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मिशेल फुको के संस्कृति विषयक आलोचनात्मक विचार प्रमुख रूप से उसने स्वयं जिसका अनुभव किया हुआ था वह एकेश्वरवादी प्रतिगामी कॅथोलिक इसाई संस्कृति, पराकोटि की पूंजीवादी औद्योगिक अर्थव्यवस्था और उसके सामाजिक, सांस्कृतिक नियंत्रक रीतिरिवाज के विरोध में होनेवाले प्रतिकार के परिणाम रूप हैं । एकेश्वरवादी, रूढीवादी कॅथोलिक सामाजिक रितिरिवाजों का विरोध करके ही व्यक्तिस्वातंत्र्य अबाधित रखना यह एकमेव मार्ग ही फुको तथा 'पाश्चिमात्य सांस्कृतिक उदारमतवाद' के पुरस्कर्ता तत्त्वज्ञों को उपलब्ध था इसीलिये प्रत्येक संस्कृति मूलक आदर्शों का उसने विरोध किया ।
 
मिशेल फुको के संस्कृति विषयक आलोचनात्मक विचार प्रमुख रूप से उसने स्वयं जिसका अनुभव किया हुआ था वह एकेश्वरवादी प्रतिगामी कॅथोलिक इसाई संस्कृति, पराकोटि की पूंजीवादी औद्योगिक अर्थव्यवस्था और उसके सामाजिक, सांस्कृतिक नियंत्रक रीतिरिवाज के विरोध में होनेवाले प्रतिकार के परिणाम रूप हैं । एकेश्वरवादी, रूढीवादी कॅथोलिक सामाजिक रितिरिवाजों का विरोध करके ही व्यक्तिस्वातंत्र्य अबाधित रखना यह एकमेव मार्ग ही फुको तथा 'पाश्चिमात्य सांस्कृतिक उदारमतवाद' के पुरस्कर्ता तत्त्वज्ञों को उपलब्ध था इसीलिये प्रत्येक संस्कृति मूलक आदर्शों का उसने विरोध किया ।
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भारतीय संस्कृति के संदर्भ में भी यही प्रतिकार का तर्क लागू करना यह कम बुद्धि का लक्षण सिद्ध होगा क्यों कि सनातन भारतीय संस्कृति मूलतः 'वैविध्यपूर्ण' और बहुलवादी (pluralistic) है । इसलिये फुको तथा अन्य विचारकों के सांस्कृतिक क्रांति के विचार भारतीय समाज को तथा संस्कृति को 'सुधारणावादी'वृत्ति से लागू करने का मार्ग वैचारिक एवं बौद्धिक उलझनों का प्रारंभ करने वाला होगा।
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धार्मिक संस्कृति के संदर्भ में भी यही प्रतिकार का तर्क लागू करना यह कम बुद्धि का लक्षण सिद्ध होगा क्यों कि सनातन धार्मिक संस्कृति मूलतः 'वैविध्यपूर्ण' और बहुलवादी (pluralistic) है । इसलिये फुको तथा अन्य विचारकों के सांस्कृतिक क्रांति के विचार धार्मिक समाज को तथा संस्कृति को 'सुधारणावादी'वृत्ति से लागू करने का मार्ग वैचारिक एवं बौद्धिक उलझनों का प्रारंभ करने वाला होगा।
    
'''३. रेमंड विलिअम्स :''' वेल्श ब्रिटिश लेखक, माजी सैनिक (द्वितीय महायुद्ध): न्यू लेफ्ट से संबंधित एक अत्यंत प्रभावी विचारवान के रूप से प्रसिद्ध । संचार माध्यम एवं साहित्य का साम्यवादी वैचारिक क्रांति के साथ मेल बिठाने वाला तत्त्वज्ञ. उनका 'कल्चर एंड सोसाइटी' नामक संस्कृतिका विश्लेषण करनेवाला पुस्तक अत्यंत प्रसिद्ध था । उसका एक प्रमुख चिंतन इस प्रकार था : ।
 
'''३. रेमंड विलिअम्स :''' वेल्श ब्रिटिश लेखक, माजी सैनिक (द्वितीय महायुद्ध): न्यू लेफ्ट से संबंधित एक अत्यंत प्रभावी विचारवान के रूप से प्रसिद्ध । संचार माध्यम एवं साहित्य का साम्यवादी वैचारिक क्रांति के साथ मेल बिठाने वाला तत्त्वज्ञ. उनका 'कल्चर एंड सोसाइटी' नामक संस्कृतिका विश्लेषण करनेवाला पुस्तक अत्यंत प्रसिद्ध था । उसका एक प्रमुख चिंतन इस प्रकार था : ।
