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| ब्रिटिश एवं यूरोपीयों के मतानुसार सत्रहवीं एवं अठारहवीं शताब्दी में भारत की आन्तरिक स्थिति कुछ ऐसी थी। उस समय प्रजा राज्यकर्ता के दबाव में नहीं थी। उल्टे राज्यकर्ता प्रजा के दबाव में रहता था।<ref>ब्रिटिशों के भारत में आने से पूर्व के शासक शासित सम्बन्धों के विषय में भारत सरकार के, बंगाल, मुंबई और मद्रास प्रेसीडेन्सी के अभिलेखागारों में ब्रिटिशों द्वारा निर्मित विपुल सामग्री उपलब्ध है। यही सामग्री अठारहवीं एवं उन्नीसवीं शताब्दी की है। इस काल के इंग्लैण्ड के भारत विषयक सरकारी कागजों में भी ऐसी सामग्री मिलती है। ब्रिटिश हाउस ऑव् कॉमन्स की सिलेक्ट कमिटी के समक्ष की हुई प्रस्तुति में इतिहासकार जेम्स मिल ने भी इस प्रकार की जानकारी दी है। | | ब्रिटिश एवं यूरोपीयों के मतानुसार सत्रहवीं एवं अठारहवीं शताब्दी में भारत की आन्तरिक स्थिति कुछ ऐसी थी। उस समय प्रजा राज्यकर्ता के दबाव में नहीं थी। उल्टे राज्यकर्ता प्रजा के दबाव में रहता था।<ref>ब्रिटिशों के भारत में आने से पूर्व के शासक शासित सम्बन्धों के विषय में भारत सरकार के, बंगाल, मुंबई और मद्रास प्रेसीडेन्सी के अभिलेखागारों में ब्रिटिशों द्वारा निर्मित विपुल सामग्री उपलब्ध है। यही सामग्री अठारहवीं एवं उन्नीसवीं शताब्दी की है। इस काल के इंग्लैण्ड के भारत विषयक सरकारी कागजों में भी ऐसी सामग्री मिलती है। ब्रिटिश हाउस ऑव् कॉमन्स की सिलेक्ट कमिटी के समक्ष की हुई प्रस्तुति में इतिहासकार जेम्स मिल ने भी इस प्रकार की जानकारी दी है। |
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| </ref> राज्यकर्ता के अन्यायपूर्ण व्यवहार करने पर उस समय के नियम के अनुसार उसे बदल दिया जाता था। यही कानून राजा एवं प्रजा के सम्बन्धों में आन्तरिक सभ्यता बनाए रखने में सहायक था। प्रथा ऐसी थी कि जब कोई मुलाकाती आए तो अतिथि तथा यजमान दोनों एकदूसरे को भेंट देते थे।उसमें मेहमान द्वारा लाई गई भेट सामान्य रूप से कम महंगी व छोटी होती थी परन्तु यजमान द्वारा उसे कीमती भेंटसौगातें दी जाती थीं। ऐसी ही सभ्यता न्यायालयों में भी कायम थी। वहाँ आनेवाला प्रत्येक व्यक्ति जाते समय पान सुपारी की अपेक्षा करता था जो उसे अवश्य दिया जाता था।<ref>राजा और प्रजा के आपसी सम्बन्ध और भेंट के आदानप्रदान के विषय में सामग्री १८वीं एवं १९वीं शताब्दी के अभिलेखागारों में उपलब्ध है। | | </ref> राज्यकर्ता के अन्यायपूर्ण व्यवहार करने पर उस समय के नियम के अनुसार उसे बदल दिया जाता था। यही कानून राजा एवं प्रजा के सम्बन्धों में आन्तरिक सभ्यता बनाए रखने में सहायक था। प्रथा ऐसी थी कि जब कोई मुलाकाती आए तो अतिथि तथा यजमान दोनों एकदूसरे को भेंट देते थे।उसमें मेहमान द्वारा लाई गई भेट सामान्य रूप से कम महंगी व छोटी होती थी परन्तु यजमान द्वारा उसे कीमती भेंटसौगातें दी जाती थीं। ऐसी ही सभ्यता न्यायालयों में भी कायम थी। वहाँ आनेवाला प्रत्येक व्यक्ति जाते समय पान सुपारी की अपेक्षा करता था जो उसे अवश्य दिया जाता था।<ref>राजा और प्रजा के आपसी सम्बन्ध और भेंट के आदानप्रदान के विषय में सामग्री १८वीं एवं १९वीं शताब्दी के अभिलेखागारों में उपलब्ध है। |
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| भारत का इतिहास दर्शाता है कि उसका विकेन्द्रीकरण अभी जिसे जिला कहते हैं ऐसे ४०० छोटे प्रान्तों में एवं भाषा तथा संस्कृति के आधार पर १५ से २० प्रान्तों में बहुत पहले से ही हुआ था। भारत के कई प्रान्त तथा जिलों में सूत, रेशम तथा ऊन कातने, रंगने, उसका कपडा बुनने एवं उसे छापने का काम बहुत बड़े पैमाने पर चलता रहा। लगभग सभी अर्थात् ४०० जिलों में कपडा तैयार किया जाता था। सन् १८१० के आसपास दक्षिण भारत के सभी जिलों में १०,००० से २०,००० के लगभग हथकरघे थे।<ref>'मोतरफा' और 'वीसाबुडी' नामक करों की जानकारी मद्रास प्रेसीडेन्सी के अभिलेखों में उपलब्ध है। इसमें गैरकृषक व्यवसायों और उद्योगों में जुड़े लोगों की संख्या है। विभिन्न जिलों में कितने करघे हैं उसकी भी संख्या है। भारत के और प्रदेशों में भी इसी प्रकार की जानकारी मिलती है। साथ ही १८७१, १८८१, १८९१ की जनगणना विषयक जानकारी भी उपलब्ध है। | | भारत का इतिहास दर्शाता है कि उसका विकेन्द्रीकरण अभी जिसे जिला कहते हैं ऐसे ४०० छोटे प्रान्तों में एवं भाषा तथा संस्कृति के आधार पर १५ से २० प्रान्तों में बहुत पहले से ही हुआ था। भारत के कई प्रान्त तथा जिलों में सूत, रेशम तथा ऊन कातने, रंगने, उसका कपडा बुनने एवं उसे छापने का काम बहुत बड़े पैमाने पर चलता रहा। लगभग सभी अर्थात् ४०० जिलों में कपडा तैयार किया जाता था। सन् १८१० के आसपास दक्षिण भारत के सभी जिलों में १०,००० से २०,००० के लगभग हथकरघे थे।<ref>'मोतरफा' और 'वीसाबुडी' नामक करों की जानकारी मद्रास प्रेसीडेन्सी के अभिलेखों में उपलब्ध है। इसमें गैरकृषक व्यवसायों और उद्योगों में जुड़े लोगों की संख्या है। विभिन्न जिलों में कितने करघे हैं उसकी भी संख्या है। भारत के और प्रदेशों में भी इसी प्रकार की जानकारी मिलती है। साथ ही १८७१, १८८१, १८९१ की जनगणना विषयक जानकारी भी उपलब्ध है। |
