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इस जीवनदृष्टि के कुछ प्रमुख आयाम इस प्रकार हैं...  
 
इस जीवनदृष्टि के कुछ प्रमुख आयाम इस प्रकार हैं...  
 
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# भौतिक जगत में जितने भी पदार्थ हैं वे सब एकदूसरे से अलग हैं । वे एक दूसरे को प्रभावित तो करते हैं परन्तु उनमें एकत्व नहीं है। यह भेद ही मूल है। इस भेद को बनाये रखना स्वतन्त्रता है।  
१. भौतिक जगत में जितने भी पदार्थ हैं वे सब एकदूसरे से अलग हैं । वे एक दूसरे को प्रभावित तो करते हैं परन्तु उनमें एकत्व नहीं है। यह भेद ही मूल है। इस भेद को बनाये रखना स्वतन्त्रता है।  
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# इस विश्व में जन्मजन्मान्तर जैसा कुछ नहीं है। जन्म के साथ जीवन शुरू होता है और मृत्यु के साथ पूरा होता है। इसलिये पूर्वजन्म के संस्कार जैसी शब्दावली को विचारधारा में कोई स्थान नहीं है ।  
 
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# मन की सारी इच्छाओं की पूर्ति करना मनुष्यजीवन का लक्ष्य है। कामनाओं की पूर्ति हेतु प्रयास करना जीवन का मुख्य कार्य है। अधिक से अधिकतर कामनायें होना ऊँचा जीवनमान है। अधिकतम कामनाओं की पूर्ति कर पाना यश है। इसी दिशा में गति करना विकास है। विकास की दिशा में यात्रा अनन्त है । कभी भी विकास पूर्ण नहीं होता।  
२. इस विश्व में जन्मजन्मान्तर जैसा कुछ नहीं है। जन्म के साथ जीवन शुरू होता है और मृत्यु के साथ पूरा होता है। इसलिये पूर्वजन्म के संस्कार जैसी शब्दावली को विचारधारा में कोई स्थान नहीं है ।  
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# विश्व में मनुष्य सबसे श्रेष्ठ है । मनुष्य के उपभोग के लिये यह सृष्टि बनी है। अपने सुख के लिये मनुष्य सृष्टि के सारे पदार्थों का किसी बी हद तक उपयोग कर सकता है। सृष्टि उसकी दास है। उसका पूरा रसकस निकालना उसका अधिकार है।  
 
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# मनुष्य मनुष्य का सम्बन्ध भी व्यक्ति केन्द्री है। हर व्यक्ति स्वतन्त्र है। हर व्यक्ति को अपने हित और सुख की चिन्ता स्वयं करनी है। यह एक व्यावहारिक सत्य है कि व्यक्तियों को अपनी सभी आवश्यकताओं और कामनाओं की पूर्ति के लिये एकदूसरे की सहायता लेनी ही पड़ती है । लेनदेन के बिना जीवनव्यवहार चलता नहीं है। लेनदेन के समय स्वयं के हित की हानि न हो इसकी सावधानी हर व्यक्ति को रखनी है। अपने अपने हित की रक्षा की व्यवस्था हेतु समाज की विभिन्न व्यवस्थायें बनाई जाती हैं । मनुष्यों के परस्पर सम्बन्धों के स्वरूप को सामाजिक करार का सिद्धान्त कहा जाता है।
३. मन की सारी इच्छाओं की पूर्ति करना मनुष्यजीवन का लक्ष्य है। कामनाओं की पूर्ति हेतु प्रयास करना जीवन का मुख्य कार्य है। अधिक से अधिकतर कामनायें होना ऊँचा जीवनमान है। अधिकतम कामनाओं की पूर्ति कर पाना यश है। इसी दिशा में गति करना विकास है। विकास की दिशा में यात्रा अनन्त है । कभी भी विकास पूर्ण नहीं होता।  
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४. विश्व में मनुष्य सबसे श्रेष्ठ है । मनुष्य के उपभोग के लिये यह सृष्टि बनी है। अपने सुख के लिये मनुष्य सृष्टि के सारे पदार्थों का किसी बी हद तक उपयोग कर सकता है। सृष्टि उसकी दास है। उसका पूरा रसकस निकालना उसका अधिकार है।  
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५. मनुष्य मनुष्य का सम्बन्ध भी व्यक्ति केन्द्री है। हर व्यक्ति स्वतन्त्र है। हर व्यक्ति को अपने हित और सुख की चिन्ता स्वयं करनी है। यह एक व्यावहारिक सत्य है कि व्यक्तियों को अपनी सभी आवश्यकताओं और कामनाओं की पूर्ति के लिये एकदूसरे की सहायता लेनी ही पड़ती है । लेनदेन के बिना जीवनव्यवहार चलता नहीं है। लेनदेन के समय स्वयं के हित की हानि न हो इसकी सावधानी हर व्यक्ति को रखनी है। अपने अपने हित की रक्षा की व्यवस्था हेतु समाज की विभिन्न व्यवस्थायें बनाई जाती हैं । मनुष्यों के परस्पर सम्बन्धों के स्वरूप को सामाजिक करार का सिद्धान्त कहा जाता है।
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पश्चिम की जीवनदृष्टि के इन सूत्रों के आधार पर विश्व की असंख्य रचनायें बनी हैं। इसकी बडी और छोटी शाखाप्रशाखाओं का एक बडा जाल बना है जिसमें विश्व फँस गया है। यह जाल अब बुरी तरह से उलझ भी गया है। इस जाल से विश्व को मुक्त करना है।
 
