राष्ट्रवाद की पश्चिमी संकल्पना

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विश्व में आज 'राष्ट्र' (Nation), राष्ट्रीयता (Nationalism), राष्ट्रों का अस्तित्व और अस्मिता बड़ी चर्चा के विषय हैं । विश्वशांति की भी बात बहुत होती है, सब विश्वशांति चाहते भी हैं, परंतु उस दिशा में आशा जनक वातावरण कहीं नहीं दिखता है। राष्ट्रों के मध्य में परस्पर स्पर्धा और कभी कभी इर्ष्या भी देखने को मिलती है। कुछ शक्तिसंपन्न राष्ट्र विश्वमें अपना आधिपत्य स्थापित करने में लगे हैं इसलिये सभी राष्ट्रों के नेता शांति की भाषा बोलने पर भी शांति की स्थापना असंभव सी लगती है।

इसलिये वास्तव में राष्ट्रवाद का क्या अर्थ है यह समझने के लिये राष्ट्रों के उदय तथा विकास के बारे में मूल रूप से सोचना आवश्यक हो जाता है। भारत के विषय में सोचना है तो विदेशी इतिहासकारों ने भारत प्राचीन राष्ट्र नहीं है ऐसा सिद्ध करने के लिये कई तर्कबद्ध प्रयास भले ही किये हों परंतु भारत में निर्विवाद रूप से प्राचीन काल से ही राष्ट्रभावना अपने श्रेष्ठ स्तर पर रही है।

इतिहास और राष्ट्रीयता

वर्तमान भूगोल में ५००० से ७००० वर्ष पूर्व सभी विद्यमान सभ्यताएँ जीवित नहीं हैं । प्राचीन सभ्यताओं में से केवल भारत और चीन ही अपना अस्तित्व बनाये रखे हुए हैं। और उनके बने रहने का कारण उनकी सांस्कृतिक, धार्मिक विचारधारा ही हैं ऐसा हम कह सकते हैं।

पश्चिम में राष्ट्र (Nation) तथा राष्ट्रीयता (Nationalism) की संकल्पना १७०० से १७९८ के दौरान उदित हुई ऐसा लगता है । फ्रांस की राज्यक्रांति के साथ राष्ट्र भावना का प्रभावी ढंग से विश्व के अन्य देशों में, विशेष रूप से युरोप में प्रारंभ हुआ। बेरनाई लेनिस के अनुसार समान भाषा, समान विश्वास और एक इतिहास के आधार पर मिलकर रहने वाले समुदायों (tribes) को, एक राष्ट्र कहने लगे और तब से राष्ट्र राज्य (Nation state) कल्पना का विकास होने लगा।

पश्चिमी जगत में 'नेशन' का स्वरूप

पश्चिमी जगत की मान्यताओं के अनुसार जब कोई सेना किसी क्षेत्र को जीत लेती है और वहां का शासन किसी एक राजा के हाथ में आ जाता है तब एक राष्ट्र (नेशन) बन जाता है । अर्थात किसी भी (नेशन के लिये राजा, सेना, प्रशासन तथा जीता हुआ राज्य और समूह ( ट्राइब्स) आवश्यक तत्त्व थे । कभी एक सेना ही दूसरे नेशन को समाप्त कर देती थी।

युरोप में अनेक राष्ट्र (नेशंस) और राज्यों में एक विशेष जनसमूह का आधिपत्य, विशेष भाषा का ही महत्त्व रहता है । फ्रांस, ईजिप्त (मिश्र), जर्मनी और जापान ऐसे ही नेशन स्टेट के उदाहरण हैं । शताब्दियों से इंग्लैंड, फ्रांस, स्वीडन, स्पेन इत्यादि देशों में भौगोलिक, राजनैतिक तथा भाषाकीय आधार पर राष्ट्रीय एकात्मता विद्यमान थी। केनेडा और बेल्जियम जैसे राज्यों में दो राष्ट्र (नेशन्स ) विद्यमान थे क्योंकि बेल्जियम में डच और फ्रेंच दोनों भाषा बोलनेवाले लोग रहते थे।