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| </ref> एक सामान्य अनुमान के अनुसार उस समय भारत में लोहे तथा फौलाद के उत्पादन के लिए १०,००० के लगभग भठ्ठियाँ थीं। उन्नसवीं शताब्दी के प्रारम्भ के दशकों में भारत में उत्पादित फौलाद बहुत उच्च गुणवत्तायुक्त माना जाता था। ब्रिटिश लोग शल्यक्रिया के साधन (Surgical Instruments) बनाने में उसी फौलाद का उपयोग करते थे। यह फौलाद एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाई जा सके ऐसी भट्टियों में बना हुआ था जिन की क्षमता एक वर्ष में ४० सप्ताह काम करके २० टन जितने उत्तम कक्षा के लोहे का उत्पादन करने की थी। उस समय सोना, चांदी, पीतल एवं कांसे का काम करनेवाले कई कारीगर थे। साथ ही अन्य धातुओं का काम करनेवाले कारीगर भी थे। ऐसे लोग भी थे जो कच्ची धातु की खानों में काम करते थे और विभिन्न धातु का उत्पादन करते थे। कुछ लोग पत्थरों की खान में काम करते थे। उस समय शिल्पियों, चित्रकार, मकान बनानेवाले कारीगर भी थे। साथ ही चीनी, नमक, तेल तथा अन्य वस्तु का उत्पादन करनेवाले (लगभग एक प्रतिशत लोग) भी थे। सन् १८०० से एवं उसके आसपास हस्तकला तथा अन्य उद्योगों के १५ से २५ प्रतिशत भारतीय विभिन्न प्रान्तों में कम अधिक मात्रा में थे। इसके अतिरिक्त कुछ समय सूत कातने का काम भी चलता था। चरखे पर २५ घण्टे कातकर जितना सूत बनता था उससे कपडा बुनने के लिए ८-घण्टे लगते थे। बुनाई में लगभग सम्पूर्ण बस्ती के ५ प्रतिशत लोग लगे हुए थे। इस से लगता है कि भारत के लगभग सभी क्षेत्रों में चरखा चलाने का काम वर्ष भर चलता होगा। | | </ref> एक सामान्य अनुमान के अनुसार उस समय भारत में लोहे तथा फौलाद के उत्पादन के लिए १०,००० के लगभग भठ्ठियाँ थीं। उन्नसवीं शताब्दी के प्रारम्भ के दशकों में भारत में उत्पादित फौलाद बहुत उच्च गुणवत्तायुक्त माना जाता था। ब्रिटिश लोग शल्यक्रिया के साधन (Surgical Instruments) बनाने में उसी फौलाद का उपयोग करते थे। यह फौलाद एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाई जा सके ऐसी भट्टियों में बना हुआ था जिन की क्षमता एक वर्ष में ४० सप्ताह काम करके २० टन जितने उत्तम कक्षा के लोहे का उत्पादन करने की थी। उस समय सोना, चांदी, पीतल एवं कांसे का काम करनेवाले कई कारीगर थे। साथ ही अन्य धातुओं का काम करनेवाले कारीगर भी थे। ऐसे लोग भी थे जो कच्ची धातु की खानों में काम करते थे और विभिन्न धातु का उत्पादन करते थे। कुछ लोग पत्थरों की खान में काम करते थे। उस समय शिल्पियों, चित्रकार, मकान बनानेवाले कारीगर भी थे। साथ ही चीनी, नमक, तेल तथा अन्य वस्तु का उत्पादन करनेवाले (लगभग एक प्रतिशत लोग) भी थे। सन् १८०० से एवं उसके आसपास हस्तकला तथा अन्य उद्योगों के १५ से २५ प्रतिशत भारतीय विभिन्न प्रान्तों में कम अधिक मात्रा में थे। इसके अतिरिक्त कुछ समय सूत कातने का काम भी चलता था। चरखे पर २५ घण्टे कातकर जितना सूत बनता था उससे कपडा बुनने के लिए ८-घण्टे लगते थे। बुनाई में लगभग सम्पूर्ण बस्ती के ५ प्रतिशत लोग लगे हुए थे। इस से लगता है कि भारत के लगभग सभी क्षेत्रों में चरखा चलाने का काम वर्ष भर चलता होगा। |
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| विशेष बात यह है कि ब्रिटिश मुलाकातियों या विशेषज्ञों द्वारा जिस किसी भी भारतीय पद्धति का विवरण किया गया है वह सब उस समय की ब्रिटिश पद्धतियों में सुधार करने हेतु था। अमुक पद्धतियाँ कितनी लाभकारी हैं यह सूचित करने हेतु उसका विवरण किया गया। लगभग १७७० के आसपास बंगाल के ब्रिटिश कमाण्डर इन चीफ की ओर से ब्रिटिश रोयल सोसायटी को विस्तार से दी गई जानकारी एक पत्र के रूप में थी। उसमें प्रमुख रूप से इलाहाबाद के गरम जलवायु को ध्यान में रखकर कृत्रिम बर्फ के उत्पादन की प्रक्रिया बताई गई थी। ऐसे उदाहरण तो अनेक हैं। उदाहरण के तौर पर बोर्ड ऑव् एग्रीकल्चर, लन्दनको, ब्रिटनमें १७९५ में प्रारम्भ हुए बीज तथा बीजांकुरण विषयक प्रयोगों के लिए उपयोगी, दक्षिण भारत में होनेवाले कुछेक बीजप्रयोगों का विवरण भेजा गया था। भारतीय चूना एवं कपडे के रंगों के घटक तथा उसकी समग्र पद्धति तथा लोहे के उत्पादन की पद्धति का निरूपण ब्रिटन में अपनाई जानेवाली तत्कालीन पद्धति में सुधार लाने हेतु भेजा गया था।