पश्चिम की जीवनदृष्टि के इन सूत्रों के आधार पर विश्व की असंख्य रचनायें बनी हैं। इसकी बडी और छोटी शाखाप्रशाखाओं का एक बडा जाल बना है जिसमें विश्व फँस गया है। यह जाल अब बुरी तरह से उलझ भी गया है। इस जाल से विश्व को मुक्त करना है।
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यह सृष्टि जड और चेतन दोनों तत्त्व मिलकर बनी है। वह न तो केवल जड है न केवल चेतन । जो दिखाई देता है वह तो केवल जड ही है यह सत्य है। रूप परिवर्तन जड का ही होता है यह भी सत्य है । परन्तु सर्व प्रकार के रूप परिवर्तन का प्रेरक या कारक चेतन है यह बात पश्चिम की समझ में नहीं आती। यदि चेनत के अस्तित्व को ही नकारा जाता है तब जहाँ जहाँ जड है वहाँ वहाँ अनिवार्य रूप से चेतन रहता ही है यह भी समझमें नहीं आना स्वाभाविक है। चेतन के सार्वत्रिक अस्तित्व को नकारना ही वास्तव में भौतिकवाद है, वरना भौतिक भी सर्वत्र है ही । चेतन को नकारने के कारण अनेक प्रकार के प्रश्न निरुत्तरित रह जाते हैं। उदाहरण के लिये इस सृष्टि का सृजन क्यों हुआ इसका भी उत्तर नहीं मिल सकता । किसी एक भौतिक पदार्थ में बिना किसी कारण से स्फोट हुआ और सृष्टि में रूपान्तरण की प्रक्रिया शुरू हुई यह कहना तार्किक नहीं है । तार्किक तो यह होगा कि बिना द्वन्द्व के सष्टि में किसी प्रकार का सृजन नहीं हो सकता । तार्किकता इसमें भी है कि यह द्वन्द्व व्यक्त स्वरूप में आने से पूर्व भी एक ही सत्ता में निहित था । सृष्टि का सृजन शुरू होते ही वह व्यक्त हो गया, परन्तु व्यक्त होने के साथ भी वह द्वन्द्व रूप में सम्पृक्त ही था । उस एक में वह निहित था, अव्यक्त था, दो में व्यक्त होकर वह निहित न होकर सम्पृक्त था । बिना सम्पृक्त हुए, एकदूसरे से स्वतन्त्र और पृथक् रहते हुए वह सृष्टि के रूप में विस्तार को प्राप्त नहीं हो सकता था। अतः इस सृष्टि के आदि कारण परमात्मा में चेतन और जड निहित हैं, वे चेतन और जड के रूप में प्रथम व्यक्त होते हैं, व्यक्त होने के बाद सम्पृक्त होते हैं और सम्पृक्त होने के बाद असीम वैविध्यपूर्ण सृष्टि के रूप में व्यक्त होने की लगभग अनन्त प्रतीत होनेवाली परम्परा शुरू होती है । सृष्टि में जिस का रूप रूपान्तरण होता है वह जड है और जिसके कारण से रूपान्तरण होता है वह कारक तत्त्व चेतन है। चेतन का स्वयं का रूपान्तरण नहीं होता परन्तु बिना चेतन के जड का रूपान्तरण नहीं हो सकता । अतः इस विश्व को जड मानना, केवल भौतिक मानना युक्तिसंगत नहीं है।
 
