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== सृष्टि निर्माण काल ==
 
== सृष्टि निर्माण काल ==
श्रीमद्भगवद्गीता में ८-१७,१८ में कहा है
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श्रीमद्भगवद्गीता में ८-१७,१८ में कहा है:
सहस्त्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदु: | रात्रिं युगसहस्त्रान्तान् ते अहोरात्रविदो जना: || अव्यक्ताद्व्यक्तय: सर्वा: प्रभावंत्यहरागमे | रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंजके ||
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अर्थ : ब्रह्माजीका एक दिन भी और एक रात भी एक हजार चतुर्युगों की होती है| ब्रह्माजी के दिन के प्रारम्भ में ब्रह्माजीमें से हीचराचर के सभी अस्तित्व उत्पन्न होते हैं और ब्रह्माजीकी रात्री के प्रारम्भ में ब्रह्माजीमें ही विलीन हो जाते हैं| इस एक चक्र के काल को कल्प कहते हैं| आगे हम जानते हैं की एक चतुर्युग ४३,३२,००० वर्ष का होता है| इसमें समझने की बात इतनी ही है की सृष्टि का निर्माण यह अति प्राचीन घटना है| ब्रह्माजी के दिन के साथ ही कालगणना शुरू होती है| और ब्रह्माजी की रात के साथ समाप्त होती है| वर्त्तमान में २७वीं चतुर्युगी का कलियुग चल रहा है| कलियुग के ५१०० से अधिक वर्ष हो चुके हैं|
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सहस्त्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदु: | रात्रिं युगसहस्त्रान्तान् ते अहोरात्रविदो जना: ||  
सृष्टि निर्माण की प्रक्रिया  
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अव्यक्ताद्व्यक्तय: सर्वा: प्रभावंत्यहरागमे | रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंजके ||  
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अर्थ : ब्रह्माजी का एक दिन भी और एक रात भी एक हजार चतुर्युगों की होती है | ब्रह्माजी के दिन के प्रारम्भ में ब्रह्माजी में से ही चराचर के सभी अस्तित्व उत्पन्न होते हैं और ब्रह्माजी की रात्रि के प्रारम्भ में ब्रह्माजी में ही विलीन हो जाते हैं | इस एक चक्र के काल को कल्प कहते हैं | आगे हम जानते हैं कि एक चतुर्युग ४३,३२,००० वर्ष का होता है | इसमें समझने की बात इतनी ही है कि सृष्टि का निर्माण एक अति प्राचीन घटना है | ब्रह्माजी के दिन के साथ ही कालगणना शुरू होती है और ब्रह्माजी की रात के साथ समाप्त होती है | वर्तमान में २७वीं चतुर्युगी का कलियुग चल रहा है | कलियुग के ५१०० से अधिक वर्ष हो चुके हैं |  
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== सृष्टि निर्माण की प्रक्रिया ==
 
भारतीय सृष्टि निर्माण की मान्यता में कई प्रकार हैं| इन में द्वैत, अद्वैत, द्वैताद्वैत, विशिष्टाद्वैत, त्रैत आदि हैं| हम यहाँ मुख्यत: वेदान्त की मान्यता का विचार करेंगे| वेद स्वत: प्रमाण हैं|
 
भारतीय सृष्टि निर्माण की मान्यता में कई प्रकार हैं| इन में द्वैत, अद्वैत, द्वैताद्वैत, विशिष्टाद्वैत, त्रैत आदि हैं| हम यहाँ मुख्यत: वेदान्त की मान्यता का विचार करेंगे| वेद स्वत: प्रमाण हैं|
 
वेदों के ऋचाओं के मोटे मोटे तीन हिस्से बनाए जा सकते हैं| एक है उपासना काण्ड दूसरा है कर्मकांड और तीसरा है ज्ञान काण्ड| ज्ञानकाण्ड की अधिक विस्तार से प्रस्तुति उपनिषदों में की गई है| छान्दोग्य उपनिषद के छठे अध्याय के दूसरे खंड में बताया है कि सृष्टि निर्माण से पूर्व केवल परमात्मा था| उसे अकेलापन खलने लगा| उसने विचार किया –  
 