<ref>भारत के सन् १८०० के आसपास के विज्ञान और तन्त्रज्ञान विषयक अभिलेखीय जानकारी भारत और इंग्लैण्ड दोनों में मिलती है। | | विशेष बात यह है कि ब्रिटिश मुलाकातियों या विशेषज्ञों द्वारा जिस किसी भी भारतीय पद्धति का विवरण किया गया है वह सब उस समय की ब्रिटिश पद्धतियों में सुधार करने हेतु था। अमुक पद्धतियाँ कितनी लाभकारी हैं यह सूचित करने हेतु उसका विवरण किया गया। लगभग १७७० के आसपास बंगाल के ब्रिटिश कमाण्डर इन चीफ की ओर से ब्रिटिश रोयल सोसायटी को विस्तार से दी गई जानकारी एक पत्र के रूप में थी। उसमें प्रमुख रूप से इलाहाबाद के गरम जलवायु को ध्यान में रखकर कृत्रिम बर्फ के उत्पादन की प्रक्रिया बताई गई थी। ऐसे उदाहरण तो अनेक हैं। उदाहरण के तौर पर बोर्ड ऑव् एग्रीकल्चर, लन्दनको, ब्रिटनमें १७९५ में प्रारम्भ हुए बीज तथा बीजांकुरण विषयक प्रयोगों के लिए उपयोगी, दक्षिण भारत में होनेवाले कुछेक बीजप्रयोगों का विवरण भेजा गया था। भारतीय चूना एवं कपडे के रंगों के घटक तथा उसकी समग्र पद्धति तथा लोहे के उत्पादन की पद्धति का निरूपण ब्रिटन में अपनाई जानेवाली तत्कालीन पद्धति में सुधार लाने हेतु भेजा गया था।<ref>भारत के सन् १८०० के आसपास के विज्ञान और तन्त्रज्ञान विषयक अभिलेखीय जानकारी भारत और इंग्लैण्ड दोनों में मिलती है। |
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| </ref> जब ब्रिटन में लगभग सन् १८०० के आसपास साधारण बच्चों की शिक्षा हेतु प्रयास प्रारम्भ किए गए तब भारत में सत्रहवीं एवं अठारहवीं शताब्दी के दौरान प्रचलित 'प्रमुख छात्र पद्धति' (Monitor System) की ओर कुछ यूरोपीयों का ध्यान गया था। ब्रिटन को प्रारम्भ में इसी पद्धति पर निर्भर रहना पड़ा था।<ref>१८वीं एवं १९वीं शताब्दी की भारतीय शिक्षाकी पद्धति और व्याप से सम्बन्धित जानकारी लेखक के रमणीय वृक्ष : १८वीं शताब्दी में भारतीय शिक्षा' पुस्तक में उपलब्ध है। | | </ref> जब ब्रिटन में लगभग सन् १८०० के आसपास साधारण बच्चों की शिक्षा हेतु प्रयास प्रारम्भ किए गए तब भारत में सत्रहवीं एवं अठारहवीं शताब्दी के दौरान प्रचलित 'प्रमुख छात्र पद्धति' (Monitor System) की ओर कुछ यूरोपीयों का ध्यान गया था। ब्रिटन को प्रारम्भ में इसी पद्धति पर निर्भर रहना पड़ा था।<ref>१८वीं एवं १९वीं शताब्दी की भारतीय शिक्षाकी पद्धति और व्याप से सम्बन्धित जानकारी लेखक के रमणीय वृक्ष : १८वीं शताब्दी में भारतीय शिक्षा' पुस्तक में उपलब्ध है। |
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| सन् १८०० के आसपास देखी जाने वाली खर्च एवं उपभोग प्रणाली से भी कुछ तुलना एवं सन्तुलन बिठाया जा सकता है। इसके लिए १८०६ में दर्ज की गई बेलारी एवं कुडाप्पा जिले की विस्तृत जानकारी उपलब्ध है। पूरा जनसमाज तीन भागों में बँटा है। उच्च वर्ग, मध्यम कक्षा के निर्वाहक साधनों से परिपूर्ण मध्यम वर्ग, निकृष्ट साधनों से निर्वाह करनेवाला निम्न वर्ग। बेलारी जिले में उच्च वर्ग में समाविष्ट लोगों की संख्या २,५९,५६८ थी। मध्यम वर्ग की ३,७२,८७७ एवं निम्न वर्ग की संख्या २,१८,६८४ थी। इन वर्गों का प्रति परिवार वार्षिक औसत उपभोक्ता खर्च ६९:३७:३० के अनुपात में था। सभी परिवारोमें अनाज का उपभोग समान था। परन्तु अनाज की गुणवत्ता एवं भिन्नता के कारण उपभोक्ता खर्च का अनुपात भिन्न दिखाई देता है। उपभोग की सामग्री की सूची में २३ वस्तुओं के नाम थे, जिसमें घी, एवं खाद्यतेल का अनुपात लगभग ३:१:१ था, जबकि दाल तथा अनाज ८:३:३ के अनुपात में खर्च होता था।<ref>तमिलनाडु स्टेट आर्काइव्झ (टी एन एस ए), मद्रास बोर्ड ऑव् रेवन्यू प्रोसीडींग्स (BRP), खण्ड २०२५, कार्यवाही ८-६-१८४६, पृ. ७४५७, कडप्पा जिले के उपभोग विषयक सामग्री; खण्ड २०३०, कार्यवाही १३-७-१८४६ पृ. ९०३१- 2 ) ७२४७, बेलारी जिले की जानकारी के लिये। | | सन् १८०० के आसपास देखी जाने वाली खर्च एवं उपभोग प्रणाली से भी कुछ तुलना एवं सन्तुलन बिठाया जा सकता है। इसके लिए १८०६ में दर्ज की गई बेलारी एवं कुडाप्पा जिले की विस्तृत जानकारी उपलब्ध है। पूरा जनसमाज तीन भागों में बँटा है। उच्च वर्ग, मध्यम कक्षा के निर्वाहक साधनों से परिपूर्ण मध्यम वर्ग, निकृष्ट साधनों से निर्वाह करनेवाला निम्न वर्ग। बेलारी जिले में उच्च वर्ग में समाविष्ट लोगों की संख्या २,५९,५६८ थी। मध्यम वर्ग की ३,७२,८७७ एवं निम्न वर्ग की संख्या २,१८,६८४ थी। इन वर्गों का प्रति परिवार वार्षिक औसत उपभोक्ता खर्च ६९:३७:३० के अनुपात में था। सभी परिवारोमें अनाज का उपभोग समान था। परन्तु अनाज की गुणवत्ता एवं भिन्नता के कारण उपभोक्ता खर्च का अनुपात भिन्न दिखाई देता है। उपभोग की सामग्री की सूची में २३ वस्तुओं के नाम थे, जिसमें घी, एवं खाद्यतेल का अनुपात लगभग ३:१:१ था, जबकि दाल तथा अनाज ८:३:३ के अनुपात में खर्च होता था।<ref>तमिलनाडु स्टेट आर्काइव्झ (टी एन एस ए), मद्रास बोर्ड ऑव् रेवन्यू प्रोसीडींग्स (BRP), खण्ड २०२५, कार्यवाही ८-६-१८४६, पृ. ७४५७, कडप्पा जिले के उपभोग विषयक सामग्री; खण्ड २०३०, कार्यवाही १३-७-१८४६ पृ. ९०३१- 2 ) ७२४७, बेलारी जिले की जानकारी के लिये। |
