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किसी भी समाज की अर्थव्यवस्था उस समाज की रीढ होती है। अच्छी अर्थव्यवस्था के बिना कोई समाज सुखी और समृद्ध नहीं हो सकता। समाज के सुखी और समृद्ध होने का अर्थ है समाज का सुसंस्कृत होना और समाज की सभी इच्छाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति करने की शक्ति उस समाज में होना। अर्थ का प्रभाव और अभाव दोनों ही समाज में अव्यवस्था और अशांति निर्माण करते हैं। समाज की सुख और समृद्धि इन दोनों आवश्यकताओं की पूर्ति जिस प्रकार से संयुक्त कुटुंब व्यवस्था से हो सकती है अन्य किसी भी कुटुंब व्यवस्था से नहीं हो सकती।   
 
किसी भी समाज की अर्थव्यवस्था उस समाज की रीढ होती है। अच्छी अर्थव्यवस्था के बिना कोई समाज सुखी और समृद्ध नहीं हो सकता। समाज के सुखी और समृद्ध होने का अर्थ है समाज का सुसंस्कृत होना और समाज की सभी इच्छाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति करने की शक्ति उस समाज में होना। अर्थ का प्रभाव और अभाव दोनों ही समाज में अव्यवस्था और अशांति निर्माण करते हैं। समाज की सुख और समृद्धि इन दोनों आवश्यकताओं की पूर्ति जिस प्रकार से संयुक्त कुटुंब व्यवस्था से हो सकती है अन्य किसी भी कुटुंब व्यवस्था से नहीं हो सकती।   
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धार्मिक (भारतीय) समाज में कुटुंब यह सब से छोटी सामाजिक इकाई मानी जाती है। इस इकाई में सामाजिकता के पाठ पढकर मनुष्य समाज को भी कुटुंब की तरह बनाए ऐसी यह व्यवस्था है। यही व्यवस्था विस्तार पाती है तो ‘ग्रामकुल’ बनती है। और आगे विस्तार पाकर ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ भी बनती है। अब इन तीनों की संक्षेप में जानकारी लेंगे।   
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धार्मिक (भारतीय) समाज में कुटुंब यह सब से छोटी सामाजिक इकाई मानी जाती है। इस इकाई में सामाजिकता के पाठ पढकर मनुष्य समाज को भी कुटुंब की तरह बनाए ऐसी यह व्यवस्था है। यही व्यवस्था विस्तार पाती है तो ‘ग्रामकुल’ बनती है। और आगे विस्तार पाकर ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ भी बनती है। अब इन तीनों की संक्षेप में जानकारी लेंगे।<ref>जीवन का भारतीय प्रतिमान-खंड १, अध्याय १२, लेखक - दिलीप केलकर</ref>  
    
== कुटुंब / परिवार ==
 
== कुटुंब / परिवार ==

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