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इक्कीसवीं शताब्दी की विश्व के अनेक देशों की स्त्रियों को तथा विशेष रूप से भारत के पुरुषों को यह जानकर हैरानी हो सकती है कि बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ के वर्षों तक यूरोप में ऐसा माना जाता था कि स्त्री में आत्मा नहीं है, स्त्री एक पदार्थ है और अन्य पदार्थों की तरह पुरुष के लिये भोग्य वस्तु है। उन्नीसवीं शताब्दी में औद्योगिक क्रान्ति के साथ साथ ही सामाजिक नवजागृति आई और स्त्रियों की मुक्ति - दासता से मुक्ति - का प्रश्न महत्त्वपूर्ण बन गया।
 
इक्कीसवीं शताब्दी की विश्व के अनेक देशों की स्त्रियों को तथा विशेष रूप से भारत के पुरुषों को यह जानकर हैरानी हो सकती है कि बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ के वर्षों तक यूरोप में ऐसा माना जाता था कि स्त्री में आत्मा नहीं है, स्त्री एक पदार्थ है और अन्य पदार्थों की तरह पुरुष के लिये भोग्य वस्तु है। उन्नीसवीं शताब्दी में औद्योगिक क्रान्ति के साथ साथ ही सामाजिक नवजागृति आई और स्त्रियों की मुक्ति - दासता से मुक्ति - का प्रश्न महत्त्वपूर्ण बन गया।
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विडम्बना यह है कि स्त्री हेय है, निम्न स्तर की है पुरुष के सामने गौण है, उसमें बुद्धि नहीं है, वह अबला है, आश्रिता है ऐसा भारत की स्त्रियों के लिये कहा गया और स्त्रीमुक्ति का आन्दोलन भारतीय समाज पर थोपा गया । भारत में स्त्रियों को दासता से मुक्त करने हेतु स्त्रीशिक्षा का प्रारम्भ किया गया, स्त्रीपुरुष सम्बन्ध ठीक करने हेतु अनेक कानून बनाये गये और भारत के सामाजिक जीवन में भारी उथलपुथल हो गई।
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विडम्बना यह है कि स्त्री हेय है, निम्न स्तर की है पुरुष के सामने गौण है, उसमें बुद्धि नहीं है, वह अबला है, आश्रिता है ऐसा भारत की स्त्रियों के लिये कहा गया और स्त्रीमुक्ति का आन्दोलन धार्मिक समाज पर थोपा गया । भारत में स्त्रियों को दासता से मुक्त करने हेतु स्त्रीशिक्षा का प्रारम्भ किया गया, स्त्रीपुरुष सम्बन्ध ठीक करने हेतु अनेक कानून बनाये गये और भारत के सामाजिक जीवन में भारी उथलपुथल हो गई।
    
उन्नीसवीं शताब्दी से इक्कीसवीं शताब्दी तक आते आते अब स्त्री की स्थिति में भारी अन्तर आ गया है यह बात सत्य है। परन्तु यह स्थिति आश्वस्त करने वाली है ऐसा हम नहीं कह सकते । अब स्त्री दासी, भोग्या या आत्माहीन पदार्थ नहीं रही। परन्तु वह स्त्री भी नहीं रही। अब वह एक व्यक्ति है, एक मनुष्य है, एक सत्ता है परन्तु स्त्री के व्यक्ति, मनुष्य, सत्ता होने के मापदण्ड पुरुष के हैं। वह स्त्री के शरीर धारण करते हुए पुरुष बन गई है । उसे वे सारे अधिकार प्राप्त हुए हैं जो पुरुष के हैं। उसे स्त्री के अधिकार नहीं मिले हैं। वही शिक्षा, वही अवसर, वही व्यवसाय, वही सुविधायें स्त्री को प्राप्त है जो पुरुष को है।
 
उन्नीसवीं शताब्दी से इक्कीसवीं शताब्दी तक आते आते अब स्त्री की स्थिति में भारी अन्तर आ गया है यह बात सत्य है। परन्तु यह स्थिति आश्वस्त करने वाली है ऐसा हम नहीं कह सकते । अब स्त्री दासी, भोग्या या आत्माहीन पदार्थ नहीं रही। परन्तु वह स्त्री भी नहीं रही। अब वह एक व्यक्ति है, एक मनुष्य है, एक सत्ता है परन्तु स्त्री के व्यक्ति, मनुष्य, सत्ता होने के मापदण्ड पुरुष के हैं। वह स्त्री के शरीर धारण करते हुए पुरुष बन गई है । उसे वे सारे अधिकार प्राप्त हुए हैं जो पुरुष के हैं। उसे स्त्री के अधिकार नहीं मिले हैं। वही शिक्षा, वही अवसर, वही व्यवसाय, वही सुविधायें स्त्री को प्राप्त है जो पुरुष को है।
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==References==
 
==References==
<references />भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५): पर्व ३: अध्याय २६, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
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<references />धार्मिक शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ५): पर्व ३: अध्याय २६, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
[[Category:भारतीय शिक्षा ग्रंथमाला 5: पर्व 3: संकटों का विश्लेषण]]
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[[Category:धार्मिक शिक्षा ग्रंथमाला 5: पर्व 3: संकटों का विश्लेषण]]

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