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उपरोक्त तीन पद्धतियों में से 'सामाजिक स्वरूप की संस्कृति वास्तविकता से सामीप्य रखनेवाली और प्रत्यक्ष जीवन की संस्कृति होने के कारण से उसके आकलन को विलिअम्स अधिक महत्त्व देता है।
 
उपरोक्त तीन पद्धतियों में से 'सामाजिक स्वरूप की संस्कृति वास्तविकता से सामीप्य रखनेवाली और प्रत्यक्ष जीवन की संस्कृति होने के कारण से उसके आकलन को विलिअम्स अधिक महत्त्व देता है।
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अनेक भारतीय बुद्धिवान लोग भारतीय समाज में भी विलिअम्स के लेखन का संदर्भ खोजने का प्रयास करते हैं और उसके द्वारा विलिअम्स के विचारों का मॉडेल भारतीय सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति को लागू करते हैं । परंतु ऐसा करते समय एक मूलभूत वास्तव वे भूल जाते हैं कि भारतीय समाज और संस्कृति किसी भी एक संप्रदाय अथवा विचार से नियंत्रित नहीं है। एकेश्वरवादी अब्राहमिक धर्म के अनुसार भारतीय संस्कृति 'धर्म' को संस्थागत (institutionalized religion) मानने की आग्रही नहीं है । इसलिये सांस्कृतिक नियंत्रण के प्रतिकार का तर्क हमारे यहां लागू नहीं होता है । और यदि ऐसा किया जाता है तो उसके परिणाम स्वरूप अनेक विध संभ्रम निर्माण होते हैं इतना सीधा तर्क ये लोग मानते नहीं हैं कारण इस प्रकार के बौद्धिक व्यायाम का प्रमुख उद्देश्य सामाजिक अथवा सांस्कृतिक तत्त्वज्ञान को जन्म देने का न होकर केवल उस प्रकार की बौद्धिकता का बुरखा ओढकर प्रत्यक्ष राजनीति करना और कम होती जा रही अपनी राजकीय उपयोगिता को उस प्रकार से शैक्षिक और सांस्कृतिक आधार दे कर सत्ता की राजनीति में सहभागी होने के लिये अपना स्थान निर्मित करते रहना यही एक शुद्ध राजकीय हेतु इसमें से  स्पष्ट होता है।
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अनेक धार्मिक बुद्धिवान लोग धार्मिक समाज में भी विलिअम्स के लेखन का संदर्भ खोजने का प्रयास करते हैं और उसके द्वारा विलिअम्स के विचारों का मॉडेल धार्मिक सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति को लागू करते हैं । परंतु ऐसा करते समय एक मूलभूत वास्तव वे भूल जाते हैं कि धार्मिक समाज और संस्कृति किसी भी एक संप्रदाय अथवा विचार से नियंत्रित नहीं है। एकेश्वरवादी अब्राहमिक धर्म के अनुसार धार्मिक संस्कृति 'धर्म' को संस्थागत (institutionalized religion) मानने की आग्रही नहीं है । इसलिये सांस्कृतिक नियंत्रण के प्रतिकार का तर्क हमारे यहां लागू नहीं होता है । और यदि ऐसा किया जाता है तो उसके परिणाम स्वरूप अनेक विध संभ्रम निर्माण होते हैं इतना सीधा तर्क ये लोग मानते नहीं हैं कारण इस प्रकार के बौद्धिक व्यायाम का प्रमुख उद्देश्य सामाजिक अथवा सांस्कृतिक तत्त्वज्ञान को जन्म देने का न होकर केवल उस प्रकार की बौद्धिकता का बुरखा ओढकर प्रत्यक्ष राजनीति करना और कम होती जा रही अपनी राजकीय उपयोगिता को उस प्रकार से शैक्षिक और सांस्कृतिक आधार दे कर सत्ता की राजनीति में सहभागी होने के लिये अपना स्थान निर्मित करते रहना यही एक शुद्ध राजकीय हेतु इसमें से  स्पष्ट होता है।
    
