| राजनीतिक जीवन निरन्तर गतिमान है, यद्यपि यह गति मन्द और तीव्र होती रहती है। विश्व-राजनीति राष्ट्रीय राजनीति की अपेक्षा अधिक जटिल और अस्थिर है, क्योंकि यहाँ वैशिष्ट्य और वैभिन्न्य अधिक है। भौगोलिक, सांस्कृतिक एवं वैचारिक भिन्नता ‘राष्ट्रीय हित' को सापेक्ष बना देती है, जिसकी प्राप्ति के लिए विभिन्न रूपों में शक्ति का अर्जन, संवर्धन एवं प्रदर्शन की आवश्यकता पड़ती है। प्राचीन एवं मध्य युगों में जब सभ्यताओं में स्वपर्याप्तता एवं स्वायत्तता के भाव की प्रबलता थी और उनके बीच छुटपुट आदान-प्रदान और वे भी मुख्यत: व्यापार-वाणिज्य के क्षेत्र में होते थे, ‘अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति' या 'विश्व-राजनीति' जैसी अवधारणाएँ अप्रासंगिक थीं। परन्तु आधुनिक विश्व का स्वरूप भिन्न है । अन्तर्निर्भरता एवं अन्तक्रिया में असाधारण वृद्धि हुई है । जीवन-दृष्टि के विखण्डन ने, ऊर्ध्वगामिता के परित्याग ने राज्यों को अहंवादी, प्रतिस्पर्धात्मक, शक्तिलोलुप और विस्तारवादी बना दिया है। अहंकार व प्रतिस्पर्धा-जनित इस विखण्डन को हम कभी बहुलता, कभी विशिष्टता, तो कभी अस्मिता कहते हैं, और इस संकुचन से उपजे द्वन्द्व एवं संघर्ष को विश्व-राजनीति की स्वाभाविक स्थिति मान लेते हैं। | | राजनीतिक जीवन निरन्तर गतिमान है, यद्यपि यह गति मन्द और तीव्र होती रहती है। विश्व-राजनीति राष्ट्रीय राजनीति की अपेक्षा अधिक जटिल और अस्थिर है, क्योंकि यहाँ वैशिष्ट्य और वैभिन्न्य अधिक है। भौगोलिक, सांस्कृतिक एवं वैचारिक भिन्नता ‘राष्ट्रीय हित' को सापेक्ष बना देती है, जिसकी प्राप्ति के लिए विभिन्न रूपों में शक्ति का अर्जन, संवर्धन एवं प्रदर्शन की आवश्यकता पड़ती है। प्राचीन एवं मध्य युगों में जब सभ्यताओं में स्वपर्याप्तता एवं स्वायत्तता के भाव की प्रबलता थी और उनके बीच छुटपुट आदान-प्रदान और वे भी मुख्यत: व्यापार-वाणिज्य के क्षेत्र में होते थे, ‘अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति' या 'विश्व-राजनीति' जैसी अवधारणाएँ अप्रासंगिक थीं। परन्तु आधुनिक विश्व का स्वरूप भिन्न है । अन्तर्निर्भरता एवं अन्तक्रिया में असाधारण वृद्धि हुई है । जीवन-दृष्टि के विखण्डन ने, ऊर्ध्वगामिता के परित्याग ने राज्यों को अहंवादी, प्रतिस्पर्धात्मक, शक्तिलोलुप और विस्तारवादी बना दिया है। अहंकार व प्रतिस्पर्धा-जनित इस विखण्डन को हम कभी बहुलता, कभी विशिष्टता, तो कभी अस्मिता कहते हैं, और इस संकुचन से उपजे द्वन्द्व एवं संघर्ष को विश्व-राजनीति की स्वाभाविक स्थिति मान लेते हैं। |
− | <references />भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
| + | भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे |