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शिक्षा की जब चर्चा चलती है तब व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास के लिये शिक्षा का विचार होता है। व्यक्तित्व विकास की कल्पना की जाती है । सर्वांगीण विकास के साथ साथ समग्र विकास की भी चर्चा अब होने लगी है। जो लोग समग्र विकास के स्थान पर सर्वांगीण विकास की बात करते हैं वे भी सामाजिक विकास की, राष्ट्रीय विकास की भी बात करते हैं। परन्तु शिक्षा का विचार करते समय केवल व्यक्तिगत शिक्षा या समग्र के संदर्भ में व्यक्ति के विकास की बात करना पर्याप्त नहीं होता है। देश की और विश्व की आज की स्थिति देखते हुए तो यह बात विशेष ध्यान में आती है क्योंकि आज विश्व में एक से बढ़कर एक शिक्षासंस्थान हैं तो भी विश्व की दशा ठीक नहीं है। संकट इतने बढ़ रहे हैं कि स्थिति जैसे हाथ से बाहर निकल जा रही है, कोई उपाय नहीं सूझ रहा है । इससे भी ध्यान में आता है कि केवल व्यक्ति का विचार करना पर्याप्त नहीं है, देश का भी विचार करना चाहिए ।<ref>भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला १) - अध्याय १३, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>
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शिक्षा की जब चर्चा चलती है तब व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास के लिये शिक्षा का विचार होता है। व्यक्तित्व विकास की कल्पना की जाती है । सर्वांगीण विकास के साथ साथ समग्र विकास की भी चर्चा अब होने लगी है। जो लोग समग्र विकास के स्थान पर सर्वांगीण विकास की बात करते हैं वे भी सामाजिक विकास की, राष्ट्रीय विकास की भी बात करते हैं। परन्तु शिक्षा का विचार करते समय केवल व्यक्तिगत शिक्षा या समग्र के संदर्भ में व्यक्ति के विकास की बात करना पर्याप्त नहीं होता है। देश की और विश्व की आज की स्थिति देखते हुए तो यह बात विशेष ध्यान में आती है क्योंकि आज विश्व में एक से बढ़कर एक शिक्षासंस्थान हैं तो भी विश्व की दशा ठीक नहीं है। संकट इतने बढ़ रहे हैं कि स्थिति जैसे हाथ से बाहर निकल जा रही है, कोई उपाय नहीं सूझ रहा है । इससे भी ध्यान में आता है कि केवल व्यक्ति का विचार करना पर्याप्त नहीं है, देश का भी विचार करना चाहिए ।<ref>धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १) - अध्याय १३, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>
    
== देश का विचार कैसे करें ==
 
== देश का विचार कैसे करें ==
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# हम उन्हें समझने की परवाह नहीं करते हैं । हमारे अल्पज्ञान के कारण वे हमारे जैसे नहीं हैं इसलिए विकसित नहीं हैं और हमारे पास हैं ऐसी सुविधायें नहीं हैं इसलिए वे दुःखी हैं ऐसा मानते हैं । हमारे जैसी शिक्षा देंगे तो उनका विकास होगा यह हमारा भ्रम है। हमारे जैसी शिक्षा प्राप्त कर हमारे जैसी नौकरी करना, हमारे जैसे कपड़े पहनना, हमारे जैसी भाषा बोलना, हमारे जैसे घरों में रहना आदि विकास के लक्षण हैं ऐसा हमारा विचार उनके लिये संकट का ही कारण बनता है परन्तु इसका विचार हमें नहीं आता है। जो हमारे जैसा नहीं वह विकसित नहीं यह तो बहुत ही असहिष्णु विचार है, अमानवीय विचार है, भारत की संस्कृति का यह विचार है ही नहीं । इसलिए शिक्षा का विचार करते समय हमें उन्हें अपने जैसा बनाना है यह विचार ही छोड़ देना चाहिए ।
 
# हम उन्हें समझने की परवाह नहीं करते हैं । हमारे अल्पज्ञान के कारण वे हमारे जैसे नहीं हैं इसलिए विकसित नहीं हैं और हमारे पास हैं ऐसी सुविधायें नहीं हैं इसलिए वे दुःखी हैं ऐसा मानते हैं । हमारे जैसी शिक्षा देंगे तो उनका विकास होगा यह हमारा भ्रम है। हमारे जैसी शिक्षा प्राप्त कर हमारे जैसी नौकरी करना, हमारे जैसे कपड़े पहनना, हमारे जैसी भाषा बोलना, हमारे जैसे घरों में रहना आदि विकास के लक्षण हैं ऐसा हमारा विचार उनके लिये संकट का ही कारण बनता है परन्तु इसका विचार हमें नहीं आता है। जो हमारे जैसा नहीं वह विकसित नहीं यह तो बहुत ही असहिष्णु विचार है, अमानवीय विचार है, भारत की संस्कृति का यह विचार है ही नहीं । इसलिए शिक्षा का विचार करते समय हमें उन्हें अपने जैसा बनाना है यह विचार ही छोड़ देना चाहिए ।
 
# वन्य सम्पदा की भयंकर लूट, हमारे ही लाभ के कानून बनाकर उनका होने वाला भयानक शोषण और उन्हें असंस्कृत मानकर उनके लिए की जाने वाली हमारे जैसी शिक्षा व्यवस्था हमने उन पर किया हुआ आक्रमण है। हमारे बुद्धिबल, सत्ताबल और पुलिसबल के कारण हमने उन्हें कहीं का नहीं रखा है । उनके लिये शिक्षा की व्यवस्था करने से पूर्व हमें ही अपनी समझ और व्यवहार ठीक कर लेने की आवश्यकता है ।
 