वेदों के ऋचाओं के मोटे मोटे तीन हिस्से बनाए जा सकते हैं| एक है उपासना काण्ड दूसरा है कर्मकांड और तीसरा है ज्ञान काण्ड| ज्ञानकाण्ड की अधिक विस्तार से प्रस्तुति उपनिषदों में की गई है| छान्दोग्य उपनिषद के छठे अध्याय के दूसरे खंड में बताया है कि सृष्टि निर्माण से पूर्व केवल परमात्मा था| उसे अकेलापन खलने लगा| उसने विचार किया –  
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Every particle of matter continues to be in a state of rest or motion with a constant speed in a straight line unless compelled by an external force to change its state.
 
Every particle of matter continues to be in a state of rest or motion with a constant speed in a straight line unless compelled by an external force to change its state.
 
जड़ और चेतन में अंतर है चेतना के स्तरका| और इस स्तर के कारण आनेवाली मन, बुद्धि और अहंकार की सक्रीयता का| सृष्टि के सभी अस्तित्वों में अष्टधा प्रकृति होती ही है फिर वह धातू हो, वनस्पति हो, प्राणी हो या मानव| मानव में चेतना का स्तर सबसे अधिक और धातू या मिट्टीजैसे पदार्थों में सबसे कम होता है| सुख, दुःख, थकान, मनोविकार, बुद्धिकी शक्ति, अहंकार आदि बातें चेतना के स्तर के कम या अधिक होने की मात्रा में कम या अधिक होती है| जगदीशचंद्र बोस ने यही बात धातुपट्टिका के तुकडे पर प्रयोग कर धातु को भी थकान आती है यह प्रयोगद्वारा सिद्ध कर दिखाई थी|
 
जड़ और चेतन में अंतर है चेतना के स्तरका| और इस स्तर के कारण आनेवाली मन, बुद्धि और अहंकार की सक्रीयता का| सृष्टि के सभी अस्तित्वों में अष्टधा प्रकृति होती ही है फिर वह धातू हो, वनस्पति हो, प्राणी हो या मानव| मानव में चेतना का स्तर सबसे अधिक और धातू या मिट्टीजैसे पदार्थों में सबसे कम होता है| सुख, दुःख, थकान, मनोविकार, बुद्धिकी शक्ति, अहंकार आदि बातें चेतना के स्तर के कम या अधिक होने की मात्रा में कम या अधिक होती है| जगदीशचंद्र बोस ने यही बात धातुपट्टिका के तुकडे पर प्रयोग कर धातु को भी थकान आती है यह प्रयोगद्वारा सिद्ध कर दिखाई थी|
जुड़वां ऋणाणु (Twin Electrons) के प्रयोग से और ऋणाणु धारा (Electron Beam) के प्रयोग से वर्त्तमान साइंटिस्ट भी सोचने लगे हैं कि ऋणाणु को भी मन, बुद्धि होते हैं|
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जुड़वां ऋणाणु (Twin Electrons) के प्रयोग से और ऋणाणु धारा (Electron Beam) के प्रयोग से वर्तमान साइंटिस्ट भी सोचने लगे हैं कि ऋणाणु को भी मन, बुद्धि होते हैं|
 
चेतन तत्व के लक्षण न्याय दर्शन में १-१-१० में दिए हैं| वे हैं - इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदु:खज्ञानानि आत्मनो लिंगम् इति |
 
चेतन तत्व के लक्षण न्याय दर्शन में १-१-१० में दिए हैं| वे हैं - इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदु:खज्ञानानि आत्मनो लिंगम् इति |
 
अर्थ : आत्मा के लिंग (चिन्ह) हैं इच्छा करना, विपरीत परिस्थिति का विरोध करना, अनुकूल को प्राप्त करने का प्रयास करना, सुख दु:ख को अनुभव करना और अपने अस्तित्व का ज्ञान रखना|  
 
अर्थ : आत्मा के लिंग (चिन्ह) हैं इच्छा करना, विपरीत परिस्थिति का विरोध करना, अनुकूल को प्राप्त करने का प्रयास करना, सुख दु:ख को अनुभव करना और अपने अस्तित्व का ज्ञान रखना|  
 
मानव और मानव समाज का निर्माण : श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ३ में कहा है –  
 
मानव और मानव समाज का निर्माण : श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ३ में कहा है –  
 
सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति: | अनेन प्रसविष्यध्वमेंष वो स्त्विष्टकामधुक ||१०||  
 
सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति: | अनेन प्रसविष्यध्वमेंष वो स्त्विष्टकामधुक ||१०||  
अर्थ : प्रजापति ब्रह्माने कल्पके प्रारम्भ में यज्ञ के साथ प्रजा को उत्पन्न किया और कहा तुम इस यज्ञ (भूतमात्र के हित के कार्य) के द्वारा उत्कर्ष करो और यह यज्ञ तुम्हारे मनोरथ पूर्ण करनेवाला हो| - यह है समाज निर्माण की बारतीय मान्यता| वर्त्तमान व्यक्तिकेंद्रितता के कारण निर्माण हुई सभी सामाजिक समस्याओं का निराकरण इस दृष्टी में है| आगे कहा है –
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अर्थ : प्रजापति ब्रह्माने कल्पके प्रारम्भ में यज्ञ के साथ प्रजा को उत्पन्न किया और कहा तुम इस यज्ञ (भूतमात्र के हित के कार्य) के द्वारा उत्कर्ष करो और यह यज्ञ तुम्हारे मनोरथ पूर्ण करनेवाला हो| - यह है समाज निर्माण की बारतीय मान्यता| वर्तमान व्यक्तिकेंद्रितता के कारण निर्माण हुई सभी सामाजिक समस्याओं का निराकरण इस दृष्टी में है| आगे कहा है –
 
देवान्भावयतानेन ते देवांभावयन्तु व: | परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ ||११||
 
