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ऐसा नहीं है कि इस प्रकार से आज से पूर्व विचार नहीं किया गया है। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से न केवल विचार अपितु प्रयोग भी किये गये हैं, और वे भी बहुत प्रभावी ढंग से। जब भारत में ब्रिटिश शिक्षा का अधिकार प्रस्थापित हो गया तब अनेक बुद्धिमान, कर्तृत्ववान और राष्ट्रभक्त मनीषियों को शिक्षा के भारतीयकरण की अनिवार्य आवश्यकता लगने लगी और इस दिशा में प्रयास भी हुए । उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से प्रारम्भ हुए इन प्रयासों का अत्यन्त संक्षेप में उल्लेख करना उपयुक्त रहेगा।
 
ऐसा नहीं है कि इस प्रकार से आज से पूर्व विचार नहीं किया गया है। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से न केवल विचार अपितु प्रयोग भी किये गये हैं, और वे भी बहुत प्रभावी ढंग से। जब भारत में ब्रिटिश शिक्षा का अधिकार प्रस्थापित हो गया तब अनेक बुद्धिमान, कर्तृत्ववान और राष्ट्रभक्त मनीषियों को शिक्षा के भारतीयकरण की अनिवार्य आवश्यकता लगने लगी और इस दिशा में प्रयास भी हुए । उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से प्रारम्भ हुए इन प्रयासों का अत्यन्त संक्षेप में उल्लेख करना उपयुक्त रहेगा।
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'''१. राजनारायण बसु :''' ये श्री योगी अरविन्द के मातामह थे। प्रारम्भ में तो वे अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त कर पूर्ण रूप से युरोपीय शैली में रंगकर उसी प्रकार से जीवनयापन करते थे। परन्तु महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर के सम्पर्क में आने पर उनमें स्वदेशी चेतना जाग उठी और समाजजीवन में भारतीयता पुनः प्रस्थापित होने के लिये उन्हें शिक्षा के भारतीयकरण की आवश्यकता का अनुभव हुआ। उन्होंने स्वयं युरोपीय जीवनशैली का त्याग किया और भारतीय शिक्षा देने हेतु 'सोसाइटी फॉर प्रमोशन ऑफ नेशनल फीलींग अमंग दि एजुकेटेड नेटिव्झ ऑफ बंगाल - शिक्षित बंगालियों में राष्ट्रीय भावना संचारिणी संस्था - की स्थापना की। इस संस्था के माध्यम से उन्होंने मातृभाषा का, भारतीय खानपान, वेशभूषा सहित जीवनशैली का और भारतीय ज्ञान के सम्पादन का आग्रह शुरू किया।
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===== १. राजनारायण बसु''' :''' =====
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ये श्री योगी अरविन्द के मातामह थे। प्रारम्भ में तो वे अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त कर पूर्ण रूप से युरोपीय शैली में रंगकर उसी प्रकार से जीवनयापन करते थे। परन्तु महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर के सम्पर्क में आने पर उनमें स्वदेशी चेतना जाग उठी और समाजजीवन में भारतीयता पुनः प्रस्थापित होने के लिये उन्हें शिक्षा के भारतीयकरण की आवश्यकता का अनुभव हुआ। उन्होंने स्वयं युरोपीय जीवनशैली का त्याग किया और भारतीय शिक्षा देने हेतु 'सोसाइटी फॉर प्रमोशन ऑफ नेशनल फीलींग अमंग दि एजुकेटेड नेटिव्झ ऑफ बंगाल - शिक्षित बंगालियों में राष्ट्रीय भावना संचारिणी संस्था - की स्थापना की। इस संस्था के माध्यम से उन्होंने मातृभाषा का, भारतीय खानपान, वेशभूषा सहित जीवनशैली का और भारतीय ज्ञान के सम्पादन का आग्रह शुरू किया।
    
कुछ मात्रा में और कुछ समय तक उनका प्रभाव दिखाई दिया।
 
कुछ मात्रा में और कुछ समय तक उनका प्रभाव दिखाई दिया।
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'''२. गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर''' : शान्तिनिकेतन, श्रीनिकेतन और विश्वभारती जैसी तीन असाधारण रूप से मौलिक और प्रभावी संस्थाओं के रूप में राष्ट्रीय शिक्षा की प्रतिष्ठा का प्रयास गुरुदेव का रहा। इसमें शान्तिनिकेतन सामान्य शिक्षा हेतु, श्रीनिकेतन उद्योगकेन्द्री ग्रामीण शिक्षा हेतु और विश्वभारती विश्वविद्यालय के रूप में चलाया गया। श्री गुरुदेव का दर्शन और शिक्षण योजना पूर्णरूप से भारतीय थे। प्रकृति का सान्निध्य, अनौपचारिक शिक्षा पद्धति, आनन्द और सौन्दर्यमय गतिविधियाँ और वैश्विक दृष्टि उनके शिक्षा प्रयोग के मूल तत्त्व थे। इन शिक्षा संस्थाओं को चलाने के लिये उन्होंने अपने ही संसाधनों का उपयोग किया । गुरुदेव को और इनकी संस्थाओं को आन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई। भारत में भी उन्हें श्रेष्ठ स्तर के सहयोगी प्राप्त हुए। देश के अग्रणी शिक्षाविदों को इन संस्थाओं ने पर्याप्त रूप से प्रभावित किया।
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===== '''२. गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर''' : =====
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शान्तिनिकेतन, श्रीनिकेतन और विश्वभारती जैसी तीन असाधारण रूप से मौलिक और प्रभावी संस्थाओं के रूप में राष्ट्रीय शिक्षा की प्रतिष्ठा का प्रयास गुरुदेव का रहा। इसमें शान्तिनिकेतन सामान्य शिक्षा हेतु, श्रीनिकेतन उद्योगकेन्द्री ग्रामीण शिक्षा हेतु और विश्वभारती विश्वविद्यालय के रूप में चलाया गया। श्री गुरुदेव का दर्शन और शिक्षण योजना पूर्णरूप से भारतीय थे। प्रकृति का सान्निध्य, अनौपचारिक शिक्षा पद्धति, आनन्द और सौन्दर्यमय गतिविधियाँ और वैश्विक दृष्टि उनके शिक्षा प्रयोग के मूल तत्त्व थे। इन शिक्षा संस्थाओं को चलाने के लिये उन्होंने अपने ही संसाधनों का उपयोग किया । गुरुदेव को और इनकी संस्थाओं को आन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई। भारत में भी उन्हें श्रेष्ठ स्तर के सहयोगी प्राप्त हुए। देश के अग्रणी शिक्षाविदों को इन संस्थाओं ने पर्याप्त रूप से प्रभावित किया।
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'''३. श्री अरविन्द''' : श्री अरविन्द पूर्ण रूप से अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त किये हुए व्यक्ति थे । परन्तु योगानुयोग, अथवा जिसे पूर्वजन्म के संस्कार भी कह सकते हैं, उनमें देशभक्ति की भावना प्रबल थी। अतः इंग्लैण्ड से शिक्षा पूर्ण करके वापस भारत आने पर वे बडौदा में महाराजा सयाजीराव गायकवाड के महाविद्यालय में प्राध्यापक और प्रिन्सिपल बने, बाद में कोलकता जाकर वहाँ नेशनल कालेज की स्थापना की । बाद में उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा परिषद की भी स्थापना की जिसके माध्यम से वे देशभर में राष्ट्रीय शिक्षा का प्रयास करना चाहते थे । परिषद के इन प्रयासों को उस समय की कोंग्रेस का भी समर्थन था और महाराष्ट्र से लोकमान्य तिलक और पंजाब से लाला लाजपतराय इस शिक्षापद्धति को समझने हेतु इसकी अखिल भारतीय बैठक में सहभागी हुए थे । इस प्रकार देश के विभिन्न भागों में राष्ट्रीय विद्यालयों एवं महाविद्यालयों की शृंखला का प्रारम्भ हुआ।
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===== '''३. श्री अरविन्द''' : =====
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श्री अरविन्द पूर्ण रूप से अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त किये हुए व्यक्ति थे । परन्तु योगानुयोग, अथवा जिसे पूर्वजन्म के संस्कार भी कह सकते हैं, उनमें देशभक्ति की भावना प्रबल थी। अतः इंग्लैण्ड से शिक्षा पूर्ण करके वापस भारत आने पर वे बडौदा में महाराजा सयाजीराव गायकवाड के महाविद्यालय में प्राध्यापक और प्रिन्सिपल बने, बाद में कोलकता जाकर वहाँ नेशनल कालेज की स्थापना की । बाद में उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा परिषद की भी स्थापना की जिसके माध्यम से वे देशभर में राष्ट्रीय शिक्षा का प्रयास करना चाहते थे । परिषद के इन प्रयासों को उस समय की कोंग्रेस का भी समर्थन था और महाराष्ट्र से लोकमान्य तिलक और पंजाब से लाला लाजपतराय इस शिक्षापद्धति को समझने हेतु इसकी अखिल भारतीय बैठक में सहभागी हुए थे । इस प्रकार देश के विभिन्न भागों में राष्ट्रीय विद्यालयों एवं महाविद्यालयों की शृंखला का प्रारम्भ हुआ।
    
परन्तु बहुत जल्दी यह प्रयास सरकारी संस्थाओं की अनुकृति बनकर रह गया। श्री अरविन्द ने इस बात की भर्त्सना की, उसका त्याग किया और नये सिरे से राष्ट्रीय शिक्षा के विषय में चिन्तन शुरू किया। इस चिन्तन के परिपाक रूप उन्होंने 'राष्ट्रीय शिक्षा पद्धति' शीर्षक से लेख लिखे। शिक्षा के प्रयोगों के साथ साथ वे भारत की स्वतंत्रता हेतु क्रान्तिकारी आंदोलन में भी सहयोगी थे । इसी दौरान अंग्रेजों के द्वारा होने वाली गिरफ्तारी से बचने हेतु वे पोंडीचेरी चले गये। वहाँ उनके जीवन में बहुत बडा बदलाव आया । वे योगसाधना में रत हो गये । वहाँ उन्होंने श्री माताजी के साथ मिलकर शिक्षा के मौलिक प्रयोग चलाये जो आज भी चल रहे हैं।
 