# वन्य सम्पदा की भयंकर लूट, हमारे ही लाभ के कानून बनाकर उनका होने वाला भयानक शोषण और उन्हें असंस्कृत मानकर उनके लिए की जाने वाली हमारे जैसी शिक्षा व्यवस्था हमने उन पर किया हुआ आक्रमण है। हमारे बुद्धिबल, सत्ताबल और पुलिसबल के कारण हमने उन्हें कहीं का नहीं रखा है । उनके लिये शिक्षा की व्यवस्था करने से पूर्व हमें ही अपनी समझ और व्यवहार ठीक कर लेने की आवश्यकता है ।
# जिस प्रकार नागरी संस्कृति का आक्रमण उनके लिये संकट का एक निमित्त है उसी प्रकार धर्मांतरण का संकट बहुत बड़ा है। भारतीयता की मुख्य धारा से तोड़ने का काम एक ओर ईसाई मिशनरी और दूसरी ओर साम्यवादी खेमा करता है । विश्व के व्यापारी संगठन वन्य सम्पदा की लूट चला रहे है । भारत के व्यापारी भी इसमें पीछे नहीं हैं । एक संकट मानसिकता बदलने का है । ब्रिटीशों ने अपने शासन के दौरान उनके लिये आदिवासी शब्द का प्रयोग शुरू किया । स्वतन्त्र भारत में हमने भी बिना कोई विचार किए उसे अपना लिया है। इसका पुनर्विचार होने की आवश्यकता है । एक सादा प्रश्र पुछने की आवश्यकता है कि यदि वनवासी इस देश में  मूल निवासी हैं तो हम नगरों और ग्रामों में रहने वाले, जो वनों में नहीं रहते हैं वे लोग, कौन हैं ? ब्रिटीशों ने लिखे अथवा लिखवाये इतिहास की थियरी कहती है कि जिस प्रकार आप ब्रिटीशों को आक्रान्ता कहते हैं उसी प्रकार ये नगरों और ग्रामों में रहने वाले, अपने आपको आर्य बताने वाले लोग भी भारत के नहीं हैं, वे भी बाहर से ही आक्रान्ता बनकर ही आए हैं, इसलिए यदि ब्रिटिश इस देश को छोड़कर जाएँ ऐसा कहना है तो आर्यों को भी इस देश को छोड़कर जाना चाहिए । अब तो विश्व इतिहास ने भी आर्य बाहर से भारत में आए इस थियरी को नकार दिया है । अब विश्व स्वीकार करता है कि आर्य इस देश के ही थे औए भारत से सम्पूर्ण विश्व में गए थे। परन्तु आज भी वनवासी अपने आपको वनवासी न कहकर आदिवासी अथवा मूल निवासी कहलाना अधिक पसन्द करते हैं। और नागरी लोगों को अपने शत्रु मानते हैं । नागरी लोग को भी आत्म निरीक्षण करना चाहिए। इस कारण से उनके लिये शिक्षा की व्यवस्था करना तो दूर हमने अपने आपको रोकने की आवश्यकता है । इन दो बातों का सन्दर्भ ठीक से ध्यान में लेकर उनका परिहार कैसे करना इसका ठीक से विचार कर लेने के बाद उनके लिये और उनके सन्दर्भ में शिक्षा का विचार करना चाहिए । ऐसा विचार करने के आयाम कुछ इस प्रकार हैं:
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# जिस प्रकार नागरी संस्कृति का आक्रमण उनके लिये संकट का एक निमित्त है उसी प्रकार धर्मांतरण का संकट बहुत बड़ा है। धार्मिकता की मुख्य धारा से तोड़ने का काम एक ओर ईसाई मिशनरी और दूसरी ओर साम्यवादी खेमा करता है । विश्व के व्यापारी संगठन वन्य सम्पदा की लूट चला रहे है । भारत के व्यापारी भी इसमें पीछे नहीं हैं । एक संकट मानसिकता बदलने का है । ब्रिटीशों ने अपने शासन के दौरान उनके लिये आदिवासी शब्द का प्रयोग शुरू किया । स्वतन्त्र भारत में हमने भी बिना कोई विचार किए उसे अपना लिया है। इसका पुनर्विचार होने की आवश्यकता है । एक सादा प्रश्र पुछने की आवश्यकता है कि यदि वनवासी इस देश में  मूल निवासी हैं तो हम नगरों और ग्रामों में रहने वाले, जो वनों में नहीं रहते हैं वे लोग, कौन हैं ? ब्रिटीशों ने लिखे अथवा लिखवाये इतिहास की थियरी कहती है कि जिस प्रकार आप ब्रिटीशों को आक्रान्ता कहते हैं उसी प्रकार ये नगरों और ग्रामों में रहने वाले, अपने आपको आर्य बताने वाले लोग भी भारत के नहीं हैं, वे भी बाहर से ही आक्रान्ता बनकर ही आए हैं, इसलिए यदि ब्रिटिश इस देश को छोड़कर जाएँ ऐसा कहना है तो आर्यों को भी इस देश को छोड़कर जाना चाहिए । अब तो विश्व इतिहास ने भी आर्य बाहर से भारत में आए इस थियरी को नकार दिया है । अब विश्व स्वीकार करता है कि आर्य इस देश के ही थे औए भारत से सम्पूर्ण विश्व में गए थे। परन्तु आज भी वनवासी अपने आपको वनवासी न कहकर आदिवासी अथवा मूल निवासी कहलाना अधिक पसन्द करते हैं। और नागरी लोगों को अपने शत्रु मानते हैं । नागरी लोग को भी आत्म निरीक्षण करना चाहिए। इस कारण से उनके लिये शिक्षा की व्यवस्था करना तो दूर हमने अपने आपको रोकने की आवश्यकता है । इन दो बातों का सन्दर्भ ठीक से ध्यान में लेकर उनका परिहार कैसे करना इसका ठीक से विचार कर लेने के बाद उनके लिये और उनके सन्दर्भ में शिक्षा का विचार करना चाहिए । ऐसा विचार करने के आयाम कुछ इस प्रकार हैं:
 
#* सर्व प्रथम हमारे विश्वविद्यालयों में वनवासी संस्कृति का अध्ययन होना चाहिए । ऐसे अध्ययन हेतु कुछ बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए । ऐसा अध्ययन उनके साथ नागरी जीवन की समरसता स्थापित करने की दृष्टि से होना आवश्यक है । उनकी संस्कृति की विशेषताओं को जानने की दृष्टि से होना चाहिए । हमें उनकी रक्षा के लिये क्या क्या करने की आवश्यकता पड़ेगी यह जानने की दृष्टि से होना चाहिए ।
 
#* सर्व प्रथम हमारे विश्वविद्यालयों में वनवासी संस्कृति का अध्ययन होना चाहिए । ऐसे अध्ययन हेतु कुछ बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए । ऐसा अध्ययन उनके साथ नागरी जीवन की समरसता स्थापित करने की दृष्टि से होना आवश्यक है । उनकी संस्कृति की विशेषताओं को जानने की दृष्टि से होना चाहिए । हमें उनकी रक्षा के लिये क्या क्या करने की आवश्यकता पड़ेगी यह जानने की दृष्टि से होना चाहिए ।
 