देवान्भावयतानेन ते देवांभावयन्तु व: | परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ ||११||
अर्थ : तुम इस यज्ञ के द्वारा देवताओं(पृथ्वी, अग्नि, वरुण, वायु, जल आदि) की पुष्टी करो| और ये देवता तुम्हें पुष्ट करें| इसा प्रकार नि:स्वार्थ भावसे एकदूसरे की परस्पर उन्नती करते हुए तुम परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे| - यह है पर्यावरण या सृष्टि की ओर देखने की भारतीय दृष्टी| वर्त्तमान पर्यावरण के प्रदूषण की समस्याओं को दूर करने की सामर्थ्य इस दृष्टी में है| कैसे इसका विचार करते हैं| परम कल्याण का ही अर्थ मोक्ष की प्राप्ति है|  
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अर्थ : तुम इस यज्ञ के द्वारा देवताओं(पृथ्वी, अग्नि, वरुण, वायु, जल आदि) की पुष्टी करो| और ये देवता तुम्हें पुष्ट करें| इसा प्रकार नि:स्वार्थ भावसे एकदूसरे की परस्पर उन्नती करते हुए तुम परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे| - यह है पर्यावरण या सृष्टि की ओर देखने की भारतीय दृष्टी| वर्तमान पर्यावरण के प्रदूषण की समस्याओं को दूर करने की सामर्थ्य इस दृष्टी में है| कैसे इसका विचार करते हैं| परम कल्याण का ही अर्थ मोक्ष की प्राप्ति है|  
वर्त्तमान में जल, हवा और जमीन के प्रदूषण के निवारण की बात होती है| वास्तव में यह टुकड़ों में विचार करने की यूरो अमेरिकी दृष्टी है| इसे भारतीय याने समग्रता की दृष्टी से देखने से समस्या का निराकरण हो जाता है| अष्टधा प्रकृति में से वर्त्तमान में केवल ३ महाभूतों के प्रदूषण का विचार किया जा रहा है| यह विचार अधूरा है| इसमें अग्नि और आकाश इन दो शेष पंचमहाभूत और मन, बुद्धि और अहंकार इन के प्रदूषण का विचार नहीं हो रहा| वास्तव में समस्या तो मन, बुद्धि और अहंकार के प्रदूषण की है| मन, बुद्धि और अहंकार के प्रदूषण का निवारण तो भारतीय शिक्षा से ही संभव है| इनका प्रदूषण दूर होते ही सभी प्रकारके प्रदूषणों से मुक्ति मिल जाएगी|
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वर्तमान में जल, हवा और जमीन के प्रदूषण के निवारण की बात होती है| वास्तव में यह टुकड़ों में विचार करने की यूरो अमेरिकी दृष्टी है| इसे भारतीय याने समग्रता की दृष्टी से देखने से समस्या का निराकरण हो जाता है| अष्टधा प्रकृति में से वर्तमान में केवल ३ महाभूतों के प्रदूषण का विचार किया जा रहा है| यह विचार अधूरा है| इसमें अग्नि और आकाश इन दो शेष पंचमहाभूत और मन, बुद्धि और अहंकार इन के प्रदूषण का विचार नहीं हो रहा| वास्तव में समस्या तो मन, बुद्धि और अहंकार के प्रदूषण की है| मन, बुद्धि और अहंकार के प्रदूषण का निवारण तो भारतीय शिक्षा से ही संभव है| इनका प्रदूषण दूर होते ही सभी प्रकारके प्रदूषणों से मुक्ति मिल जाएगी|
 
यहाँ वर्तमान यूरो अमरीकी साईन्टिस्टोंद्वारा प्रस्तुत विकासवाद की बुद्धियुक्तता समझना भी प्रासंगिक होगा|  
 
यहाँ वर्तमान यूरो अमरीकी साईन्टिस्टोंद्वारा प्रस्तुत विकासवाद की बुद्धियुक्तता समझना भी प्रासंगिक होगा|  
 
सृष्टि निर्माण की अभारतीय मान्यताएँ  
 
सृष्टि निर्माण की अभारतीय मान्यताएँ  
सेमेटिक मजहबों की याने यहूदी, ईसाई और मुस्लिम समाजों की सृष्टि निर्माण की अयुक्तिसंगत मान्यताओं की वर्त्तमान साईंटिस्ट समुदाय ने धज्जियां उडा दीं हैं| इसलिए अभी हम केवल वर्त्तमान साईंटिस्ट समुदाय की मान्यता का विचार करेंगे|  
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सेमेटिक मजहबों की याने यहूदी, ईसाई और मुस्लिम समाजों की सृष्टि निर्माण की अयुक्तिसंगत मान्यताओं की वर्तमान साईंटिस्ट समुदाय ने धज्जियां उडा दीं हैं| इसलिए अभी हम केवल वर्तमान साईंटिस्ट समुदाय की मान्यता का विचार करेंगे|  
 
सृष्टि निर्माण के तीन चरण हो सकते हैं| पहला है जड़ सृष्टि का निर्माण, दूसरा है प्रथम जीव का निर्माण, तीसरा है इस प्रथम जीव अमीबा से प्राणियों में सबसे अधिक विकसित मानव का निर्माण| इन तीनों से सम्बंधित साईन्टिस्टों की मान्यताएँ असिद्ध हैं| इन्हें आज भी पश्चिम के ही कई वैज्ञानिक परिकल्पना या हायपोथेसिस ही मानते हैं, सिद्धांत नहीं मानते| विकासवाद की प्रस्तुति को ‘डार्विन की थियरी’ ही माना जाता है, सिद्धांत नहीं| प्रथम जीव निर्माण की मिलर की परिकल्पना को भी ‘मिलर की थियरी’ ही कहा जाता है| सिद्धांत उसे कहते हैं जो अंततक सिद्ध किया जा सकता है|  
 
