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| # ‘प्रकृति के नियम’ ही विज्ञान है। विज्ञान के व्यवहार में उपयोग को ही तन्त्रज्ञान कहते हैं। विज्ञान वैश्विक होता है। तन्त्रज्ञान नहीं। तन्त्रज्ञान स्थानिक प्राकृतिक संसाधनों के आधारपर चयन करने या विकास करने की बात है। | | # ‘प्रकृति के नियम’ ही विज्ञान है। विज्ञान के व्यवहार में उपयोग को ही तन्त्रज्ञान कहते हैं। विज्ञान वैश्विक होता है। तन्त्रज्ञान नहीं। तन्त्रज्ञान स्थानिक प्राकृतिक संसाधनों के आधारपर चयन करने या विकास करने की बात है। |
| # विज्ञान या तन्त्रज्ञान यह अपने आप में न तो उपकारी होते है और ना ही विनाशकारी। इनका उपयोग करनेवाले मनुष्य की सुर या असुर प्रवृत्ति उसे उपकारक या विनाशकारी बनाती है। इसलिये सृष्टि के अस्तित्वों याने जीव और जड जगत के लिये हानिकारक कोई तन्त्रज्ञान असुर स्वभाव के मनुष्य को मिलना दुनिया के लिये घातक होता है। | | # विज्ञान या तन्त्रज्ञान यह अपने आप में न तो उपकारी होते है और ना ही विनाशकारी। इनका उपयोग करनेवाले मनुष्य की सुर या असुर प्रवृत्ति उसे उपकारक या विनाशकारी बनाती है। इसलिये सृष्टि के अस्तित्वों याने जीव और जड जगत के लिये हानिकारक कोई तन्त्रज्ञान असुर स्वभाव के मनुष्य को मिलना दुनिया के लिये घातक होता है। |
− | # प्रकृति चक्रीयता से चलती है। इसलिये वर्तमान की एक(सीधी) रेखीय विकास की अवधारणा प्रकृति विरोधी है। सीधी रेखा में जितना कम हो उतना वह अधिक प्रकृति सुसंगत होगा। सामान्यत: सृष्टि में सीधी रेखा में कोई रचना नहीं होती। | + | # प्रकृति चक्रीयता से चलती है। इसलिये वर्तमान की एक (सीधी) रेखीय विकास की अवधारणा प्रकृति विरोधी है। सीधी रेखा में जितना कम हो उतना वह अधिक प्रकृति सुसंगत होगा। सामान्यत: सृष्टि में सीधी रेखा में कोई रचना नहीं होती। |
− | # मोक्षप्राप्ति या सुख दोनों ही मन के विषय हैं। सुख की प्राप्ति या मोक्ष ये मन की अवस्थापर निर्भर होते हैं। तन्त्रज्ञान या सुविधाओंपर नहीं। | + | # मोक्षप्राप्ति या सुख दोनों ही मन के विषय हैं। सुख की प्राप्ति या मोक्ष ये मन की अवस्थापर निर्भर होते हैं। तन्त्रज्ञान या सुविधाओं पर नहीं। |
| # परिवर्तन ही दुनिया का स्वभाव है। प्रकृति में भी परिवर्तन होते रहते हैं। प्रकृति के परिवर्तनों के साथ समायोजन कर ही तन्त्रज्ञान का विकास और उपयोग होना चाहिये। | | # परिवर्तन ही दुनिया का स्वभाव है। प्रकृति में भी परिवर्तन होते रहते हैं। प्रकृति के परिवर्तनों के साथ समायोजन कर ही तन्त्रज्ञान का विकास और उपयोग होना चाहिये। |
| # सृष्टि में केवल मनुष्य को प्रकृति को बिगाडने की, प्रकृति सुसंगत फिर भी अधिक श्रेष्ठ जीने की और सृष्टि के बिगडे सन्तुलन को ठीक करने की याने मन, बुद्धि और स्मृति की शक्तियाँ मिली हैं। इसी कारण प्रकृति का सन्तुलन बनाए रखने की जिम्मेदारी भी मनुष्य की ही बनती है। | | # सृष्टि में केवल मनुष्य को प्रकृति को बिगाडने की, प्रकृति सुसंगत फिर भी अधिक श्रेष्ठ जीने की और सृष्टि के बिगडे सन्तुलन को ठीक करने की याने मन, बुद्धि और स्मृति की शक्तियाँ मिली हैं। इसी कारण प्रकृति का सन्तुलन बनाए रखने की जिम्मेदारी भी मनुष्य की ही बनती है। |