यहूदियों का इतिहास तो राज्यविहीन राष्ट्र का था जो roaming nation, चलता फिरता राष्ट्र भी कहलाता था। भूमि के बिना भी एक राष्ट्र जीवित रह सकता है इसका यह जीता जागता उदाहरण था। इसके विपरीत विविध सांस्कृतिक समूहों (multi cultural) का मिलकर युनाईटेड स्टेट्स अर्थात अमेरिकन संस्कृति को विकसित कर के राष्ट्र बनाने का उदाहरण भी अस्तित्व में है।

पश्चिम में राष्ट्रीयता का विकास और विस्तार

फ्रेंच और अमेरिकन क्रांति के बाद राष्ट्रीयता (नेशनालिझम) की भावना को आधुनिक युग में स्थायी स्वरूप प्राप्त हुआ दिखाई देता है। अपनी भूमि और राष्ट्रीयता की भावना के साथ दोनों क्रांति आगे बढ़ती गई और धीरे धीरे सारे युरोप में, अनेक देशों में, अनेक भूभागों में राष्ट्रीय अस्मिता का जागरण हुआ।

१८२७ में जब इस्लामिक तुर्क साम्राज्य ने ग्रीस देश पर आक्रमण कर दिया था तब ग्रीस ने भी समान धर्म और सांस्कृतिक भावना के आधार पर ही संघर्ष किया था और तुर्क साम्राज्य का पराजय किया था। यहां तक समान भाषा और समान संस्कृति के आधार पर राष्ट्र भावना का विकास होता रहा।

नागरिक राष्ट्रवाद

समान भाषा और समान संस्कृति के आधार से विपरीत वंश, भाषा, रंग, जाति सभी अलग रहने पर भी सब को समान अधिकार देते हुए देशभक्ति के आधार पर नेशंस और नेशनालिझम (राष्ट्र और राष्ट्रीयता) का विकास हुआ था। यु.एस.ए. (अमेरिका) और ब्रिटन उसीके उदाहरण हैं।

अमेरिका में मूल रूप से प्रोटेस्टंट ईसाई रहते थे । अभी तो सारे लोग बाहर के देशों से आकर बसे हुए हैं । सर्व प्रथम युरोप से आये लोग १३ कॉलोनी बनाकर रहे थे । १७७६ में ब्रिटन के लोग आये, बाद में जर्मनी और इटली से, १९वीं शताब्दी में चीन और जापान से, तथा २०वीं शताब्दी में भारत से तथा मध्य पूर्व देशों से लोग आकर वहाँ बसने लगे । वहाँ बसने वालों में नीग्रो की संख्या भी बहुत बड़ी थी। ये सब अलग अलग होने के बावजूद अमेरिका ने अपना एक अमेरिकन कल्चर विकसित किया।

इसलिये सेम्युअल हंटिंग्टन ने कल्चर देट मेटर तथा क्लेशिज ऑफ सिविलाईझेशन में निर्देश दिया है उसके अनुसार सामान्य रूप से लोगोंं की सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान संघर्ष का कारण होने के बावजूद अमेरिका में अलग अलग देशों से, अलग अलग धर्म में आस्था रखने वाले, अलग पार्श्वभूमि से, अलग सांस्कृतिक धारा से, विविध उपासना पद्धति से आने के बाद भी सब को अमेरिकन कल्चर के आधार पर जीना है और वे जी रहे हैं।

