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==== प्रश्नावली से प्राप्त उत्तर ====
 
==== प्रश्नावली से प्राप्त उत्तर ====
महाराष्ट्र के एक विद्यालय से १२ शिक्षक एवं ९ अभिभावकों ने यह प्रश्नावली भरकर भेजी है, जिससे कुल १० प्रश्न थे । प्ठवी कुलकर्णी (अकोला) ने यह भेजी है ।  
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महाराष्ट्र के एक विद्यालय से १२ शिक्षक एवं ९ अभिभावकों ने यह प्रश्नावली भरकर भेजी है, जिससे कुल १० प्रश्न थे ।  
    
पहला प्रश्न था. विद्यालय में मध्यावकाश के भोजनसंबंध मे कितने प्रकार की व्यवस्था होती है ? इस प्रश्न के उत्तर में लगभग सभी ने अलग अलग प्रकार के मेनू ही लिखे हैं । वास्तव में समूहभोजन, वनभोजन, देवासुर भोजन, स्वेच्छाभोजन, कृष्ण और गोपी भोजन ऐसी अनेकविध व्यवस्थायें भोजन लेने में आनंद, संस्कार, विविधता की मजा का अनुभव देती है ।
 
पहला प्रश्न था. विद्यालय में मध्यावकाश के भोजनसंबंध मे कितने प्रकार की व्यवस्था होती है ? इस प्रश्न के उत्तर में लगभग सभी ने अलग अलग प्रकार के मेनू ही लिखे हैं । वास्तव में समूहभोजन, वनभोजन, देवासुर भोजन, स्वेच्छाभोजन, कृष्ण और गोपी भोजन ऐसी अनेकविध व्यवस्थायें भोजन लेने में आनंद, संस्कार, विविधता की मजा का अनुभव देती है ।
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बाकी बचे ९ प्रश्नों के उत्तर सभी उत्तरदाताओंने सही ढंग से, आदर्श व्यवहार के रूप में लिखे हैं । परन्तु आदरर्शों का वर्णन करना और उनका प्रत्यक्ष व्यवहार इन दोनों में बहुत अंतर नजर आता है । उपदेश देना सरल है परंतु तदनुसार व्यवहार मे आचरण करना कठिन होता है; उसके प्रति आग्रही रहना चाहिये । शिक्षा की आधी समस्‍यायें खत्म हो जाएगी । घर और विद्यालयों में भारतीय विचारों का आदर्श रखना परंतु पाश्चात्य खानपान का सेवन करना यह तो अपने आपको दिया गया धोखा है । उसके ही परिणाम हम भुगत रहे हैं ऐसा लगता है ।
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बाकी बचे ९ प्रश्नों के उत्तर सभी उत्तरदाताओंने सही ढंग से, आदर्श व्यवहार के रूप में लिखे हैं । परन्तु आदर्शों का वर्णन करना और उनका प्रत्यक्ष व्यवहार इन दोनों में बहुत अंतर नजर आता है । उपदेश देना सरल है परंतु तदनुसार व्यवहार मे आचरण करना कठिन होता है; उसके प्रति आग्रही रहना चाहिये । शिक्षा की आधी समस्‍यायें खत्म हो जाएगी । घर और विद्यालयों में भारतीय विचारों का आदर्श रखना परंतु पाश्चात्य खानपान का सेवन करना यह तो अपने आपको दिया गया धोखा है । उसके ही परिणाम हम भुगत रहे हैं ऐसा लगता है ।
    
===== अभिमत =====
 
===== अभिमत =====
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===== अन्नब्रह्म का भाव जगाना =====
 