#* ऐसा अध्ययन वनवासी क्षेत्र में रहकर, उनके साथ समरस होकर, उन्हें हमारे साथ सहभागी बनाकर होना चाहिए । आज तो उनके मन में हमारे लिये विश्वास नहीं है। यह विश्वास जागृत करने का काम प्रथम करना चाहिए । वनवासी संस्कृति का अध्ययन हमें भी करना चाहिए और उनके लिये भी योजना बनानी चाहिए ।
 
#* ऐसा अध्ययन वनवासी क्षेत्र में रहकर, उनके साथ समरस होकर, उन्हें हमारे साथ सहभागी बनाकर होना चाहिए । आज तो उनके मन में हमारे लिये विश्वास नहीं है। यह विश्वास जागृत करने का काम प्रथम करना चाहिए । वनवासी संस्कृति का अध्ययन हमें भी करना चाहिए और उनके लिये भी योजना बनानी चाहिए ।
 
#* इस अध्ययन का केन्द्र अनिवार्य रूप से वनवासी क्षेत्र में ही होना चाहिए । वनवासी परिवेश में ही होना चाहिए । वहाँ अध्ययन करने वाले लोगों ने वहाँ की जीवनशैली अपनानी चाहिए । हम यदि नगरों में आने वाले वनवासियों को नगरों के खानपान और वस्त्र परिधान के लिये बाध्य कर सकते हैं तो हम भी उनकी शैली अपना सकते हैं ।
 
#* इस अध्ययन का केन्द्र अनिवार्य रूप से वनवासी क्षेत्र में ही होना चाहिए । वनवासी परिवेश में ही होना चाहिए । वहाँ अध्ययन करने वाले लोगों ने वहाँ की जीवनशैली अपनानी चाहिए । हम यदि नगरों में आने वाले वनवासियों को नगरों के खानपान और वस्त्र परिधान के लिये बाध्य कर सकते हैं तो हम भी उनकी शैली अपना सकते हैं ।
#* वनवासियों के पास जो ज्ञान है उसका अध्ययन करना चाहिए । अभी उनके पास जो ज्ञान है वह शास्त्रीय नहीं है, पारम्परिक है । परन्तु अनुभव यह आता है कि शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त किए हुए अनेक लोगों की तुलना में वह अधिक पक्का और परिणामकारी है । उसका बहुत बड़ा कारण तो यह है कि उनका पारम्परिक ज्ञान भारतीयता की बैठक लिये हुए है और हमारे विश्वविद्यालयों में दिया जाने वाला ज्ञान यूरोअमेरिकी अधिष्ठान लिए हुए है । ऊपर से हमारे विश्वविद्यालयों में निष्ठापूर्वक अध्ययन भी नहीं होता है। इन दो कारणों से वनवासियों के ज्ञान का और हमारे विश्वविद्यालयों के ज्ञान का कोई मेल नहीं है । इस परिप्रेक्ष्य में उनके ज्ञान को हमने ठीक से अध्ययन कर उसे प्रतिष्ठा दिलाने का प्रयास करना चाहिए।
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#* वनवासियों के पास जो ज्ञान है उसका अध्ययन करना चाहिए । अभी उनके पास जो ज्ञान है वह शास्त्रीय नहीं है, पारम्परिक है । परन्तु अनुभव यह आता है कि शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त किए हुए अनेक लोगों की तुलना में वह अधिक पक्का और परिणामकारी है । उसका बहुत बड़ा कारण तो यह है कि उनका पारम्परिक ज्ञान धार्मिकता की बैठक लिये हुए है और हमारे विश्वविद्यालयों में दिया जाने वाला ज्ञान यूरोअमेरिकी अधिष्ठान लिए हुए है । ऊपर से हमारे विश्वविद्यालयों में निष्ठापूर्वक अध्ययन भी नहीं होता है। इन दो कारणों से वनवासियों के ज्ञान का और हमारे विश्वविद्यालयों के ज्ञान का कोई मेल नहीं है । इस परिप्रेक्ष्य में उनके ज्ञान को हमने ठीक से अध्ययन कर उसे प्रतिष्ठा दिलाने का प्रयास करना चाहिए।
 
#* हमारी सरकारी नीतियाँ आज तो इसके विपरीत हैं परन्तु हमें इसका भी ठीक से अध्ययन कर समस्या सुलझाने का प्रयास करना चाहिए।  
 
#* हमारी सरकारी नीतियाँ आज तो इसके विपरीत हैं परन्तु हमें इसका भी ठीक से अध्ययन कर समस्या सुलझाने का प्रयास करना चाहिए।  
 
#* वनवासियों को नगर में लाने का प्रयास हम सोचते हैं उतना उचित नहीं है। वे वन में रहकर खुश हैं तो उन्हें नगरों में लाने की या नगरों को वनो में ले जाने की क्या आवश्यकता है?
 
#* वनवासियों को नगर में लाने का प्रयास हम सोचते हैं उतना उचित नहीं है। वे वन में रहकर खुश हैं तो उन्हें नगरों में लाने की या नगरों को वनो में ले जाने की क्या आवश्यकता है?
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#* एक बात विशेष रूप से सबके शिक्षाक्रम में समाविष्ट होनी चाहिए। भारत का ज्ञान, भारत के गुरुकुल, भारत की श्रेष्ठ शिक्षा तपोवनों में खिली है। ऋषि अरण्यवासी थे। वानप्रस्थी वनों में निवास करते थे। तपस्वियों का तप वनों में होता था। आज भी पहाड़ों और वनों में अनेक सिद्ध योगी तपश्चर्या कर रहे हैं। हजारों वर्षों की तपश्चर्या और ज्ञान वनों में आज भी सुरक्षित है। इस तपश्चर्या के कारण वन पवित्र वातावरण से युक्त हैं । इस पवित्रता की कथाओं को पाठयक्रमों में स्थान देना चाहिए।
 
#* एक बात विशेष रूप से सबके शिक्षाक्रम में समाविष्ट होनी चाहिए। भारत का ज्ञान, भारत के गुरुकुल, भारत की श्रेष्ठ शिक्षा तपोवनों में खिली है। ऋषि अरण्यवासी थे। वानप्रस्थी वनों में निवास करते थे। तपस्वियों का तप वनों में होता था। आज भी पहाड़ों और वनों में अनेक सिद्ध योगी तपश्चर्या कर रहे हैं। हजारों वर्षों की तपश्चर्या और ज्ञान वनों में आज भी सुरक्षित है। इस तपश्चर्या के कारण वन पवित्र वातावरण से युक्त हैं । इस पवित्रता की कथाओं को पाठयक्रमों में स्थान देना चाहिए।
 