४. स्टुअर्ट हॉल : वर्तमान में संपूर्ण भारत में कई प्रमुख केंद्रीय तथा प्रांतीय विद्यापीठों की शिक्षा में मानव्य विद्याशाखा (Humanities) अथवा सामाजिक विज्ञान (social sciences) एवं कला शाखा अंतर्गत एक नयी विद्याशाखा के अंतर्गत एक विषय (Discipline, subject) पढाया जाता है । उनमें से कई प्रमुख विद्यापीठ इस प्रकार है :
 
४. स्टुअर्ट हॉल : वर्तमान में संपूर्ण भारत में कई प्रमुख केंद्रीय तथा प्रांतीय विद्यापीठों की शिक्षा में मानव्य विद्याशाखा (Humanities) अथवा सामाजिक विज्ञान (social sciences) एवं कला शाखा अंतर्गत एक नयी विद्याशाखा के अंतर्गत एक विषय (Discipline, subject) पढाया जाता है । उनमें से कई प्रमुख विद्यापीठ इस प्रकार है :
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इस विद्याशाखा का संस्थापक स्टुअर्ट हॉल - (रेमंड विलिअम्स और रिचार्ड होगात के साथ ) मुलतः जमैकन था। संपूर्ण जीवन और करिअर ब्रिटन में हआ । वहां के शैक्षिक, राजकीय, सांस्कृतिक, सामाजिक समीकरण और स्थिति में उसने अपने लेखन से परिवर्तन किया । बर्मिंधम सेंटर ऑफ कल्चरल स्टडीझ की स्थापना की।
 
इस विद्याशाखा का संस्थापक स्टुअर्ट हॉल - (रेमंड विलिअम्स और रिचार्ड होगात के साथ ) मुलतः जमैकन था। संपूर्ण जीवन और करिअर ब्रिटन में हआ । वहां के शैक्षिक, राजकीय, सांस्कृतिक, सामाजिक समीकरण और स्थिति में उसने अपने लेखन से परिवर्तन किया । बर्मिंधम सेंटर ऑफ कल्चरल स्टडीझ की स्थापना की।
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शास्त्रीय मार्क्सिझम की लोकप्रिय विचारधारा कि 'पूजीवादी अर्थव्यवस्था' हर तरह की सामाजिक विषमता का मूलभूत कारण है, उसको अधिक व्यापक बनाकर तथा 'सांस्कृतिक आपखुदशाही' (cultural hegemony) सर्वसामान्य लोगों की हर प्रकार की दुरवस्था का मूल कारण है इस विचारधारा का अनुसरण कर के, प्रस्थापित संस्कृति को नकार कर 'सब कल्चर (sub culture) अथवा 'युथ कल्चर (youth culture) का आक्रमक पुरस्कार करने का मार्ग लेकर एक वैकल्पिक सामाजिक, सांस्कृतिक, राजकीय व्यवस्था निर्माण करने का ध्येय लेकर इस विद्याशाखा की स्थापना की गई थी । अपनी अपनी सभ्यता के अनुसार जो भी शाश्वत, चिरंतन, वैश्विक सांस्कृतिक मूल्य सर्वत्र आधारभूत माने जाते हैं वे सब इन सांस्कृतिक आपखुदवादी समाज नियंत्रकों ने अल्पसामाजिक समूदायों की संस्कृति को नदारद करने के लिये उन पर थोपे हुए मूल्य हैं इस धारणा को प्रखर मान्यता दे कर, जीवन के सभी स्तर के सत्ताकेंद्रों को पहचानकर उनका निरंतर प्रतिकार करते रहना और प्रभावी संस्कृति को दरकिनार कर, युवाओं तथा अल्पसंख्य समूदायों के नवोदित, तात्कालिक, अल्पकालीन एवं विद्रोही रीति रिवाजों को शक्ति प्रदान करते रहने की कार्यपद्धति के पुरस्कर्ता एवं इस विद्याशाखा के प्रति आत्मीयता का अनुभव करनेवाले लेखकों का 'प्रतिकारवादी' लेखन इस विद्याशाखा के अंतर्गत उपलब्ध करवाने की यह कार्यपद्धति है। 'कल्चरल स्टडीझ' विद्यमान संस्कृति का अध्ययन करता नहीं है, बल्कि एक संस्कृति का निर्माण करता हैं'इस निकष पर आधारित विद्यमान संस्कृति से संबंध नकारने वाला लेखन पाठ्यक्रममें उपलब्ध करवाया जाता है । 