===== अन्नब्रह्म का भाव जगाना =====
विद्यालय मे भोजन करते समय छात्र आसनपट्टी पर ततिमें बैठे या छोटे छोटे मंडल बनाकर अपने मित्रों के साथ भोजन का आस्वाद लें । बैठकर ही भोजन करे । डिब्बे में कुछ न छोडे एवं नीचे कुछ न गिराये । किसी का जूठा नहीं खाना, इधर उधर घूमते भागते भोजन नहीं करना, आराम से प्रसन्नता से भोजन करे । भोजनमंत्र के बाद ही भोजन प्रारंभ करे । मध्यावकाश में घर में बनाया भोजन ही लाना । पेक्‍ड  या होटल की चीजें डिब्बे में न दे । भोजन शाकाहारी हो एवं पर्याप्त हो। ऐसी महत्त्वपूर्ण बातें अभिभावकों को बतानी चाहिए । भोजन के पूर्व एवं पश्चात भोजन की जगह झाड़ू पोछा लगाना अवश्य हो । नीचे गिरा हुआ अन्न झाड़ू से फेंकना नहीं, हाथ से उठाना । भोजन करते समय कंठस्थ श्लोक अथवा सुभाषित व्यक्तिगत रूप से बोल सकते हैं । अन्न पवित्र है उसे पाँव नहीं लगने देना । दाहिने हाथ से ही भोजन करना, जिसके पास डिब्बा नहीं उसे औरों में समाना, भूखा नहीं रखना भोजन का मंत्रगान करना संस्कारपूर्ण भोजन के लक्षण है । छात्रोंने क्या खाना क्या नहीं यह विषय उनके अभ्यास मे आना चाहिए। अन्न के प्रति अन्नब्रह्म है ऐसा भाव और तदनुसार व्यवहार हो |
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विद्यालय मे भोजन करते समय छात्र आसनपट्टी पर ततिमें बैठे या छोटे छोटे मंडल बनाकर अपने मित्रों के साथ भोजन का आस्वाद लें । बैठकर ही भोजन करे । डिब्बे में कुछ न छोडे एवं नीचे कुछ न गिराये । किसी का जूठा नहीं खाना, इधर उधर घूमते भागते भोजन नहीं करना, आराम से प्रसन्नता से भोजन करे । भोजनमंत्र के बाद ही भोजन प्रारंभ करे । मध्यावकाश में घर में बनाया भोजन ही लाना । पेक्‍ड  या होटल की चीजें डिब्बे में न दे । भोजन शाकाहारी हो एवं पर्याप्त हो। ऐसी महत्त्वपूर्ण बातें अभिभावकों को बतानी चाहिए । भोजन के पूर्व एवं पश्चात भोजन की जगह झाड़ू पोछा लगाना अवश्य हो । नीचे गिरा हुआ अन्न झाड़ू से फेंकना नहीं, हाथ से उठाना । भोजन करते समय कंठस्थ श्लोक अथवा सुभाषित व्यक्तिगत रूप से बोल सकते हैं । अन्न पवित्र है उसे पाँव नहीं लगने देना । दाहिने हाथ से ही भोजन करना, जिसके पास डिब्बा नहीं उसे औरों में समाना, भूखा नहीं रखना भोजन का मंत्रगान करना संस्कारपूर्ण भोजन के लक्षण है । छात्रोंने क्या खाना क्या नहीं यह विषय उनके अभ्यास मे आना चाहिए। अन्न के प्रति अन्नब्रह्म है ऐसा भाव और तदनुसार व्यवहार हो
    
=== विद्यालय में भोजन की शिक्षा ===
 
=== विद्यालय में भोजन की शिक्षा ===
 
सामान्य विद्यालयों में और आवासीय विद्यालयों में भोजन शिक्षा का बहुत बडा विषय है । आज जितना और जैसा ध्यान उसकी ओर दिया जाना चाहिये उतना नहीं दिया जाता । ध्यान दिया जाने लगता है तो विद्यार्थी की अध्ययन क्षमता के लिये भी वह लाभकारी है ।  
 
सामान्य विद्यालयों में और आवासीय विद्यालयों में भोजन शिक्षा का बहुत बडा विषय है । आज जितना और जैसा ध्यान उसकी ओर दिया जाना चाहिये उतना नहीं दिया जाता । ध्यान दिया जाने लगता है तो विद्यार्थी की अध्ययन क्षमता के लिये भी वह लाभकारी है ।  
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भोजन के सम्बन्ध में व्यावहारिक विचार कुछ इस प्रकार किया जा सकता है...
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भोजन के सम्बन्ध में व्यावहारिक विचार कुछ इस प्रकार किया जा सकता है:
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==== १, क्या खायें ====
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==== क्या खायें ====
 
जैसा अन्न वैसा मन, और आहार वैसे विचार ये बहुत प्रचलित उक्तियाँ हैं । विचारवान लोग इन्हें मानते भी हैं । इसका तात्पर्य यह है कि अन्न का प्रभाव मन पर होता है । इसलिये जो मन को अच्छा बनाये वह खाना चाहिये, मन को खराब करे उसका त्याग करना चाहिये ।  
 
जैसा अन्न वैसा मन, और आहार वैसे विचार ये बहुत प्रचलित उक्तियाँ हैं । विचारवान लोग इन्हें मानते भी हैं । इसका तात्पर्य यह है कि अन्न का प्रभाव मन पर होता है । इसलिये जो मन को अच्छा बनाये वह खाना चाहिये, मन को खराब करे उसका त्याग करना चाहिये ।  
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==== सात्विक आहार के लक्षण ====
 