#* इन वनों में आज भी विश्वविद्यालय स्थापित किए जा सकते हैं जो वनों के वातावरण से अनुप्राणित होकर नागरी जीवन के लिए अध्ययन और अनुसन्धान करें। नगरों का वातावरण तो वैसे भी कलुषित और अध्ययन के प्रतिकूल होता है।  
 
#* इन वनों में आज भी विश्वविद्यालय स्थापित किए जा सकते हैं जो वनों के वातावरण से अनुप्राणित होकर नागरी जीवन के लिए अध्ययन और अनुसन्धान करें। नगरों का वातावरण तो वैसे भी कलुषित और अध्ययन के प्रतिकूल होता है।  
#* नगरों और बनों को एकदूसरे की सहायता की आवश्यकता है। नगर वनों के ज्ञान को प्रतिष्ठा दें । वन नगरों को ज्ञान के भारतीय अधिष्ठान की प्रेरणा दे। परस्पर लाभान्वित होकर दोनों समरसता स्थापित कर सकते हैं।
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#* नगरों और बनों को एकदूसरे की सहायता की आवश्यकता है। नगर वनों के ज्ञान को प्रतिष्ठा दें । वन नगरों को ज्ञान के धार्मिक अधिष्ठान की प्रेरणा दे। परस्पर लाभान्वित होकर दोनों समरसता स्थापित कर सकते हैं।
    
== ग्रामशिक्षा ==
 
== ग्रामशिक्षा ==
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ग्राम और ग्रामीण क्षेत्र की शिक्षा के सन्दर्भ में कुछ इस प्रकार की बातें विचारणीय हैं ।
 
ग्राम और ग्रामीण क्षेत्र की शिक्षा के सन्दर्भ में कुछ इस प्रकार की बातें विचारणीय हैं ।
 
* ग्राम किसे कहते हैं ? केवल जनसंख्या के आधार पर ग्राम नहीं होता । हमने जनसंख्या का आधार लेकर भूप्रदेश को ग्राम कहा है और उसके लिए प्रशासन के लिये ग्रामपंचायतों की व्यवस्था की है। सामान्य बातचीत में तो हम कह देते हैं की जहां ग्रामपंचायत होती है वह ग्राम होता है। ऐसा नहीं है, जहां ग्राम होता है वहाँ ग्रामपंचायत होती है । वास्तव में ग्राम की यह परिभाषा ठीक नहीं है।
 
* ग्राम किसे कहते हैं ? केवल जनसंख्या के आधार पर ग्राम नहीं होता । हमने जनसंख्या का आधार लेकर भूप्रदेश को ग्राम कहा है और उसके लिए प्रशासन के लिये ग्रामपंचायतों की व्यवस्था की है। सामान्य बातचीत में तो हम कह देते हैं की जहां ग्रामपंचायत होती है वह ग्राम होता है। ऐसा नहीं है, जहां ग्राम होता है वहाँ ग्रामपंचायत होती है । वास्तव में ग्राम की यह परिभाषा ठीक नहीं है।
* ग्राम की भारतीय पारम्परिक परिभाषा आर्थिक है। जिस प्रकार कुटुम्ब सामाजिक लघुतम इकाई है उस प्रकार गाँव लघुतम आर्थिक इकाई है। मनुष्य का दैनंदिन जीवन की सारी आवश्यकताओं का उत्पादन हो जाता है और बाहर से कुछ भी लाना नहीं पड़ता वह गाँव है।
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* ग्राम की धार्मिक पारम्परिक परिभाषा आर्थिक है। जिस प्रकार कुटुम्ब सामाजिक लघुतम इकाई है उस प्रकार गाँव लघुतम आर्थिक इकाई है। मनुष्य का दैनंदिन जीवन की सारी आवश्यकताओं का उत्पादन हो जाता है और बाहर से कुछ भी लाना नहीं पड़ता वह गाँव है।
    
* गाँव उद्योगकेन्द्र होते हैं। भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना गाँव का काम है। उद्योग का अर्थ है उत्पादनकेन्द्र । गाँव में सभी भौतिक वस्तुओं का उत्पादन होता है।
 
* गाँव उद्योगकेन्द्र होते हैं। भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना गाँव का काम है। उद्योग का अर्थ है उत्पादनकेन्द्र । गाँव में सभी भौतिक वस्तुओं का उत्पादन होता है।
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# वर्तमान मानसिकता ने गाँव के प्रति हीनता का और पिछड़ेपन का जो भाव पनपाया है उसका इलाज शिक्षा में होना आवश्यक है । भारत स्वाधीन होने के साथ यह भाव समाप्त होना चाहिये था परन्तु दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ। गाँव को पिछड़ा मान लिया गया। इस कारण से गाँव को जो महत्त्व दिया जाना चाहिये था वह नहीं दिया गया और भारत का नागरीकरण शुरू हो गया। आर्थिक क्षेत्र में वह यह “मूले कुठाराघात' था। अब जब गाँव उजड़ने लगे हैं और लोग भी कभी नगरों के आकर्षण से और कभी मजबूरी में गाँव छोड़ छोड़कर जा रहे हैं तब वापस मुड़कर गांवों को समृद्ध बनाना कठिन कार्य है । उस विषय में अब दो मार्ग हैं। या तो नगरीकरण को स्वीकार कर लेना और गांवों को बरबाद होते हुए देखते रहना या तो कठिन मार्ग स्वीकार कर उपाय योजना करना।
 
# वर्तमान मानसिकता ने गाँव के प्रति हीनता का और पिछड़ेपन का जो भाव पनपाया है उसका इलाज शिक्षा में होना आवश्यक है । भारत स्वाधीन होने के साथ यह भाव समाप्त होना चाहिये था परन्तु दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ। गाँव को पिछड़ा मान लिया गया। इस कारण से गाँव को जो महत्त्व दिया जाना चाहिये था वह नहीं दिया गया और भारत का नागरीकरण शुरू हो गया। आर्थिक क्षेत्र में वह यह “मूले कुठाराघात' था। अब जब गाँव उजड़ने लगे हैं और लोग भी कभी नगरों के आकर्षण से और कभी मजबूरी में गाँव छोड़ छोड़कर जा रहे हैं तब वापस मुड़कर गांवों को समृद्ध बनाना कठिन कार्य है । उस विषय में अब दो मार्ग हैं। या तो नगरीकरण को स्वीकार कर लेना और गांवों को बरबाद होते हुए देखते रहना या तो कठिन मार्ग स्वीकार कर उपाय योजना करना।
 
# वर्तमान सन्दर्भ में गाँव की शिक्षा का विचार किया तो जा सकता है परन्तु वह करना फलदायी नहीं होगा क्योंकि फिर हम कहेंगे कि गाँव में अच्छी प्राथमिक शालाओं की सुविधा होनी चाहिये, गाँव के छात्रों को अपने ही गाँव में माध्यमिक और उच्च शिक्षा की सुविधा भी मिलनी चाहिये। परन्तु ऐसा कर भी दिया तो न शिक्षा का भला होगा न गाँव का और न देश का। फिर उन्हीं बातों को विस्तार से करने से क्या लाभ है?
 