औपनिवेशिक विरोधी राष्ट्रीयता

१८वी शताब्दी में युरोप के लोगोंं ने पूरे आफ्रिका पर आक्रमण कर दिया । आफ्रिका के जनजाति समुदाय युरोपिअन सेना और ईसाई मिशनरियों का सामना नहीं कर सके और अपना टिकाव नहीं कर सके । १९वीं शताब्दी के प्रारंभ तक तो युरोप ने संपूर्ण आफ्रिका को युरोप का उपनिवेश बना दिया। वहाँ के लोगोंं का शोषण किया और उनकी जनजाति संस्कृति का पूर्ण विध्वंस किया, वहां के प्राकृतिक संसाधनों को लूटा । अपनी भू राजनैतिक शक्ति के आधार पर दूसरे समाज को, देशों को लूटने का, उनका सर्वनाश करने का, उन्हें समाप्त कर देने का यह उदाहरण सारे सभ्य समाज को लज्जित करनेवाला है।

इसमें केवल इथोपिया अपवाद रहा । वहाँ के राजा मनेलिक दूसरे के धैर्य, पराक्रम, कूटनीति और कुशलता के कारण १ मार्च १८९६ के दिन इथोपिया अडोवा युद्ध (Battle of -dowa) जीत गया और इटली हार गया । इथोपिया अपनी स्वतंत्रता की रक्षा कर सका। लेकिन उसके बाद पूरा आफ्रिका अनेक नेशन्स में विभाजित हो गया । १८४७ से १९५० तक युरोप के आधिपत्य के कारण आफ्रिका की मूल जातियों की संस्कृति नष्ट हो गई और आफ्रिका में अनेक राष्ट्रों की सीमाओं का निर्माण हुआ।

भूराजनैतिक राष्ट्रीयता की भावना से निर्माण हुआ राष्ट्र, साम्राज्यवाद की भावना के कारण नष्ट हुआ उसका यह वैश्विक उदाहरण है।

अति राष्ट्रवाद

अपने भौगोलिक राष्ट्र के प्रति अति स्वाभिमान के परिणाम रूप उत्पन्न अहंकार के कारण से भी विश्व में राष्ट्र भावना का अतिरेक देखा गया है। इस से मानव समाज को बहुत हानि पहुँंची है।

जर्मनी के हिटलर की नाजी भावना के कारण से उसे तानाशाह बनाया और उसकी तानाशाही ( फासिझम) ने राष्ट्रीय समाजवाद (National socialism) को जन्म दिया । अपनी जाति अथवा वंश को महान मानना तथा अन्य वंशों को हीन मानने की भावना के परिणाम स्वरूप १९२० के समय में यहुदियों पर भयंकर, अमानवीय अत्याचार किये गये और लाखों यहूदियों को मोत के घाट उतारा गया ।

The Nazis sent millions of Jews, Gypsy and other people to concentration camps where they were killed. These killings are known as Holocaust. (Anti - Semitism).

साम्यवादियों का अति राष्ट्रवाद

वामपंथियों की हिंसा से प्रेरित राष्ट्रीयता के कारण भी विश्व में मानवता का शोषण हुआ है। सोवियत रशिया -सोवियत युनिअन ने जार की वसाहतों एवं एशिया और युरोप में अनेक आक्रमण किये और अपने साम्राज्य का विस्तार किया। मध्य एशिया के कजाकिस्थान, किरालिस्थान, तनकिस्थान, उजबेकिस्थान और तुर्कमेनिस्थान के करोड़ों लोगोंं को मार डाला। रशियन राष्ट्रवाद और रशियन साम्राज्यवाद की मानसिकताने वहां की अरबी भाषा को बदल दिया, अनेक देशों की मूल भाषा और संस्कृति को नष्ट किया। इस प्रकार ७० वर्ष तक साम्राज्यवाद की भावना से राज्य चलाने के बाद भी आखिर में १९८९-९० में सोवियत युनिअन बिखर गया, सारे देश स्वतंत्र हो गये। केवल रशिया देश राष्ट्र (नेशन) बचा रहा । अर्थात् राज्य राष्ट्र बनने का आधार नहीं है, सांस्कृतिक आधार ही 'राष्ट्' के नाते जीने का शाश्वत आधार दीखाई देता है।

