− | भारतीय समाज यदि चिरंजीवी बना है तो वह भारत की कुटुंब व्यवस्था के कारण। बहुत दीर्घ काल तक विदेशी शासकों के प्रभाव के उपरांत भी आज यदि धार्मिक (भारतीय) समाज में कुछ भारतीयता शेष है तो वह परिवार व्यवस्था के कारण ही है । लगभग २००-२२५ वर्षों की विपरीत शिक्षा के उपरांत भी यदि धार्मिक (भारतीय) समाज में भारतीयता बची है तो वह हमारी कुटुंब व्यवस्था के कारण ही है। लेकिन विपरीत शिक्षा के साथ चल रही इस लडाई में कुटुंब व्यवस्था भी क्षीण हो गई है। | + | धार्मिक (भारतीय) समाज यदि चिरंजीवी बना है तो वह भारत की कुटुंब व्यवस्था के कारण। बहुत दीर्घ काल तक विदेशी शासकों के प्रभाव के उपरांत भी आज यदि धार्मिक (भारतीय) समाज में कुछ भारतीयता शेष है तो वह परिवार व्यवस्था के कारण ही है । लगभग २००-२२५ वर्षों की विपरीत शिक्षा के उपरांत भी यदि धार्मिक (भारतीय) समाज में भारतीयता बची है तो वह हमारी कुटुंब व्यवस्था के कारण ही है। लेकिन विपरीत शिक्षा के साथ चल रही इस लडाई में कुटुंब व्यवस्था भी क्षीण हो गई है। |
| आज विश्व जिसका अनुकरण करता है वह अमरिका एक बडे प्रमाण में टूटते कुटुंबों का देश है। कुटुंबों को फिर से व्यवस्थित कैसे किया जाए इस की चिंता अमरिका के ही नहीं सभी तथाकथित प्रगत देशों के हितचिंतक विद्वान करने लगे हैं। किन्तु प्रेम, आत्मीयता, कर्तव्य भावना, नि:स्वार्थ भाव से औरों के हित को प्राधान्य देना, औरों के लिये त्याग करने की मानसिकता, इन सब को पुन: लोगों के मन में जगाना सरल बात नहीं है। हमारे यहाँ कुटुंब व्यवस्था अब भी कुछ प्रमाण में टिकी हुई है तो हम उस का मूल्य समझते नहीं हैं। | | आज विश्व जिसका अनुकरण करता है वह अमरिका एक बडे प्रमाण में टूटते कुटुंबों का देश है। कुटुंबों को फिर से व्यवस्थित कैसे किया जाए इस की चिंता अमरिका के ही नहीं सभी तथाकथित प्रगत देशों के हितचिंतक विद्वान करने लगे हैं। किन्तु प्रेम, आत्मीयता, कर्तव्य भावना, नि:स्वार्थ भाव से औरों के हित को प्राधान्य देना, औरों के लिये त्याग करने की मानसिकता, इन सब को पुन: लोगों के मन में जगाना सरल बात नहीं है। हमारे यहाँ कुटुंब व्यवस्था अब भी कुछ प्रमाण में टिकी हुई है तो हम उस का मूल्य समझते नहीं हैं। |
− | वास्तव में सुखी समाधानी धार्मिक (भारतीय) समाज जीवन का रहस्य ही ‘परिवार भावना’ में है। हमारे सभी सामाजिक संबंधों का आधार कुटुंब भावना ही है। यह कुटुंब भावना केवल रक्त-संबंधों तक सीमित नहीं हुआ करती थी। इसका विस्तार रक्त-संबंधों से आगे सृष्टि के चराचर तक ले जाना यह कुटुंब व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण पहलू होता है। प्रत्यक्ष में सभी सामाजिक संबंधों में भी यह कुटुंब भावना या आत्मीयता व्यवहार में दिखाई दे ऐसे शिक्षा और संस्कार कुटुंबों में भी और विद्यालयों में भी दिये जाते थे। शिष्य गुरू का मानसपुत्र होता है। राजा प्रजा का पिता होता है। प्रजा का अर्थ ही संतान होता है। एक ही व्यवसाय में काम करनेवाले लोग स्पर्धक नहीं होते। व्यवसाय बंधू होते हैं। धरती माता होती है। गाय, तुलसी, गंगा ये माताएँ होतीं हैं। सभा भवन में व्याख्यान सुनने आये हुए लोग 'मेरे प्रिय बहनों और भाईयों' होते हैं। हमारे तो बाजार भी कुटुंब भावना से चलते हैं।भारतीय परिवार का आदर्श भगवान शंकर का कुटुंब है। इस परिवार में एक दूसरे के शत्रू भी अपना बैर भूलकर आत्मीयता से रहते हैं। शंकरजी का वाहन बैल, पार्वती के वाहन शेर का खाद्य है। गणेशजी का वाहन मूषक, शंकरजी के गले में जो साँप है उसका खाद्य है। और यह साँप कार्तिकेय के वाहन मोर का खाद्य है। इसके अलावा शंकरजी के भाल पर चंद्रमा है और उनकी जटाओं से गंगावतरण हो रहा है। अर्थात् इस परिवार में केवल मनुष्य ही नहीं, साथ में पशु और पक्षी ही नहीं तो प्रकृति के जड तत्व भी विद्यमान हैं। इस प्रकार धार्मिक (भारतीय) दृष्टि से कुटुंब का दायरा रक्त संबंध, मित्र परिवार, पडोसी, दुकानदार, भिखारी, गली के निवासी, व्यावसायिक संबंधी, सामाजिक संबंधी, अतिथी, पेड-पौधे, पशु-पक्षी, नदी या गाँव के तालाब या झरनों जैसे जल के स्रोत, मातृभूमि, धरती माता ऐसे पूरे विश्व तक होता है। स्वदेशो