# वर्तमान सन्दर्भ में गाँव की शिक्षा का विचार किया तो जा सकता है परन्तु वह करना फलदायी नहीं होगा क्योंकि फिर हम कहेंगे कि गाँव में अच्छी प्राथमिक शालाओं की सुविधा होनी चाहिये, गाँव के छात्रों को अपने ही गाँव में माध्यमिक और उच्च शिक्षा की सुविधा भी मिलनी चाहिये। परन्तु ऐसा कर भी दिया तो न शिक्षा का भला होगा न गाँव का और न देश का। फिर उन्हीं बातों को विस्तार से करने से क्या लाभ है?
# समृद्धि के प्रति सही दृष्टिकोण विकसित करना ग्रामशिक्षा का उद्देश्य है। भारतीय वेश और परिवेश में सादगी के साथ सौंदर्य कैसे है यह देखने की दृष्टि विकसित करनी चाहिये । कारीगरी को कला और सृजन तक कैसे विकसित किया जा सकता है उसके भी उदाहरण प्रस्तुत किये जा सकते हैं। हम जानते हैं की अठारहवीं शताब्दी में जब अंग्रेजों ने भारत के उद्योग नष्ट करने शुरू किए तब हम ग्रामकेन्द्री उद्योगप्रधान देश थे। हमारे उद्योगतन्त्र एवं कृषि केन्द्रवर्ती उद्योग होने के कारण हमारा देश कृषिप्रधान देश है ऐसा कहा जाने लगा। बड़ी गलती यह हुई कि कृषि को उद्योग नहीं मानना और शेष कारीगरी के व्यवसायों को उद्योग मानना तथा कृषि और उद्योग ऐसे दो भागों में विभाजन करना शुरू हुआ। साथ ही कृषिप्रधान का अर्थ पिछड़ा और उद्योगप्रधान का अर्थ आधुनिक ऐसा मानस में बैठा दिया गया। इस कारण से बहुत आर्थिक नुकसान हुआ।
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# समृद्धि के प्रति सही दृष्टिकोण विकसित करना ग्रामशिक्षा का उद्देश्य है। धार्मिक वेश और परिवेश में सादगी के साथ सौंदर्य कैसे है यह देखने की दृष्टि विकसित करनी चाहिये । कारीगरी को कला और सृजन तक कैसे विकसित किया जा सकता है उसके भी उदाहरण प्रस्तुत किये जा सकते हैं। हम जानते हैं की अठारहवीं शताब्दी में जब अंग्रेजों ने भारत के उद्योग नष्ट करने शुरू किए तब हम ग्रामकेन्द्री उद्योगप्रधान देश थे। हमारे उद्योगतन्त्र एवं कृषि केन्द्रवर्ती उद्योग होने के कारण हमारा देश कृषिप्रधान देश है ऐसा कहा जाने लगा। बड़ी गलती यह हुई कि कृषि को उद्योग नहीं मानना और शेष कारीगरी के व्यवसायों को उद्योग मानना तथा कृषि और उद्योग ऐसे दो भागों में विभाजन करना शुरू हुआ। साथ ही कृषिप्रधान का अर्थ पिछड़ा और उद्योगप्रधान का अर्थ आधुनिक ऐसा मानस में बैठा दिया गया। इस कारण से बहुत आर्थिक नुकसान हुआ।
 
# वर्तमान स्थिति यह है कि छोटे किसान खेती को छोड़ते जा रहे हैं और हम कॉर्पोरेट खेती की ओर घसीटे जा रहे हैं। आज शिक्षा का कर्तव्य है कि इससे हमें बचाये । ग्राम को हमारी परम्परा में ग्रामलक्ष्मी कहा गया है । आज ग्राम अलक्ष्मी बन गये हैं । यह दोष गांव का नहीं है, हमारी विपरीत शिक्षा और उससे जनित विपरीत नीतियों का है । परिणामस्वरूप समृद्धि का चक्र उल्टा घूम रहा है। इस चक्र की दिशा बदले बिना कुछ भी सुधार करना असम्भव है ।
 
# वर्तमान स्थिति यह है कि छोटे किसान खेती को छोड़ते जा रहे हैं और हम कॉर्पोरेट खेती की ओर घसीटे जा रहे हैं। आज शिक्षा का कर्तव्य है कि इससे हमें बचाये । ग्राम को हमारी परम्परा में ग्रामलक्ष्मी कहा गया है । आज ग्राम अलक्ष्मी बन गये हैं । यह दोष गांव का नहीं है, हमारी विपरीत शिक्षा और उससे जनित विपरीत नीतियों का है । परिणामस्वरूप समृद्धि का चक्र उल्टा घूम रहा है। इस चक्र की दिशा बदले बिना कुछ भी सुधार करना असम्भव है ।
 
# इस विचार चक्र को उल्टा घुमाने के लिये ग्रामकेन्द्री उद्योग स्थापन करने चाहिये। उनका आकार छोटा रखना चाहिये । उनमें पेट्रोलियम या विद्युतजनित ऊर्जा से चलित यंत्रों का यदि संभव है तो शून्य या यथासम्भव कम उपयोग करना चाहिये । उन उद्योगों के साथ शिक्षा के केन्द्र जोड़ना चाहिये । इन उद्योगों ने अपने लिये आवश्यक कारीगरों को भी सिखाकर निर्माण करना चाहिये । उन्हें निपुण भी बनाना चाहिये । इन उद्योगों में कारीगरी की शिक्षा के साथ ही भाषा, संस्कृति, राष्ट्रीता आदि आवश्यक गुणों का विकास करने का प्रावधान होना चाहिये ।
 