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| मान्यम भूमि के 'कर' (उत्तर भारत में चाकरण या बाजी जमीन के रूप में) की आय के अतिरिक्त विविध संस्था या व्यक्ति अथवा एक ही संस्था या व्यक्ति एवं अन्य कई खेती की समग्र उपज एवं बिनखेती व्यवसाय (व्यापार, आर्थिक प्रवृति तथा उद्योग धंधो) से होनेवाली आय का अंश प्राप्त करते थे। ऐसा भी देखने को मिलता था कि खेती की उपज का एक चौथाई हिस्सा स्थानीय मन्दिरों या मस्जिदों जैसे देवस्थानों को दिया जाता था। यह हिस्सा सबसे पहले निकाला जाता था। चेंगलपट्ट जिले में, खेती की उपज का २७ प्रतिशत हिस्सा इसके लिए अलग रखा जाता था। १,४५८ बस्तियों के लिए किए गए सर्वेक्षण के अनुसार उत्पादन वितरण की स्थिति कलाम के रूपमें निम्न विवरण से जानी जा सकती है। (एक कलाम लगभग १२५ किलोग्राम के बराबर है) | | मान्यम भूमि के 'कर' (उत्तर भारत में चाकरण या बाजी जमीन के रूप में) की आय के अतिरिक्त विविध संस्था या व्यक्ति अथवा एक ही संस्था या व्यक्ति एवं अन्य कई खेती की समग्र उपज एवं बिनखेती व्यवसाय (व्यापार, आर्थिक प्रवृति तथा उद्योग धंधो) से होनेवाली आय का अंश प्राप्त करते थे। ऐसा भी देखने को मिलता था कि खेती की उपज का एक चौथाई हिस्सा स्थानीय मन्दिरों या मस्जिदों जैसे देवस्थानों को दिया जाता था। यह हिस्सा सबसे पहले निकाला जाता था। चेंगलपट्ट जिले में, खेती की उपज का २७ प्रतिशत हिस्सा इसके लिए अलग रखा जाता था। १,४५८ बस्तियों के लिए किए गए सर्वेक्षण के अनुसार उत्पादन वितरण की स्थिति कलाम के रूपमें निम्न विवरण से जानी जा सकती है। (एक कलाम लगभग १२५ किलोग्राम के बराबर है) |
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− | ===== कलाम =====
| + | === कलाम === |
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| [[File:Capture१०९.png|none|thumb|371x371px]] | | [[File:Capture१०९.png|none|thumb|371x371px]] |
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| == लेख ११ == | | == लेख ११ == |
| भारतवासियों की प्रतिष्ठा का जो उत्तरोत्तर क्षरण होता गया उसके साथ खेतीबाड़ी, शिक्षा, उद्योग एवं टेक्नोलोजी के स्तर पर भी स्थिति बिगड गई। साथ ही भौतिक संसाधनों की भी बहुत खानाखराबी हुई। पर्यावरण को भी बहुत सहना पड़ा। स्थिति बद से बदतर होती जा रही थी। यहाँ तक कि भारत के अधिकांश जंगल एवं जल संपत्ति बेहाल हुई। विदेशी आधिपत्य के कारण इन की ओर ध्यान देना बन्द हो गया एवं लोगों से इन सभी को छीन लिया गया। यह इस बरबादी का प्रमुख कारण है। यह भी उतना ही सत्य है कि अन्य स्थानों की यूरोपीय नीति के समान ही ब्रिटिश भारतीय वन नीति भी भारतीय वन को कुबेर का भण्डार मानने लगी एवं सारी संपत्ति यूरोप की ओर खींचने का प्रयास करने लगी। सन् १७५० - १८०० के दौरान यूरोपीयों की एक निजी टिम्बर सिन्डीकेट भारत के अधिकांश भागों में अस्तित्व में रही। विशेष रूपसे मलबार में, जहाँ का वन अक्षय संपत्ति के समान था। लगभग १८०५ के आसपास लन्दन से आदेश आया था कि सभी निजी वनों को सरकारी नियन्त्रण में लाया जाए। सन् १८२६ की बर्मा की लडाई के बाद बर्मा हिन्दुस्तानी ब्रिटिश आधिपत्य में आ गया, एवं वहाँ के वनों को सीधे सरकारी नियन्त्रण में ले लिया गया। सन् १८०० से सन् १८४८ के दौरान अकेले ही एक मिलियन टन साग की लकडी का निकास करनेवाले मोलमेन बंदरगाह को भी सरकारी नियन्त्रण मे ले लिया गया ।<ref>इ. पी. स्टेबिंग, 'भारत के जंगल : द फॉरेस्ट्स ऑव्इ ण्डिया : The Forests of India', खण्ड १, १९२२. | | भारतवासियों की प्रतिष्ठा का जो उत्तरोत्तर क्षरण होता गया उसके साथ खेतीबाड़ी, शिक्षा, उद्योग एवं टेक्नोलोजी के स्तर पर भी स्थिति बिगड गई। साथ ही भौतिक संसाधनों की भी बहुत खानाखराबी हुई। पर्यावरण को भी बहुत सहना पड़ा। स्थिति बद से बदतर होती जा रही थी। यहाँ तक कि भारत के अधिकांश जंगल एवं जल संपत्ति बेहाल हुई। विदेशी आधिपत्य के कारण इन की ओर ध्यान देना बन्द हो गया एवं लोगों से इन सभी को छीन लिया गया। यह इस बरबादी का प्रमुख कारण है। यह भी उतना ही सत्य है कि अन्य स्थानों की यूरोपीय नीति के समान ही ब्रिटिश भारतीय वन नीति भी भारतीय वन को कुबेर का भण्डार मानने लगी एवं सारी संपत्ति यूरोप की ओर खींचने का प्रयास करने लगी। सन् १७५० - १८०० के दौरान यूरोपीयों की एक निजी टिम्बर सिन्डीकेट भारत के अधिकांश भागों में अस्तित्व में रही। विशेष रूपसे मलबार में, जहाँ का वन अक्षय संपत्ति के समान था। लगभग १८०५ के आसपास लन्दन से आदेश आया था कि सभी निजी वनों को सरकारी नियन्त्रण में लाया जाए। सन् १८२६ की बर्मा की लडाई के बाद बर्मा हिन्दुस्तानी ब्रिटिश आधिपत्य में आ गया, एवं वहाँ के वनों को सीधे सरकारी नियन्त्रण में ले लिया गया। सन् १८०० से सन् १८४८ के दौरान अकेले ही एक मिलियन टन साग की लकडी का निकास करनेवाले मोलमेन बंदरगाह को भी सरकारी नियन्त्रण मे ले लिया गया ।