धार्मिक राष्ट्रवाद

धर्म के आधार पर राष्ट्र का निर्माण भी हुआ है। मध्य पूर्व देशों में अधिक मुसलमान (इस्लाम मतावलम्बी) हैं। इस्लाम पंथ भी देश, सीमा मानता नहीं है। परंतु अनेक वर्ष खलीफा को सारे इस्लाम देशों का राजा मानकर चलने के बाद भी जब राष्ट्रीय भावना जाग्रत हुई तब अनेक राष्ट्रों (नेशन्स) का जन्म और विकास हुआ । इरान इराक अलग हैं और दोनों के मध्य शत्रुता है। पाकिस्तान- इरान, पाकिस्तान - अफ्घानिस्तान तथा जॉर्डन - पेलेस्टाईन और इजिप्त - पेलेस्टाईन सब के मध्य में शत्रुता है। सब अलग राष्ट्र हैं, नेशन्स हैं।

पश्चिमी जगत में राष्ट्र (नेशन) का स्वरूप

पश्चिम में राष्ट्र राज्य अवधारणा (National State Concept) है। राष्ट्र राज्य के आधारित है। जब राज्य जीतता था तब राष्ट्र विद्यमान था, परन्तु जब राज्य बदल जाता था तो राष्ट्र भी बदल जाता था । इस बात को समझने के लिये मिस्र, इजिप्त देश राष्ट्र के इतिहास का अध्ययन करना आवश्यक है।

मिस्र विश्व में एक प्राचीन राष्ट्र था । वहाँ फराहो राजा राज्य करते थे | उन्होंने शवों को सुरक्षित रखने के लिये ममी और पिरामिडज का भी निर्माण किया था | जब जर्मन क्षेत्र से सेमेटिक बर्बर जातियों ने उन पर आक्रमण किया और उनको हराकर उन पर कब्ज़ा कर लिया तब मिस्र राष्ट्र नष्ट हो गया | उसके बाद फ्रांस ने आक्रमण किया, बाद में रोम ने आक्रमण किया और इस तीसरे आक्रमण के बाद मिस्र (ईजिप्त) रोअन साम्राज्य के अंतर्गत आ गया |

उसके बाद अरब (मुस्लिम) आक्रमणकारियों ने रोम पर आक्रमण किया और पूरा इस्लामीकरण हो गया । फराहो संस्कृति, फराहो विचार, फराहो परम्परा को जीवित रखने की व्यवस्था वहाँ नहीं थी इसलिये राज्य बदलते ही राष्ट्र नष्ट हो गया । इन सभी पुराने देशों की - इरान, ग्रीस, रोम, पर्शिया, मिस्र- सब की कहानी लगभग एक समान है। भूजागतिक राष्ट्रीयता होने के कारण राष्ट्र नष्ट होते गये अथवा दूसरों का शोषण करते गये और मानवता का विध्वंस होता गया।

अब जब हम भारत के बारे में सोचते हैं तब स्वराज्य प्राप्ति के बाद का भ्रम सामने आता है । भारत आज़ाद होने के बाद संविधान तो बना । राष्ट्रभक्त महान विद्वान डॉ. संपूर्णानंद को भावनात्मक एकात्मता समिति (Emotional National integration Committee) का अध्यक्ष बनाया गया था। संपूर्ण देश में भावनात्मक एकात्मता निर्माण करने का यह प्रयास था । डॉ. संपूर्णानंदजी लिखते हैं, 'दुर्भाग्य है कि आज तक अपने राष्ट्र का कोई दर्शन निश्चित नहीं है। जब राष्ट्र का दर्शन नहीं है तो शिक्षा का दर्शन तो कहाँ से होगा ? 'अत्यंत आश्चर्य की बात है कि स्वतंत्रता के पश्चात हम कौन है, हमारी परम्परा, हमारा इतिहास क्या है, हमारे पूर्वज कौन थे, हमारे उद्देश्य क्या हैं, विश्व को हमारा योगदान क्या हो इत्यादि विषयों के बारे में कुछ निश्चित नहीं किया गया ।