# इस विचार चक्र को उल्टा घुमाने के लिये ग्रामकेन्द्री उद्योग स्थापन करने चाहिये। उनका आकार छोटा रखना चाहिये । उनमें पेट्रोलियम या विद्युतजनित ऊर्जा से चलित यंत्रों का यदि संभव है तो शून्य या यथासम्भव कम उपयोग करना चाहिये । उन उद्योगों के साथ शिक्षा के केन्द्र जोड़ना चाहिये । इन उद्योगों ने अपने लिये आवश्यक कारीगरों को भी सिखाकर निर्माण करना चाहिये । उन्हें निपुण भी बनाना चाहिये । इन उद्योगों में कारीगरी की शिक्षा के साथ ही भाषा, संस्कृति, राष्ट्रीता आदि आवश्यक गुणों का विकास करने का प्रावधान होना चाहिये ।
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भिन्नता को भेदभाव का कारण नहीं बनाना अपितु उसका स्वीकार करना यह पहली शिक्षा है। भेद अथवा भिन्नता होना स्वाभाविक है, भेद विविधता है, विविधता सुन्दरता की जनक है ऐसी दृष्टि विकसित करना महत्त्वपूर्ण शिक्षा है । मन को इसके लिये साधना होता है । जीवन की सर्व अवस्थाओं में भेद को, अलगता को स्वीकार करने की शिक्षा मन की शिक्षा का अंग होना चाहिए । भिन्नता को न केवल सहना अपितु उसका आदर करना सिखाना चाहिए । किसी भी व्यवसाय को हीन नहीं मानना, गरीबी की शरम नहीं मानना, धन, बल, सत्ता, शिक्षा आदि के मद में आकर किसी की अवमानना नहीं करनी चाहिए । किसी की इन बातों को देखकर दबना भी नहीं चाहिए ।
 
भिन्नता को भेदभाव का कारण नहीं बनाना अपितु उसका स्वीकार करना यह पहली शिक्षा है। भेद अथवा भिन्नता होना स्वाभाविक है, भेद विविधता है, विविधता सुन्दरता की जनक है ऐसी दृष्टि विकसित करना महत्त्वपूर्ण शिक्षा है । मन को इसके लिये साधना होता है । जीवन की सर्व अवस्थाओं में भेद को, अलगता को स्वीकार करने की शिक्षा मन की शिक्षा का अंग होना चाहिए । भिन्नता को न केवल सहना अपितु उसका आदर करना सिखाना चाहिए । किसी भी व्यवसाय को हीन नहीं मानना, गरीबी की शरम नहीं मानना, धन, बल, सत्ता, शिक्षा आदि के मद में आकर किसी की अवमानना नहीं करनी चाहिए । किसी की इन बातों को देखकर दबना भी नहीं चाहिए ।
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हमारी गाँव की परंपरा में जातिगत भेद भुलाने की बहुत अच्छी व्यवस्था थी। लोग जबतक गाँव के अन्दर होते थे और अपने अपने व्यवसाय करते थे तबतक तो जातियाँ भिन्नता रखती थीं, परंतु जब वे तीर्थयात्रा पर जाते थे तब गाँव की सीमा से बाहर निकलते ही सब जातिभेद भुला देते थे अर्थात मानते नहीं थे। गाँव में जातिभेद के कारण वे एकदूसरे की रोटी नहीं खाते थे या पानी भी नहीं पीते थे, कदाचित अस्पृश्यता भी मानते थे परंतु गाँव की सीमा से बाहर सब एक हो जाते थे, जातिरहित हो जाते थे, एक ही जाति के हो जाते थे । वह जाति होती थी तीर्थयात्रियों की । सौ वर्ष पूर्व के भारतीय समाज की यह स्थिति थी। आज जातिभेद रोटीबेटी का निषेध और अस्पृश्यता के रूप में कदाचित दिखाई नहीं देता है, परंतु वह कानून, नौकरियाँ, होटल, सिनेमा, वाहनों से यात्रा आदि के कारण विवशता हो जाने के कारण से है। मन में से वह गया नहीं है। शिक्षा के कारण जाती, वर्ण, व्यवसाय आदि की अज्ञानजनित उपेक्षा के कारण भेद नहीं दिखाता है परंतु मन में से भेदभाव गया नहीं है, वह भिन्न स्वरूपों में प्रकट होता है । इसको मिटाने के लिये शिक्षा को बहुत गम्भीर प्रयास करने चाहिए। शिक्षित समाज समरस समाज होता है इसलिए समरसता के अभाव को एक चुनौती के रूप में स्वीकार करना चाहिए ।
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हमारी गाँव की परंपरा में जातिगत भेद भुलाने की बहुत अच्छी व्यवस्था थी। लोग जबतक गाँव के अन्दर होते थे और अपने अपने व्यवसाय करते थे तबतक तो जातियाँ भिन्नता रखती थीं, परंतु जब वे तीर्थयात्रा पर जाते थे तब गाँव की सीमा से बाहर निकलते ही सब जातिभेद भुला देते थे अर्थात मानते नहीं थे। गाँव में जातिभेद के कारण वे एकदूसरे की रोटी नहीं खाते थे या पानी भी नहीं पीते थे, कदाचित अस्पृश्यता भी मानते थे परंतु गाँव की सीमा से बाहर सब एक हो जाते थे, जातिरहित हो जाते थे, एक ही जाति के हो जाते थे । वह जाति होती थी तीर्थयात्रियों की । सौ वर्ष पूर्व के धार्मिक समाज की यह स्थिति थी। आज जातिभेद रोटीबेटी का निषेध और अस्पृश्यता के रूप में कदाचित दिखाई नहीं देता है, परंतु वह कानून, नौकरियाँ, होटल, सिनेमा, वाहनों से यात्रा आदि के कारण विवशता हो जाने के कारण से है। मन में से वह गया नहीं है। शिक्षा के कारण जाती, वर्ण, व्यवसाय आदि की अज्ञानजनित उपेक्षा के कारण भेद नहीं दिखाता है परंतु मन में से भेदभाव गया नहीं है, वह भिन्न स्वरूपों में प्रकट होता है । इसको मिटाने के लिये शिक्षा को बहुत गम्भीर प्रयास करने चाहिए। शिक्षित समाज समरस समाज होता है इसलिए समरसता के अभाव को एक चुनौती के रूप में स्वीकार करना चाहिए ।
    
