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इस विनाशकारी विकास से चिन्तित अनेक पाश्चात्य विद्वान हिन्दू और बौद्ध धर्मों में प्रतिपादित सनातन सिद्धान्तों की ओर आकृष्ट हुए हैं। फ्रिथजॉफ कापरा जैसे भौतिकशास्त्री डेकार्ट और न्यूटन के वैज्ञानिक बुद्धिवाद में पर्यावरण-संकट के बीज देखते हैं और ब्रह्माण्ड की भारतीय दृष्टि की ओर प्रत्यावर्तन का आग्रह करते है। एरिक फ्राम पर्यावरण-संकट का मूल कारण 'आत्म-बोध' (Being) की अपेक्षा प्राप्ति/उपलब्धि (Having) को वरीयता देने की आधुनिक प्रवृत्ति को मानते हैं। शूमाकर ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'स्माल इज ब्यूटीफुल' में बौद्ध परम्परा में प्रतिपादित 'सम्यक् आजीव' (Right Livelihood) की महत्ता व प्रासंगिकता को रेखांकित किया है। आधुनिक अर्थशास्त्र व्यक्ति को आर्थिक प्राणी (Economic Man) और उपयोगिता का संवर्धन करने वाला प्राणी (Utility Maximizer) मानता है। परन्तु शूमाकर इस दृष्टिकोण को अस्वीकार करते हैं और योगमूलक भोग में मनुष्य व समाज का कल्याण मानते हैं। धन नहीं, धन । की आसक्ति त्याज्य है। भौतिक सुखों का परिसीमन अपेक्षित है, और यह तभी सम्भव है जब आत्मिक-नैतिक आनन्द को श्रेष्ठतर व श्रेयस्कर माना जाए। सम्यक् अर्थशास्त्र मनुष्य का चतुर्दिक कल्याण करता है, उसे धनपिशाच नहीं बनाता।
 
इस विनाशकारी विकास से चिन्तित अनेक पाश्चात्य विद्वान हिन्दू और बौद्ध धर्मों में प्रतिपादित सनातन सिद्धान्तों की ओर आकृष्ट हुए हैं। फ्रिथजॉफ कापरा जैसे भौतिकशास्त्री डेकार्ट और न्यूटन के वैज्ञानिक बुद्धिवाद में पर्यावरण-संकट के बीज देखते हैं और ब्रह्माण्ड की भारतीय दृष्टि की ओर प्रत्यावर्तन का आग्रह करते है। एरिक फ्राम पर्यावरण-संकट का मूल कारण 'आत्म-बोध' (Being) की अपेक्षा प्राप्ति/उपलब्धि (Having) को वरीयता देने की आधुनिक प्रवृत्ति को मानते हैं। शूमाकर ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'स्माल इज ब्यूटीफुल' में बौद्ध परम्परा में प्रतिपादित 'सम्यक् आजीव' (Right Livelihood) की महत्ता व प्रासंगिकता को रेखांकित किया है। आधुनिक अर्थशास्त्र व्यक्ति को आर्थिक प्राणी (Economic Man) और उपयोगिता का संवर्धन करने वाला प्राणी (Utility Maximizer) मानता है। परन्तु शूमाकर इस दृष्टिकोण को अस्वीकार करते हैं और योगमूलक भोग में मनुष्य व समाज का कल्याण मानते हैं। धन नहीं, धन । की आसक्ति त्याज्य है। भौतिक सुखों का परिसीमन अपेक्षित है, और यह तभी सम्भव है जब आत्मिक-नैतिक आनन्द को श्रेष्ठतर व श्रेयस्कर माना जाए। सम्यक् अर्थशास्त्र मनुष्य का चतुर्दिक कल्याण करता है, उसे धनपिशाच नहीं बनाता।
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पूर्व के विवेचन में राष्ट्रीयता के उभार की चर्चा की गई। लेकिन आधुनिक विश्व में राष्ट्रवाद का आक्रमक और विध्वंसक रूप भी बार-बार प्रकट हुआ है। ऐसा उग्र राष्ट्रवाद, चाहे उसका आधार धर्म हो, प्रजातीयता हो अथवा भाषा हो, मानवता के लिए एक खतरा बनकर ही उभरा है। इसी उग्र/अंध राष्ट्रवाद ने २०वीं सदी में दो भयावह महायुद्धों को जन्म दिया और यही छद्म राष्ट्रवाद