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| # किसी भी समाज में ९०-९५ प्रतिशत लोग सामान्य प्रतिभा के होते हैं। केवल ५ -१० प्रतिशत लोग ही विशेष प्रतिभा के धनी होते हैं। इन्हें श्रीमद्भगवद्गीता में ‘श्रेष्ठ’ कहा गया है। शेष ९०-९५ प्रतिशत सामान्य लोग इन श्रेष्ठ जनों का अनुसरण करते हैं। सामान्य लोगों को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से कोई लेना देना नहीं होता। वे तो सामान्य ज्ञान के आधारपर अपने हित या अहित का विचार करते हैं। जब उन्हें ऐसा समझने में कठिनाई होती है वे श्रेष्ठ मनुष्यों की ओर मार्गदर्शन के लिये देखते हैं। इसीलिये वैज्ञानिक दृष्टि इन ५ -१० प्रतिशत श्रेष्ठ जनों के लिये आवश्यक होती है। ऐसे लोगों की वैज्ञानिक दृष्टि की गलत समझ ही तन्त्रज्ञान के दुरूपयोग से उपजी समस्याओं के मूल में है। | | # किसी भी समाज में ९०-९५ प्रतिशत लोग सामान्य प्रतिभा के होते हैं। केवल ५ -१० प्रतिशत लोग ही विशेष प्रतिभा के धनी होते हैं। इन्हें श्रीमद्भगवद्गीता में ‘श्रेष्ठ’ कहा गया है। शेष ९०-९५ प्रतिशत सामान्य लोग इन श्रेष्ठ जनों का अनुसरण करते हैं। सामान्य लोगों को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से कोई लेना देना नहीं होता। वे तो सामान्य ज्ञान के आधारपर अपने हित या अहित का विचार करते हैं। जब उन्हें ऐसा समझने में कठिनाई होती है वे श्रेष्ठ मनुष्यों की ओर मार्गदर्शन के लिये देखते हैं। इसीलिये वैज्ञानिक दृष्टि इन ५ -१० प्रतिशत श्रेष्ठ जनों के लिये आवश्यक होती है। ऐसे लोगों की वैज्ञानिक दृष्टि की गलत समझ ही तन्त्रज्ञान के दुरूपयोग से उपजी समस्याओं के मूल में है। |
| # वर्तमान में उच्च तन्त्रज्ञान की व्याख्या क्या है? उच्च तन्त्रज्ञान वह है जो पुराने तंत्रज्ञान द्वारा निर्माण हुई किसी समस्या को तो दूर करता है और साथ ही में और नई समस्याएँ निर्माण कर और अधिक महंगे तन्त्रज्ञान की आवश्यकता निर्माण करता है। धार्मिक (भारतीय) दृष्टि से ऐसे उच्च तन्त्रज्ञान का विकास जो समस्याओं का निर्माण करता है या ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ का विरोधी है, अमान्य है। जैसे एलोपॅथी की प्रतिजैविक दवाईयाँ पुराने रोगों के जन्तुओं को और साथ ही में मनुष्य के लिये स्वास्थ्योपयोगी जन्तुओं को भी मारकर रोग के जन्तुओं की नई प्रजातियों के निर्माण की संभावनाएँ बढाते हैं। यह ठीक नहीं है। | | # वर्तमान में उच्च तन्त्रज्ञान की व्याख्या क्या है? उच्च तन्त्रज्ञान वह है जो पुराने तंत्रज्ञान द्वारा निर्माण हुई किसी समस्या को तो दूर करता है और साथ ही में और नई समस्याएँ निर्माण कर और अधिक महंगे तन्त्रज्ञान की आवश्यकता निर्माण करता है। धार्मिक (भारतीय) दृष्टि से ऐसे उच्च तन्त्रज्ञान का विकास जो समस्याओं का निर्माण करता है या ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ का विरोधी है, अमान्य है। जैसे एलोपॅथी की प्रतिजैविक दवाईयाँ पुराने रोगों के जन्तुओं को और साथ ही में मनुष्य के लिये स्वास्थ्योपयोगी जन्तुओं को भी मारकर रोग के जन्तुओं की नई प्रजातियों के निर्माण की संभावनाएँ बढाते हैं। यह ठीक नहीं है। |
