Line 280: |
Line 280: |
| ऐसी तो अनेक बातें हैं जो हमारी दिनचर्या और जीवनचर्या का अंग बन गई है। इन्हें बदले बिना अथवा दूर किये बिना हमारे शरीर स्वास्थ्यलाभ नहीं कर सकते हैं । शरीर ही अस्वस्थ है तो मन, बुद्धि, चित्त आदि का स्वास्थ्य भी संकट में पड जाता है । इसलिये समझदार प्रजा को शरीरस्वास्थ्य की चिन्ता समझदारी पूर्वक करनी चाहिये । | | ऐसी तो अनेक बातें हैं जो हमारी दिनचर्या और जीवनचर्या का अंग बन गई है। इन्हें बदले बिना अथवा दूर किये बिना हमारे शरीर स्वास्थ्यलाभ नहीं कर सकते हैं । शरीर ही अस्वस्थ है तो मन, बुद्धि, चित्त आदि का स्वास्थ्य भी संकट में पड जाता है । इसलिये समझदार प्रजा को शरीरस्वास्थ्य की चिन्ता समझदारी पूर्वक करनी चाहिये । |
| | | |
− | प्रश्न १८ विश्व के समस्त वर्तमान विश्वविद्यालय विश्व के समस्त संकटों के उद्गमस्थान हैं । क्या आप इससे | + | ==== प्रश्न १८ विश्व के समस्त वर्तमान विश्वविद्यालय विश्व के समस्त संकटों के उद्गमस्थान हैं । क्या आप इससे सहमत हैं ? कैसे ? ==== |
| + | उत्तर |
| + | # यह एक आत्यन्तिक कथन है । विद्याकेन्द्रों में ज्ञान प्राप्त होता है, व्यक्ति बुद्धिमान बनता है, उसका विकास होता है । विद्याकेन्द्र संकटों के निवारण के लिये होता है, वह संकटों को जन्म देने वाला कैसे हो सकता है ? |
| + | # विश्वविद्यालयों में ज्ञान मिलता है तभी तो ज्ञानविज्ञान के क्षेत्र में विश्व इतनी प्रगति कर सकता है। विश्वविद्यालय नहीं होंगे तो यन्त्रों की खोज, रोगों की चिकित्सा, व्यापार, हिसाबकिताब कैसे हो सकेगा ? लोगों को नौकरी कैसे मिलेगी ? विश्वविद्यालय संकटों का निवारण करनेवाले होते हैं । उनको बढाने वाले नहीं । |
| + | # विश्वविद्यालय भगवानने नहीं बनाये हैं। मनुष्य ने बनाये हैं। यदि वे संकट ही निर्माण करते हैं तो मनुष्य उन्हें बनायेगा ही नहीं । कोई अपने ही हाथों संकट कैसे मोल ले सकता है ? |
| + | # आप कदाचित संस्कारहीन शिक्षा की बात करते हैं। यह बात सही है कि आज की शिक्षा मनुष्य को अच्छा बनाने में, उसका चरित्र बनाने में विफल रही है। उसका यह उद्देश्य ही नहीं रह गया है। इस अर्थ में विश्वविद्यालय संस्कारहीन व्यक्तियों का निर्माण कर रहे हैं। इसलिये संकट पैदा हो रहे हैं। परन्तु संस्कार हीनता के लिये क्या विश्वविद्यालयों को दोष देना उचित है, या राजनीति और आर्थिक क्षेत्र का भ्रष्टाचार भी उतना ही दोषी है ? |
| + | # मैं अपकी बात से सहमत हूँ। विश्वविद्यालयों में धर्म और संस्कृति की शिक्षा होनी ही चाहिये । चरित्र निर्माण की शिक्षा होनी ही चाहिये । देशभक्ति और सामाजिक दायित्वबोध की शिक्षा होनी ही चाहिये । केवल विज्ञान, तन्त्रज्ञान, संगणक, मैनेजमेण्ट की शिक्षा पर्याप्त नहीं है । विश्वविद्यालयों की शिक्षा में बहुत सुधार होने की आवश्यकता है । परन्तु मैं उन्हें संकटों की जड नहीं कहूँगा । उनकी कमियाँ दूर करनी चाहिये इतना ही कहूँगा। |
| + | <nowiki>******************</nowiki> |
| + | |
| + | इन सब अभिप्रायों में एक बात छूट जाती है। समस्या संस्कारहीनता की नहीं, विपरीत ज्ञान की है। ज्ञान मुक्ति दिलाता है, विपरीत ज्ञान संकट पैदा करता है । वर्तमान विश्वविद्यालय समस्या इसलिये बने हैं कि वे विपरीत ज्ञान देते हैं। इनमें पढाये जाने वाले विषयों के आधारभूत सिद्धान्त विषमता निर्माण करने वाले हैं। विपरीत ज्ञान का मुद्दा न समझने के कारण हम धर्म और संस्कृति के विषय तो पढाते हैं परन्तु अर्थशास्त्र, तन्त्रज्ञान आदि विषयों को उनसे अलग रखते हैं । इस स्थिति में हम धर्म और संस्कृति के बारे में जानकारी देते हैं, अर्थशास्त्र, विज्ञान, मैनेजमेण्ट आदि का आधार धर्म और संस्कृति होना चाहिये इसे भूल जाते हैं। इस स्थिति में धर्म और संस्कृति जानकारी प्राप्त करने के विषय रह जाते हैं. आचरण के विषय नहीं बनते, व्यापार धर्म के आधार पर चलना चाहिये ऐसी समझ विकसित नहीं होती। हम समझ नहीं पाते कि तन्त्रज्ञान यह सामाजिक विषय है। हम इस बात को नहीं समझ पाते हैं कि भौतिक विज्ञान के ज्ञान से यन्त्र केवल बनते हैं, उनके उपयोग की व्यवस्था तो समाजशास्त्रीय ज्ञान से होती है । यदि समाजशास्त्र विपरीत है तो तन्त्रज्ञान भी विपरीत होगा। |
| + | |
| + | वर्तमान विश्वविद्यालय भौतिकवादी. जडवादी दृष्टि से अध्ययन के समस्त विषयों की रचना और योजना करते हैं। वे मनुष्य को और समाज को अधिक से अधिक भौतिकवादी बनाने का ही काम करते हैं । इस की दृष्टि जडवादी है, तन्त्रज्ञान राक्षसी है, अर्थशास्त्र शोषण और विनाश का कारण है, मैनेजमेन्ट शोषण और विनाश की कला सिखाता है। विज्ञान आतंकवादियों के हाथ में संहारकशस्त्र देता है । संक्षेप में कहें तो वर्तमान विश्वविद्यालय शिक्षा की ऐसी योजना कर रहे हैं जो कुछ गिनेचुने लोगों और एक दो राष्ट्रों को तत्काल अथवा अल्पकाल के लिये तो सुख और समृद्धि देती है परन्तु समूची मानवजाति को और सृष्टि को चिरकाल तक दुःख देती है। यह ऐसी योजना है जो सुख के स्रोतों को नष्ट कर सुख की कल्पना करती है। विश्वविद्यालय चाहें तो अपना स्वरूप बदल कर चिरन्तर सुख, शान्ति और समृद्धि का स्रोत भी बन सकते हैं । जो कथन है वह वर्तमान विश्वविद्यालयों के लिये है, सही ज्ञानेकन्द्रों के लिये नहीं । |
| | | |
| ==References== | | ==References== |