यह सृष्टि जड और चेतन दोनों तत्त्व मिलकर बनी है। वह न तो केवल जड है न केवल चेतन । जो दिखाई देता है वह तो केवल जड ही है यह सत्य है। रूप परिवर्तन जड का ही होता है यह भी सत्य है । परन्तु सर्व प्रकार के रूप परिवर्तन का प्रेरक या कारक चेतन है यह बात पश्चिम की समझ में नहीं आती। यदि चेनत के अस्तित्व को ही नकारा जाता है तब जहाँ जहाँ जड है वहाँ वहाँ अनिवार्य रूप से चेतन रहता ही है यह भी समझमें नहीं आना स्वाभाविक है। चेतन के सार्वत्रिक अस्तित्व को नकारना ही वास्तव में भौतिकवाद है, वरना भौतिक भी सर्वत्र है ही । चेतन को नकारने के कारण अनेक प्रकार के प्रश्न निरुत्तरित रह जाते हैं। उदाहरण के लिये इस सृष्टि का सृजन क्यों हुआ इसका भी उत्तर नहीं मिल सकता । किसी एक भौतिक पदार्थ में बिना किसी कारण से स्फोट हुआ और सृष्टि में रूपान्तरण की प्रक्रिया शुरू हुई यह कहना तार्किक नहीं है । तार्किक तो यह होगा कि बिना द्वन्द्व के सष्टि में किसी प्रकार का सृजन नहीं हो सकता । तार्किकता इसमें भी है कि यह द्वन्द्व व्यक्त स्वरूप में आने से पूर्व भी एक ही सत्ता में निहित था । सृष्टि का सृजन शुरू होते ही वह व्यक्त हो गया, परन्तु व्यक्त होने के साथ भी वह द्वन्द्व रूप में सम्पृक्त ही था । उस एक में वह निहित था, अव्यक्त था, दो में व्यक्त होकर वह निहित न होकर सम्पृक्त था । बिना सम्पृक्त हुए, एकदूसरे से स्वतन्त्र और पृथक् रहते हुए वह सृष्टि के रूप में विस्तार को प्राप्त नहीं हो सकता था। अतः इस सृष्टि के आदि कारण परमात्मा में चेतन और जड निहित हैं, वे चेतन और जड के रूप में प्रथम व्यक्त होते हैं, व्यक्त होने के बाद सम्पृक्त होते हैं और सम्पृक्त होने के बाद असीम वैविध्यपूर्ण सृष्टि के रूप में व्यक्त होने की लगभग अनन्त प्रतीत होनेवाली परम्परा शुरू होती है । सृष्टि में जिस का रूप रूपान्तरण होता है वह जड है और जिसके कारण से रूपान्तरण होता है वह कारक तत्त्व चेतन है। चेतन का स्वयं का रूपान्तरण नहीं होता परन्तु बिना चेतन के जड का रूपान्तरण नहीं हो सकता । अतः इस विश्व को जड मानना, केवल भौतिक मानना युक्तिसंगत नहीं है।
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विश्व को जड अर्थात् भौतिक मानने से व्यवहार में भी नहीं सुलझने वाली समस्यायें निर्माण होती हैं। उदाहरण के लिये चेतन आत्मतत्त्व है । आत्मतत्त्व में ही प्रेम, आनन्द, सौन्दर्यबोध, सृजनशीलता आदि गुणों का निवास है। आत्मा के ये सारे गुण शुद्ध चित्त में झलकते हैं । आत्मतत्त्व को नहीं माना तो ये सारे गुण वास्तव में अनाश्रित हो जाते हैं। उनका मूल अधिष्ठान नहीं रहने पर वे मन का आश्रय लेते हैं और आनन्द सुख का और सुख मनोरंजन का स्वरूप लेता है। मनोरंजन भी भौतिक पदार्थों का आश्रय लेता है। तब जितने भौतिक पदार्थ अधिक उतना ही सुख अधिक ऐसा हिसाब बन जाता है । सौन्दर्य भी रूप, रंग में समाहित हो जाता है। सारी कला इन्द्रियोपभोग के लिये हो जाती है। आत्मीयता शब्द ही आत्मा से बना है । जब आत्मा की संकल्पना नहीं रहती तब आत्मीयता भी नहीं रहती। उससे उद्भूत सेवा, त्याग, दान आदि का स्वरूप भी भौतिक हो जाता है, वे भी व्यवसाय बन जाते हैं । प्रेम की अभिव्यक्ति काम के रूप में होती है। अंग्रेजी भाषा में प्रेम के लिये 'लव' शब्द है। 'मैं प्रेम करता हूँ' कहने के लिये 'आई लव...' कहा जाता है परन्तु 'आई एम मेकिंग लव' भी कहा जाता है। अर्थात् प्रेम और काम के लिये एक ही संज्ञा है । अर्थात् प्रेम, आनन्द, त्याग, सेवा, सौन्दर्य आदि का स्वरूप भौतिक बन जाता है। यही नहीं मोक्ष की संकल्पना भी 'साल्वेशन' बन जाती है।
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विश्व को जड अर्थात् भौतिक मानने से व्यवहार में भी नहीं सुलझने वाली समस्यायें निर्माण होती हैं। उदाहरण के लिये चेतन आत्मतत्त्व है । आत्मतत्त्व में ही प्रेम, आनन्द, सौन्दर्यबोध, सृजनशीलता आदि गुणों का निवास है। आत्मा के ये सारे गुण शुद्ध चित्त में झलकते हैं । आत्मतत्त्व को नहीं माना तो ये सारे गुण वास्तव में अनाश्रित हो जाते हैं। उनका मूल अधिष्ठान नहीं रहने पर वे मन का आश्रय लेते हैं और आनन्द सुख का और सुख मनोरंजन का स्वरूप लेता है। मनोरंजन भी भौतिक पदार्थों का आश्रय लेता है। तब जितने भौतिक पदार्थ अधिक उतना ही सुख अधिक ऐसा हिसाब बन जाता है । सौन्दर्य भी रूप, रंग में समाहित हो जाता है। सारी कला इन्द्रियोपभोग के लिये हो जाती है। आत्मीयता शब्द ही आत्मा से बना है । जब आत्मा की संकल्पना नहीं रहती तब आत्मीयता भी नहीं रहती। उससे उद्भूत सेवा, त्याग, दान आदि का स्वरूप भी भौतिक हो जाता है, वे भी व्यवसाय बन जाते हैं । प्रेम की अभिव्यक्ति काम के रूप में होती है। अंग्रेजी भाषा में प्रेम के लिये 'लव' शब्द है। 'मैं प्रेम करता हूँ' कहने के लिये 'आई लव...' कहा जाता है परन्तु 'आई एम मेकिंग लव' भी कहा जाता है। अर्थात् प्रेम और काम के लिये एक ही संज्ञा है। अर्थात् प्रेम, आनन्द, त्याग, सेवा, सौन्दर्य आदि का स्वरूप भौतिक बन जाता है। यही नहीं मोक्ष की संकल्पना भी 'साल्वेशन' बन जाती है।
    