परन्तु बहुत जल्दी यह प्रयास सरकारी संस्थाओं की अनुकृति बनकर रह गया। श्री अरविन्द ने इस बात की भर्त्सना की, उसका त्याग किया और नये सिरे से राष्ट्रीय शिक्षा के विषय में चिन्तन शुरू किया। इस चिन्तन के परिपाक रूप उन्होंने 'राष्ट्रीय शिक्षा पद्धति' शीर्षक से लेख लिखे। शिक्षा के प्रयोगों के साथ साथ वे भारत की स्वतंत्रता हेतु क्रान्तिकारी आंदोलन में भी सहयोगी थे । इसी दौरान अंग्रेजों के द्वारा होने वाली गिरफ्तारी से बचने हेतु वे पोंडीचेरी चले गये। वहाँ उनके जीवन में बहुत बडा बदलाव आया । वे योगसाधना में रत हो गये । वहाँ उन्होंने श्री माताजी के साथ मिलकर शिक्षा के मौलिक प्रयोग चलाये जो आज भी चल रहे हैं।
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'''४. स्वामी विवेकानन्द और भगिनी निवेदिता''' : स्वामी विवेकानन्द ने कोई शिक्षा संस्था नहीं चलाई। भगिनी निवेदिता ने भी इक्की दुक्की संस्था ही चलाई। परन्तु स्वामीजी के शिक्षाविषयक विचारों ने उस समय के बौद्धिकों को बहुत प्रभावित किया। स्वामीजी भारत के अध्यात्म और यूरोप के भौतिक विकास का समन्वय चाहते थे। आज भी शिक्षा मनोविज्ञान के क्षेत्र में कार्यरत विद्वज्जन स्वामीजी की शिक्षा की प्रसिद्ध परिभाषा 'शिक्षा मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता का प्रकटीकरण हैं' को आधार बनाकर शिक्षाप्रक्रिया के रूपान्तरण का प्रयास कर सकते हैं।
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===== '''४. स्वामी विवेकानन्द और भगिनी निवेदिता''' : =====
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स्वामी विवेकानन्द ने कोई शिक्षा संस्था नहीं चलाई। भगिनी निवेदिता ने भी इक्की दुक्की संस्था ही चलाई। परन्तु स्वामीजी के शिक्षाविषयक विचारों ने उस समय के बौद्धिकों को बहुत प्रभावित किया। स्वामीजी भारत के अध्यात्म और यूरोप के भौतिक विकास का समन्वय चाहते थे। आज भी शिक्षा मनोविज्ञान के क्षेत्र में कार्यरत विद्वज्जन स्वामीजी की शिक्षा की प्रसिद्ध परिभाषा 'शिक्षा मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता का प्रकटीकरण हैं' को आधार बनाकर शिक्षाप्रक्रिया के रूपान्तरण का प्रयास कर सकते हैं।
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'''५. स्वामी दयानन्द सरस्वती एवं स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती''' : इन महात्माओं के प्रयास दो प्रकार के थे। एक प्रयास शुद्ध वैदिक परम्परा के गुरुकुलों की स्थापना का था और दूसरा दयानन्द एंग्लो वैदिक स्कूलों की शृंखला की स्थापना का । आज भी उत्तर भारत में ये विद्यालय चल रहे हैं।
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===== '''५. स्वामी दयानन्द सरस्वती एवं स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती''' : =====
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इन महात्माओं के प्रयास दो प्रकार के थे। एक प्रयास शुद्ध वैदिक परम्परा के गुरुकुलों की स्थापना का था और दूसरा दयानन्द एंग्लो वैदिक स्कूलों की शृंखला की स्थापना का । आज भी उत्तर भारत में ये विद्यालय चल रहे हैं।
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'''६. महात्मा गांधी''' : बुनियादी शिक्षा अथवा नई तालीम अथवा वर्धा योजना के नाम से ख्यात महात्मा गाँधी के शिक्षा के प्रयोग सर्वाधिक युगानुकूल थे । स्वदेशी तंत्र, ग्रामकेन्द्रित व्यवस्था, उद्योगप्रधान योजना, श्रमनिष्ठा, स्वावलम्बन और सादगीपूर्ण व्यवहार और पूर्ण भारतीय परिवेशयुक्त विद्यालयों और महाविद्यालयों की शृंखला उत्साहपूर्वक शुरू हुई, सन्निष्ठ प्रयासों से चली और अन्त में सरकारी शिक्षातंत्र में विलीन हो गई। आज भी ये विद्यालय चल रहे हैं।
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===== '''६. महात्मा गांधी''' : =====
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बुनियादी शिक्षा अथवा नई तालीम अथवा वर्धा योजना के नाम से ख्यात महात्मा गाँधी के शिक्षा के प्रयोग सर्वाधिक युगानुकूल थे । स्वदेशी तंत्र, ग्रामकेन्द्रित व्यवस्था, उद्योगप्रधान योजना, श्रमनिष्ठा, स्वावलम्बन और सादगीपूर्ण व्यवहार और पूर्ण भारतीय परिवेशयुक्त विद्यालयों और महाविद्यालयों की शृंखला उत्साहपूर्वक शुरू हुई, सन्निष्ठ प्रयासों से चली और अन्त में सरकारी शिक्षातंत्र में विलीन हो गई। आज भी ये विद्यालय चल रहे हैं।
    
यहाँ तक के राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयास स्वतन्त्रता पूर्व शुरू हुए थे और स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी चल रहे हैं।
 
यहाँ तक के राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयास स्वतन्त्रता पूर्व शुरू हुए थे और स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी चल रहे हैं।
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नये सिरेसे विचार करते समय कुछ आधारभूत सूत्रों को आवश्यक सन्दर्भ के रूप में स्वीकार करना पड़ेगा।
 
नये सिरेसे विचार करते समय कुछ आधारभूत सूत्रों को आवश्यक सन्दर्भ के रूप में स्वीकार करना पड़ेगा।
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'''१. शिक्षा व्यक्तिगत नहीं, राष्ट्रीय होती है'''
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===== '''१. शिक्षा व्यक्तिगत नहीं, राष्ट्रीय होती है''' =====
 
   
राष्ट्रीय होने पर ही वह सबके कल्याण की कारक बनती है। जब हम कहते हैं कि शिक्षा राष्ट्रीय होती है तब भी शिक्षित तो व्यक्ति को ही किया जाता है क्यों कि व्यक्तियों से ही राष्ट्र बनता है। शिक्षा राष्ट्रीय होनी चाहिये कहने का तात्पर्य यह है कि शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति के विकास का सन्दर्भ राष्ट्रीय होता है। शिक्षा व्यक्ति को राष्ट्र का एक सुयोग्य नागरिक बनाती है।
 
राष्ट्रीय होने पर ही वह सबके कल्याण की कारक बनती है। जब हम कहते हैं कि शिक्षा राष्ट्रीय होती है तब भी शिक्षित तो व्यक्ति को ही किया जाता है क्यों कि व्यक्तियों से ही राष्ट्र बनता है। शिक्षा राष्ट्रीय होनी चाहिये कहने का तात्पर्य यह है कि शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति के विकास का सन्दर्भ राष्ट्रीय होता है। शिक्षा व्यक्ति को राष्ट्र का एक सुयोग्य नागरिक बनाती है।
    
परन्तु इस प्रकार के कथन करते समय अर्थों का व्यत्यय परेशान करता रहता है और कथन के अर्थ बदल देता है । जब हम राष्ट्रीय' शब्द का प्रयोग करते हैं तब फिर से 'राष्ट्र' शब्द के सही अर्थ को स्पष्ट करना आवश्यक बन जाता है। वर्तमान में राष्ट्र' शब्द का अर्थ 'देश' किया जाता है और सन्दर्भ राजस्व का और शासन का हो जाता है। उदाहरण के लिये 'राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान और प्रशिक्षण परिषद' में राष्ट्रीय शब्द सूचित करता है कि १. यह संस्था अखिल भारतीय स्वरूप की है और २. इसका संचालन केन्द्र सरकार द्वारा होता है। कभी कभी 'राष्ट्रीय' शब्द केवल 'अखिल भारतीय' अर्थ में भी प्रयुक्त होता है, जैसे कि किसी पक्ष के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिल भारतीय अध्यक्ष होते हैं, केन्द्र सरकार द्वारा निर्देशित नहीं । परन्तु जिस अर्थ में मनीषियों ने शिक्षा के भारतीयकरण के प्रयासों को राष्ट्रीय शिक्षा का आन्दोलन कहा था उसमें प्रयुक्त राष्ट्र' का तात्पर्य न 'अखिल भारतीय' है, न केन्द्र सरकार से सम्बन्धित' है। राष्ट्र को प्रजा, भूमि, जलवायु, संस्कृति और जीवनदर्शन के समुच्चय के रूप में स्वीकार किया गया है। शिक्षा राष्ट्रीय होनी चाहिये का द्विविध तात्पर्य है । १. शिक्षा जीवनदर्शनादि समुच्चय को पुष्ट करने वाली होनी चाहिये और २. शिक्षा व्यक्ति को इसके अनुकूल बनाने वाली होनी चाहिये । वर्तमान शिक्षा व्यक्ति की अपनी तरक्की को, अपने ही लक्ष्य की पूर्ति को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मानती है, व्यक्ति की आकांक्षायें, व्यवहार और लक्ष्य की पूर्ति के प्रयास राष्ट्रविरोधी हैं या राष्ट्र के अनुकूल बनकर उसे पुष्ट करने वाले हैं इसका विचार नहीं किया जाता है। हमें शिक्षा की पुनर्रचना कर उसे व्यक्तिनिष्ठ नहीं अपितु राष्ट्रनिष्ठ व्यक्ति का निर्माण करने वाली बनाना चाहिये।
 