'सभी शाश्वत मूल्य प्रस्थापित की श्रेणी में आते हैं और तत्कालीन, समकालीन संस्कृति पारंपरिक संस्कृतिका प्रतिकार करनेवाली होती होती है । इसलिये उसका पुरस्कार करना और हर तरह की समकालीनता को मान्यता देते रहना यह सांस्कृतिक सता के केंद्रों को समाप्त करने का एकमेव मार्ग है। 'एक मनुष्य की राष्ट्र की संकल्पना का अर्थ है दूसरे मनुष्य का दोजख 'इस आशय की शिक्षा सभी विद्यार्थी पिछले तीस वर्षों से भारतीय विश्वविद्यालयों की उपरोक्त विद्याशाखा के माध्यम से ले रहे हैं । मार्क्सवाद  की परंपरा उसके मूल स्वरूप में कायम रखना ही नहीं तो उसे और अधिक विकसित करने की कार्यपद्धति के आधार पर प्रतिदिन की कक्षाकक्ष शिक्षा में उपरोक्त एवं उनके जैसे सभी समकालीन लेखकों का साहित्य आज के विद्यार्थियों को पढाया जाता है । प्रतिदिन कम से कम ५ से छः घण्टे विद्यार्थी इन विचारों के तथा उन्हें प्रस्तुत करने वाले शिक्षकों के संपर्क में रहते हैं, वही पुस्तकें पढते हैं (इस विषय की असंख्य पुस्तकें इंटरनेट पर विनामूल्य उपलब्ध हैं) और उसी के आधार पर परीक्षा देते हैं । पश्चिम के विश्व की वास्तविकता का अनुभव ले कर उस विषय में किया गया आलोचनात्मक लेखन भारत जैसे आध्यात्मिक और सांस्कृतिक परंपरा का जतन करने के साथ साथ अपने संपूर्ण विश्व में अपना अलग वैशिष्ट्य कायम रखने वाले देश को सांस्कृतिक द्रष्टि से समाप्त कर वहां फिर एक बार पाश्चात्य विश्व का प्रभाव निर्माण करना यही उनका ध्येय है।
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शास्त्रीय मार्क्सिझम की लोकप्रिय विचारधारा कि 'पूजीवादी अर्थव्यवस्था' हर तरह की सामाजिक विषमता का मूलभूत कारण है, उसको अधिक व्यापक बनाकर तथा 'सांस्कृतिक आपखुदशाही' (cultural hegemony) सर्वसामान्य लोगों की हर प्रकार की दुरवस्था का मूल कारण है इस विचारधारा का अनुसरण कर के, प्रस्थापित संस्कृति को नकार कर 'सब कल्चर (sub culture) अथवा 'युथ कल्चर (youth culture) का आक्रमक पुरस्कार करने का मार्ग लेकर एक वैकल्पिक सामाजिक, सांस्कृतिक, राजकीय व्यवस्था निर्माण करने का ध्येय लेकर इस विद्याशाखा की स्थापना की गई थी । अपनी अपनी सभ्यता के अनुसार जो भी शाश्वत, चिरंतन, वैश्विक सांस्कृतिक मूल्य सर्वत्र आधारभूत माने जाते हैं वे सब इन सांस्कृतिक आपखुदवादी समाज नियंत्रकों ने अल्पसामाजिक समूदायों की संस्कृति को नदारद करने के लिये उन पर थोपे हुए मूल्य हैं इस धारणा को प्रखर मान्यता दे कर, जीवन के सभी स्तर के सत्ताकेंद्रों को पहचानकर उनका निरंतर प्रतिकार करते रहना और प्रभावी संस्कृति को दरकिनार कर, युवाओं तथा अल्पसंख्य समूदायों के नवोदित, तात्कालिक, अल्पकालीन एवं विद्रोही रीति रिवाजों को शक्ति प्रदान करते रहने की कार्यपद्धति के पुरस्कर्ता एवं इस विद्याशाखा के प्रति आत्मीयता का अनुभव करनेवाले लेखकों का 'प्रतिकारवादी' लेखन इस विद्याशाखा के अंतर्गत उपलब्ध करवाने की यह कार्यपद्धति है। 