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| == विदेशियों द्वारा भ्रम निर्माण == | | == विदेशियों द्वारा भ्रम निर्माण == |
− | मेक्समूलर नामक विद्वान लिखता है, "Indians are a nation of philosophers and Indian intellect is lacking on political and material speculations and that Indians never know the feeling of nationality'. भारत दार्शनिकों का देश है और भारतीय मनीषियों में राजनीतिक तथा भौतिक चिंतन का अभाव है तथा भारतीयों में कभी राष्ट्रीयता की भावना नहीं रही। | + | मेक्समूलर नामक विद्वान लिखता है, "Indians are a nation of philosophers and Indian intellect is lacking on political and material speculations and that Indians never know the feeling of nationality'. भारत दार्शनिकों का देश है और धार्मिक मनीषियों में राजनीतिक तथा भौतिक चिंतन का अभाव है तथा धार्मिकों में कभी राष्ट्रीयता की भावना नहीं रही। |
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| अंग्रेजों ने हमेशा भारत एक राष्ट्र नहीं रहा यह सिद्ध करने का प्रयास किया है। यहाँ अनेक राज्य थे । इसलिये अज्ञान के कारण तथा धूर्तता के कारण भी वे बोलने लगे कि भारत में अनेक राष्ट्र हैं। वे हमेशा बहुराष्ट्रवाद (multinational theory) के सिद्धांत का प्रतिपादन करते रहे । भारत के आध्यात्मिक तथा सांस्कृतिक राष्ट्रदर्शन को समझना उनके लिये आसान नहीं था, उनकी समझने की इच्छा भी नहीं थी। अंग्रेजी शिक्षा के प्रभाव के कारण, भावनात्मक दासता के कारण बुद्धिजीवी कहलाने वाला एक समूह भारत में एक नया राष्ट्र निर्माण करने की, नेशन मेकिंग की बात करने लगा। उसका प्रभाव आज भी देश में दिखता है। | | अंग्रेजों ने हमेशा भारत एक राष्ट्र नहीं रहा यह सिद्ध करने का प्रयास किया है। यहाँ अनेक राज्य थे । इसलिये अज्ञान के कारण तथा धूर्तता के कारण भी वे बोलने लगे कि भारत में अनेक राष्ट्र हैं। वे हमेशा बहुराष्ट्रवाद (multinational theory) के सिद्धांत का प्रतिपादन करते रहे । भारत के आध्यात्मिक तथा सांस्कृतिक राष्ट्रदर्शन को समझना उनके लिये आसान नहीं था, उनकी समझने की इच्छा भी नहीं थी। अंग्रेजी शिक्षा के प्रभाव के कारण, भावनात्मक दासता के कारण बुद्धिजीवी कहलाने वाला एक समूह भारत में एक नया राष्ट्र निर्माण करने की, नेशन मेकिंग की बात करने लगा। उसका प्रभाव आज भी देश में दिखता है। |
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| # सारे शक हिंदु हो गये । रुद्रदमन, जयदमन, जीवदमन ये सारे शासक शक ही थे। | | # सारे शक हिंदु हो गये । रुद्रदमन, जयदमन, जीवदमन ये सारे शासक शक ही थे। |
| # हूण आक्रमणकारी मिहीर कुल क्रूर था परंतु यहाँ के प्रभाव के परिणाम स्वरूप दयालु बन गया और उसने शैव धर्म अंगीकार किया । वह काश्मीर में बस गया था । | | # हूण आक्रमणकारी मिहीर कुल क्रूर था परंतु यहाँ के प्रभाव के परिणाम स्वरूप दयालु बन गया और उसने शैव धर्म अंगीकार किया । वह काश्मीर में बस गया था । |