− | # बडी मात्रा में उत्पादन के तंत्रज्ञानों ने भी कई प्रकार की समस्याओं को जन्म दिया है। जैसे: | + | # कौटुम्बिक उद्योगों की अर्थव्यवस्था में सभी मालिक होते हैं। जब की बडे उद्योगों के लिये बननेवाले तन्त्रज्ञान सब को नौकर बना देते हैं। स्वयंचलितीकरण और विशाल उत्पादन करनेवाले वर्तमान तन्त्रज्ञान विश्वभर में नौकरों की मानसिकतावाले लोग निर्माण कर रहे हैं। इसलिये बडे उद्योगों के लिये बनाया जानेवाले तन्त्रज्ञान का केवल चराचर के हित की दृष्टि से अनिवार्यता से सुपात्र व्यक्ति को ही अंतरण होना चाहिये। साथ ही में तेजी से कौटुम्बिक उद्योगों के लिये तन्त्रज्ञान का विकास करने की आवश्यकता है। |
− | ## रोजगार की संभावनाएँ कम कर बेरोजगारी बढाना।
| + | # वर्तमान में अभारतीय समाजों ने जो संहारक शस्त्र निर्माण किये हैं उनसे सुरक्षा के लिये तन्त्रज्ञान का निर्माण और उपयोग तो आज हमारी अनिवार्यता है। आक्रमण सुरक्षा का श्रेष्ठ तरीका होता है। इसे ध्यान में रखकर उनसे भी अधिक घातक तंत्रज्ञानों का विकास भी हमें करना ही होगा। लेकिन यह आपद्धर्म है, इसे ध्यान में रखना होगा। साथ ही में संभाव्य शत्रुओं के शस्त्रों का उपशम करने के लिये याने उन शस्त्रों की संहारकता नष्ट करने के लिये हमें तंत्रज्ञानों का विकास करना होगा। |
− | ## प्रकृति का बेतहाशा शोषण।
| + | # आपद्धर्म के रूप में जैविक, नॅनो, संहारक शस्त्र आदि जैसे तंत्रज्ञानों का उपयोग किया जा सकता है। |
− | ## गरीबी और अमीरी में खाई निर्माण हुई है।
| + | == वर्तमान तन्त्रज्ञान के कुछ दुष्परिणाम == |
− | ## हर मनुष्य की पसंद अन्यों से कुछ भिन्न होती है। भिन्नता यह प्रकृति का स्वभाव ही है। एक पेड़ पर अरबों पत्ते होते हैं। लेकिन एक भी पत्ता सही सही दूसरे पत्ते जैसा नहीं होता। लेकिन तन्त्रज्ञान से उत्पादित विशाल मात्राओं के कारण इस विविधता का नष्ट होते जाना। | + | वर्तमान तंत्रज्ञान दृष्टि ने कई प्रकार की समस्याओं को जन्म दिया है। जैसे: |
− | ## मनुष्य की मूलभूत क्षमताओं में वृद्धि या विकास के स्थान पर ह्रास हो रहा है। यंत्रावलंबन बढ रहा है। कौशल नष्ट हो गए हैं या कमजोर हो गए हैं।
| + | # रोजगार की संभावनाएँ कम कर बेरोजगारी बढाना। |
− | ## पहले स्वचालित यंत्रों से विशाल मात्रा में उत्पादन करना और बाद में उसे अनैतिक, आक्रामक विज्ञापनबाजी की मददसे लोगों को लेने के लिये उकसाने के कारण अनावश्यक उपभोग बढता जाता है। इससे एक ओर तो आदतें बिगडतीं हैं तो दूसरी ओर प्राकृतिक संसाधनों का दुरूपयोग होता है। और तीसरा याने महंगाई भी बढती है।
| + | # प्रकृति का बेतहाशा शोषण। |
| + | # गरीबी और अमीरी में खाई निर्माण हुई है। |
| + | # भिन्नता प्रकृति का स्वभाव ही है। लेकिन तन्त्रज्ञान से उत्पादित विशाल मात्राओं के कारण इस विविधता का नष्ट होते जाना। |
| + | # मनुष्य की मूलभूत क्षमताओं में वृद्धि या विकास के स्थान पर ह्रास हो रहा है। यंत्रावलंबन बढ रहा है। कौशल नष्ट हो गए हैं या कमजोर हो गए हैं। |
| + | # पहले स्वचालित यंत्रों से विशाल मात्रा में उत्पादन करना और बाद में उसे अनैतिक, आक्रामक विज्ञापनबाजी की मदद से लोगों को लेने के लिये उकसाने के कारण अनावश्यक उपभोग बढता जाता है। इससे एक ओर तो आदतें बिगडतीं हैं तो दूसरी ओर प्राकृतिक संसाधनों का दुरूपयोग होता है। और तीसरा महंगाई भी बढती है। |