'कल्चरल स्टडीझ' विद्यमान संस्कृति का अध्ययन करता नहीं है, बल्कि एक संस्कृति का निर्माण करता हैं'इस निकष पर आधारित विद्यमान संस्कृति से संबंध नकारने वाला लेखन पाठ्यक्रममें उपलब्ध करवाया जाता है । 'सभी शाश्वत मूल्य प्रस्थापित की श्रेणी में आते हैं और तत्कालीन, समकालीन संस्कृति पारंपरिक संस्कृतिका प्रतिकार करनेवाली होती होती है । इसलिये उसका पुरस्कार करना और हर तरह की समकालीनता को मान्यता देते रहना यह सांस्कृतिक सता के केंद्रों को समाप्त करने का एकमेव मार्ग है। 'एक मनुष्य की राष्ट्र की संकल्पना का अर्थ है दूसरे मनुष्य का दोजख 'इस आशय की शिक्षा सभी विद्यार्थी पिछले तीस वर्षों से धार्मिक विश्वविद्यालयों की उपरोक्त विद्याशाखा के माध्यम से ले रहे हैं । मार्क्सवाद  की परंपरा उसके मूल स्वरूप में कायम रखना ही नहीं तो उसे और अधिक विकसित करने की कार्यपद्धति के आधार पर प्रतिदिन की कक्षाकक्ष शिक्षा में उपरोक्त एवं उनके जैसे सभी समकालीन लेखकों का साहित्य आज के विद्यार्थियों को पढाया जाता है । प्रतिदिन कम से कम ५ से छः घण्टे विद्यार्थी इन विचारों के तथा उन्हें प्रस्तुत करने वाले शिक्षकों के संपर्क में रहते हैं, वही पुस्तकें पढते हैं (इस विषय की असंख्य पुस्तकें इंटरनेट पर विनामूल्य उपलब्ध हैं) और उसी के आधार पर परीक्षा देते हैं । पश्चिम के विश्व की वास्तविकता का अनुभव ले कर उस विषय में किया गया आलोचनात्मक लेखन भारत जैसे आध्यात्मिक और सांस्कृतिक परंपरा का जतन करने के साथ साथ अपने संपूर्ण विश्व में अपना अलग वैशिष्ट्य कायम रखने वाले देश को सांस्कृतिक द्रष्टि से समाप्त कर वहां फिर एक बार पाश्चात्य विश्व का प्रभाव निर्माण करना यही उनका ध्येय है।
    
हॉल अपने लेखन में कहता है कि इस विद्याशाखा के विश्वभर के विद्यार्थियों ने केवल इस तात्विक और सैद्धांतिक प्रावीण्य प्राप्त करने का लक्ष्य न रखते हुए यह बात ध्यानमें रखनी चाहिये कि इस विद्याशाखा की सही सफलता उसकी व्यावहारिक कृतिशीलता में है । अर्थात विद्यार्थियों का ध्येय केवल सैद्धांतिक प्रावीण्य (Theoretical Fluency) प्राप्त करना नहीं, बल्कि पूरे विश्व में जीवन से संबंधित प्रत्येक विषय में 'विकल्प' प्रस्थापित करने का होना चाहिये । इसी हेतु से यह विद्याशाखा 'समकालीन सांस्कृतिक' रीतिरिवाजों को अतिशय महत्त्व देती है। उनके मतानुसार 'समकालीन संस्कृति मुख्य रूप से युवा और किशोरवयीन लडके लडकियों के माध्यम से प्रकट होती है । यह प्रकटीकरण मूलतः पारंपरिक और शाश्वत, कालातीत ऐसे मूल्य एवं आदर्शों के विपरीत स्वरूप का ही होता है । इसलिये किसी भी सभ्यता में सर्वमान्य रीति रिवाजों का पुरस्कार करनेवालों  के मतानुसार सर्वसामान्य रूप से युवानों की संस्कृति मूल्यहीन होती है, कम से कम ऐसा माना तो जाता ही है। दो पीढियों के बीच की इसी विचार भिन्नता का फायदा  ऊठाकर यह विचारधारा 'युथ कल्चर' माननेवालों को सोच समझ कर 'दमनकारी प्रस्थापित संस्कृति का प्रतिकार करने के लिये उकसाया जाता है और सौहार्द, रचनात्मकता, प्रेम, आदरभाव, त्याग और सेवा जैसे मूल्यों के आधार पर परस्पर संबंधित पीढियाँ , समुदाय, समाज, कुटुंब के सदस्य, सगे संबंधी इत्यादि के बीच सत्ता संघर्ष का बीज डालकर 'साधक' सत्य से 'बाधक' अवस्था प्रति ले जाते हैं।
 