<ref>इ. पी. स्टेबिंग, 'भारत के जंगल : द फॉरेस्ट्स ऑव्इ ण्डिया : The Forests of India', खण्ड १, १९२२. |
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| </ref> सन् १८५० के बाद भारत में रेल तथा अन्य औद्योगिक विकास के बहाने भारत के वनों की मांग बढा दी गई। साथ ही वननीति एवं कानून अस्तित्व में आए जिससे २५ वर्ष की कम अवधि में ही समग्र भारत की वनसम्पत्ति ब्रिटिश राज्य के हाथों में चली गई। परन्तु इसके बाद इस विपुल सम्पति का अन्धाधुन्ध निकन्दन होता रहा। यह उस समय की हिन्दुस्तानी ब्रिटिश नीति के अनुरूप ही था। उसमें यूरोप या अमेरिका में जो हुआ उसी का विकृत रूप दिखाई देता था। यही नहीं भारत में तो उसका अनापशनाप अमल होता रहा। यूरोप ने इस प्राकृतिक सम्पदा को भौतिक सम्पदा के रूप में ही देखा जो कि मानव शोषण का एक साधन बनती रही। ऐसी भ्रान्त धारणा के कारण ही यूरोप के जंगल नामशेष हुए। सत्रहवीं शताब्दी के अन्त तक इग्लैण्ड वनाच्छादित भूखण्ड़ था, जो सन् १८२३ तक एक तिहाई भाग ही रह गया, जब कि फ्रान्स में सन् १५०० में बारहवें भाग का ही जंगल बचा था। | | </ref> सन् १८५० के बाद भारत में रेल तथा अन्य औद्योगिक विकास के बहाने भारत के वनों की मांग बढा दी गई। साथ ही वननीति एवं कानून अस्तित्व में आए जिससे २५ वर्ष की कम अवधि में ही समग्र भारत की वनसम्पत्ति ब्रिटिश राज्य के हाथों में चली गई। परन्तु इसके बाद इस विपुल सम्पति का अन्धाधुन्ध निकन्दन होता रहा। यह उस समय की हिन्दुस्तानी ब्रिटिश नीति के अनुरूप ही था। उसमें यूरोप या अमेरिका में जो हुआ उसी का विकृत रूप दिखाई देता था। यही नहीं भारत में तो उसका अनापशनाप अमल होता रहा। यूरोप ने इस प्राकृतिक सम्पदा को भौतिक सम्पदा के रूप में ही देखा जो कि मानव शोषण का एक साधन बनती रही। ऐसी भ्रान्त धारणा के कारण ही यूरोप के जंगल नामशेष हुए। सत्रहवीं शताब्दी के अन्त तक इग्लैण्ड वनाच्छादित भूखण्ड़ था, जो सन् १८२३ तक एक तिहाई भाग ही रह गया, जब कि फ्रान्स में सन् १५०० में बारहवें भाग का ही जंगल बचा था। |
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| # उसका जलवायु पर प्रभाव एवं क्षेत्र की उत्पादन क्षमता पर पेचीदा प्रश्न उठता है एवं जंगल की स्वाभाविक जलवायु जानलेवा मलेरिया के लिए जिम्मेदार है। | | # उसका जलवायु पर प्रभाव एवं क्षेत्र की उत्पादन क्षमता पर पेचीदा प्रश्न उठता है एवं जंगल की स्वाभाविक जलवायु जानलेवा मलेरिया के लिए जिम्मेदार है। |
| # यदि देश में अधिक जंगल रहें या उनका विस्तार बढ़ाया जाय तो कदाचित् अधिक वर्षा में सहायता मिल भी सकती है। परन्तु दूसरी ओर स्वास्थ्य की दृष्टि से जलवायु बहुत ही खतरनाक बन सकती है। भारत ने बहुत सी हानिकारक महामारी का अनुभव किया है। ऐसी महामारी में घर जंगल बन जाएँगे।<ref>टीएनएसए : बीआरपी, खण्ड २२१२, कार्यवाही १ १०-१८४९, पृ. १४२२४ - १४२६०, विशेष : अनुच्छेद ५४ | | # यदि देश में अधिक जंगल रहें या उनका विस्तार बढ़ाया जाय तो कदाचित् अधिक वर्षा में सहायता मिल भी सकती है। परन्तु दूसरी ओर स्वास्थ्य की दृष्टि से जलवायु बहुत ही खतरनाक बन सकती है। भारत ने बहुत सी हानिकारक महामारी का अनुभव किया है। ऐसी महामारी में घर जंगल बन जाएँगे।<ref>टीएनएसए : बीआरपी, खण्ड २२१२, कार्यवाही १ १०-१८४९, पृ. १४२२४ - १४२६०, विशेष : अनुच्छेद ५४ |
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| इन तर्को को मान्यता मिली। वातावरण को शुद्ध रखने के विचार से यह स्वीकृत हुआ एवं फलस्वरूप 'जंगल हटाओ' अभियान को मान्यता मिल गई। | | इन तर्को को मान्यता मिली। वातावरण को शुद्ध रखने के विचार से यह स्वीकृत हुआ एवं फलस्वरूप 'जंगल हटाओ' अभियान को मान्यता मिल गई। |
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| भारत की स्वतन्त्रता विषयक अन्य विधेयकों के समान ही इस विधेयक का मुसद्दा भी महात्मा गांधी ने ही रचा था।<ref>सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय, खण्ड ४२, पृ. ३८४-३८५ (अंग्रेजी), १० जनवरी, १९३०. | | भारत की स्वतन्त्रता विषयक अन्य विधेयकों के समान ही इस विधेयक का मुसद्दा भी महात्मा गांधी ने ही रचा था।<ref>सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय, खण्ड ४२, पृ. ३८४-३८५ (अंग्रेजी), १० जनवरी, १९३०. |