परन्तु इस प्रकार के कथन करते समय अर्थों का व्यत्यय परेशान करता रहता है और कथन के अर्थ बदल देता है । जब हम राष्ट्रीय' शब्द का प्रयोग करते हैं तब फिर से 'राष्ट्र' शब्द के सही अर्थ को स्पष्ट करना आवश्यक बन जाता है। वर्तमान में राष्ट्र' शब्द का अर्थ 'देश' किया जाता है और सन्दर्भ राजस्व का और शासन का हो जाता है। उदाहरण के लिये 'राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान और प्रशिक्षण परिषद' में राष्ट्रीय शब्द सूचित करता है कि १. यह संस्था अखिल भारतीय स्वरूप की है और २. इसका संचालन केन्द्र सरकार द्वारा होता है। कभी कभी 'राष्ट्रीय' शब्द केवल 'अखिल भारतीय' अर्थ में भी प्रयुक्त होता है, जैसे कि किसी पक्ष के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिल भारतीय अध्यक्ष होते हैं, केन्द्र सरकार द्वारा निर्देशित नहीं । परन्तु जिस अर्थ में मनीषियों ने शिक्षा के भारतीयकरण के प्रयासों को राष्ट्रीय शिक्षा का आन्दोलन कहा था उसमें प्रयुक्त राष्ट्र' का तात्पर्य न 'अखिल भारतीय' है, न केन्द्र सरकार से सम्बन्धित' है। राष्ट्र को प्रजा, भूमि, जलवायु, संस्कृति और जीवनदर्शन के समुच्चय के रूप में स्वीकार किया गया है। शिक्षा राष्ट्रीय होनी चाहिये का द्विविध तात्पर्य है । १. शिक्षा जीवनदर्शनादि समुच्चय को पुष्ट करने वाली होनी चाहिये और २. शिक्षा व्यक्ति को इसके अनुकूल बनाने वाली होनी चाहिये । वर्तमान शिक्षा व्यक्ति की अपनी तरक्की को, अपने ही लक्ष्य की पूर्ति को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मानती है, व्यक्ति की आकांक्षायें, व्यवहार और लक्ष्य की पूर्ति के प्रयास राष्ट्रविरोधी हैं या राष्ट्र के अनुकूल बनकर उसे पुष्ट करने वाले हैं इसका विचार नहीं किया जाता है। हमें शिक्षा की पुनर्रचना कर उसे व्यक्तिनिष्ठ नहीं अपितु राष्ट्रनिष्ठ व्यक्ति का निर्माण करने वाली बनाना चाहिये।
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'''२. साक्षरता और शिक्षितता में अन्तर है'''
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===== '''२. साक्षरता और शिक्षितता में अन्तर है''' =====
 
   
आज इन दो संकल्पनाओं का बहुत ही बडा विपर्यास दिखाई देता है । वास्तव में शिक्षित शब्द शिक्षा से ही बना है। शिक्षा व्यक्ति को शिक्षित बनाती है । शिक्षित व्यक्ति उसे कहते हैं जो सृष्टि का प्रयोजन समझता है, जगत में सर्वजनहित की दृष्टि से विवेकपूर्ण व्यवहार करता है, जिसके मन एवं इन्द्रियाँ उसके वश में रहते हैं और जिसका शरीर स्वस्थ तथा काम करने में कुशल होता है। शिक्षित व्यक्ति वही होता है जिस पर समाज भरोसा कर सकता है और जीवनव्यवहार में मार्गदर्शन प्राप्त करने की अपेक्षा कर सकता है। शिक्षित व्यक्ति साक्षर के साथ साथ सज्जन और कर्तृत्ववान होता है। परन्तु केवल साक्षर व्यक्ति पंडित होता है, शास्त्रों को जानता है, विद्वत्तापूर्ण लेखन और भाषण कर सकता है परन्तु चरित्रवान होने का दावा नहीं कर सकता
 
आज इन दो संकल्पनाओं का बहुत ही बडा विपर्यास दिखाई देता है । वास्तव में शिक्षित शब्द शिक्षा से ही बना है। शिक्षा व्यक्ति को शिक्षित बनाती है । शिक्षित व्यक्ति उसे कहते हैं जो सृष्टि का प्रयोजन समझता है, जगत में सर्वजनहित की दृष्टि से विवेकपूर्ण व्यवहार करता है, जिसके मन एवं इन्द्रियाँ उसके वश में रहते हैं और जिसका शरीर स्वस्थ तथा काम करने में कुशल होता है। शिक्षित व्यक्ति वही होता है जिस पर समाज भरोसा कर सकता है और जीवनव्यवहार में मार्गदर्शन प्राप्त करने की अपेक्षा कर सकता है। शिक्षित व्यक्ति साक्षर के साथ साथ सज्जन और कर्तृत्ववान होता है। परन्तु केवल साक्षर व्यक्ति पंडित होता है, शास्त्रों को जानता है, विद्वत्तापूर्ण लेखन और भाषण कर सकता है परन्तु चरित्रवान होने का दावा नहीं कर सकता
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हम प्रारम्भ से ही छात्र को परीक्षा के अंक, श्रेणी, पदवी आदि के प्रति लक्ष्य केन्द्रित करने वाला बनाते हैं। ऐसे व्यक्ति अपने अपने विषय में दक्ष बनकर विभिन्न व्यवसायों में जाते हैं । उच्च शिक्षित व्यक्ति देश की विभिन्न सेवाओं में जाते हैं और समाज का नियंत्रण करते हैं तथा देश का संचालन करते हैं । इससे समाजजीवन की समस्यायें बढती हैं और लोग परेशान होते हैं। परिणाम स्वरूप देश की भौतक और सांस्कृतिक अवनति होती है। इसलिये जब हम शिक्षा की पुनर्रचना करने का विचार करते हैं तब हमें केवल साक्षरता के नहीं तो शिक्षितता के मापदंड अपनाने पडेंगे अर्थात् संस्कार, विवेक और सर्वजनहित की भावना के पक्ष को निरी साक्षरता से पहले रखना पड़ेगा।
 
हम प्रारम्भ से ही छात्र को परीक्षा के अंक, श्रेणी, पदवी आदि के प्रति लक्ष्य केन्द्रित करने वाला बनाते हैं। ऐसे व्यक्ति अपने अपने विषय में दक्ष बनकर विभिन्न व्यवसायों में जाते हैं । उच्च शिक्षित व्यक्ति देश की विभिन्न सेवाओं में जाते हैं और समाज का नियंत्रण करते हैं तथा देश का संचालन करते हैं । इससे समाजजीवन की समस्यायें बढती हैं और लोग परेशान होते हैं। परिणाम स्वरूप देश की भौतक और सांस्कृतिक अवनति होती है। इसलिये जब हम शिक्षा की पुनर्रचना करने का विचार करते हैं तब हमें केवल साक्षरता के नहीं तो शिक्षितता के मापदंड अपनाने पडेंगे अर्थात् संस्कार, विवेक और सर्वजनहित की भावना के पक्ष को निरी साक्षरता से पहले रखना पड़ेगा।
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'''३. शिक्षा केवल संस्थागत नहीं होती'''
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===== '''३. शिक्षा केवल संस्थागत नहीं होती''' =====
 
   
शिक्षा को जब हम जीवन्त न मानकर जड़ पदार्थ मानने लगते हैं तब जो समस्यायें निर्माण होती हैं उनमें से एक यह है। शिक्षा सम्पूर्ण जीवन के साथ जुडी हुई है। वह गर्भावस्था में, जन्म के बाद शिशुअवस्था में और बाल, किशोर, तरुण, युवा अवस्थाओं से होते हुए प्रौढावस्था और वृद्धावस्था में भी होती है। विभिन्न अवस्थाओं में उसके कारक तत्त्व, उसके माध्यम, उसके करण और उपकरण, उसके स्थान, उसकी पद्धति और प्रक्रिया अलग अलग होते हैं। शिक्षा के द्वारा व्यक्तित्व विकास होता है उसमें मातापिता, आचार्य, मित्र, समाज, संतमहात्मा, सत्साहित्य आदि की महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है । आज हमने शिक्षा को आवश्यकता से अधिक संस्थागत बना दिया है। इस संस्थाकरण - खपीळीींळेपरश्रळरींळेप - से शिक्षा बहुत संकुचित स्वरूप की हो गई है। इससे भी बढकर उसका हानिकारक परिणाम यह है कि विद्यालय नामक संस्था से बाहर शिक्षा होती ही नहीं है, या होती है तो उसकी कोई मान्यता नहीं है। इसलिये प्रारम्भिक नींवरूप, चरित्रनिर्माण की शिक्षा का केन्द्र घर है और प्रथम और द्वितीय गुरु मातापिता हैं इस बात का विस्मरण हो गया है। धर्मगुरु नैतिक नियंत्रण करने वाले नहीं रह गये हैं। इससे संस्कार और संस्कृति की जो हानि हो रही है उसे दूर करने के लिये शिक्षा को Institutionalization से मुक्त कर व्यापक दायरे में ले जाना होगा, उसे घर तक और समाज तक ले जाना होगा । यांत्रिक स्वरूप बदल कर उसे जीवन्त बनाना होगा।
 