| # सामाजिकता को हानि पहुँचानेवाला तन्त्रज्ञान अमान्य है। परस्पर मिलने से, साथ में समय बिताने से, एक दूसरे के सुख दु:ख में सहभागी होने से सामाजिकता में वृद्धि होती है। इनकी संभावनाएँ कम करनेवाले तन्त्रज्ञान अस्वीकार्य हैं। जीवन को अनावश्यक गति देनेवाले, समाज को पगढीला बनाकर संस्कृति को नष्ट करनेवाले तंत्रज्ञानों का सार्वत्रिकीकरण वर्ज्य है। | | # सामाजिकता को हानि पहुँचानेवाला तन्त्रज्ञान अमान्य है। परस्पर मिलने से, साथ में समय बिताने से, एक दूसरे के सुख दु:ख में सहभागी होने से सामाजिकता में वृद्धि होती है। इनकी संभावनाएँ कम करनेवाले तन्त्रज्ञान अस्वीकार्य हैं। जीवन को अनावश्यक गति देनेवाले, समाज को पगढीला बनाकर संस्कृति को नष्ट करनेवाले तंत्रज्ञानों का सार्वत्रिकीकरण वर्ज्य है। |
| + | # गति और मति का संबंध व्यस्त होता है। जब मनुष्य का शरीर गतिमान होता है तो उसकी मति मंदगति से चलती है। और जब मनुष्य शांत या मंद गति से जा रहा होता है तब उसकी मति तेज चलती है। यह सामान्य ज्ञान की बात है। वर्तमान तंत्रज्ञान ने जीवन को बेशुमार गति देकर उसे सामान्य मनुष्य के लिये असहनीय बना दिया है। वह आधुनिक तन्त्रज्ञान के साथ समायोजन करने में असमर्थ होने के कारण तन्त्रज्ञान के पीछे छातीफाड़ गति से भी भाग नहीं पा रहा। वह मजबूर है घसीटे जाने के लिये। |
| # जैविक तंत्रज्ञान अनैतिक है। जैविक तन्त्रज्ञान सूक्ष्म तन्त्रज्ञान है। सूक्ष्म का अर्थ है अधिक बलवान। अधिक व्यापक। इन का चार या दस पीढियों के बाद की पीढियों पर क्या परिणाम होगा यह समझना इनका विकास करनेवालों के लिये संभव ही नहीं है। फिर भी कुछ प्रयोगों के आधार पर प्रतिजैविकों को मनुष्य के लिये योग्य होने की घोषणा अनैतिक ही है। एक ही पीढी में तेजी से परिवर्तन करनेवाले जैविक तन्त्रज्ञान प्रकृति में जो सहज ऐसा परस्परावलंबन है उस की किसी कडी को हानी पहुँचाते हैं। लाखों की संख्या में जो जीवजातियाँ हैं उन के इस परस्परावलंबन को पूरी तरह से समझना असंभव है। फिर भी इस का झूठा दावा कर जैविक परिवर्तन करने के तन्त्रज्ञान वर्तमान में बाजार व्याप रहे हैं। ऐसे तन्त्रज्ञान सर्वथा अमान्य हैं। | | # जैविक तंत्रज्ञान अनैतिक है। जैविक तन्त्रज्ञान सूक्ष्म तन्त्रज्ञान है। सूक्ष्म का अर्थ है अधिक बलवान। अधिक व्यापक। इन का चार या दस पीढियों के बाद की पीढियों पर क्या परिणाम होगा यह समझना इनका विकास करनेवालों के लिये संभव ही नहीं है। फिर भी कुछ प्रयोगों के आधार पर प्रतिजैविकों को मनुष्य के लिये योग्य होने की घोषणा अनैतिक ही है। एक ही पीढी में तेजी से परिवर्तन करनेवाले जैविक तन्त्रज्ञान प्रकृति में जो सहज ऐसा परस्परावलंबन है उस की किसी कडी को हानी पहुँचाते हैं। लाखों की संख्या में जो जीवजातियाँ हैं उन के इस परस्परावलंबन को पूरी तरह से समझना असंभव है। फिर भी इस का झूठा दावा कर जैविक परिवर्तन करने के तन्त्रज्ञान वर्तमान में बाजार व्याप रहे हैं। ऐसे तन्त्रज्ञान सर्वथा अमान्य हैं। |