बौद्धिक और मानसिक जगत की सारी बातें भौतिकता के मापदण्डों से नापी जाती हैं । बौद्धिक और मानसिक स्तर के प्रश्नों, व्यवहारों और घटनाओं के खुलासे भौतिक स्तर पर होते हैं। हम अनुभव कर रहे हैं कि तनाव, उत्तेजना, हताशा जैसी नितान्त मानसिक, या मधुमेह, रक्तचाप जैसे मनोविकारजन्य या आहारविहार की अनियमितता या ऋतुपरिवर्तन से जन्य बिमारियों के उपचार भौतिक स्तर पर ही किये जाते हैं । अन्तःकरण से सम्बन्धित योग जैसे विषय का व्यवहार भौतिक स्वरूप में होता है, संगीत, कला, साहित्य आदि का यश भौतिक उपलब्धियों से नापा जाता है । मजेदार बात यह है कि विश्वविद्यालयों की उपलब्धियों में एक उपलब्धि छात्रों को कितने ऊँचे वेतन की नौकरियाँ मिलती हैं और विश्वविद्यालय के शोधकार्य से कितनी आमदनी होती है यह भी मानी जाती है। सर्वत्र, सर्वक्षेत्रों में गुणवत्ता भौतिकता पर ही आधारित है।
 
