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वह अपने आपको सृष्टि का मालिक मानता है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश सृष्टि पर दिखाई देनेवाले सारे प्राणी, जीवजन्तु और वनस्पति उसकी सेवा के लिये ही हैं। इस सृष्टि के साथ उसके व्यवहार का स्वरूप कुछ इस प्रकार का है...  
 
वह अपने आपको सृष्टि का मालिक मानता है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश सृष्टि पर दिखाई देनेवाले सारे प्राणी, जीवजन्तु और वनस्पति उसकी सेवा के लिये ही हैं। इस सृष्टि के साथ उसके व्यवहार का स्वरूप कुछ इस प्रकार का है...  
 
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# वह जीवजन्तु, पशुपक्षी, प्राणियों को अपना आहार बनाता है।  
१. वह जीवजन्तु, पशुपक्षी, प्राणियों को अपना आहार बनाता है।  
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# अपने वस्त्रों के लिये, पादत्राण, बस्ता आदि के लिये प्राणियों के खाल का उपयोग करता है। ये सब मरे हुए प्राणियों की खाल से ही बनते हों यह आवश्यक नहीं है। प्राणियों को मार कर भी खाल प्राप्त की जा सकती है।  
 
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# सौन्दर्य प्रसाधन बनाने हेतु प्राणियों पर प्रयोग किये जाते हैं। उदाहरण के लिये त्वचा पर लगानेवाले क्रीम आदि का प्रयोग खरगोश की आंखो में लगाकर किया जाता है, भले ही खरगोश अन्धे हो जाय ।  
२.अपने वस्त्रों के लिये, पादत्राण, बस्ता आदि के लिये प्राणियों के खाल का उपयोग करता है। ये सब मरे हुए प्राणियों की खाल से ही बनते हों यह आवश्यक नहीं है। प्राणियों को मार कर भी खाल प्राप्त की जा सकती है।  
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# पशु और पक्षी पालन उन्हें मारकर खा जाने के लिये ही होता है । पशुओं का माँस अधिक स्वादिष्ट लगे इस दृष्टि से उन्हें मारने के भी विविध तरीके अपनाये जाते हैं जिनसे पशुओं को अतिशय यातना सहन करनी पड़ती है।  
 
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# अपनी अनन्त कामनाओं की पूर्ति हेतु अमर्याद उपभोग की जीवनशैली उसने अपनाई है। इस उपभोग हेतु सारे प्राकृतिक संसाधनों का वह अधिकतम उपयोग करता है। ऐसा उपयोग करने में वह प्रकृति के सन्तुलन को बिगाडता है और पर्यावरण के प्रदूषण का संकट खडा होता है।  
३. सौन्दर्य प्रसाधन बनाने हेतु प्राणियों पर प्रयोग किये जाते हैं। उदाहरण के लिये त्वचा पर लगानेवाले क्रीम आदि का प्रयोग खरगोश की आंखो में लगाकर किया जाता है, भले ही खरगोश अन्धे हो जाय ।  
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# वह अधिक भोगसामग्री चाहिये इसलिये रासायनिक खाद, कीटनाशक आदि बनाता है जिससे वायु, जल और भूमि का प्रदूषण होता है। इस प्रदूषण के निवारण हेतु जो उपाय किये जाते हैं उनसे और अधिक प्रदूषण होता है। यह चक्र चलता ही रहता है और प्रदूषण मुक्त सृष्टि की सम्भावना ही समाप्त हो जाती है।  
 
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# अपनी कल्पनाशील बुद्धि का प्रयोग कर, विज्ञान के ज्ञान के सहारे उसने असंख्य यन्त्र बनाये। इन यन्त्रों पर उसे गर्व भी है। यन्त्रों को बनाने में वह अनेक प्राकृतिक संसाधनों का अन्धाधुन्ध उपयोग करता है । इन यन्त्रों के प्रयोग के परिणाम स्वरूप प्रकृति का सन्तुलन भारी मात्रा में नष्ट हो जाता है।  
४. पशु और पक्षी पालन उन्हें मारकर खा जाने के लिये ही होता है । पशुओं का माँस अधिक स्वादिष्ट लगे इस दृष्टि से उन्हें मारने के भी विविध तरीके अपनाये जाते हैं जिनसे पशुओं को अतिशय यातना सहन करनी पड़ती है।  
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# प्राकृतिक संसाधनों के प्रयोग का ही एक प्रकार पेट्रोलियम का उपयोग है। भूमि तल से इतना अधिक पेट्रोल निकाला जाता है कि भूमि के अन्दर का भी सन्तुलन खराब होता है। उस पेट्रोल को साफ करने में, उसका प्रयोग कर वाहन चलाने में तथा उसके कचरे का निकाल करने में अत्यधिक प्रदूषण होता है। मनुष्य को इसकी कोई चिन्ता नहीं है।  
 