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| </ref> सन् १९२८ के जनवरी में महात्मा गांधी ने ऐसी भी आशा व्यक्त की कि भारत की स्वतन्त्रता अन्य उपनिवेशों एवं गुलाम बनाए गए लोगों की स्वतन्त्रता का सोपान बनेगी। वे कहते थे, 'भारत अपनी इच्छा के अनुसार जो प्राप्त करेगा वह अन्य देश भी प्राप्त करेंगे।'<ref>सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय, खण्ड ३५, पृ. ४५७ (अंग्रेजी), १२ जनवरी १९२८ | | </ref> सन् १९२८ के जनवरी में महात्मा गांधी ने ऐसी भी आशा व्यक्त की कि भारत की स्वतन्त्रता अन्य उपनिवेशों एवं गुलाम बनाए गए लोगों की स्वतन्त्रता का सोपान बनेगी। वे कहते थे, 'भारत अपनी इच्छा के अनुसार जो प्राप्त करेगा वह अन्य देश भी प्राप्त करेंगे।'<ref>सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय, खण्ड ३५, पृ. ४५७ (अंग्रेजी), १२ जनवरी १९२८ |
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| </ref> हम भली प्रकार जानते हैं कि ब्रिटिश आधिपत्य से भारत के स्वतन्त्र होने के पन्द्रह वर्षों में विश्व के दक्षिणपूर्व एशिया, आफ्रिका, जैसे देश भी एक या दूसरे रूप से स्वतन्त्र हो ही गए हैं। | | </ref> हम भली प्रकार जानते हैं कि ब्रिटिश आधिपत्य से भारत के स्वतन्त्र होने के पन्द्रह वर्षों में विश्व के दक्षिणपूर्व एशिया, आफ्रिका, जैसे देश भी एक या दूसरे रूप से स्वतन्त्र हो ही गए हैं। |
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| अधिकांश भारतवासियों की ऐसी मान्यता रही है कि ब्रिटिश शासनने भारत को सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक रूप से चौपट कर दिया है। परन्तु कुछ लोग इस सोच से सहमत नहीं हैं। १९४७ में स्वतन्त्रता मिलने के बाद भी वे असहमत ही रहे हैं। ऐसे आधुनिकों में जवाहरलालजी एक थे। यद्यपि सार्वजनिक रूप से वे ऐसे कथनों का आमना सामना करने से स्वंय को बचाते थे, परन्तु १९२८ के आसपास के दिनों में व्यक्तिगत रूप से वे अपने विचार व्यक्त करते रहे थे। महात्मा गांधी को लिखे एक पत्र में उन्होंने लिखा, 'आपने कहीं पर कहा है कि भारत को पाश्चात्यों से सीखने लायक कुछ भी नहीं है, उसने तो पहले से ही सयानेपन के शिखर सर कर लिए हैं। मैं आपके इस दृष्टिकोण से निश्चित रूप से सहमत नहीं हूँ। मेरे मतानुसार पश्चिम, विशेष कर औद्योगिक संस्कृति भारत को जीतने में समर्थ है। हाँ उसमें सुधार और परिवर्तन अवश्य होंगे। आपने औद्योगिकरण की कुछ कमियों की आलोचना तो की पर उसके लाभ तथा उत्तम पहलू को अनदेखा भी किया है। लोग कमियां समझते ही हैं फिर भी आदर्श राज्य व्यवस्था एवं सामाजिक सिद्धान्तों के द्वारा उसका निवारण सम्भव है ही। पश्चिम के कुछ बुद्धिजीवियों का मन्तव्य है कि ये कमियां औद्योगिकरण की नहीं हैं परन्तु पूंजीवादी प्रणाली की शोषणवृत्ति की पैदाइश है। आपने कहा है कि पूंजीपति एवं मजदूरों के बीच संघर्ष नहीं होना चाहिए। मैं मानता हूँ कि पूंजीवादी प्रथा में ऐसा संघर्ष अनिवार्य है।'<ref>सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय, खण्ड ३५, पृ. ५४४ (अंग्रेजी), नेहरू का गांधीजी को पत्र, ११ जनवरी १९२८</ref> पश्चिमी आधुनिकता विषयक सोच ही उस प्रकार की है ऐसा पंद्रह वर्ष बाद गांधीजी को नेहरू ने बताया।<ref>सम्पूर्ण गांधी वाङ्य, खण्ड ८१, पृ. ३१९-३२१, ५ अक्टूबर १९४५, महात्मा गांधी का नेहरू को पत्र | | अधिकांश भारतवासियों की ऐसी मान्यता रही है कि ब्रिटिश शासनने भारत को सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक रूप से चौपट कर दिया है। परन्तु कुछ लोग इस सोच से सहमत नहीं हैं। १९४७ में स्वतन्त्रता मिलने के बाद भी वे असहमत ही रहे हैं। ऐसे आधुनिकों में जवाहरलालजी एक थे। यद्यपि सार्वजनिक रूप से वे ऐसे कथनों का आमना सामना करने से स्वंय को बचाते थे, परन्तु १९२८ के आसपास के दिनों में व्यक्तिगत रूप से वे अपने विचार व्यक्त करते रहे थे। महात्मा गांधी को लिखे एक पत्र में उन्होंने लिखा, 'आपने कहीं पर कहा है कि भारत को पाश्चात्यों से सीखने लायक कुछ भी नहीं है, उसने तो पहले से ही सयानेपन के शिखर सर कर लिए हैं। मैं आपके इस दृष्टिकोण से निश्चित रूप से सहमत नहीं हूँ। मेरे मतानुसार पश्चिम, विशेष कर औद्योगिक संस्कृति भारत को जीतने में समर्थ है। हाँ उसमें सुधार और परिवर्तन अवश्य होंगे। आपने औद्योगिकरण की कुछ कमियों की आलोचना तो की पर उसके लाभ तथा उत्तम पहलू को अनदेखा भी किया है। लोग कमियां समझते ही हैं फिर भी आदर्श राज्य व्यवस्था एवं सामाजिक सिद्धान्तों के द्वारा उसका निवारण सम्भव है ही। पश्चिम के कुछ बुद्धिजीवियों का मन्तव्य है कि ये कमियां औद्योगिकरण की नहीं हैं परन्तु पूंजीवादी प्रणाली की शोषणवृत्ति की पैदाइश है। आपने कहा है कि पूंजीपति एवं मजदूरों के बीच संघर्ष नहीं होना चाहिए। मैं मानता हूँ कि पूंजीवादी प्रथा में ऐसा संघर्ष अनिवार्य है।'