शिक्षा को जब हम जीवन्त न मानकर जड़ पदार्थ मानने लगते हैं तब जो समस्यायें निर्माण होती हैं उनमें से एक यह है। शिक्षा सम्पूर्ण जीवन के साथ जुडी हुई है। वह गर्भावस्था में, जन्म के बाद शिशुअवस्था में और बाल, किशोर, तरुण, युवा अवस्थाओं से होते हुए प्रौढावस्था और वृद्धावस्था में भी होती है। विभिन्न अवस्थाओं में उसके कारक तत्त्व, उसके माध्यम, उसके करण और उपकरण, उसके स्थान, उसकी पद्धति और प्रक्रिया अलग अलग होते हैं। शिक्षा के द्वारा व्यक्तित्व विकास होता है उसमें मातापिता, आचार्य, मित्र, समाज, संतमहात्मा, सत्साहित्य आदि की महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है । आज हमने शिक्षा को आवश्यकता से अधिक संस्थागत बना दिया है। इस संस्थाकरण - खपीळीींळेपरश्रळरींळेप - से शिक्षा बहुत संकुचित स्वरूप की हो गई है। इससे भी बढकर उसका हानिकारक परिणाम यह है कि विद्यालय नामक संस्था से बाहर शिक्षा होती ही नहीं है, या होती है तो उसकी कोई मान्यता नहीं है। इसलिये प्रारम्भिक नींवरूप, चरित्रनिर्माण की शिक्षा का केन्द्र घर है और प्रथम और द्वितीय गुरु मातापिता हैं इस बात का विस्मरण हो गया है। धर्मगुरु नैतिक नियंत्रण करने वाले नहीं रह गये हैं। इससे संस्कार और संस्कृति की जो हानि हो रही है उसे दूर करने के लिये शिक्षा को Institutionalization से मुक्त कर व्यापक दायरे में ले जाना होगा, उसे घर तक और समाज तक ले जाना होगा । यांत्रिक स्वरूप बदल कर उसे जीवन्त बनाना होगा।
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'''४. शिक्षा केवल अर्थार्जन के लिये नहीं होती'''
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===== '''४. शिक्षा केवल अर्थार्जन के लिये नहीं होती''' =====
 
   
इस बिन्दु की कुछ चर्चा पूर्व में हुई है। वास्तव में अर्थ भौतिक पदार्थ है। वह हमारी इच्छाओं और आवश्यकताओं को पूर्ण करने का साधन है । शिक्षा प्राप्त कर अर्थार्जन की योग्यता तो प्राप्त होती है। होनी भी चाहिये । परन्तु केवल 'अर्थकरी विद्या' अर्थात् अर्थार्जन के लिये शिक्षा प्राप्त करना उसे निम्न स्तर पर लाना होता है। तेज धारवाली उत्तम तलवार भींडी काटने के काम में नहीं ली जाती । तलवार से भीडी कटती तो है परन्तु वह तलवार का अपमान करना है। उसी प्रकार से केवल अर्थार्जन के लिये शिक्षा को नियोजित करना शिक्षा का दर्जा कम करना है। शिक्षा गुणार्जन, ज्ञानार्जन, कौशल के अर्जन के लिये होती है। अर्थार्जन उसका बहुत छोटा और निम्न स्तर का हिस्सा होता है। शिक्षा की पुनर्रचना करते समय हमें इस बिन्दु की ओर ध्यान देना होगा।
 
इस बिन्दु की कुछ चर्चा पूर्व में हुई है। वास्तव में अर्थ भौतिक पदार्थ है। वह हमारी इच्छाओं और आवश्यकताओं को पूर्ण करने का साधन है । शिक्षा प्राप्त कर अर्थार्जन की योग्यता तो प्राप्त होती है। होनी भी चाहिये । परन्तु केवल 'अर्थकरी विद्या' अर्थात् अर्थार्जन के लिये शिक्षा प्राप्त करना उसे निम्न स्तर पर लाना होता है। तेज धारवाली उत्तम तलवार भींडी काटने के काम में नहीं ली जाती । तलवार से भीडी कटती तो है परन्तु वह तलवार का अपमान करना है। उसी प्रकार से केवल अर्थार्जन के लिये शिक्षा को नियोजित करना शिक्षा का दर्जा कम करना है। शिक्षा गुणार्जन, ज्ञानार्जन, कौशल के अर्जन के लिये होती है। अर्थार्जन उसका बहुत छोटा और निम्न स्तर का हिस्सा होता है। शिक्षा की पुनर्रचना करते समय हमें इस बिन्दु की ओर ध्यान देना होगा।
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इन दोनों बातों का परिणाम अनर्थकारी होता है। शिक्षा विषयक दृष्टि, संकल्पना और व्यवस्था बदलने से जीवन की गुणवत्ता ही बदल जाती है और व्यवस्था अनवस्था में बदल जाती है। इसलिये हमें शिक्षा की प्रतिष्ठा अर्थ के सन्दर्भ में नहीं अपितु धर्म के सन्दर्भ में करनी होगी और धर्म आधारित रचना में अर्थार्जन को समायोजित करना होगा।<blockquote>'''५. शिक्षा केवल बुद्धिनिष्ठ नहीं होती।'''</blockquote><blockquote>'''वह अन्ततोगत्वा आत्मनिष्ठ होती है।'''</blockquote>यह सूत्र भारत के वैशिष्टय का परिचायक है । भारत के जीवनविचार में आत्मतत्त्व का स्वीकार किया गया है। भारत के दर्शन के अनुसार यह सृष्टि आत्मतत्त्व से निःसृत हुई है और पुनः आत्मतत्त्व में समाहित होने की दिशा में गति करती है। अतः जीवन की सभी व्यवस्थाओं का विचार आत्मतत्त्व के प्रकाश में होता है। श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है -<blockquote>'''इन्द्रियाणि पराण्याहुः इन्द्रियेभ्यः परं मनः ।''' </blockquote><blockquote>'''मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ।।'''</blockquote>अर्थात् इन्द्रियाँ विषयों से पर हैं, मन इन्द्रियों से पर है, बुद्धि मन से पर है और बुद्धि से जो पर है वह वह है, अर्थात् आत्मतत्त्व है। अतः बुद्धि का भी अधिष्ठान आत्मतत्त्व है। वर्तमान में हमने शिक्षा को केवल बुद्धिनिष्ठ बना दिया है । उसे आत्मनिष्ठ बनाने से उसका आधार सही होगा। दूसरी ओर जगत के व्यवहार में केवल बुद्धिनिष्ठा पर्याप्त नहीं होती । कर्मनिष्ठा और भावनिष्ठा भी आवश्यक है। बुद्धिनिष्ठा से केवल पदार्थ या परिस्थिति समझी जाती है परन्तु भावनिष्ठा से आत्मीयता और कर्मनिष्ठा से कुशलतायुक्त व्यवहार होता है । ज्ञान, भावना और क्रिया इन तीनों का समायोजन हर व्यवहार में आवश्यक होता है। शिक्षा को इन तीनों की समान रूप से योजना करनी चाहिये, और यह समायोजन आत्मतत्त्व के प्रकाश में होना चाहिये।
 
इन दोनों बातों का परिणाम अनर्थकारी होता है। शिक्षा विषयक दृष्टि, संकल्पना और व्यवस्था बदलने से जीवन की गुणवत्ता ही बदल जाती है और व्यवस्था अनवस्था में बदल जाती है। इसलिये हमें शिक्षा की प्रतिष्ठा अर्थ के सन्दर्भ में नहीं अपितु धर्म के सन्दर्भ में करनी होगी और धर्म आधारित रचना में अर्थार्जन को समायोजित करना होगा।<blockquote>'''५. शिक्षा केवल बुद्धिनिष्ठ नहीं होती।'''</blockquote><blockquote>'''वह अन्ततोगत्वा आत्मनिष्ठ होती है।'''</blockquote>यह सूत्र भारत के वैशिष्टय का परिचायक है । भारत के जीवनविचार में आत्मतत्त्व का स्वीकार किया गया है। भारत के दर्शन के अनुसार यह सृष्टि आत्मतत्त्व से निःसृत हुई है और पुनः आत्मतत्त्व में समाहित होने की दिशा में गति करती है। अतः जीवन की सभी व्यवस्थाओं का विचार आत्मतत्त्व के प्रकाश में होता है। श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है -<blockquote>'''इन्द्रियाणि पराण्याहुः इन्द्रियेभ्यः परं मनः ।''' </blockquote><blockquote>'''मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ।।'''</blockquote>अर्थात् इन्द्रियाँ विषयों से पर हैं, मन इन्द्रियों से पर है, बुद्धि मन से पर है और बुद्धि से जो पर है वह वह है, अर्थात् आत्मतत्त्व है। अतः बुद्धि का भी अधिष्ठान आत्मतत्त्व है। वर्तमान में हमने शिक्षा को केवल बुद्धिनिष्ठ बना दिया है । उसे आत्मनिष्ठ बनाने से उसका आधार सही होगा। दूसरी ओर जगत के व्यवहार में केवल बुद्धिनिष्ठा पर्याप्त नहीं होती । कर्मनिष्ठा और भावनिष्ठा भी आवश्यक है। बुद्धिनिष्ठा से केवल पदार्थ या परिस्थिति समझी जाती है परन्तु भावनिष्ठा से आत्मीयता और कर्मनिष्ठा से कुशलतायुक्त व्यवहार होता है । ज्ञान, भावना और क्रिया इन तीनों का समायोजन हर व्यवहार में आवश्यक होता है। शिक्षा को इन तीनों की समान रूप से योजना करनी चाहिये, और यह समायोजन आत्मतत्त्व के प्रकाश में होना चाहिये।
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'''४. शिक्षा के मंत्र, तंत्र और यंत्र'''  
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==== '''४. शिक्षा के मंत्र, तंत्र और यंत्र''' ====
 