विदेशियों द्वारा भ्रम निर्माण

मेक्समूलर नामक विद्वान लिखता है, "Indians are a nation of philosophers and Indian intellect is lacking on political and material speculations and that Indians never know the feeling of nationality'. भारत दार्शनिकों का देश है और धार्मिक मनीषियों में राजनीतिक तथा भौतिक चिंतन का अभाव है तथा धार्मिकों में कभी राष्ट्रीयता की भावना नहीं रही।

अंग्रेजों ने सदा भारत एक राष्ट्र नहीं रहा यह सिद्ध करने का प्रयास किया है। यहाँ अनेक राज्य थे । इसलिये अज्ञान के कारण तथा धूर्तता के कारण भी वे बोलने लगे कि भारत में अनेक राष्ट्र हैं। वे सदा बहुराष्ट्रवाद (multinational theory) के सिद्धांत का प्रतिपादन करते रहे । भारत के आध्यात्मिक तथा सांस्कृतिक राष्ट्रदर्शन को समझना उनके लिये आसान नहीं था, उनकी समझने की इच्छा भी नहीं थी। अंग्रेजी शिक्षा के प्रभाव के कारण, भावनात्मक दासता के कारण बुद्धिजीवी कहलाने वाला एक समूह भारत में एक नया राष्ट्र निर्माण करने की, नेशन मेकिंग की बात करने लगा। उसका प्रभाव आज भी देश में दिखता है।

राष्ट्र दर्शन - भारत की प्राचीन अवधारणा

भारत की राष्ट्र भावना दार्शनिक है, आध्यात्मिक है और सांस्कृतिक है । हमारे इस राष्ट्रदर्शन और राष्ट्रीयता का आधार पश्चिम की तरह कुल, वंश, रिलिजन, भाषा, राज्य या स्टेट अथवा साम्राज्य या एम्पायर नहीं है। यहाँ हजारों वर्षों से राष्ट्रीय भावना का विकास हुआ है । अथर्व वेद में माता भूमिः पुत्रोऽहंपृथिव्याः अर्थात् हमारा देश हमारी जन्मभूमि है और हम सब पृथ्वी की सन्तान हैं। यह हमारी सांस्कृतिक धारा है। अपनी मातृभूमि की आराधना करना और विश्व को अपना मानना । इसलिये भारत ने दुनिया में कभी लूटपाट नहीं की और शोषण भी नहीं किया।

राष्ट्रीयता का आधार हमारा सांस्कृतिक जीवन होने के कारण यहाँ समाजजीवन कभी खण्डित नहीं हुआ । अनेक आक्रमण हुए परंतु राष्ट्र जीवित रहा । ग्रीक, हूण, शक, कुषाण जेसी सभी बर्बर जातियों ने अन्ततोगत्वा यहां का राष्ट्र जीवन आत्मसात कर लिया था।

  1. ग्रीस के प्रतापी राजा मिनियांडर, नागसेन नामक विद्वान शिक्षक के साथ वार्तालाप और शास्त्रार्थ करते करते बौद्ध बन गया और मिलिंद नाम से विख्यात हुआ।
  2. ईसा के भी कुछ वर्ष पूर्व ग्रीक राजदूत हेलियोडोरस यहाँ परम भागवत वैष्णव हो गया ।
  3. सारे शक हिंदु हो गये । रुद्रदमन, जयदमन, जीवदमन ये सारे शासक शक ही थे।
  4. हूण आक्रमणकारी मिहीर कुल क्रूर था परंतु यहाँ के प्रभाव के परिणाम स्वरूप दयालु बन गया और उसने शैव धर्म अंगीकार किया । वह काश्मीर में बस गया था ।