हॉल अपने लेखन में कहता है कि इस विद्याशाखा के विश्वभर के विद्यार्थियों ने केवल इस तात्विक और सैद्धांतिक प्रावीण्य प्राप्त करने का लक्ष्य न रखते हुए यह बात ध्यानमें रखनी चाहिये कि इस विद्याशाखा की सही सफलता उसकी व्यावहारिक कृतिशीलता में है । अर्थात विद्यार्थियों का ध्येय केवल सैद्धांतिक प्रावीण्य (Theoretical Fluency) प्राप्त करना नहीं, बल्कि पूरे विश्व में जीवन से संबंधित प्रत्येक विषय में 'विकल्प' प्रस्थापित करने का होना चाहिये । इसी हेतु से यह विद्याशाखा 'समकालीन सांस्कृतिक' रीतिरिवाजों को अतिशय महत्त्व देती है। उनके मतानुसार 'समकालीन संस्कृति मुख्य रूप से युवा और किशोरवयीन लडके लडकियों के माध्यम से प्रकट होती है । यह प्रकटीकरण मूलतः पारंपरिक और शाश्वत, कालातीत ऐसे मूल्य एवं आदर्शों के विपरीत स्वरूप का ही होता है । इसलिये किसी भी सभ्यता में सर्वमान्य रीति रिवाजों का पुरस्कार करनेवालों  के मतानुसार सर्वसामान्य रूप से युवानों की संस्कृति मूल्यहीन होती है, कम से कम ऐसा माना तो जाता ही है। दो पीढियों के बीच की इसी विचार भिन्नता का फायदा  ऊठाकर यह विचारधारा 'युथ कल्चर' माननेवालों को सोच समझ कर 'दमनकारी प्रस्थापित संस्कृति का प्रतिकार करने के लिये उकसाया जाता है और सौहार्द, रचनात्मकता, प्रेम, आदरभाव, त्याग और सेवा जैसे मूल्यों के आधार पर परस्पर संबंधित पीढियाँ , समुदाय, समाज, कुटुंब के सदस्य, सगे संबंधी इत्यादि के बीच सत्ता संघर्ष का बीज डालकर 'साधक' सत्य से 'बाधक' अवस्था प्रति ले जाते हैं।
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अंत में यही कहना है कि उपरोक्त जानकारी तो थोडासा हिस्सा ही है । १९५७ में शुरु हुई 'कल्चरल स्टडीझ' विद्याशाखा वर्तमान में विश्व के प्रमुख विश्वविद्यालयों की 'आंतरविद्याशाखा' स्तर की सब से अधिक लोकप्रिय शाखा मानी जाती है । उसमें कार्यरत वर्तमान बुद्धिवादियों की सूची बहुत लम्बी है । वैश्विक स्तर पर कुल मिला कर ३२ देशों के सभी प्रमुख विश्वविद्यालयों में यह विषय पढा और पढाया जाता है । इन विश्वविद्यालयों में इस विद्याशाखा में कार्यरत प्राध्यापक, विचारक हमेशां परस्पर संपर्क में रहते हैं । उनका नेटवर्क बहुत सक्रिय है। परस्पर विचार विमर्श निरंतर चलता रहता है । अपनी कारकिर्द को परदेश गमन का स्पर्श हो कर वह अधिकाधिक विकसित हो ऐसी महत्त्वाकांक्षा के साथ अनेक प्राध्यापक लोग 'कल्चरल स्टडीझ के 'ट्रेंड'का अनुसरण कर के कुछ भी वैचारिक स्पष्टता के बिना ही इस विद्याशाखा के अंतर्गत अनुसन्धान करते हैं और विद्यार्थियों को भी उसके लिये प्रोत्साहित करते हैं । विशेष रूप से कुछ सीमित स्वरूप में इस विषय की 'वैल्कपिक' रचना का तर्क कुशलतापूर्वक भारत देश के संदर्भ में प्रस्तुत हो सकता है।
 
