पुणे नगर के ही एक अन्य वैद्य का उदाहरण है । प्रातःकाल नौ बजे का समय था । वैद्य महाशय अपने आसन पर बैठे ही थे कि एक पत्नी अपने पति को लेकर इलाज हेतु आई । वैद्यने रोगी की ओर देखते ही जाना कि उसका रोग असाध्य है और उसका चार पाँच दिन से अधिक जीवित रहना सम्भव नहीं है । उन्होंने इधरउधर की बातें करने के बाद उन्हें बिदा कर दिया । जाते जाते पत्नी को अकेले बुलाकर सत्य बताया और उसकी अन्तिम इच्छाओं को पूर्ण करने का परामर्श दिया । सात दिन के बाद दोनों पतिपत्नी पुनः आये । वैद्य को भी देखकर आश्चर्य लगा कि पति पूर्ण स्वस्थ था । उन्होंने मन ही मन कुछ विचार किया । पतिपत्नी दोनों उग्रता से बात करने लगे । उनकी शिकायत यह थी कि पति स्वस्थ होनेवाला था तो भी उसकी मृत्यु होगी कहकर उन्हें इतना व्यथित क्यों किया । वैद्यने शान्त चित्त से उनका आक्रोश सुन लिया । फिर उन्होंने पूछा कि सातदिन पूर्व उनके पास से जाने के बाद उसने कया क्या खाया था । पत्नी ने कहा कि जाते समय उसे होटेल में जाकर माँस खाने की इच्छा हुई थी । उसकी इच्छा पूर्ण करने के लिये वे होटेल में गये थे और पति ने माँस खाया था । उसके बाद तो और भी दो बार उसी होटल में वही पदार्थ खाया क्योंकि वह पहली ही बार खाया था और बहुत स्वादिष्ट था । वैद्यने उस होटेल का नाम और पता पूछा और तुरन्त अपनी जगह से ही पुलिस को फोन लगाया और शिकायत दर्ज कराई कि उस होटेल में मनुष्य का माँस बिक रहा है । शिकायत के आधार पर पुलिसने होटेल पर छापा मारा और जाँच की तो वास्तव में वहाँ मनुष्य का माँस मिला । मालिक को पकड़ा गया क्योंकि मनुष्य का माँस बेचना अपराध है । सब आश्चर्यचकित थे कि उन वैद्य महाशय को इस बात का पता कैसे चला । वास्तव में हुआ यह था कि वैद्य महाशय रोगी को देखते ही जान गये थे कि उसके रोग का इलाज मनुष्य का माँस है । परन्तु मनुष्य का जीव बचाने के लिये मनुष्य के ही माँस को दवाई के रूप में प्रयुक्त करना नैतिक अपराध है । इसलिये उन्होंने इलाज नहीं किया । परन्तु उसे जीवित और स्वस्थ देखते ही वे जान गये कि योगानुयोग उस व्यक्ति को मनुष्य का माँस खाने को मिला है । यदि ऐसा नहीं हुआ होता तो वह निश्चित ही मर गया होता । अपने निदान पर उन्हें इतना विश्वास था कि उन्होंने स्वयं जाँच करना आवश्यक नहीं माना । उनका निदान और उनका विश्वास दोनों सही निकले । विद्या की ऐसी उपासना भारत में होती थी इसका यह उदाहरण है । यह किस्सा भी सौ से अधिक वर्ष पुराना नहीं है । | पुणे नगर के ही एक अन्य वैद्य का उदाहरण है । प्रातःकाल नौ बजे का समय था । वैद्य महाशय अपने आसन पर बैठे ही थे कि एक पत्नी अपने पति को लेकर इलाज हेतु आई । वैद्यने रोगी की ओर देखते ही जाना कि उसका रोग असाध्य है और उसका चार पाँच दिन से अधिक जीवित रहना सम्भव नहीं है । उन्होंने इधरउधर की बातें करने के बाद उन्हें बिदा कर दिया । जाते जाते पत्नी को अकेले बुलाकर सत्य बताया और उसकी अन्तिम इच्छाओं को पूर्ण करने का परामर्श दिया । सात दिन के बाद दोनों पतिपत्नी पुनः आये । वैद्य को भी देखकर आश्चर्य लगा कि पति पूर्ण स्वस्थ था । उन्होंने मन ही मन कुछ विचार किया । पतिपत्नी दोनों उग्रता से बात करने लगे । उनकी शिकायत यह थी कि पति स्वस्थ होनेवाला था तो भी उसकी मृत्यु होगी कहकर उन्हें इतना व्यथित क्यों किया । वैद्यने शान्त चित्त से उनका आक्रोश सुन लिया । फिर उन्होंने पूछा कि सातदिन पूर्व उनके पास से जाने के बाद उसने कया क्या खाया था । पत्नी ने कहा कि जाते समय उसे होटेल में जाकर माँस खाने की इच्छा हुई थी । उसकी इच्छा पूर्ण करने के लिये वे होटेल में गये थे और पति ने माँस खाया था । उसके बाद तो और भी दो बार उसी होटल में वही पदार्थ खाया क्योंकि वह पहली ही बार खाया था और बहुत स्वादिष्ट था । वैद्यने उस होटेल का नाम और पता पूछा और तुरन्त अपनी जगह से ही पुलिस को फोन लगाया और शिकायत दर्ज कराई कि उस होटेल में मनुष्य का माँस बिक रहा है । शिकायत के आधार पर पुलिसने होटेल पर छापा मारा और जाँच की तो वास्तव में वहाँ मनुष्य का माँस मिला । मालिक को पकड़ा गया क्योंकि मनुष्य का माँस बेचना अपराध है । सब आश्चर्यचकित थे कि उन वैद्य महाशय को इस बात का पता कैसे चला । वास्तव में हुआ यह था कि वैद्य महाशय रोगी को देखते ही जान गये थे कि उसके रोग का इलाज मनुष्य का माँस है । परन्तु मनुष्य का जीव बचाने के लिये मनुष्य के ही माँस को दवाई के रूप में प्रयुक्त करना नैतिक अपराध है । इसलिये उन्होंने इलाज नहीं किया । परन्तु उसे जीवित और स्वस्थ देखते ही वे जान गये कि योगानुयोग उस व्यक्ति को मनुष्य का माँस खाने को मिला है । यदि ऐसा नहीं हुआ होता तो वह निश्चित ही मर गया होता । अपने निदान पर उन्हें इतना विश्वास था कि उन्होंने स्वयं जाँच करना आवश्यक नहीं माना । उनका निदान और उनका विश्वास दोनों सही निकले । विद्या की ऐसी उपासना भारत में होती थी इसका यह उदाहरण है । यह किस्सा भी सौ से अधिक वर्ष पुराना नहीं है । |