बौद्धिक और मानसिक जगत की सारी बातें भौतिकता के मापदण्डों से नापी जाती हैं । बौद्धिक और मानसिक स्तर के प्रश्नों, व्यवहारों और घटनाओं के खुलासे भौतिक स्तर पर होते हैं। हम अनुभव कर रहे हैं कि तनाव, उत्तेजना, हताशा जैसी नितान्त मानसिक, या मधुमेह, रक्तचाप जैसे मनोविकारजन्य या आहारविहार की अनियमितता या ऋतुपरिवर्तन से जन्य बिमारियों के उपचार भौतिक स्तर पर ही किये जाते हैं । अन्तःकरण से सम्बन्धित योग जैसे विषय का व्यवहार भौतिक स्वरूप में होता है, संगीत, कला, साहित्य आदि का यश भौतिक उपलब्धियों से नापा जाता है । मजेदार बात यह है कि विश्वविद्यालयों की उपलब्धियों में एक उपलब्धि छात्रों को कितने ऊँचे वेतन की नौकरियाँ मिलती हैं और विश्वविद्यालय के शोधकार्य से कितनी आमदनी होती है यह भी मानी जाती है। सर्वत्र, सर्वक्षेत्रों में गुणवत्ता भौतिकता पर ही आधारित है।
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भौतिक पदार्थों की स्वतन्त्र सत्ता का स्वीकार कर उसके साथ तादात्म्य का अनुभव करनेवाले के समक्ष भौतिक पदार्थ भी अपना अन्तरंग रहस्य उद्घाटित करते हैं ऐसा अनेकों का अनुभव है। यही दर्शाता है कि भौतिकता अधिष्ठान नहीं हो सकती, अधिष्ठान जड और चेतन जिसमें एक बनकर निहित हैं ऐसा आत्मतत्त्व ही हो सकता है। इसका व्यवहार में अर्थ यह होता है कि जड के अर्थात् भौतिक के सम्पूर्ण व्यवहार का प्रेरक और चालक तत्त्व चेतन होता है, भौतिक स्वयंचालित नहीं है ।
 