अंत में यही कहना है कि उपरोक्त जानकारी तो थोडासा हिस्सा ही है । १९५७ में शुरु हुई 'कल्चरल स्टडीझ' विद्याशाखा वर्तमान में विश्व के प्रमुख विश्वविद्यालयों की 'आंतरविद्याशाखा' स्तर की सब से अधिक लोकप्रिय शाखा मानी जाती है । उसमें कार्यरत वर्तमान बुद्धिवादियों की सूची बहुत लम्बी है । वैश्विक स्तर पर कुल मिला कर ३२ देशों के सभी प्रमुख विश्वविद्यालयों में यह विषय पढा और पढाया जाता है । इन विश्वविद्यालयों में इस विद्याशाखा में कार्यरत प्राध्यापक, विचारक हमेशां परस्पर संपर्क में रहते हैं । उनका नेटवर्क बहुत सक्रिय है। परस्पर विचार विमर्श निरंतर चलता रहता है । अपनी कारकिर्द को परदेश गमन का स्पर्श हो कर वह अधिकाधिक विकसित हो ऐसी महत्त्वाकांक्षा के साथ अनेक प्राध्यापक लोग 'कल्चरल स्टडीझ के 'ट्रेंड'का अनुसरण कर के कुछ भी वैचारिक स्पष्टता के बिना ही इस विद्याशाखा के अंतर्गत अनुसन्धान करते हैं और विद्यार्थियों को भी उसके लिये प्रोत्साहित करते हैं । विशेष रूप से कुछ सीमित स्वरूप में इस विषय की 'वैल्कपिक' रचना का तर्क कुशलतापूर्वक भारत देश के संदर्भ में प्रस्तुत हो सकता है।
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साम्यवाद के 'सामाजिक वर्ग विग्रह के तर्क एवं सिद्धांत पर आधारित तथा सशस्त्र अथवा आंदोलनात्मक प्रतिकार की कार्य पद्धति पर आधारित 'कल्चरल स्टडीझ' नामक विद्याशाखा अथवा विषय भारत में पढाया जाना अपने आप में दुर्भाग्य की बात है। भारत पहले ही सेंकडों वर्षों से मुगल अथवा ब्रिटिश साम्राज्य के आधिपत्य में रहने के कारण अपना स्वत्व एवं अस्मिता बड़े पैमाने पर गँवा बैठा है । ऐसे आघातों के कारण दुर्बल मानसिकता प्राप्त देश में ऐसा विषय पढाने का अर्थ है वैविध्यपूर्ण भारतीय समाज को राष्ट्रीयता की भावना से एक करने वाले विचारों के स्थान पर देश विघातक विचारों की सहायता से देश के युवकों की उर्जा और उत्साह नष्ट करना । सामाजिक सौहार्दपूर्ण वातावरण नष्ट करना, प्रत्येक समुदाय को एक दूसरे के विरुद्ध, व्यक्ति को व्यक्ति विरुद्ध, युवा पीढी को अपनी पूर्व पीढी विरुद्ध, स्त्रियों को पुरुषों के विरुद्ध, व्यक्ति को अपने परिवार एवं समाज विरुद्ध, नागरिकों को सरकार विरुद्ध, कर्मचारियों को अपनी अपनी कम्पनी के विरुद्ध, देश के लोगों को अपने देश विरुद्ध निरंतर संघर्षमय रखने का प्रशिक्षण देनेवाली यह शिक्षा के माध्यम से निर्माण की गई व्यवस्था है । उसका उद्देश्य भारत के वैशिष्ट्यपूर्ण विविधतायुक्त समाज को एकत्व के संस्कारों द्वारा संगठित कर देश की शक्ति बढाने के कार्य में बाधा उत्पन्न करना है । तथा उसके परिणामस्वरूप विभाजित और असंगठित समाज का, युवा, महिला, दलित, अल्पसंख्यांक, मझदूर, शोषित, पीडित वर्ग का, कुलमिलाकर 'सामाजिक विषमता का लाभ उठाकर, सदियों के राजकीय एवं सांस्कृतिक पारतंत्र्य के बाद फिर से विश्व स्तर पर अपनी पहचान बनाने का प्रयत्न कर रहे भारत को फिर एक बार स्वविस्मृति की गर्ता में धकेलने का यह कारस्थान शिक्षा के माध्यम से हो रहा है यह बडे दुर्भाग्य की बात है।