<ref>सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय, खण्ड ३५, पृ. ५४४ (अंग्रेजी), नेहरू का गांधीजी को पत्र, ११ जनवरी १९२८</ref> पश्चिमी आधुनिकता विषयक सोच ही उस प्रकार की है ऐसा पंद्रह वर्ष बाद गांधीजी को नेहरू ने बताया।<ref>सम्पूर्ण गांधी वाङ्य, खण्ड ८१, पृ. ३१९-३२१, ५ अक्टूबर १९४५, महात्मा गांधी का नेहरू को पत्र |
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| </ref> अपने पत्र में नेहरू ने यह भी टिप्पणी की कि, 'क्यों गाँवों को सत्य एवं अहिंसा के साथ जोडना चाहिए ? गाँव तो सामान्य रूप से बौद्धिक एवं सांस्कृतिक रूप से पिछडे हुए हैं। पिछड़ेपन के वातावरण में विकास सम्भव नहीं है। संकुचित सोच रखनेवाले लोग अधिकांशतः झूठे एवं हिंसापूर्ण ही होते हैं।'<ref>जवाहरलाल नेहरू, 'सिलैक्टेड वर्क्स', खण्ड १४, पृ. ५५४-५५७, नेहरू का महात्मा गांधी को पत्र, ४ अक्टूबर १९४५</ref> | | </ref> अपने पत्र में नेहरू ने यह भी टिप्पणी की कि, 'क्यों गाँवों को सत्य एवं अहिंसा के साथ जोडना चाहिए ? गाँव तो सामान्य रूप से बौद्धिक एवं सांस्कृतिक रूप से पिछडे हुए हैं। पिछड़ेपन के वातावरण में विकास सम्भव नहीं है। संकुचित सोच रखनेवाले लोग अधिकांशतः झूठे एवं हिंसापूर्ण ही होते हैं।'<ref>जवाहरलाल नेहरू, 'सिलैक्टेड वर्क्स', खण्ड १४, पृ. ५५४-५५७, नेहरू का महात्मा गांधी को पत्र, ४ अक्टूबर १९४५</ref> |
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| == लेख १४ == | | == लेख १४ == |
| पश्चिम का सम्पूर्ण ज्ञान एवं विविध तथ्यों विषयक सिद्धांतीकरण किसी मूल तथ्यों का साररूप हो यह माना जा सकता है। यह केवल मानवता या समाजविद्या जैसी विद्या तक सीमित न रहकर भौतिक विज्ञान के लिए भी कहा जा सकता है। उनमें एक, मानव नृवंशशास्त्र है। मानववंश विज्ञान एक ऐसा विज्ञान है जो केवल गैर यूरोपीय और विजित लोगों के विषय में ही है। यह तथा इसके अनुषांगिक अन्य शास्त्र गैर यूरोपीय लोगों ने जो संज्ञा दी उसे केवल एक बीज समझ कर मूल्यांकन करते हैं। प्रोफेसर क्लाउड़ लेवी इस शास्त्र का वर्णन इस प्रकार करते हैं -<blockquote>'नृवंशशास्त्र कोई ऐसा शास्त्र या विज्ञान नहीं है जो खगोलशास्त्र के समान दूर सुदूर के पदार्थों के सिद्धान्त समझाता हो। वह तो इतिहास के ऐसे तथ्यों से रंजित शास्त्र है जिसमें मानव समूह का अधिकांश भाग अन्य किसी के अधिकार में रहा हो, जिस काल के दौरान लाखों लोगों ने अपने जीवन आधार को खो दिया हो, उनके संस्थागत ढाँचे टूट चुके हों, उन्हें क्रूरतापूर्वक मौत के घाट उतारा गया हो, गुलामी में जकड़ दिया गया हो, और ऐसे शेर का शिकार बनाया गया हो जिसके सामने वे टिक न पाए हों। नृवंशशास्त्र हिंसा के इस युग की पुत्री है। मानव का वस्तु के रूप में मूल्यांकन करने की उसकी पद्धति तो ज्ञानमीमांसा को भी पार कर जाती है। इसमें (करुणता तो यह है कि) मानव समूह का एक हिस्सा अपने जैसे ही दूसरे हिस्सेको वस्तु समझ कर सिद्धान्त बनाता है।</blockquote><blockquote>'यह सरलता से भुलाई जा नहीं सकती। सब मिटाया भी नहीं जा सकता। यह केवल पश्चिम के विश्व द्वारा दिया गया मानवशास्त्र ही नहीं है अपितु विदेशी संस्कृति के प्रभाव में प्राप्त होनेवाली वस्तुनिष्ठ सोच का भी परिणाम है। उसी के अनुसार सभी बातों का वस्तु के रूप में मूल्यांकन करना आवश्यक हो गया। हम यह भूल गए कि उनकी चिंताओं के प्रति हम क्या कर सकते थे। हमने वह नहीं किया। वे हमारे प्रति एवं उनके स्वयं के प्रति किए गए व्यवहार में कोई समानता नहीं रखते थे - न हो सकती थी।'<ref>१७ नवम्बर १९६५ को अमेरिका के वॉशिंग्टन डी.सी. की स्मिथसोनिअन इन्स्टीट्यूट के अर्धशताब्दी समारोह के अवसर में प्रा. क्लॉड लेवी स्ट्रॉस की टिप्पणी, अप्रैल १९६६ में ‘करन्ट एन्थ्रोपोलॉजी' खण्ड २, अंक २ में प्रकाशित</ref> प्रोफेसर क्लाउड़ लेवी ने जो कुछ भी कहा उसमें मानवशास्त्र के लिए कुछ भी नया नहीं है। इससे अस्सी वर्ष पूर्व सर एडवर्ड बरनेट टेलर ने इस शास्त्र की भूमिका को पुरानी संस्कृति के संहारक के रूप में गिनाया था। याद रहे एडवर्ड बरनेट को कुछ लोग नृवंशशास्त्र का पितामह कहते थे। वे इस धर्माधिपत्य वाली संस्कृति के विषय में अन्त में बताते हैं कि वह खूब निर्दयी, कठोर एवं कुछ दुःखदायी भी थी। इसलिए इस शास्त्र में माननेवालों की संस्था पुरानी संस्कृति में बची हुई क्रूरता को बाहर लाने के लिए आगे आयी। 