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# प्लास्टिक की खोज प्रकृति के  स्वास्थ्य की हानि के लिये बडा भारी कारण है। प्लास्टिक ने असंख्य रूप धारण किये हैं । सिन्थेटिक पदार्थों की पूरी दुनिया बस गई है। चारों ओर से प्लास्टिक ने विश्व को ऐसा घेर लिया है कि अब उससे छुटकारा पाना अतिशय कठिन हो गया है। प्लास्टिक ने खानेपीने की वस्तुओं और औषधों को भी नहीं छोडा है । प्लास्टिक का प्रभाव पर्यावरण पर तो अतिशय विपरीत होता ही है, मनुष्य के स्वास्थ्य पर भी विपरीत होता है।  
५.अपनी अनन्त कामनाओं की पूर्ति हेतु अमर्याद उपभोग की जीवनशैली उसने अपनाई है। इस उपभोग हेतु सारे प्राकृतिक संसाधनों का वह अधिकतम उपयोग करता है। ऐसा उपयोग करने में वह प्रकृति के सन्तुलन को बिगाडता है और पर्यावरण के प्रदूषण का संकट खडा होता है।  
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# सारे प्राकृतिक संसाधनों का आवश्यकता से कहीं अधिक उपयोग करना भी आज के मनुष्य का स्वभाव बन गया है । प्रकृति मनुष्य के लिये ही बनी है ऐसी समझ बनने के कारण ऐसा अधिक उपयोग और अपव्यय करने में उसे संकोच अथवा अपराधबोध नहीं होता।  
 
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# प्रकृति के प्रति मनुष्य का कोई दायित्व होता है इसकी उसे कल्पना तक नहीं आती। उसने प्राकृतिक संसाधनों का अविवेकपूर्ण प्रयोग कर अपने ही स्वास्थ्य के लिये भारी संकट मोल लिया है। परन्तु उस संकट के निवारण हेतु इन संसाधनों का प्रयोग कम करना चाहिये ऐसा उसकी समझ में नहीं आता है। परिणाम स्वरूप वह जो भी उपाय करता है उससे संकट कम होने के स्थान पर और बढ़ जाता है।  
६. वह अधिक भोगसामग्री चाहिये इसलिये रासायनिक खाद, कीटनाशक आदि बनाता है जिससे वायु, जल और भूमि का प्रदूषण होता है। इस प्रदूषण के निवारण हेतु जो उपाय किये जाते हैं उनसे और अधिक प्रदूषण होता है। यह चक्र चलता ही रहता है और प्रदूषण मुक्त सृष्टि की सम्भावना ही समाप्त हो जाती है।  
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# प्रकृति को सुखदुःख होते हैं। सुखी होने से वह मनुष्य को भी सुख देती है और दुःखी होने से मनुष्य के लिये भी दुःख का कारण बनती है यह बात मनुष्य की समझ में नहीं आती। अतः वह प्रकृति को दुःखी करता ही रहता है और स्वयं भी दुःखी होता है । इस दुःख के निवारण हेतु वह जो उपाय करता है उनका कोई परिणाम नहीं होता क्योंकि असली उपाय वह जानता ही नहीं है।  
 
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# प्रकृति को लेकर उसके द्वारा किया जाने वाला व्यवहार उसे हास्यास्पद बनाता है। उदाहरण के लिये वह बडा घर चाहता है तो खेतों में खेती करना छोड कर वह मकान बनाता है। उसे वाहन चलाने हैं इसलिये सडक बनाता है और उसे हेतु से वृक्ष काटता है। यन्त्रसामग्री बनाने हेतु, कागज बनाने हेतु, फर्नीचर बनाने हेतु वृक्ष काटता है। इससे वातावरण में गर्मी बढती है। वह बिजली से चलने वाले पंखे, फ्रीज, एसी का प्रयोग करता है तो गर्मी, और बढती है। इस प्रकार गर्मी, एसी और अधिक गर्मी का विनाशक चक्र चलता रहता है और पर्यावरण की स्थिति अधिकाधिक बिगडती जाती है।  
७.अपनी कल्पनाशील बुद्धि का प्रयोग कर, विज्ञान के ज्ञान के सहारे उसने असंख्य यन्त्र बनाये। इन यन्त्रों पर उसे गर्व भी है। यन्त्रों को बनाने में वह अनेक प्राकृतिक संसाधनों का अन्धाधुन्ध उपयोग करता है । इन यन्त्रों के प्रयोग के परिणाम स्वरूप प्रकृति का सन्तुलन भारी मात्रा में नष्ट हो जाता है।  
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# इतने अधिक संकटों से घिर जाने के बाद भी मनुष्य को प्रकृति के बारे में अलग से विचार करने की अपना व्यवहार बदलने की इच्छा नहीं होती। इसका अर्थ यह है कि मनुष्य को अपनी कामनाओं को पूर्ण करने के आडे और किसी भी बात का विचार करना सूझता ही नहीं है।
 