भौतिक पदार्थों की स्वतन्त्र सत्ता का स्वीकार कर उसके साथ तादात्म्य का अनुभव करनेवाले के समक्ष भौतिक पदार्थ भी अपना अन्तरंग रहस्य उद्घाटित करते हैं ऐसा अनेकों का अनुभव है। यही दर्शाता है कि भौतिकता अधिष्ठान नहीं हो सकती, अधिष्ठान जड और चेतन जिसमें एक बनकर निहित हैं ऐसा आत्मतत्त्व ही हो सकता है। इसका व्यवहार में अर्थ यह होता है कि जड के अर्थात् भौतिक के सम्पूर्ण व्यवहार का प्रेरक और चालक तत्त्व चेतन होता है, भौतिक स्वयंचालित नहीं है ।
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भौतिकता को अधिष्ठान मानने से पर्यावरण पंचमहाभूतों में सीमित रह जाता है और हम भूमि, जल, वायु, ध्वनि, तापमान आदि की ही चिंता करने लगते हैं। विचारों का, भावनाओं का, संस्कारों का, बुद्धि का प्रदूषण हमारे ध्यान में नहीं आता, जबकि भौतिक पर्यावरण पर या पर्यावरण के प्रदूषण पर इनका बहुत बड़ा प्रभाव होता है और इनका विचार किये बिना भौतिक पर्यावरण की शुद्धि सम्भव ही नहीं है। यही कारण है कि प्रदूषण की विश्वस्तर पर चिंता करने के बाद भी प्रदूषण कम होने के स्थान पर बढ़ता ही जाता है। आत्मतत्त्व की अभिव्यक्ति का अन्तिम स्तर, स्थूलतम स्तर भौतिक है। वह वास्तव में किसी का अधिष्ठान नहीं हो सकता। इस स्थूलतम अभिव्यक्ति की तुलना में प्राणिक, मानसिक, बौद्धिक और चैतसिक स्तर उत्तरोत्तर सूक्ष्म और अधिक प्रभावी हैं । वे उत्तरोत्तर अधिष्ठान बनने चाहिये और सर्व अभिव्यक्ति का अधिष्ठान आत्मिक स्तर होना चाहिये । इस दिशा का स्वीकार करने से समस्याओं का समाधान सरलता और सहजतापूर्वक होता है ।
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भौतिकता को अधिष्ठान मानने से पर्यावरण पंचमहाभूतों में सीमित रह जाता है और हम भूमि, जल, वायु, ध्वनि, तापमान आदि की ही चिंता करने लगते हैं। विचारों का, भावनाओं का, संस्कारों का, बुद्धि का प्रदूषण हमारे ध्यान में नहीं आता, जबकि भौतिक पर्यावरण पर या पर्यावरण के प्रदूषण पर इनका बहुत बड़ा प्रभाव होता है और इनका विचार किये बिना भौतिक पर्यावरण की शुद्धि सम्भव ही नहीं है। यही कारण है कि प्रदूषण की विश्वस्तर पर चिंता करने के बाद भी प्रदूषण कम होने के स्थान पर बढ़ता ही जाता है। आत्मतत्त्व की अभिव्यक्ति का अन्तिम स्तर, स्थूलतम स्तर भौतिक है। वह वास्तव में किसी का अधिष्ठान नहीं हो सकता। इस स्थूलतम अभिव्यक्ति की तुलना में प्राणिक, मानसिक, बौद्धिक और चैतसिक स्तर उत्तरोत्तर सूक्ष्म और अधिक प्रभावी हैं। वे उत्तरोत्तर अधिष्ठान बनने चाहिये और सर्व अभिव्यक्ति का अधिष्ठान आत्मिक स्तर होना चाहिये । इस दिशा का स्वीकार करने से समस्याओं का समाधान सरलता और सहजतापूर्वक होता है।
    
जीवन और जगत की भौतिक अधिष्ठान की यह संकल्पना आज विश्वव्यापी बन रही है, बन गई है। परिणाम स्वरूप संकट भी बढ़ रहे हैं, बढ़ गये हैं। भारत भी इससे मुक्त नहीं रहा है। परन्तु भारत की चिति में अभी इसका अस्तित्व हैं । इसलिये पश्चिम के इस भौतिकवाद को नकारना चाहिये। नकारने का अर्थ भौतिक पदार्थों को, भौतिक समृद्धि को, भौतिक अभ्युदय को नकारना नहीं है। नकारने का अर्थ भौतिक अधिष्ठान को नकारना है।
 
जीवन और जगत की भौतिक अधिष्ठान की यह संकल्पना आज विश्वव्यापी बन रही है, बन गई है। परिणाम स्वरूप संकट भी बढ़ रहे हैं, बढ़ गये हैं। भारत भी इससे मुक्त नहीं रहा है। परन्तु भारत की चिति में अभी इसका अस्तित्व हैं । इसलिये पश्चिम के इस भौतिकवाद को नकारना चाहिये। नकारने का अर्थ भौतिक पदार्थों को, भौतिक समृद्धि को, भौतिक अभ्युदय को नकारना नहीं है। नकारने का अर्थ भौतिक अधिष्ठान को नकारना है।
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==References==
 
==References==
<references />भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
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<references />भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५): पर्व ३: अध्याय २५, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
[[Category:भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा]]
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[[Category:Education Series]]
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[[Category:Bhartiya Shiksha Granthmala(भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला)]]
 

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