   
शिक्षा को भारतीय बनाने के लिये उसके मंत्र, तंत्र और यंत्र ‘देशानुकूल' और 'युगानुकूल' बनाने की आवश्यकता है।
 
शिक्षा को भारतीय बनाने के लिये उसके मंत्र, तंत्र और यंत्र ‘देशानुकूल' और 'युगानुकूल' बनाने की आवश्यकता है।
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शिक्षा का दायित्व है कि वह ऐसे प्रबुद्ध लोग निर्माण करे । परन्तु आज भारत में शिक्षा को ही उचित रूप देने की चुनौती खडी हुई है । समग्र शिक्षा योजना बनाते समय इस चुनौती को भी ध्यान में रखना होगा।
 
शिक्षा का दायित्व है कि वह ऐसे प्रबुद्ध लोग निर्माण करे । परन्तु आज भारत में शिक्षा को ही उचित रूप देने की चुनौती खडी हुई है । समग्र शिक्षा योजना बनाते समय इस चुनौती को भी ध्यान में रखना होगा।
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'''५. सर्वसमावेशक और व्यापक योजना की आवश्यकता'''
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==== '''५. सर्वसमावेशक और व्यापक योजना की आवश्यकता''' ====
 
   
शिक्षा के भारतीयकरण की योजना सर्वसमावेशक और व्यापक होनी चाहिये।
 
शिक्षा के भारतीयकरण की योजना सर्वसमावेशक और व्यापक होनी चाहिये।
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# जब इसे समाज की मान्यता प्राप्त करवाने का प्रयास होगा;  
 
# जब इसे समाज की मान्यता प्राप्त करवाने का प्रयास होगा;  
 
# जब विश्वविद्यालयों के शिक्षाविभाग इसे अपनाने के लिये बौद्धिक सामर्थ्य दिखायें और शासन का शिक्षाविभाग इसे अपने नियंत्रण से मुक्त करने के लिये दबाव का अनुभव करे और बड़ी बडी औद्योगिक इकाइयों को शिक्षा को उद्योग के रूप में चलाने में कोई स्वारस्य न लगे ऐसी स्थिति निर्माण करने का प्रयास होगा। व्यापकता और सर्वसमावेशकता का यही तात्पर्य है।
 
# जब विश्वविद्यालयों के शिक्षाविभाग इसे अपनाने के लिये बौद्धिक सामर्थ्य दिखायें और शासन का शिक्षाविभाग इसे अपने नियंत्रण से मुक्त करने के लिये दबाव का अनुभव करे और बड़ी बडी औद्योगिक इकाइयों को शिक्षा को उद्योग के रूप में चलाने में कोई स्वारस्य न लगे ऐसी स्थिति निर्माण करने का प्रयास होगा। व्यापकता और सर्वसमावेशकता का यही तात्पर्य है।
'''६. दीर्घकालीन योजना की आवश्यकता'''
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==== '''६. दीर्घकालीन योजना की आवश्यकता''' ====
 
शिक्षा के भारतीयकरण की योजना दीर्घकालीन होना भी अत्यंत आवश्यक है।
 
शिक्षा के भारतीयकरण की योजना दीर्घकालीन होना भी अत्यंत आवश्यक है।
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# इस अभारतीय मंत्र और तंत्र को केवल पहचानना, या उससे उबरने की तीव्र चाह होना पर्याप्त नहीं होगा। इसका स्थान लेने वाला सार्थक पर्याय निर्माण करना होगा। इसमें भी समय लगेगा।  
 
# इस अभारतीय मंत्र और तंत्र को केवल पहचानना, या उससे उबरने की तीव्र चाह होना पर्याप्त नहीं होगा। इसका स्थान लेने वाला सार्थक पर्याय निर्माण करना होगा। इसमें भी समय लगेगा।  
 
# यह एक महान शैक्षिक, संगठनात्मक और प्रयोगात्मक तथा व्यापक योजना होगी। यह योजना व्यापक रूप में लागू हो सके और दीर्घकाल तक लागू रह सके ऐसी भी होना आवश्यक है। इस उद्देश्य को सिद्ध करने के लिये वह लचीली भी होनी चाहिये।
 
# यह एक महान शैक्षिक, संगठनात्मक और प्रयोगात्मक तथा व्यापक योजना होगी। यह योजना व्यापक रूप में लागू हो सके और दीर्घकाल तक लागू रह सके ऐसी भी होना आवश्यक है। इस उद्देश्य को सिद्ध करने के लिये वह लचीली भी होनी चाहिये।
'''७. विभिन्न शैक्षिक पहलुओं का एक साथ विचार'''
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==== '''७. विभिन्न शैक्षिक पहलुओं का एक साथ विचार''' ====
 
शिक्षा के भारतीयकरण की किसी भी योजना का विचार करते समय अनेक बातों का एक साथ विचार करना होगा। प्रमुखरूप से यह पूर्ण शिक्षातंत्र के शैक्षिक पहलू के सम्बन्ध में होगा।  
 
शिक्षा के भारतीयकरण की किसी भी योजना का विचार करते समय अनेक बातों का एक साथ विचार करना होगा। प्रमुखरूप से यह पूर्ण शिक्षातंत्र के शैक्षिक पहलू के सम्बन्ध में होगा।  
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'''१. अध्ययन एवं अनुसन्धान'''
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===== '''१. अध्ययन एवं अनुसन्धान''' =====
 
   
भारतीय ज्ञानधारा को समझने के लिये यह धारा जिसमें निरूपित हुई है ऐसे शास्त्रग्रंथों के व्यापक अध्ययन की योजना बनानी होगी। साथ ही उस ज्ञानधारा को पुनर्प्रवाहित करने के लिये, उसे पुष्ट बनाने के लिये, उसे युगानुकूल बनाने के लिये विशेष प्रकार के विमर्श की आवश्यकता रहेगी। इस दृष्टि से अध्ययन एवं अनुसन्धान की विशिष्ट पद्धतियाँ विकसित करनी होंगी। वर्तमान वैश्विक सन्दर्भ में उनका नये सिरे से निरूपण करना होगा । हमारे निरूपण के लिये प्रमाणभूत सिद्धान्त कौनसे हैं यह भी तय करना होगा।  
 
भारतीय ज्ञानधारा को समझने के लिये यह धारा जिसमें निरूपित हुई है ऐसे शास्त्रग्रंथों के व्यापक अध्ययन की योजना बनानी होगी। साथ ही उस ज्ञानधारा को पुनर्प्रवाहित करने के लिये, उसे पुष्ट बनाने के लिये, उसे युगानुकूल बनाने के लिये विशेष प्रकार के विमर्श की आवश्यकता रहेगी। इस दृष्टि से अध्ययन एवं अनुसन्धान की विशिष्ट पद्धतियाँ विकसित करनी होंगी। वर्तमान वैश्विक सन्दर्भ में उनका नये सिरे से निरूपण करना होगा । हमारे निरूपण के लिये प्रमाणभूत सिद्धान्त कौनसे हैं यह भी तय करना होगा।  
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'''२. पाठ्यक्रमनिर्माण'''
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===== '''२. पाठ्यक्रमनिर्माण''' =====
 
   
देश को चलाने वाले सिद्धान्त और नीतियों का विश्लेषण और मूल्यांकन कर, उसे परिष्कृत कर, उसे विषयवस्तु के रूप में शिशुशिक्षा से लेकर उच्चशिक्षा तक (घ.ऋौं झ.ऋ) के पाठ्यक्रमों में ढालना होगा । वास्तव में यह एक महान शैक्षिक प्रयास होगा । सम्पूर्ण योजना में यह केन्द्रवर्ती बिन्दु रहेगा क्योंकि कक्षाकक्ष की शिक्षा में ही व्यक्तिनिर्माण और राष्ट्रनिर्माण होता है। डॉ. दौलतसिंह कोठारी की प्रसिद्ध उक्ति है ही कि, 'भारत का भाग्य उसके कक्षाकक्षों में निर्मित होता है।'
 
देश को चलाने वाले सिद्धान्त और नीतियों का विश्लेषण और मूल्यांकन कर, उसे परिष्कृत कर, उसे विषयवस्तु के रूप में शिशुशिक्षा से लेकर उच्चशिक्षा तक (घ.ऋौं झ.ऋ) के पाठ्यक्रमों में ढालना होगा । वास्तव में यह एक महान शैक्षिक प्रयास होगा । सम्पूर्ण योजना में यह केन्द्रवर्ती बिन्दु रहेगा क्योंकि कक्षाकक्ष की शिक्षा में ही व्यक्तिनिर्माण और राष्ट्रनिर्माण होता है। डॉ. दौलतसिंह कोठारी की प्रसिद्ध उक्ति है ही कि, 'भारत का भाग्य उसके कक्षाकक्षों में निर्मित होता है।'
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समग्रता में विभिन्न प्रकार के पाठ्यक्रमों का एक व्यापक, सर्वसमावेशक परन्तु लचीला ढाँचा बनाकर बाद में उसे लागू करने की योजना बनाना लाभदायक होगा।
 
समग्रता में विभिन्न प्रकार के पाठ्यक्रमों का एक व्यापक, सर्वसमावेशक परन्तु लचीला ढाँचा बनाकर बाद में उसे लागू करने की योजना बनाना लाभदायक होगा।
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'''३. साहित्यनिर्माण'''
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===== '''३. साहित्यनिर्माण''' =====
 