'ऐसी क्रूरता अत्यधिक दुःखदायी एवं अत्याचारी होने के कारण उसका संहार करना ही उचित था। यह कार्य शुभ या उचित लगे या न लगे तो भी मानवजाति के हित के लिए तत्काल करना आवश्यक है।'<ref>एस. जे. ताल्बिआ द्वारा उद्धृत, 'जादू, विज्ञान, धर्म के परिप्रेक्ष्य में तर्क का औचित्य : मैजिक, साईन्स, रिलिजन एण्ड द स्कोप ऑव् रेशनालिटी : Magic, Science, Religion and the scope of Rationality', १९९०, पृ. ४४ | | पश्चिम का सम्पूर्ण ज्ञान एवं विविध तथ्यों विषयक सिद्धांतीकरण किसी मूल तथ्यों का साररूप हो यह माना जा सकता है। यह केवल मानवता या समाजविद्या जैसी विद्या तक सीमित न रहकर भौतिक विज्ञान के लिए भी कहा जा सकता है। उनमें एक, मानव नृवंशशास्त्र है। मानववंश विज्ञान एक ऐसा विज्ञान है जो केवल गैर यूरोपीय और विजित लोगों के विषय में ही है। यह तथा इसके अनुषांगिक अन्य शास्त्र गैर यूरोपीय लोगों ने जो संज्ञा दी उसे केवल एक बीज समझ कर मूल्यांकन करते हैं। प्रोफेसर क्लाउड़ लेवी इस शास्त्र का वर्णन इस प्रकार करते हैं -<blockquote>'नृवंशशास्त्र कोई ऐसा शास्त्र या विज्ञान नहीं है जो खगोलशास्त्र के समान दूर सुदूर के पदार्थों के सिद्धान्त समझाता हो। वह तो इतिहास के ऐसे तथ्यों से रंजित शास्त्र है जिसमें मानव समूह का अधिकांश भाग अन्य किसी के अधिकार में रहा हो, जिस काल के दौरान लाखों लोगों ने अपने जीवन आधार को खो दिया हो, उनके संस्थागत ढाँचे टूट चुके हों, उन्हें क्रूरतापूर्वक मौत के घाट उतारा गया हो, गुलामी में जकड़ दिया गया हो, और ऐसे शेर का शिकार बनाया गया हो जिसके सामने वे टिक न पाए हों। नृवंशशास्त्र हिंसा के इस युग की पुत्री है। मानव का वस्तु के रूप में मूल्यांकन करने की उसकी पद्धति तो ज्ञानमीमांसा को भी पार कर जाती है। इसमें (करुणता तो यह है कि) मानव समूह का एक हिस्सा अपने जैसे ही दूसरे हिस्सेको वस्तु समझ कर सिद्धान्त बनाता है।</blockquote><blockquote>'यह सरलता से भुलाई जा नहीं सकती। सब मिटाया भी नहीं जा सकता। यह केवल पश्चिम के विश्व द्वारा दिया गया मानवशास्त्र ही नहीं है अपितु विदेशी संस्कृति के प्रभाव में प्राप्त होनेवाली वस्तुनिष्ठ सोच का भी परिणाम है। उसी के अनुसार सभी बातों का वस्तु के रूप में मूल्यांकन करना आवश्यक हो गया। हम यह भूल गए कि उनकी चिंताओं के प्रति हम क्या कर सकते थे। हमने वह नहीं किया। वे हमारे प्रति एवं उनके स्वयं के प्रति किए गए व्यवहार में कोई समानता नहीं रखते थे - न हो सकती थी।'<ref>१७ नवम्बर १९६५ को अमेरिका के वॉशिंग्टन डी.सी. की स्मिथसोनिअन इन्स्टीट्यूट के अर्धशताब्दी समारोह के अवसर में प्रा. क्लॉड लेवी स्ट्रॉस की टिप्पणी, अप्रैल १९६६ में ‘करन्ट एन्थ्रोपोलॉजी' खण्ड २, अंक २ में प्रकाशित</ref> प्रोफेसर क्लाउड़ लेवी ने जो कुछ भी कहा उसमें मानवशास्त्र के लिए कुछ भी नया नहीं है। इससे अस्सी वर्ष पूर्व सर एडवर्ड बरनेट टेलर ने इस शास्त्र की भूमिका को पुरानी संस्कृति के संहारक के रूप में गिनाया था। याद रहे एडवर्ड बरनेट को कुछ लोग नृवंशशास्त्र का पितामह कहते थे। वे इस धर्माधिपत्य वाली संस्कृति के विषय में अन्त में बताते हैं कि वह खूब निर्दयी, कठोर एवं कुछ दुःखदायी भी थी। इसलिए इस शास्त्र में माननेवालों की संस्था पुरानी संस्कृति में बची हुई क्रूरता को बाहर लाने के लिए आगे आयी। 'ऐसी क्रूरता अत्यधिक दुःखदायी एवं अत्याचारी होने के कारण उसका संहार करना ही उचित था। यह कार्य शुभ या उचित लगे या न लगे तो भी मानवजाति के हित के लिए तत्काल करना आवश्यक है।'<ref>एस. जे. ताल्बिआ द्वारा उद्धृत, 'जादू, विज्ञान, धर्म के परिप्रेक्ष्य में तर्क का औचित्य : मैजिक, साईन्स, रिलिजन एण्ड द स्कोप ऑव् रेशनालिटी : Magic, Science, Religion and the scope of Rationality', १९९०, पृ. ४४ |
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| </ref></blockquote>नृवंशशास्त्र की यह परिभाषा तथा यूरोपीयों का उसके प्रति झुकाव, यूरोप से अतिरिक्त शेष विश्व को निगल गया। | | </ref></blockquote>नृवंशशास्त्र की यह परिभाषा तथा यूरोपीयों का उसके प्रति झुकाव, यूरोप से अतिरिक्त शेष विश्व को निगल गया। |
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− | <references />अप्रैल १९९२ में जर्मनी के ब्रेमेन में आयोजित 'पर्यावरण एवं विकास (Environment and Development)' विषयक गोष्ठि में प्रस्तुत पत्र | + | <references /> |
| + | * अप्रैल १९९२ में जर्मनी के ब्रेमेन में आयोजित 'पर्यावरण एवं विकास (Environment and Development)' विषयक गोष्ठि में प्रस्तुत पत्र |
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