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८.प्राकृतिक संसाधनों के प्रयोग का ही एक प्रकार पेट्रोलियम का उपयोग है। भूमि तल से इतना अधिक पेट्रोल निकाला जाता है कि भूमि के अन्दर का भी सन्तुलन खराब होता है। उस पेट्रोल को साफ करने में, उसका प्रयोग कर वाहन चलाने में तथा उसके कचरे का निकाल करने में अत्यधिक प्रदूषण होता है। मनुष्य को इसकी कोई चिन्ता नहीं है।  
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९. प्लास्टिक की खोज प्रकृति के  स्वास्थ्य की हानि के लिये बडा भारी कारण है। प्लास्टिक ने असंख्य रूप धारण किये हैं । सिन्थेटिक पदार्थों की पूरी दुनिया बस गई है। चारों ओर से प्लास्टिक ने विश्व को ऐसा घेर लिया है कि अब उससे छुटकारा पाना अतिशय कठिन हो गया है। प्लास्टिक ने खानेपीने की वस्तुओं और औषधों को भी नहीं छोडा है । प्लास्टिक का प्रभाव पर्यावरण पर तो अतिशय विपरीत होता ही है, मनुष्य के स्वास्थ्य पर भी विपरीत होता है।  
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१०. सारे प्राकृतिक संसाधनों का आवश्यकता से कहीं अधिक उपयोग करना भी आज के मनुष्य का स्वभाव बन गया है । प्रकृति मनुष्य के लिये ही बनी है ऐसी समझ बनने के कारण ऐसा अधिक उपयोग और अपव्यय करने में उसे संकोच अथवा अपराधबोध नहीं होता।  
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११. प्रकृति के प्रति मनुष्य का कोई दायित्व होता है इसकी उसे कल्पना तक नहीं आती। उसने प्राकृतिक संसाधनों का अविवेकपूर्ण प्रयोग कर अपने ही स्वास्थ्य के लिये भारी संकट मोल लिया है। परन्तु उस संकट के निवारण हेतु इन संसाधनों का प्रयोग कम करना चाहिये ऐसा उसकी समझ में नहीं आता है। परिणाम स्वरूप वह जो भी उपाय करता है उससे संकट कम होने के स्थान पर और बढ़ जाता है।  
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१२. प्रकृति को सुखदुःख होते हैं। सुखी होने से वह मनुष्य को भी सुख देती है और दुःखी होने से मनुष्य के लिये भी दुःख का कारण बनती है यह बात मनुष्य की समझ में नहीं आती। अतः वह प्रकृति को दुःखी करता ही रहता है और स्वयं भी दुःखी होता है । इस दुःख के निवारण हेतु वह जो उपाय करता है उनका कोई परिणाम नहीं होता क्योंकि असली उपाय वह जानता ही नहीं है।  
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१३. प्रकृति को लेकर उसके द्वारा किया जाने वाला व्यवहार उसे हास्यास्पद बनाता है। उदाहरण के लिये वह बडा घर चाहता है तो खेतों में खेती करना छोड कर वह मकान बनाता है। उसे वाहन चलाने हैं इसलिये सडक बनाता है और उसे हेतु से वृक्ष काटता है। यन्त्रसामग्री बनाने हेतु, कागज बनाने हेतु, फर्नीचर बनाने हेतु वृक्ष काटता है। इससे वातावरण में गर्मी बढती है। वह बिजली से चलने वाले पंखे, फ्रीज, एसी का प्रयोग करता है तो गर्मी, और बढती है। इस प्रकार गर्मी, एसी और अधिक गर्मी का विनाशक चक्र चलता रहता है और पर्यावरण की स्थिति अधिकाधिक बिगडती जाती है।  
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१४. इतने अधिक संकटों से घिर जाने के बाद भी मनुष्य को प्रकृति के बारे में अलग से विचार करने की अपना व्यवहार बदलने की इच्छा नहीं होती। इसका अर्थ यह है कि मनुष्य को अपनी कामनाओं को पूर्ण करने के आडे और किसी भी बात का विचार करना सूझता ही नहीं है।
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पश्चिम के प्रकृति विषयक इस दृष्टिकोण और व्यवहार के बारे में भारत की सोच कैसी है इसका विचार करना उपयोगी होगा।
 
पश्चिम के प्रकृति विषयक इस दृष्टिकोण और व्यवहार के बारे में भारत की सोच कैसी है इसका विचार करना उपयोगी होगा।
  

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