− | # इसी तरह से नैनो तन्त्रज्ञान भी सूक्ष्म तन्त्रज्ञान है। इनका भी चराचर के ऊपर क्या और कैसा सूक्ष्म प्रभाव होगा इसकी जानकारी नहीं होती। लाखों जीवजातियों के ऊपर इनका होनेवाला सूक्ष्म प्रभाव जानना असंभव है। मनुष्य के आहार में मैदे के अधिक मात्रा में उपयोग का इसीलिये निषेध है। | + | # इसी तरह से नैनो तन्त्रज्ञान भी सूक्ष्म तन्त्रज्ञान है। इनका भी चराचर के ऊपर क्या और कैसा सूक्ष्म प्रभाव होगा इसकी जानकारी नहीं होती। लाखों जीवजातियों के ऊपर इनका होनेवाला सूक्ष्म प्रभाव जानना असंभव है। |
− | # कौटुम्बिक उद्योगों की अर्थव्यवस्था में सभी मालिक होते हैं। जब की बडे उद्योगों के लिये बननेवाले तन्त्रज्ञान सब को नौकर बना देते हैं। स्वयंचलितीकरण और विशाल उत्पादन करनेवाले वर्तमान तन्त्रज्ञान विश्वभर में नौकरों की मानसिकतावाले लोग निर्माण कर रहे हैं। इसलिये बडे उद्योगों के लिये बनाया जानेवाले तन्त्रज्ञान का केवल चराचर के हित की दृष्टि से अनिवार्यता से सुपात्र व्यक्ति को ही अंतरण होना चाहिये। साथ ही में तेजी से कौटुम्बिक उद्योगों के लिये तन्त्रज्ञान का विकास करने की आवश्यकता है।
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− | # वर्तमान में अधार्मिक (अभारतीय) समाजोंने जो संहारक शस्त्र निर्माण किये हैं उनसे सुरक्षा के लिये तन्त्रज्ञान का निर्माण और उपयोग तो आज हमारी अनिवार्यता है। आक्रमण यह सुरक्षा का श्रेष्ठ तरीका होता है। इसे ध्यान में रखकर उनसे भी अधिक घातक तंत्रज्ञानों का विकास भी हमें करना ही होगा। लेकिन यह आपध्दर्म है इसे ध्यान में रखना होगा। साथ ही में संभाव्य शत्रुओं के शस्त्रों का उपशम करने के लिये याने उन शस्त्रोंकी संहारकता नष्ट करने के लिये हमें तंत्रज्ञानों का विकास करना होगा।
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− | # गति और मति का संबंध व्यस्त होता है। जब मनुष्य का शरीर गतिमान होता है तो उसकी मति मंदगति से चलती है। और जब मनुष्य शांत या मंद गति से जा रहा होता है तब उसकी मति तेज चलती है। यह सामान्य ज्ञान की बात है। वर्तमान तंत्रज्ञानने जीवन को बेशुमार गति देकर उसे सामान्य मनुष्य के लिये असहनीय बना दिया है। वह आधुनिक तन्त्रज्ञान के साथ समायोजन करने में असमर्थ होने के कारण तन्त्रज्ञान के पीछे छातीफाड़ गति से भी भाग नहीं पा रहा। वह मजबूर है घसीटे जाने के लिये।
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− | # आपध्दर्म के रूप में जैविक, नॅनो, संहारक शस्त्र आदि जैसे तंत्रज्ञानों का उपयोग किया जा सकता है।
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| == भारतीय विद्वानों में हीनता बोध == | | == भारतीय विद्वानों में हीनता बोध == |
| गुलामी गई किन्तु गुलामी की मानसिकता नहीं गई। स्वामी विवेकानंद कहते थे कि हम अपने मनीषियों और तपस्वियों के अनुभव को नहीं मानेंगे, किन्तु वही बात जब किसी मिश्टर हक्सले या मिश्टर टिंडल ने कही है, तो उसे सत्य मान लेंगे। साहेब वाक्यं प्रमाणम् की मानसिकता आज भी बदली नहीं है। | | गुलामी गई किन्तु गुलामी की मानसिकता नहीं गई। स्वामी विवेकानंद कहते थे कि हम अपने मनीषियों और तपस्वियों के अनुभव को नहीं मानेंगे, किन्तु वही बात जब किसी मिश्टर हक्सले या मिश्टर टिंडल ने कही है, तो उसे सत्य मान लेंगे। साहेब वाक्यं प्रमाणम् की मानसिकता आज भी बदली नहीं है। |