१३वीं शताब्दी में असम पर थाई राजाओं का आक्रमण हुआ। तब थाई राजा सकुफा के सामने असम का हिंदु राजा पराजित हो गया । पूरे असम पर थाई राजा का राज्य हो गया । परंतु धीरे धीरे वे सब हिंदु संस्कृति के प्रभाव में आ कर हिंदु बन गये। उन्होंने बड़े बड़े शिव मंदिर निर्माण किये। संस्कृत विद्यालयों की स्थापना की। हिंदु धर्म का प्रचार किया । धार्मिक राजा हार गया था परंतु हिंदु राष्ट्र जीत गया था।

इस्लाम काल में संघर्ष

आठवीं शताब्दी से १७वीं शताब्दी तक भारत पर इस्लाम का आक्रमण होता रहा था। अनेक भूभागों में संघर्ष होता रहता था । विदेशी लोग जीतते गये, राज्य करते गये, हमारे अधिकांश राजा हार गये । देश के बहुत बड़े भूभाग पर विदेशी और विधर्मियों का राज्य था। उन्होंने अनेक मंदिर तोड़े, भयंकर लूट मचाई, लगातार सौ वर्ष तक निरंतर विध्वंस होता रहा । विश्व में इतने लम्बे समय तक का आक्रमण अन्य किसी भी देश पर नहीं हुआ है। तथापि अनेक देश नामशेष हो गये हैं परंतु धार्मिक राष्ट्र जीवंत रहा । धार्मिक संस्कृति का प्रवाह अखंड, अविचल रहा । यह कैसे हुआ ?

भारत में सांस्कृतिक प्रवाह को निरंतर प्रवाहित रखने में सन्तों की बहुत बड़ी भूमिका रही है। श्री रामानुजाचार्य, स्वामी विद्यारण्य, स्वामी रामानंद, चैतन्य महाप्रभु, गुरु नानकदेव, सन्त कबीर, बसवेश्वर, सन्त नामदेव, समर्थ गुरु रामदास, गोस्वामी तुलसीदास, श्रीमंत शंकरदेव आदि असंख्य सन्तों की लम्बी परम्परा सामने आती है। देश के हर प्रांत में हर भाषा में अध्यात्म को आधार बनाकर वैदिक दर्शन, गीता, रामायण, महाभारत तथा भागवत को ले कर पूरे देश में सांस्कृतिक जागरण चलता रहा ।

अंग्रेजों के कालखंड में कुटिलता से, शिक्षा पद्धति बदल कर भावनात्मक दासता का निर्माण किया गया । अंग्रेजों का मानना था कि भारत समाप्त हो जायेगा । इ.स. १७५७ से लेकर १९४७ तक वे भारत को लूटते रहे तथापि भारत भारत बना रहा क्योंकि समाज की रक्षा करने वाला सांस्कृतिक प्रवाह विद्यमान था। रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, नारायण गुरु, योगी अरविंद, बंकिम चन्द्र, सुब्रह्मण्यम भारती जैसे अनेक महानुभावों ने सांस्कृतिक जागरण किया।

स्वतंत्रता प्राप्त होने के बाद भी स्वार्थी राजनीति के लोगोंं ने तथा विदेश प्रेरित लोगोंं ने राष्ट्र को तोड़ने के कई प्रयास किये । पूर्वोत्तर भारत एवं सीमावर्ती प्रान्तों को भारत से अलग करने के अनेक प्रयास हुए । भाषा एवं जाति भेद बढ़ा कर देश को तोड़ने के प्रयास हुए। परंतु भारत राष्ट्र के नाते विजयी होते हुए आगे ही बढ़ रहा है उसका कारण हमारी सांस्कृतिक एकता है।

प्राचीन समय में भारत के मनीषी विश्व के अनेक देशों में गये थे। वहाँ उन्होंने सेवा और ज्ञान में बहुत योगदान किया परंतु वहाँ के लोगोंं का कभी शोषण नहीं किया। इतना ही नहीं तो जहाँ भी स्थानिक लोगोंं पर विदेशीयों द्वारा अत्याचार होते थे वहां के लोगोंं को भारत में आश्रय भी दिया गया था और प्रेम भी दिया था। सिरिअन लोगोंं पर जब उनके ही ईसाई देश में अत्याचार हुआ तब भारत ने ही उनको आश्रय दिया था। यह भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की विशेषता है ।