   
तीसरी आवश्यकता है शिक्षा के विभिन्न पहलुओं से सम्बन्धित साहित्य विपुल मात्रा में निर्माण करने की। सर्वजनसमाज को, छोटी आयु के छात्रों को, युवाओं को, शिक्षित लोगों को, विद्वज्जनों को, शोधकार्य करने वालों को, विदेशी विद्वानों को ध्यान में रखकर विविध प्रकार की शैली और भाषा में, विविध स्वरूपों में यह साहित्य तैयार करना होगा। यह कार्य सरल नहीं है परन्तु वर्तमान वैश्विक संकटों और हमारी राष्ट्रीय समस्याओं और आवश्यकताओं को देखते हुए इस विषय को लेना अनिवार्य बन जाता है। समाजप्रबोधन, शिक्षकनिर्माण, छात्रशिक्षा और विद्वतचर्चा सब एकसाथ होना आवश्यक है और इसके लिये साहित्य भी विभिन्न स्वरूप का होना चाहिये।
 
तीसरी आवश्यकता है शिक्षा के विभिन्न पहलुओं से सम्बन्धित साहित्य विपुल मात्रा में निर्माण करने की। सर्वजनसमाज को, छोटी आयु के छात्रों को, युवाओं को, शिक्षित लोगों को, विद्वज्जनों को, शोधकार्य करने वालों को, विदेशी विद्वानों को ध्यान में रखकर विविध प्रकार की शैली और भाषा में, विविध स्वरूपों में यह साहित्य तैयार करना होगा। यह कार्य सरल नहीं है परन्तु वर्तमान वैश्विक संकटों और हमारी राष्ट्रीय समस्याओं और आवश्यकताओं को देखते हुए इस विषय को लेना अनिवार्य बन जाता है। समाजप्रबोधन, शिक्षकनिर्माण, छात्रशिक्षा और विद्वतचर्चा सब एकसाथ होना आवश्यक है और इसके लिये साहित्य भी विभिन्न स्वरूप का होना चाहिये।
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'''४. शिक्षा को पुनर्व्याख्यायित करना'''
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===== '''४. शिक्षा को पुनर्व्याख्यायित करना''' =====
 
   
शिक्षा को ही पुनर्व्याख्यायित करना चाहिये । शिक्षाशास्त्र के अन्तर्गत शिक्षा की परिभाषा, शिक्षादर्शन, शिक्षामनोविज्ञान, पाठनपद्धति, मूल्यांकन, पाठ्यक्रमनिर्माण आदि के सिद्धान्तों में आमूल परिवर्तन करना पडेगा । तभी विद्यालयों एवं महाविद्यालयों की शिक्षाप्रक्रिया बदलेगी और तभी शिक्षा का भारतीयकरण सम्भव होगा।
 
शिक्षा को ही पुनर्व्याख्यायित करना चाहिये । शिक्षाशास्त्र के अन्तर्गत शिक्षा की परिभाषा, शिक्षादर्शन, शिक्षामनोविज्ञान, पाठनपद्धति, मूल्यांकन, पाठ्यक्रमनिर्माण आदि के सिद्धान्तों में आमूल परिवर्तन करना पडेगा । तभी विद्यालयों एवं महाविद्यालयों की शिक्षाप्रक्रिया बदलेगी और तभी शिक्षा का भारतीयकरण सम्भव होगा।
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अर्थात् शिक्षाशास्त्र की सैद्धान्तिक और व्यावहारिक पुनर्रचना सम्पूर्ण योजना का प्रारम्भबिन्दु बनेगा।
 
अर्थात् शिक्षाशास्त्र की सैद्धान्तिक और व्यावहारिक पुनर्रचना सम्पूर्ण योजना का प्रारम्भबिन्दु बनेगा।
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'''८. क्रियान्वयन की दिशा में प्रयास'''  
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==== '''८. क्रियान्वयन की दिशा में प्रयास''' ====
 
   
शिक्षा के भारतीयकरण का वैचारिक पक्ष ठीक करने के बाद उसके क्रियान्वयन की दिशा में भी प्रयास करना होगा । इस दृष्टि से भी कुछ विचार इस प्रकार से किया जा सकता है।
 
शिक्षा के भारतीयकरण का वैचारिक पक्ष ठीक करने के बाद उसके क्रियान्वयन की दिशा में भी प्रयास करना होगा । इस दृष्टि से भी कुछ विचार इस प्रकार से किया जा सकता है।
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'''१. संगठित और व्यापक प्रयास'''
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===== '''१. संगठित और व्यापक प्रयास''' =====
 
   
संगठित और व्यापक प्रयास की आवश्यकता है। देशभर की शिक्षा का स्वरूप इतना व्यापक और शासन द्वारा इस प्रकार नियन्त्रित है कि किसी व्यक्तिगत या स्थानीय प्रयास से परिवर्तन होना संभव नहीं। यदि । शासन द्वारा परिवर्तन के प्रयास होते हैं तो वे सफल नहीं होंगे क्योंकि शिक्षा में परिवर्तन करना न शासन-प्रशासन का स्वभाव होता है न कार्यक्षेत्र । हाँ, शासन का निश्चय और सहयोग बहुत उपयोगी होता है । परन्तु विद्वत् क्षेत्र में शैक्षिक परिवर्तन के प्रयास होंगे तभी शासन का सहयोग सार्थक सिद्ध होगा। बिना विद्वत्क्षेत्र के प्रयास के शासन सहयोग किसे करेगा ? अतः विद्वत्क्षेत्र को ही व्यापक और संगठित प्रयास करना होगा । व्यापक का अर्थ है देशव्यापी । व्यापक का दूसरा अर्थ है सर्व पहलुओं को एक साथ समाविष्ट करने वाला । व्यापक का और एक अर्थ है समाज के सभी स्तरों के लिये उपयोगी। सभी स्तरों से तात्पर्य है नगरीय, ग्रामीण, वनवासी, अमीर, झुग्गीझोंपडियों में रहने वाले, घूमन्तु आदि सब । संगठित से तात्पर्य यह है कि देशभर में विभिन्न परिस्थितियों में, विभिन्न स्थानों पर, विभिन्न व्यक्तियों या व्यक्तिसमूहों के प्रयासों का लक्ष्य, विचार, योजना और कार्यपद्धति एक हो ।
 
संगठित और व्यापक प्रयास की आवश्यकता है। देशभर की शिक्षा का स्वरूप इतना व्यापक और शासन द्वारा इस प्रकार नियन्त्रित है कि किसी व्यक्तिगत या स्थानीय प्रयास से परिवर्तन होना संभव नहीं। यदि । शासन द्वारा परिवर्तन के प्रयास होते हैं तो वे सफल नहीं होंगे क्योंकि शिक्षा में परिवर्तन करना न शासन-प्रशासन का स्वभाव होता है न कार्यक्षेत्र । हाँ, शासन का निश्चय और सहयोग बहुत उपयोगी होता है । परन्तु विद्वत् क्षेत्र में शैक्षिक परिवर्तन के प्रयास होंगे तभी शासन का सहयोग सार्थक सिद्ध होगा। बिना विद्वत्क्षेत्र के प्रयास के शासन सहयोग किसे करेगा ? अतः विद्वत्क्षेत्र को ही व्यापक और संगठित प्रयास करना होगा । व्यापक का अर्थ है देशव्यापी । व्यापक का दूसरा अर्थ है सर्व पहलुओं को एक साथ समाविष्ट करने वाला । व्यापक का और एक अर्थ है समाज के सभी स्तरों के लिये उपयोगी। सभी स्तरों से तात्पर्य है नगरीय, ग्रामीण, वनवासी, अमीर, झुग्गीझोंपडियों में रहने वाले, घूमन्तु आदि सब । संगठित से तात्पर्य यह है कि देशभर में विभिन्न परिस्थितियों में, विभिन्न स्थानों पर, विभिन्न व्यक्तियों या व्यक्तिसमूहों के प्रयासों का लक्ष्य, विचार, योजना और कार्यपद्धति एक हो ।
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'''२. वैचारिक समानसूत्रता'''
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===== '''२. वैचारिक समानसूत्रता''' =====
 
   
जैसे पूर्व में उल्लेख हआ है देशभर में अभी व्यक्तिगत रूप से, स्थानीय स्वरूप के, कहीं कहीं संस्थागत स्वरूप में भी शिक्षा के भारतीयकरण के प्रयास हो रहे हैं। वे सब ज्ञानात्मक, परिश्रमपूर्ण, सन्निष्ठ और प्रामाणिक हैं। परन्तु उनका प्रयास सम्मिलित और संगठित नहीं होने से उनका प्रभाव शासन पर या शासन द्वारा नियन्त्रित शिक्षाक्षेत्र पर नहीं होता । परिणामतः वे कुछ मात्रा में अच्छी शिक्षा तो देते हैं, कुछ लोगों का भला भी करते हैं परन्तु विदेशी शिक्षातन्त्र का ही उपकार करते हैं और सांस्कृतिक गुलामी की बेडियों को और मजबूत बनाते हैं। अतः इन सभी प्रयासों को एक वैचारिक समान सूत्र में पिरोने की ठोस योजना बननी चाहिये।
 
जैसे पूर्व में उल्लेख हआ है देशभर में अभी व्यक्तिगत रूप से, स्थानीय स्वरूप के, कहीं कहीं संस्थागत स्वरूप में भी शिक्षा के भारतीयकरण के प्रयास हो रहे हैं। वे सब ज्ञानात्मक, परिश्रमपूर्ण, सन्निष्ठ और प्रामाणिक हैं। परन्तु उनका प्रयास सम्मिलित और संगठित नहीं होने से उनका प्रभाव शासन पर या शासन द्वारा नियन्त्रित शिक्षाक्षेत्र पर नहीं होता । परिणामतः वे कुछ मात्रा में अच्छी शिक्षा तो देते हैं, कुछ लोगों का भला भी करते हैं परन्तु विदेशी शिक्षातन्त्र का ही उपकार करते हैं और सांस्कृतिक गुलामी की बेडियों को और मजबूत बनाते हैं। अतः इन सभी प्रयासों को एक वैचारिक समान सूत्र में पिरोने की ठोस योजना बननी चाहिये।
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'''३. मुक्त संगठन'''
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===== '''३. मुक्त संगठन''' =====
 