==== सात्विक आहार के लक्षण ====
सात्विक स्वभाव के मनुष्यों को जो प्रिय है वह सात्विक आहार है ऐसा श्रीमदू भगवदूगीता में कहा है । ऐसे आहार का वर्णन इस प्रकार किया गया है<blockquote>आयु सत्त्वबलारोग्य सुखप्रीति विवर्धना: ।</blockquote><blockquote>रस्या: स्निग्धा: तथा हृद्या: आहारा: सात्त्विकप्रिया ।। </blockquote>
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सात्विक स्वभाव के मनुष्यों को जो प्रिय है वह सात्विक आहार है ऐसा श्रीमद भगवदगीता <ref name=":0">श्रीमद भगवदगीता श्लोक 17.8 </ref><ref name=":0" />में कहा है । ऐसे आहार का वर्णन इस प्रकार किया गया है: <blockquote>आयुःसत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः।</blockquote><blockquote>रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः।।17.8।।</blockquote><blockquote>अर्थात्‌ आयु, सत्त्व (शुद्धि), बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को प्रवृद्ध करने वाले एवं रसयुक्त, स्निग्ध ( घी आदि की चिकनाई से युक्त) स्थिर तथा मन को प्रसन्न करने वाले आहार अर्थात् भोज्य पदार्थ सात्त्विक पुरुषों को प्रिय होते हैं।।<ref name=":1"><nowiki>https://www.gitasupersite.iitk.ac.in/srimad?language=dv&field_chapter_value=17&field_nsutra_value=8&htrskd=1&httyn=1&htshg=1&scsh=1&etsiva=1&etpurohit=1</nowiki> (स्वामी तेजोमायानंद द्वारा हिन्दी अनुवाद) </ref><ref name=":1" /></blockquote>
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==== अर्थात्‌ ====
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===== स्निग्ध आहार किसे कहते हैं ? सात्त्विक आहार क्या-क्या बढ़ाता है ? =====
 
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==== स्निग्ध आहार किसे कहते हैं ? ====
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===== सात्त्विक आहार क्या-क्या बढ़ाता है ? =====
   
* आयुष्य बढाने वाला
 
* आयुष्य बढाने वाला
 
* सत्व में वृद्धि करने वाला  
 
* सत्व में वृद्धि करने वाला  
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प्रथम तो यह कि घी और तेल एक ही विभाग में नहीं आते । दोनों के मूल पदार्थों का स्वभाव भिन्न है, प्रक्रिया भी भिन्न है । घी ओजगुण बढाता है । सात धातुओं में ओज अन्तिम है और सूक्ष्मतम है। शरीर की सर्व प्रकार की शक्ति का सार ओज है। घी से प्राण का सर्वाधिक पोषण होता है। आयुर्वेद कहता है ‘घृतमायुः' अर्थात् घी ही आयुष्य है अर्थात् प्राणशक्ति बढाने वाला है । घी से ही वृद्धावस्था में भी शक्ति बनी रहती है । इसलिये छोटी आयु से ही घी खाना चाहिये । मेद घी से नहीं बढता । यह आज के समय में फैला हुआ भ्रम है कि घी से हृदय को कष्ट होता है। यह भ्रम फैलने का कारण भी घी को लेकर जो अनुचित प्रक्रिया निर्माण हुई है वह है । घी का अर्थ है गाय के दूध से दही, दही मथकर निकले मक्खन से बना घी है । गाय का दूध और घी बनाने की सही प्रक्रिया ही घी को घी बनाती है। इसे छोडकर घी नहीं है ऐसे अनेक पदार्थों को जब से घी कहा जाने लगा तबसे ‘घी' स्वास्थ्य के लिये हानिकारक हो गया । आज घी विषयक भ्रान्त धारणा से बचने की और नकली घी से पिण्ड छुडाने की बहुत आवश्यकता है।
 