भुवनत्रयम् तक कुटुंब का विस्तार होना चाहिये ऐसा माना जाता है। | + | वास्तव में सुखी समाधानी धार्मिक (भारतीय) समाज जीवन का रहस्य ही ‘परिवार भावना’ में है। हमारे सभी सामाजिक संबंधों का आधार कुटुंब भावना ही है। यह कुटुंब भावना केवल रक्त-संबंधों तक सीमित नहीं हुआ करती थी। इसका विस्तार रक्त-संबंधों से आगे सृष्टि के चराचर तक ले जाना यह कुटुंब व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण पहलू होता है। प्रत्यक्ष में सभी सामाजिक संबंधों में भी यह कुटुंब भावना या आत्मीयता व्यवहार में दिखाई दे ऐसे शिक्षा और संस्कार कुटुंबों में भी और विद्यालयों में भी दिये जाते थे। शिष्य गुरू का मानसपुत्र होता है। राजा प्रजा का पिता होता है। प्रजा का अर्थ ही संतान होता है। एक ही व्यवसाय में काम करनेवाले लोग स्पर्धक नहीं होते। व्यवसाय बंधू होते हैं। धरती माता होती है। गाय, तुलसी, गंगा ये माताएँ होतीं हैं। सभा भवन में व्याख्यान सुनने आये हुए लोग 'मेरे प्रिय बहनों और भाईयों' होते हैं। हमारे तो बाजार भी कुटुंब भावना से चलते हैं।धार्मिक (भारतीय) परिवार का आदर्श भगवान शंकर का कुटुंब है। इस परिवार में एक दूसरे के शत्रू भी अपना बैर भूलकर आत्मीयता से रहते हैं। शंकरजी का वाहन बैल, पार्वती के वाहन शेर का खाद्य है। गणेशजी का वाहन मूषक, शंकरजी के गले में जो साँप है उसका खाद्य है। और यह साँप कार्तिकेय के वाहन मोर का खाद्य है। इसके अलावा शंकरजी के भाल पर चंद्रमा है और उनकी जटाओं से गंगावतरण हो रहा है। अर्थात् इस परिवार में केवल मनुष्य ही नहीं, साथ में पशु और पक्षी ही नहीं तो प्रकृति के जड तत्व भी विद्यमान हैं। इस प्रकार धार्मिक (भारतीय) दृष्टि से कुटुंब का दायरा रक्त संबंध, मित्र परिवार, पडोसी, दुकानदार, भिखारी, गली के निवासी, व्यावसायिक संबंधी, सामाजिक संबंधी, अतिथी, पेड-पौधे, पशु-पक्षी, नदी या गाँव के तालाब या झरनों जैसे जल के स्रोत, मातृभूमि, धरती माता ऐसे पूरे विश्व तक होता है। स्वदेशो भुवनत्रयम् तक कुटुंब का विस्तार होना चाहिये ऐसा माना जाता है। |
| किसी भी समाज की अर्थव्यवस्था उस समाज की रीढ होती है। अच्छी अर्थव्यवस्था के बिना कोई समाज सुखी और समृद्ध नहीं हो सकता। समाज के सुखी और समृद्ध होने का अर्थ है समाज का सुसंस्कृत होना और समाज की सभी इच्छाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति करने की शक्ति उस समाज में होना। अर्थ का प्रभाव और अभाव दोनों ही समाज में अव्यवस्था और अशांति निर्माण करते हैं। समाज की सुख और समृद्धि इन दोनों आवश्यकताओं की पूर्ति जिस प्रकार से संयुक्त कुटुंब व्यवस्था से हो सकती है अन्य किसी भी कुटुंब व्यवस्था से नहीं हो सकती। | | किसी भी समाज की अर्थव्यवस्था उस समाज की रीढ होती है। अच्छी अर्थव्यवस्था के बिना कोई समाज सुखी और समृद्ध नहीं हो सकता। समाज के सुखी और समृद्ध होने का अर्थ है समाज का सुसंस्कृत होना और समाज की सभी इच्छाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति करने की शक्ति उस समाज में होना। अर्थ का प्रभाव और अभाव दोनों ही समाज में अव्यवस्था और अशांति निर्माण करते हैं। समाज की सुख और समृद्धि इन दोनों आवश्यकताओं की पूर्ति जिस प्रकार से संयुक्त कुटुंब व्यवस्था से हो सकती है अन्य किसी भी कुटुंब व्यवस्था से नहीं हो सकती। |
− | भारतीय समाज में कुटुंब यह सब से छोटी सामाजिक इकाई मानी जाती है। इस इकाई में सामाजिकता के पाठ पढकर मनुष्य समाज को भी कुटुंब की तरह बनाए ऐसी यह व्यवस्था है। यही व्यवस्था विस्तार पाती है तो ‘ग्रामकुल’ बनती है। और आगे विस्तार पाकर ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ भी बनती है। अब इन तीनों की संक्षेप में जानकारी लेंगे। | + | धार्मिक (भारतीय) समाज में कुटुंब यह सब से छोटी सामाजिक इकाई मानी जाती है। इस इकाई में सामाजिकता के पाठ पढकर मनुष्य समाज को भी कुटुंब की तरह बनाए ऐसी यह व्यवस्था है। यही व्यवस्था विस्तार पाती है तो ‘ग्रामकुल’ बनती है। और आगे विस्तार पाकर ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ भी बनती है। अब इन तीनों की संक्षेप में जानकारी लेंगे। |