   
ऐसी एकसूत्रता लाने के लिये देशभर में मुक्त संगठन की संकल्पना विकसित करने की आवश्यकता है। संगठन का स्वरूप संस्था से भिन्न होता है। संस्था में होते हैं उस प्रकार के वैधानिक नियम संगठन में नहीं होते । संगठन के जो अंगभूत घटक होते हैं उनमें नियमों का स्वेच्छा से पालन करने की वृत्ति और क्रियान्वयन में विवेक की न केवल अपेक्षा अपितु विश्वास होता है । ऐसी मुक्तता में भी समरूपता और समरसता होना भारतीय मानस को अपरिचित नहीं है। इतिहास में ऐसे उदाहरण हमें मिलते हैं -
 
ऐसी एकसूत्रता लाने के लिये देशभर में मुक्त संगठन की संकल्पना विकसित करने की आवश्यकता है। संगठन का स्वरूप संस्था से भिन्न होता है। संस्था में होते हैं उस प्रकार के वैधानिक नियम संगठन में नहीं होते । संगठन के जो अंगभूत घटक होते हैं उनमें नियमों का स्वेच्छा से पालन करने की वृत्ति और क्रियान्वयन में विवेक की न केवल अपेक्षा अपितु विश्वास होता है । ऐसी मुक्तता में भी समरूपता और समरसता होना भारतीय मानस को अपरिचित नहीं है। इतिहास में ऐसे उदाहरण हमें मिलते हैं -
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शिक्षा के भारतीयकरण की योजना में इस प्रकार के आध्यात्मिक स्वरूप की, त्याग, तपश्चर्या और अभिनिवेशशून्यता की दखल लेना अनिवार्य है।
 
शिक्षा के भारतीयकरण की योजना में इस प्रकार के आध्यात्मिक स्वरूप की, त्याग, तपश्चर्या और अभिनिवेशशून्यता की दखल लेना अनिवार्य है।
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'''४. सामान्य जन का सामान्य ज्ञान'''
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===== '''४. सामान्य जन का सामान्य ज्ञान''' =====
 
   
इस प्रयास को व्यापक बनाने में सामान्यजन का सामान्य ज्ञान बहुत उपयोगी सिद्ध होगा। भारतीय ज्ञानधारा अभी भी अशिक्षित, ग्रामीण, दो पीढी पूर्व के भारतीयों में सुरक्षित है। यह धारा क्षीण और उपेक्षित है। उसमें विज्ञापनबाजी की मुखरता और श्रेष्ठकनिष्ठ के विवेक की चुभने वाली धार नहीं है परन्तु उसका अस्तित्व मिट नहीं गया है। उस देशीय ज्ञान को भारतीयकरण के प्रयास में सम्मान का स्थान देकर सम्मिलित करने की आवश्यकता है। यह ज्ञान तकनीकी, औषधिविज्ञान, स्थापत्य, शिल्प, उद्योग, वाणिज्य, रीतिरिवाज, सामाजिक व्यवहार, कृषि आदि सभी क्षेत्रों में है। इसका अल्पसा परिचय भी हमें विस्मय से भर देने वाला होगा इसमें सन्देह नहीं है । अतः आज की 'अपरिचयात् अवज्ञा' की स्थिति को बदलने की आवश्यकता है।
 
इस प्रयास को व्यापक बनाने में सामान्यजन का सामान्य ज्ञान बहुत उपयोगी सिद्ध होगा। भारतीय ज्ञानधारा अभी भी अशिक्षित, ग्रामीण, दो पीढी पूर्व के भारतीयों में सुरक्षित है। यह धारा क्षीण और उपेक्षित है। उसमें विज्ञापनबाजी की मुखरता और श्रेष्ठकनिष्ठ के विवेक की चुभने वाली धार नहीं है परन्तु उसका अस्तित्व मिट नहीं गया है। उस देशीय ज्ञान को भारतीयकरण के प्रयास में सम्मान का स्थान देकर सम्मिलित करने की आवश्यकता है। यह ज्ञान तकनीकी, औषधिविज्ञान, स्थापत्य, शिल्प, उद्योग, वाणिज्य, रीतिरिवाज, सामाजिक व्यवहार, कृषि आदि सभी क्षेत्रों में है। इसका अल्पसा परिचय भी हमें विस्मय से भर देने वाला होगा इसमें सन्देह नहीं है । अतः आज की 'अपरिचयात् अवज्ञा' की स्थिति को बदलने की आवश्यकता है।
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'''९. चरणबद्ध योजना'''  
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==== '''९. चरणबद्ध योजना''' ====
 
   
शिक्षा के भारतीयकरण की यह प्रक्रिया सरल नहीं है। जल्दी सिद्ध होने वाली भी नहीं है। इतने विविध पहलू इसमें जुड़े हुए हैं कि उन्हें एक एक करके समझने में समय लगेगा। विद्वज्जनों का समन्वित प्रयास, मूलगत (पीपवराशपीरश्र) अनुसन्धान, शास्त्रग्रन्थों का युगानुकूल रूपान्तरण, वर्तमान आवश्यकताओं के अनुरूप साहित्य निर्माण, जनमानस प्रबोधन, शासन पर प्रभाव, अर्थव्यवस्था का पुनर्विचार, शिक्षक निर्मिति आदि अनेक पहलू हैं जो पर्याप्त धैर्य और परिश्रम की अपेक्षा करते हैं। अतः इस योजना को फलवती होने के लिये पर्याप्त समय देना चाहिये।
 
शिक्षा के भारतीयकरण की यह प्रक्रिया सरल नहीं है। जल्दी सिद्ध होने वाली भी नहीं है। इतने विविध पहलू इसमें जुड़े हुए हैं कि उन्हें एक एक करके समझने में समय लगेगा। विद्वज्जनों का समन्वित प्रयास, मूलगत (पीपवराशपीरश्र) अनुसन्धान, शास्त्रग्रन्थों का युगानुकूल रूपान्तरण, वर्तमान आवश्यकताओं के अनुरूप साहित्य निर्माण, जनमानस प्रबोधन, शासन पर प्रभाव, अर्थव्यवस्था का पुनर्विचार, शिक्षक निर्मिति आदि अनेक पहलू हैं जो पर्याप्त धैर्य और परिश्रम की अपेक्षा करते हैं। अतः इस योजना को फलवती होने के लिये पर्याप्त समय देना चाहिये।
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साठ वर्षों का विभाजन कर हम पाँच चरण बना सकते हैं। एक एक चरण बारह वर्षों का होगा। बारह वर्षों को एक तप कहते हैं। एक एक तप का एक चरण होगा । पाँच चरणों में कार्य का क्रम कुछ इस प्रकार बैठ सकता है
 
साठ वर्षों का विभाजन कर हम पाँच चरण बना सकते हैं। एक एक चरण बारह वर्षों का होगा। बारह वर्षों को एक तप कहते हैं। एक एक तप का एक चरण होगा । पाँच चरणों में कार्य का क्रम कुछ इस प्रकार बैठ सकता है
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'''१. प्रथम चरण नैमिषारण्य'''
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===== '''१. प्रथम चरण नैमिषारण्य''' =====
 
   
महाभारत के युद्ध में दोनों पक्षों को मिलाकर बहत बडा विनाश हुआ था। सर्वत्र अवसाद था। सर्वत्र अनवस्था थी। जनजीवन उध्वस्त हो गया था। उसी समय युगपरिवर्तन हुआ और कलियुग का प्रारम्भ हुआ। युगपरिवर्तन के प्रभाव से लोगों की शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक शक्तियों का भी ह्रास हुआ। इस अनवस्था को सुव्यवस्था में बदलने के लिये एक महान प्रयास की आवश्यकता थी। ऐसा महान प्रयास नैमिषारण्य में हुआ। नैमिषारण्य में आचार्य शौनक का गुरुकुल था । वे कुलपति थे। उन्होंने भारतवर्ष के कोने कोने से विद्वज्जनों को आमन्त्रित किया । देशभर से अठासी हजार ऋषि उनके गुरुकुल में आये । कुलपति शौनक के संयोजकत्व में बारह वर्ष तक ज्ञानयज्ञ चला । बारह वर्षों में उन विद्वज्जनों ने समस्या पहचानने का, मूल तत्त्वों को समझने का और व्यावहारिक निराकरण के निरूपण का कार्य किया। बाद में वे देश के कोने कोने में फैल गये और लोगों का प्रबोधन और शिक्षण किया और युग के अनुकूल व्यवस्थायें बनीं।
 
महाभारत के युद्ध में दोनों पक्षों को मिलाकर बहत बडा विनाश हुआ था। सर्वत्र अवसाद था। सर्वत्र अनवस्था थी। जनजीवन उध्वस्त हो गया था। उसी समय युगपरिवर्तन हुआ और कलियुग का प्रारम्भ हुआ। युगपरिवर्तन के प्रभाव से लोगों की शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक शक्तियों का भी ह्रास हुआ। इस अनवस्था को सुव्यवस्था में बदलने के लिये एक महान प्रयास की आवश्यकता थी। ऐसा महान प्रयास नैमिषारण्य में हुआ। नैमिषारण्य में आचार्य शौनक का गुरुकुल था । वे कुलपति थे। उन्होंने भारतवर्ष के कोने कोने से विद्वज्जनों को आमन्त्रित किया । देशभर से अठासी हजार ऋषि उनके गुरुकुल में आये । कुलपति शौनक के संयोजकत्व में बारह वर्ष तक ज्ञानयज्ञ चला । बारह वर्षों में उन विद्वज्जनों ने समस्या पहचानने का, मूल तत्त्वों को समझने का और व्यावहारिक निराकरण के निरूपण का कार्य किया। बाद में वे देश के कोने कोने में फैल गये और लोगों का प्रबोधन और शिक्षण किया और युग के अनुकूल व्यवस्थायें बनीं।
    