− | १३वीं शताब्दी में असम पर थाई राजाओं का आक्रमण हुआ। तब थाई राजा सकुफा के सामने असम का हिंदु राजा पराजित हो गया । पूरे असम पर थाई राजा का राज्य हो गया । परंतु धीरे धीरे वे सब हिंदु संस्कृति के प्रभाव में आ कर हिंदु बन गये। उन्होंने बड़े बड़े शिव मंदिर निर्माण किये। संस्कृत विद्यालयों की स्थापना की। हिंदु धर्म का प्रचार किया । भारतीय राजा हार गया था परंतु हिंदु राष्ट्र जीत गया था। | + | १३वीं शताब्दी में असम पर थाई राजाओं का आक्रमण हुआ। तब थाई राजा सकुफा के सामने असम का हिंदु राजा पराजित हो गया । पूरे असम पर थाई राजा का राज्य हो गया । परंतु धीरे धीरे वे सब हिंदु संस्कृति के प्रभाव में आ कर हिंदु बन गये। उन्होंने बड़े बड़े शिव मंदिर निर्माण किये। संस्कृत विद्यालयों की स्थापना की। हिंदु धर्म का प्रचार किया । धार्मिक राजा हार गया था परंतु हिंदु राष्ट्र जीत गया था। |
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| == इस्लाम काल में संघर्ष == | | == इस्लाम काल में संघर्ष == |
− | आठवीं शताब्दी से १७वीं शताब्दी तक भारत पर इस्लाम का आक्रमण होता रहा था। अनेक भूभागों में संघर्ष होता रहता था । विदेशी लोग जीतते गये, राज्य करते गये, हमारे अधिकांश राजा हार गये । देश के बहुत बड़े भूभाग पर विदेशी और विधर्मियों का राज्य था। उन्होंने अनेक मंदिर तोड़े, भयंकर लूट मचाई, लगातार सौ वर्ष तक निरंतर विध्वंस होता रहा । विश्व में इतने लम्बे समय तक का आक्रमण अन्य किसी भी देश पर नहीं हुआ है। फिर भी अनेक देश नामशेष हो गये हैं परंतु भारतीय राष्ट्र जीवंत रहा । भारतीय संस्कृति का प्रवाह अखंड, अविचल रहा । यह कैसे हुआ ? | + | आठवीं शताब्दी से १७वीं शताब्दी तक भारत पर इस्लाम का आक्रमण होता रहा था। अनेक भूभागों में संघर्ष होता रहता था । विदेशी लोग जीतते गये, राज्य करते गये, हमारे अधिकांश राजा हार गये । देश के बहुत बड़े भूभाग पर विदेशी और विधर्मियों का राज्य था। उन्होंने अनेक मंदिर तोड़े, भयंकर लूट मचाई, लगातार सौ वर्ष तक निरंतर विध्वंस होता रहा । विश्व में इतने लम्बे समय तक का आक्रमण अन्य किसी भी देश पर नहीं हुआ है। फिर भी अनेक देश नामशेष हो गये हैं परंतु धार्मिक राष्ट्र जीवंत रहा । धार्मिक संस्कृति का प्रवाह अखंड, अविचल रहा । यह कैसे हुआ ? |
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| भारत में सांस्कृतिक प्रवाह को निरंतर प्रवाहित रखने में सन्तों की बहुत बड़ी भूमिका रही है। श्री रामानुजाचार्य, स्वामी विद्यारण्य, स्वामी रामानंद, चैतन्य महाप्रभु, गुरु नानकदेव, सन्त कबीर, बसवेश्वर, सन्त नामदेव, समर्थ गुरु रामदास, गोस्वामी तुलसीदास, श्रीमंत शंकरदेव आदि असंख्य सन्तों की लम्बी परम्परा सामने आती है। देश के हर प्रांत में हर भाषा में अध्यात्म को आधार बनाकर वैदिक दर्शन, गीता, रामायण, महाभारत तथा भागवत को ले कर पूरे देश में सांस्कृतिक जागरण चलता रहा । | | भारत में सांस्कृतिक प्रवाह को निरंतर प्रवाहित रखने में सन्तों की बहुत बड़ी भूमिका रही है। श्री रामानुजाचार्य, स्वामी विद्यारण्य, स्वामी रामानंद, चैतन्य महाप्रभु, गुरु नानकदेव, सन्त कबीर, बसवेश्वर, सन्त नामदेव, समर्थ गुरु रामदास, गोस्वामी तुलसीदास, श्रीमंत शंकरदेव आदि असंख्य सन्तों की लम्बी परम्परा सामने आती है। देश के हर प्रांत में हर भाषा में अध्यात्म को आधार बनाकर वैदिक दर्शन, गीता, रामायण, महाभारत तथा भागवत को ले कर पूरे देश में सांस्कृतिक जागरण चलता रहा । |