समरसता के अभाव के दो सबसे भीषण कारक आज प्रवर्तमान हैं । एक है अस्पृश्यता और दूसरा है साम्प्रदायिक संकुचितता। अस्पृश्यता सभ्य समाज का कलंक है। वास्तव में विगत दो तीन सौ वर्षों में अस्पृश्यता ने समाज पर कहर ढाया है । वास्तव में भारत की परंपरागत वर्णव्यवस्था में शूद्र वर्ण कभी अस्पृश्य नहीं रहा है। उल्टे समाज की आर्थिक समृद्धि कृषकों और कारीगरों पर ही निर्भर थी। कृषक वैश्य और कारीगर शूद्र वर्ण के थे । अस्पृश्य माने भी जाते थे तो केवल सफाई करने वाले लोग थे। चांडाल अस्पृश्य थे ऐसा भगवान शंकराचार्य के समय का भी उल्लेख है। परंतु यह अस्पृश्यता विद्वेष का कारण नहीं बनती थी क्योंकि वेदाध्ययन का अधिकार शूद्रों को भी था, तपश्चर्या के परिणामस्वरूप वे उच्च वर्ण के भी हो सकते थे। शूद्र और अस्पृश्य मानी जाने वाली जातियों में सन्त भी हुए हैं जिन्हें सर्व वर्ण के लोग आदर देते हैं। आत्मसाक्षात्कारी महात्मा सभी वर्गों में थे । ऐसा होते हुए भी विगत तीन सौ वर्षों में अस्पृश्यो को दलित, पीडीत, पीछड़े आदि कहा गया, उन पर अमानुषी अत्याचार किये गए और उन्हें अनेक अच्छी बातों से वंचित रखा गया । समाज के तथाकथित उच्च वर्गों के मद के कारण ही यह सब हुआ । अब आज कानून के कारण, नीतियों के कारण और ऊपर वर्णित की गई है ऐसी व्यावहारिक विवशताओं के कारण अस्पृश्यता ऊपर से तो दिखाई नहीं देती है परंतु लोगों के मनों में वह है। शिक्षा में अस्पृश्यता को मिटाने का, वर्णद्वेष मिटाने का, जातिगत द्वेष मिटाने का प्रावधान होना चाहिए । मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, धर्मशिक्षा, अध्यात्मशिक्षा आदि विषयों में इसके संबंध में पाठ्यविषय होने चाहिए । ये केवल बौद्धिक स्वरूप के होना पर्याप्त नहीं है, वे व्यावहारिक स्वरूप के भी होने चाहिए।
 
समरसता के अभाव के दो सबसे भीषण कारक आज प्रवर्तमान हैं । एक है अस्पृश्यता और दूसरा है साम्प्रदायिक संकुचितता। अस्पृश्यता सभ्य समाज का कलंक है। वास्तव में विगत दो तीन सौ वर्षों में अस्पृश्यता ने समाज पर कहर ढाया है । वास्तव में भारत की परंपरागत वर्णव्यवस्था में शूद्र वर्ण कभी अस्पृश्य नहीं रहा है। उल्टे समाज की आर्थिक समृद्धि कृषकों और कारीगरों पर ही निर्भर थी। कृषक वैश्य और कारीगर शूद्र वर्ण के थे । अस्पृश्य माने भी जाते थे तो केवल सफाई करने वाले लोग थे। चांडाल अस्पृश्य थे ऐसा भगवान शंकराचार्य के समय का भी उल्लेख है। परंतु यह अस्पृश्यता विद्वेष का कारण नहीं बनती थी क्योंकि वेदाध्ययन का अधिकार शूद्रों को भी था, तपश्चर्या के परिणामस्वरूप वे उच्च वर्ण के भी हो सकते थे। शूद्र और अस्पृश्य मानी जाने वाली जातियों में सन्त भी हुए हैं जिन्हें सर्व वर्ण के लोग आदर देते हैं। आत्मसाक्षात्कारी महात्मा सभी वर्गों में थे । ऐसा होते हुए भी विगत तीन सौ वर्षों में अस्पृश्यो को दलित, पीडीत, पीछड़े आदि कहा गया, उन पर अमानुषी अत्याचार किये गए और उन्हें अनेक अच्छी बातों से वंचित रखा गया । समाज के तथाकथित उच्च वर्गों के मद के कारण ही यह सब हुआ । अब आज कानून के कारण, नीतियों के कारण और ऊपर वर्णित की गई है ऐसी व्यावहारिक विवशताओं के कारण अस्पृश्यता ऊपर से तो दिखाई नहीं देती है परंतु लोगों के मनों में वह है। शिक्षा में अस्पृश्यता को मिटाने का, वर्णद्वेष मिटाने का, जातिगत द्वेष मिटाने का प्रावधान होना चाहिए । मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, धर्मशिक्षा, अध्यात्मशिक्षा आदि विषयों में इसके संबंध में पाठ्यविषय होने चाहिए । ये केवल बौद्धिक स्वरूप के होना पर्याप्त नहीं है, वे व्यावहारिक स्वरूप के भी होने चाहिए।
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== सामाजिक सम्मान ==
 
== सामाजिक सम्मान ==
भारतीय समाज में सामाजिक सम्मान की बहुत अच्छी व्यवस्था की गई थी। यह सम्मान केवल व्यवसाय के प्रकार और अर्थार्जन की अधिकता के कारण नहीं था । सामाजिक ढांचे में स्वीकार्यता के कारण था । उदाहरण के लिये गाँव में किसी व्यक्ति के घर विवाह का अवसर है तो गाँव के अन्यान्य व्यवसाय करने वाले लोग अपने अपने व्यवसाय के कारण ही उसमें निमंत्रित किये जाते थे। पूरे गाँव में विवाह का न्यौता देना गाँव के नाई का काम था । निमंत्रण पत्र छपवाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती थी। विवाह के समय मंडप बांधने के लिये सुथार को, मटकी के लिये कुम्हार को तथा ऐसे ही अन्यान्य कामों के लिये अन्यान्य व्यावसायिकों को निमंत्रित किया जाता था। उनकी वस्तु केवल खरीदी नहीं जाती थी, उनका प्रथम सम्मान किया जाता था । जिसके घर में विवाह होता था उसके घर की स्थिति के हिसाब से सम्मानित किया जाता था। बाद में वस्तु ली जाती थी। रिवाज तो ऐसा था की विवाह के अवसर पर गाँव के कम से कम पाँच व्यावसायिकों का तो सम्मान होना ही चाहिए। तात्पर्य यह है की गाँव में व्यवसाय कितना भी छोटा हो सब सम्मान के अधिकारी थे ।
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धार्मिक समाज में सामाजिक सम्मान की बहुत अच्छी व्यवस्था की गई थी। यह सम्मान केवल व्यवसाय के प्रकार और अर्थार्जन की अधिकता के कारण नहीं था । सामाजिक ढांचे में स्वीकार्यता के कारण था । उदाहरण के लिये गाँव में किसी व्यक्ति के घर विवाह का अवसर है तो गाँव के अन्यान्य व्यवसाय करने वाले लोग अपने अपने व्यवसाय के कारण ही उसमें निमंत्रित किये जाते थे। पूरे गाँव में विवाह का न्यौता देना गाँव के नाई का काम था । निमंत्रण पत्र छपवाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती थी। विवाह के समय मंडप बांधने के लिये सुथार को, मटकी के लिये कुम्हार को तथा ऐसे ही अन्यान्य कामों के लिये अन्यान्य व्यावसायिकों को निमंत्रित किया जाता था। उनकी वस्तु केवल खरीदी नहीं जाती थी, उनका प्रथम सम्मान किया जाता था । जिसके घर में विवाह होता था उसके घर की स्थिति के हिसाब से सम्मानित किया जाता था। बाद में वस्तु ली जाती थी। रिवाज तो ऐसा था की विवाह के अवसर पर गाँव के कम से कम पाँच व्यावसायिकों का तो सम्मान होना ही चाहिए। तात्पर्य यह है की गाँव में व्यवसाय कितना भी छोटा हो सब सम्मान के अधिकारी थे ।
    