समकालीन विश्व में आतंकवाद के रूप में विनाश का कारण बना हुआ है। शीत-युद्धोत्तर काल में कतिपय राज्येतर संगठन (Non-State Actors) अशान्ति व अस्थिरता के नए स्रोतों के रूप में उभरे, और आतंक उनका नया हथियार बन गया । राज्यों द्वारा आतंक को एक प्रभावी हथियार के रूप में इस्तेमाल करने के अनेक उदाहरण आधुनिक यूरोप के इतिहास में उपलब्ध हैं। १७८९ की फ्रांस की क्रान्ति के उपरान्त राब्सपीयरे ने 'आतंक का राज्य स्थापित कर क्रान्ति-विरोधी शक्तियों का मुकाबला किया, १९१७ की रूसी क्रान्ति के उपरान्त स्टालिन ने भी यही किया और जर्मनी में हिटलर, इटली में मुसोलिनी व स्पेन में जनरल फ्रांको ने भी आतंक के बलबूते अपने सर्वाधिकारवादी शासन का संचालन किया। परन्तु राज्येतर संगठनों द्वारा अपने राजनीतिक, प्रजातीय अथवा धार्मिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु आतंक का इस्तेमाल एक भिन्न परिदृश्य उपस्थित करता है। समकालीन वैश्विक राजनीति धार्मिक आतंकवाद से त्रस्त है। इस्लाम के नाम पर अल-कायदा, तालिबान, हिजबुल्लाह, आईएसआईएस आदि संगठन गैर-इस्लामी व्यवस्थाओं के लिए गम्भीर चुनौती बन चुके हैं। वे इस्लाम की अपनी व्याख्या को आधिकारिक और प्रामाणिक मानते हैं और ऐसे इस्लामी देशों को भी नेस्तनाबूद करना चाहते हैं जो उनकी व्याख्या से असहमत
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पूर्व के विवेचन में राष्ट्रीयता के उभार की चर्चा की गई। लेकिन आधुनिक विश्व में राष्ट्रवाद का आक्रमक और विध्वंसक रूप भी बार-बार प्रकट हुआ है। ऐसा उग्र राष्ट्रवाद, चाहे उसका आधार धर्म हो, प्रजातीयता हो अथवा भाषा हो, मानवता के लिए एक खतरा बनकर ही उभरा है। इसी उग्र/अंध राष्ट्रवाद ने २०वीं सदी में दो भयावह महायुद्धों को जन्म दिया और यही छद्म राष्ट्रवाद समकालीन विश्व में आतंकवाद के रूप में विनाश का कारण बना हुआ है। शीत-युद्धोत्तर काल में कतिपय राज्येतर संगठन (Non-State Actors) अशान्ति व अस्थिरता के नए स्रोतों के रूप में उभरे, और आतंक उनका नया हथियार बन गया । राज्यों द्वारा आतंक को एक प्रभावी हथियार के रूप में इस्तेमाल करने के अनेक उदाहरण आधुनिक यूरोप के इतिहास में उपलब्ध हैं। १७८९ की फ्रांस की क्रान्ति के उपरान्त राब्सपीयरे ने 'आतंक का राज्य स्थापित कर क्रान्ति-विरोधी शक्तियों का मुकाबला किया, १९१७ की रूसी क्रान्ति के उपरान्त स्टालिन ने भी यही किया और जर्मनी में हिटलर, इटली में मुसोलिनी व स्पेन में जनरल फ्रांको ने भी आतंक के बलबूते अपने सर्वाधिकारवादी शासन का संचालन किया। परन्तु राज्येतर संगठनों द्वारा अपने राजनीतिक, प्रजातीय अथवा धार्मिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु आतंक का इस्तेमाल एक भिन्न परिदृश्य उपस्थित करता है। समकालीन वैश्विक राजनीति धार्मिक आतंकवाद से त्रस्त है। इस्लाम के नाम पर अल-कायदा, तालिबान, हिजबुल्लाह, आईएसआईएस आदि संगठन गैर-इस्लामी व्यवस्थाओं के लिए गम्भीर चुनौती बन चुके हैं। वे इस्लाम की अपनी व्याख्या को आधिकारिक और प्रामाणिक मानते हैं और ऐसे इस्लामी देशों को भी नेस्तनाबूद करना चाहते हैं जो उनकी व्याख्या से असहमत हैं। बदि वैविकरण अमेरिका द्वारा प्रायोजित नव-साम्राज्यवाद है तो ये राज्येतर आतंकवादी संगठन इस्लामी साम्राज्यवाद के प्रवर्तक बन चुके हैं और सम्पूर्ण विश्व-व्यवस्था को अपनी छवि में गढ़ना चाहते हैं।