सृष्टि निर्माण के तीन चरण हो सकते हैं| पहला है जड़ सृष्टि का निर्माण, दूसरा है प्रथम जीव का निर्माण, तीसरा है इस प्रथम जीव अमीबा से प्राणियों में सबसे अधिक विकसित मानव का निर्माण| इन तीनों से सम्बंधित साईन्टिस्टों की मान्यताएँ असिद्ध हैं| इन्हें आज भी पश्चिम के ही कई वैज्ञानिक परिकल्पना या हायपोथेसिस ही मानते हैं, सिद्धांत नहीं मानते| विकासवाद की प्रस्तुति को ‘डार्विन की थियरी’ ही माना जाता है, सिद्धांत नहीं| प्रथम जीव निर्माण की मिलर की परिकल्पना को भी ‘मिलर की थियरी’ ही कहा जाता है| सिद्धांत उसे कहते हैं जो अंततक सिद्ध किया जा सकता है|  
 
साईंटिस्ट समुदाय की मानयता है कि एक विशाल अंडा था| उसमें विस्फोट हुआ| और सृष्टि के निर्माण का प्रारम्भ हो गया| आगे अलग अलग अस्तित्व निर्माण हुए| सृष्टि निर्माण की कल्पनामें इसका बनानेवाला कौन है? इसके बनाने में कच्चा माल क्या था? इनके उत्तर साईंटिस्ट नहीं दे पाते हैं| अंडे में विस्फोट किस ने किया? अंडे में विस्फोट होने से अव्यवस्था निर्माण होनी चाहिए थी| वह क्यों नहीं हुई? हर निर्माण के पीछे निर्माण करनेवाला होता है और निर्माण करनेवाले का कोई न कोई प्रयोजन होता है| सृष्टि निर्माण का प्रयोजन क्या है? साईंटिस्ट मानते हैं कि फफुन्द और अमोनिया की रासायनिक प्रक्रिया से जड़ में से ही एक कोशीय जीव अमीबा का निर्माण हुआ| इस प्रकार से मात्र रासायनिक प्रक्रिया से जीव निर्माण अबतक कोई साईंटिस्ट निर्माण नहीं कर पाया है| जीव की मदद के बिना कोई जीव अबतक निर्माण नहीं किया जा सका है|  
 