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| सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अवधारणा में देश को माता मान कर समाज उसका पुत्र है इस रूप में व्यवहार करता है। इस भूमि में जन्म लेकर इस राष्ट्र के लिये अनेक महापुरुषों ने अपना जीवन समर्पित किया । शरणागत शत्रु और मित्र के साथ उनका व्यवहार समान रहा । | | सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अवधारणा में देश को माता मान कर समाज उसका पुत्र है इस रूप में व्यवहार करता है। इस भूमि में जन्म लेकर इस राष्ट्र के लिये अनेक महापुरुषों ने अपना जीवन समर्पित किया । शरणागत शत्रु और मित्र के साथ उनका व्यवहार समान रहा । |
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− | भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवादमें उपासना तथा संप्रदाय की पूर्ण स्वतंत्रता है । धर्म, पंथ अथवा संप्रदाय राष्ट्र निर्माण का आधार नहीं हैं । राष्ट्र के लम्बे इतिहास में केवल सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म को अपने राज्य का आधिकारिक धर्म बनाया था। इस अपवाद को छोडकर भारत कभी भी धर्म शासित राज्य नहीं रहा है।
| + | धार्मिक सांस्कृतिक राष्ट्रवादमें उपासना तथा संप्रदाय की पूर्ण स्वतंत्रता है । धर्म, पंथ अथवा संप्रदाय राष्ट्र निर्माण का आधार नहीं हैं । राष्ट्र के लम्बे इतिहास में केवल सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म को अपने राज्य का आधिकारिक धर्म बनाया था। इस अपवाद को छोडकर भारत कभी भी धर्म शासित राज्य नहीं रहा है। |
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− | भारत में जन्में सभी पंथ अथवा संप्रदाय केवल सहिष्णु ही नहीं तो सब धर्मों के प्रति सम्मान का भाव रखने वाले रहे हैं। मतांतरण करना भारत की सांस्कृतिक धारा में कहीं भी नहीं रहा है। इसीलिये भारतीय राष्ट्रीय चिह्न बहुमतवादी (प्लुरालिस्टिक) है। | + | भारत में जन्में सभी पंथ अथवा संप्रदाय केवल सहिष्णु ही नहीं तो सब धर्मों के प्रति सम्मान का भाव रखने वाले रहे हैं। मतांतरण करना भारत की सांस्कृतिक धारा में कहीं भी नहीं रहा है। इसीलिये धार्मिक राष्ट्रीय चिह्न बहुमतवादी (प्लुरालिस्टिक) है। |
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| == राष्ट्र दर्शन की अवधारणा == | | == राष्ट्र दर्शन की अवधारणा == |
− | राष्ट्र के विकास के विषय में प्राचीन ऋषियों ने बहुत स्पष्ट वर्णन किया हुआ है। <blockquote>ॐ भद्रम् इच्छन्त ऋषयः स्वर्विदः तपोदिक्षामुपनिषेदुरग्रे ततो राष्ट्र बलम् ओजस्व जातंतदस्मै देवाः उपसन्नमन्तु ॥ (अथर्व वेद १६:४१:१)</blockquote>ऋषियों में लोक मंगलकारी इच्छा प्रकट हुई। वे ऋषि श्रेष्ठ ज्ञानी थे। 'तपो दीक्षाम्' अर्थात उन्होंने दीक्षा भी प्राप्त की थी। उन्होंने अपने कठोर तप एवं परिश्रम से इस राष्ट्र जीवन में बल और तेज निर्माण किया ।'