प्रथम तो यह कि घी और तेल एक ही विभाग में नहीं आते । दोनों के मूल पदार्थों का स्वभाव भिन्न है, प्रक्रिया भी भिन्न है । घी ओजगुण बढाता है । सात धातुओं में ओज अन्तिम है और सूक्ष्मतम है। शरीर की सर्व प्रकार की शक्ति का सार ओज है। घी से प्राण का सर्वाधिक पोषण होता है। आयुर्वेद कहता है ‘घृतमायुः' अर्थात् घी ही आयुष्य है अर्थात् प्राणशक्ति बढाने वाला है । घी से ही वृद्धावस्था में भी शक्ति बनी रहती है । इसलिये छोटी आयु से ही घी खाना चाहिये । मेद घी से नहीं बढता । यह आज के समय में फैला हुआ भ्रम है कि घी से हृदय को कष्ट होता है। यह भ्रम फैलने का कारण भी घी को लेकर जो अनुचित प्रक्रिया निर्माण हुई है वह है । घी का अर्थ है गाय के दूध से दही, दही मथकर निकले मक्खन से बना घी है । गाय का दूध और घी बनाने की सही प्रक्रिया ही घी को घी बनाती है। इसे छोडकर घी नहीं है ऐसे अनेक पदार्थों को जब से घी कहा जाने लगा तबसे ‘घी' स्वास्थ्य के लिये हानिकारक हो गया । आज घी विषयक भ्रान्त धारणा से बचने की और नकली घी से पिण्ड छुडाने की बहुत आवश्यकता है।
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दूसरी बात यह है कि स्निग्धता और मेद अलग बात है । स्निग्धता शरीर में सूखापन नहीं आने देती । वातरोग नहीं होने देती, शूल पैदा नहीं करती । तेल स्नेहन करता है । शरीर का अन्दर और बाहर का स्नेहन शरीर की कान्ति और तेज बना रहने के लिये, शरीर के अंगों को सुख पहुँचाने के लिये अत्यन्त आवश्यक है। इसलिये आहार के साथ ही शरीर को मालीश करने के लिये भी तेल का उपयोग है । सिर
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दूसरी बात यह है कि स्निग्धता और मेद अलग बात है । स्निग्धता शरीर में सूखापन नहीं आने देती । वातरोग नहीं होने देती, शूल पैदा नहीं करती । तेल स्नेहन करता है । शरीर का अन्दर और बाहर का स्नेहन शरीर की कान्ति और तेज बना रहने के लिये, शरीर के अंगों को सुख पहुँचाने के लिये अत्यन्त आवश्यक है। इसलिये आहार के साथ ही शरीर को मालीश करने के लिये भी तेल का उपयोग है । सिर और पैर के तलवों में तो घी से भी मालीश किया जाता है। जिन्हें आयुर्वेद में श्रद्धा नहीं है अथवा आयुर्वेद विषयक ज्ञान ही नहीं है वे घी और तेल की निन्दा करते हैं । परन्तु भारत में तो शास्त्र, परम्परा और लोगों का अनुभव सिद्ध करता है कि घी और तेल शरीर और प्राण के सख और शक्ति के लिये अत्यन्त लाभकारी हैं।
 
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और पैर के तलवों में तो घी से भी मालीश किया जाता है। जिन्हें आयुर्वेद में श्रद्धा नहीं है अथवा आयुर्वेद विषयक ज्ञान ही नहीं है वे घी और तेल की निन्दा करते हैं । परन्तु भारत में तो शास्त्र, परम्परा और लोगों का अनुभव सिद्ध करता है कि घी और तेल शरीर और प्राण के सख और शक्ति के लिये अत्यन्त लाभकारी हैं।
      
यह बात तो ठीक ही है कि आवश्यकता से अधिक, अनुचित प्रक्रिया के लिये, अनुचित पद्धति से किया गया प्रयोग लाभकारी नहीं होता । परन्तु यह तो सभी अच्छी बातों के लिये समान रूप से लागू है।
 
यह बात तो ठीक ही है कि आवश्यकता से अधिक, अनुचित प्रक्रिया के लिये, अनुचित पद्धति से किया गया प्रयोग लाभकारी नहीं होता । परन्तु यह तो सभी अच्छी बातों के लिये समान रूप से लागू है।
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यहाँ एक बात स्पष्ट होती है कि सात्त्विक आहार पौष्टिक और शुद्ध दोनो होता है ।
 
यहाँ एक बात स्पष्ट होती है कि सात्त्विक आहार पौष्टिक और शुद्ध दोनो होता है ।
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===== कब खायें =====
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==== कब खायें ====
१. आहार लेने के बाद उसका पाचन होनी चाहिये । शरीर में पाचनतन्त्र होता है। साथ ही अन्न को पचाकर उसका रस बनाने वाला जठराग्नि होता है । आंतें, आमाशय, अन्ननलिका, दाँत आदि तथा विभिन्न प्रकार के पाचनरस अपने आप अन्न को नहीं पचाते, जठराग्नि ही अन्न को पचाती है। शरीर के अंग पात्र हैं और विभिन्न पाचक रस मानो मसाले हैं । जठराग्नि नहीं है तो पात्र और मसाले क्या काम आयेंगे ?
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आहार लेने के बाद उसका पाचन होनी चाहिये । शरीर में पाचनतन्त्र होता है। साथ ही अन्न को पचाकर उसका रस बनाने वाला जठराग्नि होता है । आंतें, आमाशय, अन्ननलिका, दाँत आदि तथा विभिन्न प्रकार के पाचनरस अपने आप अन्न को नहीं पचाते, जठराग्नि ही अन्न को पचाती है। शरीर के अंग पात्र हैं और विभिन्न पाचक रस मानो मसाले हैं । जठराग्नि नहीं है तो पात्र और मसाले क्या काम आयेंगे ?
    
अतः जठराग्नि अच्छा होना चाहिये, प्रदीप्त होना चाहिये।
 
अतः जठराग्नि अच्छा होना चाहिये, प्रदीप्त होना चाहिये।

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