साईंटिस्ट समुदाय की मानयता है कि एक विशाल अंडा था| उसमें विस्फोट हुआ| और सृष्टि के निर्माण का प्रारम्भ हो गया| आगे अलग अलग अस्तित्व निर्माण हुए| सृष्टि निर्माण की कल्पनामें इसका बनानेवाला कौन है? इसके बनाने में कच्चा माल क्या था? इनके उत्तर साईंटिस्ट नहीं दे पाते हैं| अंडे में विस्फोट किस ने किया? अंडे में विस्फोट होने से अव्यवस्था निर्माण होनी चाहिए थी| वह क्यों नहीं हुई? हर निर्माण के पीछे निर्माण करनेवाला होता है और निर्माण करनेवाले का कोई न कोई प्रयोजन होता है| सृष्टि निर्माण का प्रयोजन क्या है? साईंटिस्ट मानते हैं कि फफुन्द और अमोनिया की रासायनिक प्रक्रिया से जड़ में से ही एक कोशीय जीव अमीबा का निर्माण हुआ| इस प्रकार से मात्र रासायनिक प्रक्रिया से जीव निर्माण अबतक कोई साईंटिस्ट निर्माण नहीं कर पाया है| जीव की मदद के बिना कोई जीव अबतक निर्माण नहीं किया जा सका है|  
अमीबा से ही मछली, बन्दर आदि क्रम से विकास होते होते वर्त्तमान का मानव निर्माण हुआ है| लेकिन आजतक ऐसा एक भी बन्दर नहीं पाया गया है जिसका स्वरयंत्र कहीं दूरदूरतक भी मानव के स्वरयंत्र जितना विकसित होगा या जिसकी बुद्धि मानव की बुद्धि जितनी विकासशील हो| मानव में बुद्धि का विकास तो एक ही जन्म में हो जाता है| कई प्रयोगों से यह सिद्ध हुआ है कि अवसर न मिलने से बालक निर्बुद्ध ही रह जाता है| शायद बन्दर की बुद्धि जितनी भी उसकी बुद्धि विकसित नहीं हो पाती|  
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अमीबा से ही मछली, बन्दर आदि क्रम से विकास होते होते वर्तमान का मानव निर्माण हुआ है| लेकिन आजतक ऐसा एक भी बन्दर नहीं पाया गया है जिसका स्वरयंत्र कहीं दूरदूरतक भी मानव के स्वरयंत्र जितना विकसित होगा या जिसकी बुद्धि मानव की बुद्धि जितनी विकासशील हो| मानव में बुद्धि का विकास तो एक ही जन्म में हो जाता है| कई प्रयोगों से यह सिद्ध हुआ है कि अवसर न मिलने से बालक निर्बुद्ध ही रह जाता है| शायद बन्दर की बुद्धि जितनी भी उसकी बुद्धि विकसित नहीं हो पाती|  
 
प्रत्येक जीव में अनिवार्यता से उपस्थित जीवात्मा तथा परमात्मा के अस्तित्व को नहीं मानने की हठधर्मी के कारण ही साईंटिस्ट अधूरी और अयुक्तिसंगत ऐसी सृष्टि निर्माण की मान्यताओं को त्याग नहीं सकते| इसीलिये वे डार्विन की या मिलर की परिकल्पनाओं को ही सिद्धांत कहने को विवश हैं|
 
प्रत्येक जीव में अनिवार्यता से उपस्थित जीवात्मा तथा परमात्मा के अस्तित्व को नहीं मानने की हठधर्मी के कारण ही साईंटिस्ट अधूरी और अयुक्तिसंगत ऐसी सृष्टि निर्माण की मान्यताओं को त्याग नहीं सकते| इसीलिये वे डार्विन की या मिलर की परिकल्पनाओं को ही सिद्धांत कहने को विवश हैं|
 
प्राकृतिक और मनुष्य निर्मित सृष्टि के घटक परमात्मा से लेकर मनुष्य के शरीर के अन्दर उपस्थित कोषों तक क्रमश: सभी घटकों में परस्पर सम्बन्ध है| इनमें जो प्राकृतिक हैं उनमें परिवर्तन मानव की शक्ति के बाहर हैं| वैसे तो व्यक्ति से लेकर वैश्विक समाज तक की ईकाईयां भी परमात्मा निर्मित ही हैं| लेकिन इनके नियम मनुष्य अपने हिसाब से बदल सकता है| मनुष्य अपने हिसाब से बदलता भी रहा है|
 
प्राकृतिक और मनुष्य निर्मित सृष्टि के घटक परमात्मा से लेकर मनुष्य के शरीर के अन्दर उपस्थित कोषों तक क्रमश: सभी घटकों में परस्पर सम्बन्ध है| इनमें जो प्राकृतिक हैं उनमें परिवर्तन मानव की शक्ति के बाहर हैं| वैसे तो व्यक्ति से लेकर वैश्विक समाज तक की ईकाईयां भी परमात्मा निर्मित ही हैं| लेकिन इनके नियम मनुष्य अपने हिसाब से बदल सकता है| मनुष्य अपने हिसाब से बदलता भी रहा है|
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