम्ब का व्यवसाय भी निश्चित होता था । अत: व्यवसाय सीखना अपने आप हो जाता था । अन्य कोई व्यवसाय सीखना है तो सिखाने वाले के पास जाना होता था और उसके घर रहकर सीखा जाता था । घर से बाहर जाकर सीखना भी व्यक्तिगत विषय ही था। |
− | * अर्थार्जन को लेकर नहीं तो घर में रहने को केन्द्र बनाकर जीवन की रचना होती थी और अर्थार्जन साथ रहने के भाग स्वरूप ही विचार में लिया जाता था । व्यक्तिगत करियर या व्यक्तिगत अर्थार्जन यह विषय ही नहीं था । अर्थार्जन अपने आपमें सबसे प्रमुख विषय नहीं था । जीवन जीना प्रमुख विषय था और निर्वाह के लिये सामग्री चाहिए इसलिए अर्थार्जन | + | * अर्थार्जन को लेकर नहीं तो घर में रहने को केन्द्र बनाकर जीवन की रचना होती थी और अर्थार्जन साथ रहने के भाग स्वरूप ही विचार में लिया जाता था । व्यक्तिगत करियर या व्यक्तिगत अर्थार्जन यह विषय ही नहीं था । अर्थार्जन अपने आपमें सबसे प्रमुख विषय नहीं था । जीवन जीना प्रमुख विषय था और निर्वाह के लिये सामग्री चाहिए इसलिए अर्थार्जन का विचार किया जाता था । व्यवसाय लोगों की आवश्यकता पूर्ण करने के लिये किए जाते थे । आर्थिक आवश्यकता नहीं है इस कारण से कोई अपना व्यवसाय छोड़ नहीं सकता था । जिस प्रकार स्वयं को उपवास है और भोजन नहीं चाहिए इसलिए घर में कोई भोजन बनाने को मना नहीं करता है उसी प्रकार स्वयं को नहीं चाहिए इसलिए कोई व्यवसाय छोड़ नहीं सकता । कुटुम्ब की इस रचना की शिक्षा कुटुम्ब में ही प्राप्त होती है । |
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| + | * जिस प्रकार अर्थार्जन घर का विषय है उसी प्रकार चरित्रनिर्माण भी घर का ही विषय है । आज हम बलात्कार की घटनाओं के बारे में बहुत सुनते हैं । सामाजिक सुरक्षा भी नहीं है । सामाजिक दायित्वबोध का भी अभाव दिखाई देता है । इन सब बातों की शिक्षा घर में होती है । पराई स्त्री को माता और बहन मानना और उसकी और कुदृष्टि से देखना नहीं यह सीख घर में मिलती है । जो अपना नहीं है वह लेना नहीं चाहे कोई न भी देखता हो यह घर में सिखाया जाता है । घर की गृहिणी पति को और बड़े बुजुर्ग छोटों को अनीति के रास्ते पर जाने से रोकते थे । अतिथिसत्कार के निमित्त से व्यवहारदक्षता घर में ही सीखी जाती थी । सामाजिक उत्सवों में सहभागिता और उनके आयोजन में हिस्सेदारी से सामाजिक शिक्षा होती थी । |
− | | + | * अपनों के लिये त्याग करना भी वे बड़ों से ही सीखते हैं । नैतिक शिक्षा या मूल्यों की शिक्षा अलग से देनी नहीं पड़ती । |
− | का विचार किया जाता था । | + | * दान करना, व्रत पालन करना, उत्सवों का आयोजन सीखना, विवाह जैसे समारोहों का आयोजन करना, घर में ही सीखा जाता है । इष्ट देवता और कुलदेवता की पूजा, धार्मिक समारोह, मन्त्र, स्तोत्र, धार्मिक ग्रंथों का पठन आदि सब घर में दैनंदिन व्यवहार का भाग बनकर सीखे जाते हैं । सेवा और परिचर्या, वस्तुयें परखने की कुशलता, लोगों को भी परखने की कुशलता घर में ही सीखी जाती है । |
− | | + | * घर में जो सबसे बड़ी बात सीखी जाती है वह है गृहस्थधर्म । घर सांस्कृतिक |
− | व्यवसाय लोगों की आवश्यकता पूर्ण करने के लिये | |
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− | किए जाते थे । आर्थिक आवश्यकता नहीं है इस | |
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− | कारण से कोई अपना व्यवसाय छोड़ नहीं सकता | |
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− | था । जिस प्रकार स्वयं को उपवास है और भोजन | |
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− | नहीं चाहिए इसलिए घर में कोई भोजन बनाने को | |
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− | मना नहीं करता है उसी प्रकार स्वयं को नहीं चाहिए | |
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− | इसलिए कोई व्यवसाय छोड़ नहीं सकता । Hers | |
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− | की इस रचना की शिक्षा कुटुम्ब में ही प्राप्त होती है । | |
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− | जिस प्रकार अर्थार्जन घर का विषय है उसी प्रकार | |
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− | चरित्रनिर्माण भी घर का ही विषय है । आज हम | |
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− | बलात्कार की घटनाओं के बारे में बहुत सुनते हैं । | |
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− | सामाजिक सुरक्षा भी नहीं है । सामाजिक दायित्वबोध | |
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− | का भी अभाव दिखाई देता है । इन सब बातों की | |
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− | शिक्षा घर में होती है । पराई स्त्री को माता और बहन | |
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− | मानना और उसकी sik pels से देखना नहीं यह | |
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− | सीख घर में मिलती है । जो अपना नहीं है वह लेना | |
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− | नहीं चाहे कोई न भी देखता हो यह घर में सिखाया | |
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− | जाता है । घर की गृहिणी पति को और बड़े बुजुर्ग | |
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− | छोटों को अनीति के रास्ते पर जाने से रोकते थे । | |
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− | अतिथिसत्कार के निमित्त से व्यवहारदक्षता घर में ही | |
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− | सीखी जाती थी । सामाजिक उत्सवों में सहभागिता | |
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− | और उनके आयोजन में हिस्सेदारी से सामाजिक | |
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− | शिक्षा होती थी । | |
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− | अपनों के लिये त्याग करना भी वे बड़ों से ही सीखते | |
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− | हैं । नैतिक शिक्षा या मूल्यों की शिक्षा अलग से देनी | |
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− | नहीं पड़ती । | |
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− | दान करना, व्रतपालन करना, उत्सवों का आयोजन | |
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− | सीखना, विवाह जैसे समारोहों का आयोजन करना, | |
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− | घर में ही सीखा जाता है । इष्टदेबता और कुलदेवता | |
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− | की पूजा, धार्मिक समारोह, मन्त्र, स्तोत्र, धार्मिक | |
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− | ग्रंथों का पठन आदि सब घर में दैनंदिन व्यवहार का | |
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− | भाग बनकर सीखे जाते हैं । सेवा और परिचर्या, | |
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− | वस्तुयें परखने की कुशलता, लोगों को भी परखने | |
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− | की कुशलता घर में ही सीखी जाती है । | |
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− | घर में जो सब्से बड़ी बात | |
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− | सीखी जाती है वह है गृहस्थधर्म । घर सांस्कृतिक | |
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| परम्परा बनाये रखने का महत्त्वपूर्ण केन्द्र है। उसे | | परम्परा बनाये रखने का महत्त्वपूर्ण केन्द्र है। उसे |
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