ऋषि कहते हैं 'तदस्मै देवा उपसन्नमस्तु"आइये हम सब मिलकर इस राष्ट्र भावना की उपासना करें, अभिनन्दन करें, उसकी सेवा करें । इस राष्ट्र को प्रणाम करें और राष्ट्र के प्रति अपना सब समर्पण करें । ऋषियों की भद्र इच्छाओं में निहित था सर्व मंगलकारी दर्शन । इस के अंदर सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण था एकात्म बोध । यह एकात्म बोध भारतीय सांस्कृतिक दर्शन की सर्वाधिक मूल्यवान बात थी। ऋषियों ने सभी प्रकार की विविधताओं को सम्मानित करते हुए एक महाधिकार पत्र प्रदान करते हुए कहा, 'एकं सत् विप्राः बहुधा वदन्ति'। ऋषियों के इस वैश्विक दर्शन ने सभी को असीमित रूप से उदार बना दिया । | + | राष्ट्र के विकास के विषय में प्राचीन ऋषियों ने बहुत स्पष्ट वर्णन किया हुआ है। <blockquote>ॐ भद्रम् इच्छन्त ऋषयः स्वर्विदः तपोदिक्षामुपनिषेदुरग्रे ततो राष्ट्र बलम् ओजस्व जातंतदस्मै देवाः उपसन्नमन्तु ॥ (अथर्व वेद १६:४१:१)</blockquote>ऋषियों में लोक मंगलकारी इच्छा प्रकट हुई। वे ऋषि श्रेष्ठ ज्ञानी थे। 'तपो दीक्षाम्' अर्थात उन्होंने दीक्षा भी प्राप्त की थी। उन्होंने अपने कठोर तप एवं परिश्रम से इस राष्ट्र जीवन में बल और तेज निर्माण किया ।'ऋषि कहते हैं 'तदस्मै देवा उपसन्नमस्तु"आइये हम सब मिलकर इस राष्ट्र भावना की उपासना करें, अभिनन्दन करें, उसकी सेवा करें । इस राष्ट्र को प्रणाम करें और राष्ट्र के प्रति अपना सब समर्पण करें । ऋषियों की भद्र इच्छाओं में निहित था सर्व मंगलकारी दर्शन । इस के अंदर सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण था एकात्म बोध । यह एकात्म बोध धार्मिक सांस्कृतिक दर्शन की सर्वाधिक मूल्यवान बात थी। ऋषियों ने सभी प्रकार की विविधताओं को सम्मानित करते हुए एक महाधिकार पत्र प्रदान करते हुए कहा, 'एकं सत् विप्राः बहुधा वदन्ति'। ऋषियों के इस वैश्विक दर्शन ने सभी को असीमित रूप से उदार बना दिया । |
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| इसके बाद आया 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' भद्र इच्छाओं की सार्वजनिक स्वीकृति । ऋषियों के परिश्रम एवं प्रयासों के कारण भद्र इच्छाओं का यह भाव सन्देश भारत वर्ष के जनजीवन में नीचे तक पहुँच गया। राजा महाराजाओं, विद्वान एवं निरक्षर, धनवान एवं निर्धनग्रामवासी, नगरवासी तथा वनवासी सब ने उसको स्वीकार किया। | | इसके बाद आया 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' भद्र इच्छाओं की सार्वजनिक स्वीकृति । ऋषियों के परिश्रम एवं प्रयासों के कारण भद्र इच्छाओं का यह भाव सन्देश भारत वर्ष के जनजीवन में नीचे तक पहुँच गया। राजा महाराजाओं, विद्वान एवं निरक्षर, धनवान एवं निर्धनग्रामवासी, नगरवासी तथा वनवासी सब ने उसको स्वीकार किया। |
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| ==References== | | ==References== |
− | <references />भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), अध्याय २४. प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे | + | <references />धार्मिक शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ५), अध्याय २४. प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे |
− | [[Category:भारतीय शिक्षा ग्रंथमाला 5: पर्व 2: विश्वस्थिति का आकलन]] | + | [[Category:धार्मिक शिक्षा ग्रंथमाला 5: पर्व 2: विश्वस्थिति का आकलन]] |