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अवधारणा में देश को माता मान कर समाज उसका पुत्र है इस रूप में व्यवहार करता है। इस भूमि में जन्म लेकर इस राष्ट्र के लिये अनेक महापुरुषों ने अपना जीवन समर्पित किया । शरणागत शत्रु और मित्र के साथ उनका व्यवहार समान रहा ।

धार्मिक सांस्कृतिक राष्ट्रवादमें उपासना तथा संप्रदाय की पूर्ण स्वतंत्रता है । धर्म, पंथ अथवा संप्रदाय राष्ट्र निर्माण का आधार नहीं हैं । राष्ट्र के लम्बे इतिहास में केवल सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म को अपने राज्य का आधिकारिक धर्म बनाया था। इस अपवाद को छोडकर भारत कभी भी धर्म शासित राज्य नहीं रहा है।

भारत में जन्में सभी पंथ अथवा संप्रदाय केवल सहिष्णु ही नहीं तो सब धर्मों के प्रति सम्मान का भाव रखने वाले रहे हैं। मतांतरण करना भारत की सांस्कृतिक धारा में कहीं भी नहीं रहा है। इसीलिये धार्मिक राष्ट्रीय चिह्न बहुमतवादी (प्लुरालिस्टिक) है।

राष्ट्र दर्शन की अवधारणा

राष्ट्र के विकास के विषय में प्राचीन ऋषियों ने बहुत स्पष्ट वर्णन किया हुआ है।

ॐ भद्रम् इच्छन्त ऋषयः स्वर्विदः तपोदिक्षामुपनिषेदुरग्रे ततो राष्ट्र बलम् ओजस्व जातंतदस्मै देवाः उपसन्नमन्तु ॥ (अथर्व वेद १६:४१:१)

ऋषियों में लोक मंगलकारी इच्छा प्रकट हुई। वे ऋषि श्रेष्ठ ज्ञानी थे। 'तपो दीक्षाम्' अर्थात उन्होंने दीक्षा भी प्राप्त की थी। उन्होंने अपने कठोर तप एवं परिश्रम से इस राष्ट्र जीवन में बल और तेज निर्माण किया ।'ऋषि कहते हैं 'तदस्मै देवा उपसन्नमस्तु"आइये हम सब मिलकर इस राष्ट्र भावना की उपासना करें, अभिनन्दन करें, उसकी सेवा करें । इस राष्ट्र को प्रणाम करें और राष्ट्र के प्रति अपना सब समर्पण करें । ऋषियों की भद्र इच्छाओं में निहित था सर्व मंगलकारी दर्शन । इस के अंदर सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण था एकात्म बोध । यह एकात्म बोध धार्मिक सांस्कृतिक दर्शन की सर्वाधिक मूल्यवान बात थी। ऋषियों ने सभी प्रकार की विविधताओं को सम्मानित करते हुए एक महाधिकार पत्र प्रदान करते हुए कहा, 'एकं सत् विप्राः बहुधा वदन्ति'। ऋषियों के इस वैश्विक दर्शन ने सभी को असीमित रूप से उदार बना दिया ।

इसके बाद आया 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' भद्र इच्छाओं की सार्वजनिक स्वीकृति । ऋषियों के परिश्रम एवं प्रयासों के कारण भद्र इच्छाओं का यह भाव सन्देश भारत वर्ष के जनजीवन में नीचे तक पहुँच गया। राजा महाराजाओं, विद्वान एवं निरक्षर, धनवान एवं निर्धनग्रामवासी, नगरवासी तथा वनवासी सब ने उसको स्वीकार किया।

यह दर्शन और व्यवहार भारत में और विश्व में दूरस्थ स्थानों पर पहुँचे हैं उसके दो उदाहरण...