आज भी इस प्रकार से असंख्य विद्वज्जनों को सम्मिलित कर ज्ञानयज्ञ करने की । आवश्यकता है। अध्ययन, चिन्तन, मनन, विमर्श, अनुसन्धान आदि कार्य देशभर में चले ऐसा कोई उपाय करने की आवश्यकता है। परा कोटि के तात्त्विक से लेकर छोटी से छोटी व्यावहारिक बातों तक का विमर्श कर वर्तमान सन्दर्भ में उपयुक्त ऐसा भारतीय शिक्षा का प्रतिमान तैयार करने की आवश्यकता है। बारह वर्षों का यह प्रथम चरण होगा।
 
आज भी इस प्रकार से असंख्य विद्वज्जनों को सम्मिलित कर ज्ञानयज्ञ करने की । आवश्यकता है। अध्ययन, चिन्तन, मनन, विमर्श, अनुसन्धान आदि कार्य देशभर में चले ऐसा कोई उपाय करने की आवश्यकता है। परा कोटि के तात्त्विक से लेकर छोटी से छोटी व्यावहारिक बातों तक का विमर्श कर वर्तमान सन्दर्भ में उपयुक्त ऐसा भारतीय शिक्षा का प्रतिमान तैयार करने की आवश्यकता है। बारह वर्षों का यह प्रथम चरण होगा।
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'''२. द्वितीय चरण लोकमतपरिष्कार'''
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===== '''२. द्वितीय चरण लोकमतपरिष्कार''' =====
 
   
शिक्षा सर्वजनसमाज के लिये होती है। सर्वजनसमाज का प्रबोधन करना, उनकी दृष्टि ठीक करना, उनके व्यवहार और विचार को ठीक करना, सुयोग्य व्यवस्थाओं को उनके मानस में बिठाना यह प्रथम आवश्यकता है। शिक्षा के नये प्रतिमान को समाज की स्वीकृति की अपेक्षा रहेगी। रूढि, मान्यता, गतानुगतिकता, अभिनिवेश, कर्मकाण्ड, अन्धश्रद्धा, जडता, मूढता आदि स्वरूप के अवरोध लोकजीवन में बलवान होते हैं। इन सबको परिष्कृत करना शिक्षा का कार्य है। इसलिये लोकमतपरिष्कार अथवा लोकशिक्षा यह दूसरा चरण होगा।  
 
शिक्षा सर्वजनसमाज के लिये होती है। सर्वजनसमाज का प्रबोधन करना, उनकी दृष्टि ठीक करना, उनके व्यवहार और विचार को ठीक करना, सुयोग्य व्यवस्थाओं को उनके मानस में बिठाना यह प्रथम आवश्यकता है। शिक्षा के नये प्रतिमान को समाज की स्वीकृति की अपेक्षा रहेगी। रूढि, मान्यता, गतानुगतिकता, अभिनिवेश, कर्मकाण्ड, अन्धश्रद्धा, जडता, मूढता आदि स्वरूप के अवरोध लोकजीवन में बलवान होते हैं। इन सबको परिष्कृत करना शिक्षा का कार्य है। इसलिये लोकमतपरिष्कार अथवा लोकशिक्षा यह दूसरा चरण होगा।  
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'''३. तीसरा चरण परिवारशिक्षा'''
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===== '''३. तीसरा चरण परिवारशिक्षा''' =====
 
   
शिक्षा व्यक्ति के जन्मपूर्व से शुरू होती है । उस समय शिक्षा देने वाले मातापिता होते हैं। इसलिये माता को बालक का प्रथम गुरु कहा गया है। परिवार में संस्कार होते हैं, चरित्रनिर्माण होता है। परिवार में ही अनेक प्रकार के कौशल सीखे जाते हैं। परिवार में जीवन का दृष्टिकोण बनता है। परिवार कुलपरंपरा का, कौशलपरंपरा का, व्यवसायपरंपरा का, वंशपरंपरा का वाहक है। परिवार समाजव्यवस्था की मूल इकाई है। परिवार में ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम और वानप्रस्थाश्रम व्यतीत होते हैं। समाजधारणा के लिये आवश्यक ऐसे दान, यज्ञ, सेवा, शुश्रूषा, परिचर्या आदि परिवार में ही सीखे जाते हैं और वहीं इनका निर्वहण भी होता है। इस परिवारव्यवस्था एवं परिवारभावना को सुदृढ बनाने से ही समाज भी सुदृढ, सुखी और समृद्ध होगा। इस दृष्टि से परिवारशिक्षा की व्यवस्था करना तीसरा चरण होगा।
 
शिक्षा व्यक्ति के जन्मपूर्व से शुरू होती है । उस समय शिक्षा देने वाले मातापिता होते हैं। इसलिये माता को बालक का प्रथम गुरु कहा गया है। परिवार में संस्कार होते हैं, चरित्रनिर्माण होता है। परिवार में ही अनेक प्रकार के कौशल सीखे जाते हैं। परिवार में जीवन का दृष्टिकोण बनता है। परिवार कुलपरंपरा का, कौशलपरंपरा का, व्यवसायपरंपरा का, वंशपरंपरा का वाहक है। परिवार समाजव्यवस्था की मूल इकाई है। परिवार में ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम और वानप्रस्थाश्रम व्यतीत होते हैं। समाजधारणा के लिये आवश्यक ऐसे दान, यज्ञ, सेवा, शुश्रूषा, परिचर्या आदि परिवार में ही सीखे जाते हैं और वहीं इनका निर्वहण भी होता है। इस परिवारव्यवस्था एवं परिवारभावना को सुदृढ बनाने से ही समाज भी सुदृढ, सुखी और समृद्ध होगा। इस दृष्टि से परिवारशिक्षा की व्यवस्था करना तीसरा चरण होगा।
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'''४. चौथा चरण शिक्षकनिर्माण'''
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===== '''४. चौथा चरण शिक्षकनिर्माण''' =====
 
   
जब समाज ठीक होता है और परिवार सुदृढ होता है तभी प्रत्यक्ष विद्याकेन्द्र भी ठीक चलते हैं। अध्ययन अनुसन्धान का कार्य करने वाले विद्याकेन्द्र तो योजना का प्रथम चरण है, परन्तु बाल, किशोर, तरुण के लिये विद्यालय चलाने के लिये समर्थ शिक्षकों की आवश्यकता रहती है। जब तक दायित्वबोधयुक्त और ज्ञानसम्पन्न शिक्षक नहीं होते तब तक भारतीय शिक्षा देने वाले विद्याकेन्द्र नहीं चल सकते। इसलिये सुयोग्य शिक्षक निर्माण करना यह योजना का चौथा चरण होगा।
 
जब समाज ठीक होता है और परिवार सुदृढ होता है तभी प्रत्यक्ष विद्याकेन्द्र भी ठीक चलते हैं। अध्ययन अनुसन्धान का कार्य करने वाले विद्याकेन्द्र तो योजना का प्रथम चरण है, परन्तु बाल, किशोर, तरुण के लिये विद्यालय चलाने के लिये समर्थ शिक्षकों की आवश्यकता रहती है। जब तक दायित्वबोधयुक्त और ज्ञानसम्पन्न शिक्षक नहीं होते तब तक भारतीय शिक्षा देने वाले विद्याकेन्द्र नहीं चल सकते। इसलिये सुयोग्य शिक्षक निर्माण करना यह योजना का चौथा चरण होगा।
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'''५. पाँचवाँ चरण विद्यालयों की स्थापना'''
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===== '''५. पाँचवाँ चरण विद्यालयों की स्थापना''' =====
 
   
इतना सब कुछ होने के बाद विद्यालय चलाना सरल होगा जिसमें पूर्ण रूप से भारतीय स्वरूप की ही शिक्षा दी जा सकेगी। इसलिये देशभर में ये शिक्षक विद्यालय चलायेंगे।
 
इतना सब कुछ होने के बाद विद्यालय चलाना सरल होगा जिसमें पूर्ण रूप से भारतीय स्वरूप की ही शिक्षा दी जा सकेगी। इसलिये देशभर में ये शिक्षक विद्यालय चलायेंगे।
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इस प्रकार यदि योजना बनाकर चरणबद्ध रीति से अविरत कार्य किया जाय तो साठ वर्षों की अवधि में भारत की शिक्षा में अपेक्षित परिवर्तन अवश्यमेव होगा ऐसा हम विश्वास के साथ कह सकते हैं।
 
इस प्रकार यदि योजना बनाकर चरणबद्ध रीति से अविरत कार्य किया जाय तो साठ वर्षों की अवधि में भारत की शिक्षा में अपेक्षित परिवर्तन अवश्यमेव होगा ऐसा हम विश्वास के साथ कह सकते हैं।
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'''१०. धर्मतंत्र, समाजतंत्र और राज्यतंत्र का शिक्षा के साथ समायोजन'''  
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==== '''१०. धर्मतंत्र, समाजतंत्र और राज्यतंत्र का शिक्षा के साथ समायोजन''' ====
 
   
शिक्षा की व्यवस्था समाजधारणा के लिये होती है। शिक्षा मनुष्य को इस लायक बनाती है कि वह अपनी सभी क्षमताओं का विकास करे और उन सभी क्षमताओं का विनियोग परिवार से लेकर सम्पूर्ण विश्व के मानव समाज को
 
शिक्षा की व्यवस्था समाजधारणा के लिये होती है। शिक्षा मनुष्य को इस लायक बनाती है कि वह अपनी सभी क्षमताओं का विकास करे और उन सभी क्षमताओं का विनियोग परिवार से लेकर सम्पूर्ण विश्व के मानव समाज को
  
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