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समकालीन उत्तर-आधुनिक राजनीति भी दिग्भ्रान्ति की उसी प्रकार से शिकार है जिस प्रकार आधुनिक राजनीति रही है। उत्तर-आधुनिकता के प्रभाव से आधुनिकता के वृहत्वृत्तान्तों (Meta-narratives) के प्रति तो सन्देह व अविश्वास के भाव की वृद्धि हुई है परन्तु उत्तर-आधुनिक राजनीति के पास कोई सम्यक् विचार-दृष्टि हो, ऐसा भी नजर नहीं आता । वस्तुतः, सापेक्षता (Relativism) और विशिष्टता (Particularism) के नए नारे गढ़कर राजनीति को कोई दिशा बोध नहीं मिल जाता। नए टुकड़ों को जोड़कर किसी साकल्यवादी दृष्टि की रचना नहीं हो जाती । आवश्यकता आधुनिक राजनीतिक प्रवाहों के मूल-सूत्रों (First Principles) पर विचार करने की है, राजनीति के सनातन संदर्भो की ओर प्रतिगमन करने की है । राजनीतिक प्रश्नों व समस्याओं का समाधान राजनीति से परे जाकर ही सम्भव है; आज हमें राजनीतिज्ञों व अर्थशास्त्रियों से अधिक तत्त्वदर्शियों की आवश्यकता है- क्या हम वह स्वीकार करने को तैयार हैं? धर्म से स्वतंत्र और नीति से विलग राजनीति कभी समाज के अभ्युदय का हेतु नहीं हो सकती । इस संदर्भ में राम-रावण युद्ध का एक प्रसंग अत्यन्त शिक्षाप्रद है । जब भगवान श्रीराम लंका की युद्धभूमि में बिना रथ के पहुंचे तो विभीषण अत्यन्त चिन्ताग्रस्त हो गए और अधीर होकर बोले कि आपके पास न रथ है, न कवच है, न जूते हैं; आप इस बलवान शत्रु को कैसे जीत सकेंगे? इस पर श्रीराम ने कहा कि जिससे विजय प्राप्त होती है वह रथ दूसरा ही है - वह रथ धर्ममय है।<blockquote>सुनहु सखा कह कृपानिधाना। </blockquote><blockquote>जेहिं जय होइ सो स्यंदन आना ।। </blockquote><blockquote>सौरज धीरज तेहि रथ चाका । </blockquote><blockquote>सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका ।। </blockquote><blockquote>बल विवेक दम परहित घोरे । </blockquote><blockquote>छमा कृपा समता रजु जोरे ।। </blockquote><blockquote>ईस भजनु सारथी सुजाना। </blockquote><blockquote>विरति चर्म सन्तोष कृपाना ।। </blockquote><blockquote>दान परसु बुधि शक्ति प्रचंडा। </blockquote><blockquote>बर बिग्यान कठिन कोदंडा ।। </blockquote><blockquote>अमल अचल मन त्रोन समाना। </blockquote><blockquote>सम जम नियम सिलीमुख नाना ।। </blockquote><blockquote>कवच अभेद विप्र गुरु पूजा । </blockquote><blockquote>एहि सम विजय उपाय न दूजा ।। </blockquote><blockquote>सखा धर्ममय अस रथ जाकें। </blockquote><blockquote>जीतन कहँ न कहतु रिपु तार्के।।</blockquote>किसी भी देश, समाज और व्यक्ति का उत्थान और पतन धर्म व नीति के पालन अथवा उल्लंघन पर ही निर्भर करता है । संरचनाओं व विचार-प्रवाहों का प्राण-तत्त्व यही है। आज के राजनीतिक चिन्तन, आज की राजनीतिक संस्थाओं को इस प्राण-वायु की अतीव आवश्यकता है।
    
==References==
 
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