यह सामाजिक सम्मान मनुष्य की मानसिक आवश्यकता है। समाज में हमारी प्रतिष्ठा है, लोग हमें बुलाते हैं, याद करते हैं, अपने कार्यक्रमों में सहभागी बनाते हैं यह सबके लिये संतोष देने वाली बात होती है। इससे जो सद्भाव निर्माण होता है उसमें से सामाजिक लज्जा का जन्म होता है । यह लज्जा अनेक अनिष्टों को पैदा ही नहीं होने देती। अनेक अनाचार इससे रुक जाते हैं और समाज की संस्कारिता बनी रहती है।
 
यह सामाजिक सम्मान मनुष्य की मानसिक आवश्यकता है। समाज में हमारी प्रतिष्ठा है, लोग हमें बुलाते हैं, याद करते हैं, अपने कार्यक्रमों में सहभागी बनाते हैं यह सबके लिये संतोष देने वाली बात होती है। इससे जो सद्भाव निर्माण होता है उसमें से सामाजिक लज्जा का जन्म होता है । यह लज्जा अनेक अनिष्टों को पैदा ही नहीं होने देती। अनेक अनाचार इससे रुक जाते हैं और समाज की संस्कारिता बनी रहती है।
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=== सामाजिक अस्मिता ===
 
=== सामाजिक अस्मिता ===
श्रेष्ठ समाज के मन में गौरव का भाव भी होता है । अत: सामाजिक अस्मिता भी आवश्यक अंग है । सामाजिक अस्मिता का अर्थ है समाज का स्वत्व । हर समाज की अपनी अपनी पहचान होती है । उदाहरण के लिये धर्मनिष्ठा अच्छे समाज की अस्मिता है । गाय अवध्य होना, भूमि माता होना, अन्न देवता होना भारतीय समाज की अस्मिता है। ये तत्व नहीं रहे तो भारत भारत नहीं रहेगा । अनेक लोग कहते हैं कि ये तो हिन्दू समाज के मूल्य है, भारतीय समाज के नहीं क्योंकि भारत में मुसलमान और ईसाई लोग भी रहते हैं और ये उनके मूल्य नहीं हैं । वास्तविकता यह है कि ये धार्मिक सामाजिक स्तरीय मूल्य है, किसी पंथ और सम्प्रदाय के नहीं । हिन्दू के लिये गाय यदि अवध्य है तो मुसलमान के लिये या ईसाई के लिये वध्य नहीं हो जाती, और फिर हिन्दू के धर्म का सम्मान करना भारतीय मुसलमानों और ईसाइयों का भी तो धर्म अर्थात कर्तव्य है ।
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श्रेष्ठ समाज के मन में गौरव का भाव भी होता है । अत: सामाजिक अस्मिता भी आवश्यक अंग है । सामाजिक अस्मिता का अर्थ है समाज का स्वत्व । हर समाज की अपनी अपनी पहचान होती है । उदाहरण के लिये धर्मनिष्ठा अच्छे समाज की अस्मिता है । गाय अवध्य होना, भूमि माता होना, अन्न देवता होना धार्मिक समाज की अस्मिता है। ये तत्व नहीं रहे तो भारत भारत नहीं रहेगा । अनेक लोग कहते हैं कि ये तो हिन्दू समाज के मूल्य है, धार्मिक समाज के नहीं क्योंकि भारत में मुसलमान और ईसाई लोग भी रहते हैं और ये उनके मूल्य नहीं हैं । वास्तविकता यह है कि ये धार्मिक सामाजिक स्तरीय मूल्य है, किसी पंथ और सम्प्रदाय के नहीं । हिन्दू के लिये गाय यदि अवध्य है तो मुसलमान के लिये या ईसाई के लिये वध्य नहीं हो जाती, और फिर हिन्दू के धर्म का सम्मान करना धार्मिक मुसलमानों और ईसाइयों का भी तो धर्म अर्थात कर्तव्य है ।
    
गाय का वध करने से ही स्वर्ग मिलता है ऐसा तो नहीं है, हाँ, केवल हिन्दू का अपमान किया जा सकता है। स्त्री को सम्मान का अधिकारी बनाना, सत्य और अहिंसा को सार्वभौम महाब्रत मानना, पंचमहाभूतों को देवता मानना, संघर्ष नहीं अपितु समन्वय को ही धर्म का अंग मानना सामाजिक अस्मिता है । इन तत्वों की रक्षा के लिये कोई भी कीमत चुकाने के लिये तत्पर रहना सामाजिक कर्तव्य है।
 
गाय का वध करने से ही स्वर्ग मिलता है ऐसा तो नहीं है, हाँ, केवल हिन्दू का अपमान किया जा सकता है। स्त्री को सम्मान का अधिकारी बनाना, सत्य और अहिंसा को सार्वभौम महाब्रत मानना, पंचमहाभूतों को देवता मानना, संघर्ष नहीं अपितु समन्वय को ही धर्म का अंग मानना सामाजिक अस्मिता है । इन तत्वों की रक्षा के लिये कोई भी कीमत चुकाने के लिये तत्पर रहना सामाजिक कर्तव्य है।

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