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साम्यवाद के 'सामाजिक वर्ग विग्रह के तर्क एवं सिद्धांत पर आधारित तथा सशस्त्र अथवा आंदोलनात्मक प्रतिकार की कार्य पद्धति पर आधारित 'कल्चरल स्टडीझ' नामक विद्याशाखा अथवा विषय भारत में पढाया जाना अपने आप में दुर्भाग्य की बात है। भारत पहले ही सेंकडों वर्षों से मुगल अथवा ब्रिटिश साम्राज्य के आधिपत्य में रहने के कारण अपना स्वत्व एवं अस्मिता बड़े पैमाने पर गँवा बैठा है । ऐसे आघातों के कारण दुर्बल मानसिकता प्राप्त देश में ऐसा विषय पढाने का अर्थ है वैविध्यपूर्ण धार्मिक समाज को राष्ट्रीयता की भावना से एक करने वाले विचारों के स्थान पर देश विघातक विचारों की सहायता से देश के युवकों की उर्जा और उत्साह नष्ट करना । सामाजिक सौहार्दपूर्ण वातावरण नष्ट करना, प्रत्येक समुदाय को एक दूसरे के विरुद्ध, व्यक्ति को व्यक्ति विरुद्ध, युवा पीढी को अपनी पूर्व पीढी विरुद्ध, स्त्रियों को पुरुषों के विरुद्ध, व्यक्ति को अपने परिवार एवं समाज विरुद्ध, नागरिकों को सरकार विरुद्ध, कर्मचारियों को अपनी अपनी कम्पनी के विरुद्ध, देश के लोगों को अपने देश विरुद्ध निरंतर संघर्षमय रखने का प्रशिक्षण देनेवाली यह शिक्षा के माध्यम से निर्माण की गई व्यवस्था है । उसका उद्देश्य भारत के वैशिष्ट्यपूर्ण विविधतायुक्त समाज को एकत्व के संस्कारों द्वारा संगठित कर देश की शक्ति बढाने के कार्य में बाधा उत्पन्न करना है । तथा उसके परिणामस्वरूप विभाजित और असंगठित समाज का, युवा, महिला, दलित, अल्पसंख्यांक, मझदूर, शोषित, पीडित वर्ग का, कुलमिलाकर 'सामाजिक विषमता का लाभ उठाकर, सदियों के राजकीय एवं सांस्कृतिक पारतंत्र्य के बाद फिर से विश्व स्तर पर अपनी पहचान बनाने का प्रयत्न कर रहे भारत को फिर एक बार स्वविस्मृति की गर्ता में धकेलने का यह कारस्थान शिक्षा के माध्यम से हो रहा है यह बडे दुर्भाग्य की बात है।
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युरोपीय एवं अमेरिकन विश्वविद्यालयों के साथ संबंधित वामपंथी विचारक कल्चरल स्टडीझ के 'वैकल्पिक संस्कृति' के तर्क के आधार पर वास्तव में 'साम्यवादी व्यवस्था' के विकल्प का ही समर्थन करते हैं। क्यों कि उन लोगों का प्रमुख ध्येय स्थानिक संस्कृति को प्रवाहित रखने का न हो कर चीन की माओवादी 'सांस्कृतिक क्रांति' की भारतीय आवृत्ति साकार करना है । जो भारत के साथ हो रहा है वह विश्व के किसी भी देश के साथ हो सकता है।
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युरोपीय एवं अमेरिकन विश्वविद्यालयों के साथ संबंधित वामपंथी विचारक कल्चरल स्टडीझ के 'वैकल्पिक संस्कृति' के तर्क के आधार पर वास्तव में 'साम्यवादी व्यवस्था' के विकल्प का ही समर्थन करते हैं। क्यों कि उन लोगों का प्रमुख ध्येय स्थानिक संस्कृति को प्रवाहित रखने का न हो कर चीन की माओवादी 'सांस्कृतिक क्रांति' की धार्मिक आवृत्ति साकार करना है । जो भारत के साथ हो रहा है वह विश्व के किसी भी देश के साथ हो सकता है।
    
==References==
 
==References==
<references />भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
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<references />धार्मिक शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
[[Category:भारतीय शिक्षा ग्रंथमाला 5: पर्व 2: विश्वस्थिति का आकलन]]
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[[Category:धार्मिक शिक्षा ग्रंथमाला 5: पर्व 2: विश्वस्थिति का आकलन]]

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