  1. असम (गुवाहाटी) में ४२ जनजातियों के प्रमुख नेताओं का सम्मेलन हुआ। सेंकड़ों लोग उसमें सहभागी हुए थे। सभी जनजाति के प्रमुखों ने 'धरती हमारी माता है, हम धरती को पवित्र मानते हैं, उसकी पूजा करते हैं ऐसा बताया।
  2. दूसरा प्रश्न पूछा गया, 'आप अपने भगवान से क्या मांगते हैं ?' तब उन्होंने बताया कि वे अपनी पूजा में सब के कल्याण की कामना करते हैं।अपने गाँव, अपने परिवार के साथ धरती पर के सभी जीवों के सुख की कामना करते हैं।
  3. तीसरा प्रश्न पूछा गया, 'आप अपनी जनजाति से भिन्न अन्य जन जाति की पूजा पद्धति की आलोचना अथवा निन्दा करते हैं क्या ? क्या अन्य पूजा पद्धति वाली जातियाँ आपकी पूजा पद्धति में शामिल हो जाय ऐसी अपेक्षा आप रखते हैं?' तब उत्तर में सभी ने कहा ' नहीं हम ऐसा कभी नहीं करते हैं। हम सब की पूजापद्धतियों को अच्छा मानते हैं और उनका सम्मान करते हैं। सब लोगोंं के लिये यह बात आश्चर्यजनक थी।

विश्व का उदाहरण

विश्व सांस्कृतिक अध्ययन केंद्र (International center for cultural studies) द्वारा हर पाँच वर्ष में एक बार विश्व सम्मेलन होता है। हरिद्वार में आयोजित ऐसे एक सम्मेलन में ४० देशों से वहां के मूल निवासी -प्रकृति पूजक लोग आये हुए थे। प्रतिदिन प्रातः काल में सब अपने अपने इष्ट देवों की, अपनी अपनी भाषा में, अपनी अपनी पद्धति से पूजा करते थे। पूजा में वे क्या कामना करते थे ऐसा पूछने पर उन्हों ने बताया कि 'धरती हमारे लिये पवित्र है, जल पवित्र है, अग्नि भी पूजनीय है इसलिये उनकी कृपा के लिये प्रार्थना करते थे और अपने परिवार के, गाँव के, पृथ्वी के लोगोंं की तथा संपूर्ण जीव सृष्टि के कल्याण की कामना करते थे।' यह सुनकर सभी को बहुत आश्चर्य हुआ, आनंद हुआ।

निष्कर्ष

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद अपने राष्ट्र, अपने समाज को सुखी एवं वैभव संपन्न बनाते हुए विश्व में सब के सुख एवं कल्याण की कामना करनेवाला है।

अपने ऋषियों की भद्र इच्छाओं के अनुसार संकल्पित यह समाज विश्व के प्रति अपने जागतिक दायित्व का अनुभव करता है, यही हिंदु राष्ट्र है । इसको बनाना नहीं है, - यह तो शाश्वत है, चिरंतन है, सनातन है, नित्य नूतन है तथा विश्व की प्रत्येक कठिनाई एवं कष्ट को अनुभव करते हुए इस पृथ्वी पर विद्यमान है। इसका गौरव सभी देशवासियों को होना चाहिये । आज अपने समाज में पैदा हुए सभी दोषों को दूर करते हुए आत्मानुभूति से प्रेरित ऋषियों के वंशज स्वाभिमान एवं कर्तव्य बोध के साथ विश्व पटल पर पुनः गुंजारव कर उठे, 'माता भूमि पुत्रोऽहंपृथिव्याः । इस देव भूमि के पुत्रों का कर्तव्य है कि 'सर्वे भवन्तु सुखिनः का उद्घोष जारी रखे। हिंदु राष्ट्र का विश्व को यही सन्देश है, यही इसका कर्तव्य है और यही उसकी नियति है।

References

धार्मिक शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ५), अध्याय २४. प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे