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आतंकवाद केवल भारत में ही है ऐसा नहीं है। वह एक वैश्विक संकट है। इस्लामिक आतंकवाद इसका एक प्रमुख अंग है। इसका मूल मजहबी कट्टरवाद है । यह सेमेटिक मजहबों की मूल धारणा से उद्भूत संकट है। धारणा यह है कि हमारा मजहब ही सही है, अन्य सारे मजहब नापाक हैं । जो नापाक मजहब है उसे जीवित रहने का अधिकार नहीं है। उन्हें समाप्त कर देना चाहिये । जो गैरमजहबी है उसे समाप्त कर देना हमारा पवित्र कर्तव्य है, उससे पुण्य मिलेगा और जन्नत में स्थान मिलेगा। जन्नत में अनेक अप्रतिम भोगविलास के साधन होंगे। अधिकांश पढे लिखे शिक्षित आतंकवादी जन्नत के भोगविलासों के आकर्षण से प्रेरित होकर आतंकी गतिविधियों में लगे रहते हैं। नापाक लोगों को या तो हमारे मजहब का स्वीकार करना चाहिये । ये मजहब सहअस्तित्व में विश्वास नहीं करते ।
 
आतंकवाद केवल भारत में ही है ऐसा नहीं है। वह एक वैश्विक संकट है। इस्लामिक आतंकवाद इसका एक प्रमुख अंग है। इसका मूल मजहबी कट्टरवाद है । यह सेमेटिक मजहबों की मूल धारणा से उद्भूत संकट है। धारणा यह है कि हमारा मजहब ही सही है, अन्य सारे मजहब नापाक हैं । जो नापाक मजहब है उसे जीवित रहने का अधिकार नहीं है। उन्हें समाप्त कर देना चाहिये । जो गैरमजहबी है उसे समाप्त कर देना हमारा पवित्र कर्तव्य है, उससे पुण्य मिलेगा और जन्नत में स्थान मिलेगा। जन्नत में अनेक अप्रतिम भोगविलास के साधन होंगे। अधिकांश पढे लिखे शिक्षित आतंकवादी जन्नत के भोगविलासों के आकर्षण से प्रेरित होकर आतंकी गतिविधियों में लगे रहते हैं। नापाक लोगों को या तो हमारे मजहब का स्वीकार करना चाहिये । ये मजहब सहअस्तित्व में विश्वास नहीं करते ।
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सहअस्तित्व में नहीं मानने वाले इसाई भी है, साम्यवादी भी हैं । साम्यवाद का तो सिद्धान्त ही विनाशवादी है । हम उत्तम अर्थवाले शब्दों को विनाश का पर्याय बना देते हैं। स्थापित व्यवस्था को तोड दो, उसके स्थान पर जिनको स्थापित व्यवस्था तोडने का पुण्य मिला है उन्हें स्थापित करो, और उसके स्थापित होते ही, चूँकि वह स्थापित है इसलिये उसे तोडों - ऐसा तोडफोडवादी सिद्धान्त भी आतंकवाद का ही लघुरूप है । सम्पूर्ण विश्व में विभिन्न स्वरूपों में आतंकवाद फैला हुआ
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सहअस्तित्व में नहीं मानने वाले इसाई भी है, साम्यवादी भी हैं । साम्यवाद का तो सिद्धान्त ही विनाशवादी है । हम उत्तम अर्थवाले शब्दों को विनाश का पर्याय बना देते हैं। स्थापित व्यवस्था को तोड दो, उसके स्थान पर जिनको स्थापित व्यवस्था तोडने का पुण्य मिला है उन्हें स्थापित करो, और उसके स्थापित होते ही, चूँकि वह स्थापित है इसलिये उसे तोडों - ऐसा तोडफोडवादी सिद्धान्त भी आतंकवाद का ही लघुरूप है । सम्पूर्ण विश्व में विभिन्न स्वरूपों में आतंकवाद फैला हुआ है। जब सहअस्तित्व में नहीं माननेवाले मजहबों का संघर्ष होता है तब वह और भी भीषण होता है। । इसाइयत और इस्लाम का संघर्ष ऐसा ही है । इस्लाम के अलग अलग खेमे भी आपस में संघर्षरत हैं । साम्यवाद तो जो कुछ भी ठीक चलता है उसके विरुद्ध संघर्षरत है । यह संघर्ष ही इन सब का परमधर्म है, जीवनकार्य है।
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आतंकवाद के भारत के साथ संघर्ष का रूप विशिष्ट है । भारत सहअस्तित्व में माननेवाला राष्ट्र है जबकि आतंकवादी सहअस्तित्व में नहीं मानते हैं। यदि भारत भी सहअस्तित्व में नहीं माननेवाला देश होता तो संघर्ष का रूप भिन्न होता । सहअस्तित्व में न केवल माननेवाला अपितु उसका आदर करनेवाला राष्ट्र सहअस्तित्व में नहीं माननेवाले और विनाश पर उतारू खेमों के साथ कैसा व्यवहार करे इसका ज्ञानात्मक, राजनयिक और सामरिक विचार करने की और उसके आधार पर रणनीति और व्यूहरचना बनाने की आवश्यकता है। ज्ञानात्मक दृष्टि से समस्या को समझना, राजनयिक दृष्टि से व्यूहरचना करना और सामरिक दृष्टि से कृति करना ही आतंकवाद को समाप्त करने का सही मार्ग होगा । चाणक्य जैसे नीतिज्ञ तो यही कहेंगे।
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==== प्रश्न ११ भारत में विश्वगुरु बनने की क्या योग्यता है ? ====
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उत्तर
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# आज का भारत विश्वगुरु बनने का न तो दावा कर सकता है न इच्छा । यदि करता है तो वह हास्यास्पद होगा क्योंकि धन, ज्ञान, बल और सत्ता में से एक भी बात उसके पास नहीं है । मुझे तो लगता है कि भारत विश्वगुरु था यह भी एक कल्पना ही होनी चाहिये, वास्तविकता नहीं ।
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# मैं मानता हूँ कि भारत कभी विश्वगुरु रहा होगा । परन्तु प्रत्येक राष्ट्र के जीवन में चढाव और उतार आते ही हैं। आज भारत की स्थिति विपरीत हो गई है, उसने यूरोप के समक्ष अपनी पराजय को स्वीकार कर लिया है। वह पश्चिम के अधीन हो गया है, पश्चिम की बुद्धि से चल रहा है । आधुनिकता के नाम पर पश्चिमी शैली का स्वीकार कर लिया है। ऐसा भारत विश्वगरु कैसे बन सकता है ? फिर भी भारत में विश्वगुरु बनने की सम्भावना अवश्य है। ऐसा बनने के लिये भारत अपने आपको पश्चिम से श्रेष्ठ सिद्ध करे यह आवश्यक है।
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# विश्वगुरु बनने के लिये भारत को आधुनिक विश्व की शैली को अपनाकर उसमें ही पश्चिम से आगे निकलना होगा। भारत के लोगों को परमात्मा ने पश्चिम के लोगों से अधिक बुद्धि, कार्यकुशलता और मनोबल दिये हैं। ये सब दुर्लभ गुण हैं । इन गुणों का व्यवस्थित पद्धति से विकास किया जाय तो भारत देखते ही देखते विश्वगुरु बन सकता है।
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# भारत जब विश्वगुरु था तब विश्व के अन्य देश अविकसित थे। आज अब अन्य देश विकसित हो गये हैं। विकास का प्रतिमान बदल गया है। आज के प्रतिमान का जनक अमेरिका है। आज विश्वगुरु के स्थान के लायक अमेरिका नहीं तो और कौन हो सकता है ? भारत को विश्वगुरु बनने के लिये अमेरिका से स्पर्धा करनी होगी और उससे आगे निकलना होगा । मैं नहीं मानता कि भारत कम से कम सौ वर्ष तक विश्वगुरु बनने की कल्पना भी कर सकता है।
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इन अभिप्रायों का सार यह है कि भारत में विश्वगुरु बनने की योग्यता नहीं है। यह एक स्वीकृत तथ्य है कि आज अमेरिका नम्बर वन है और वह उस स्थान के योग्य है । तीसरा मुद्दा यह है कि पश्चिम को अपनाकर ही विश्वगुरु बना जा सकता है । यदि भारत पश्चिमी शैली अपनाता है तो विश्वगुरु बनने की सम्भावना बनती है।
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परन्तु विश्वगुरु बनना कोई खेल, उत्पादन, ज्ञान की परीक्षा में प्रथम क्रमांक से उत्तीर्ण होना नहीं है। भारत के मानने या कहने पर भारत विश्वगुरु नहीं बनेगा, विश्व जब भारत को गुरु मानेगा तब भारत विश्वगुरु बनेगा । विश्व के राष्ट्रों को पराजित कर भारत विश्वगुरु नहीं बन सकता, सबका आदर, श्रद्धा और विश्वास सम्पादन कर, सब के हृदयों को जीतकर भारत विश्वगुरु बन सकता है। एसा करने के लिये उसे किसी प्रकार की स्पर्धा में उतरने की आवश्यकता नहीं है। दूसरों की शैली अपनाकर उससे आगे निकलना यह तो दूसरे को स्पर्धा में परास्त करने के बराबर है। विश्वगुरु बनने का यह मार्ग नहीं है।
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विश्व की समस्याओं को दूर करने में सहायता करना, सही मार्ग का ज्ञान देना संकटों से मुक्त होना सिखाना, दूसरों की स्वतन्त्रता और सम्मान की रक्षा करना विश्वगुरु बनने की योग्यता है । इन सभी बातों में अपना उदाहरण प्रस्त करना एकमेव तरीका है।
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मनुस्मृतिकार ऐसे श्रेष्ठ चरित्र का वर्णन करते हुए कहते हैं । <blockquote>एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः । </blockquote><blockquote>स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्व मानवाः ।। </blockquote>अर्थात्
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इस देश में प्रथम क्रम में जन्मे लोगों से पृथ्वीतल के सर्व मानव अपने अपने चरित्र की शिक्षा ग्रहण करें ।
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इस प्रकार अपने उदाहरण से विश्व के सभी राष्ट्रों को अपनी जीवनशैली बदलने की जो प्रेरणा देता है, अपने चरित्र का विकास करने में जो सहायता और मार्गदर्शन प्रदान करता है वह विश्वगुरु बनता है।
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भारत में ऐसी सम्भावना अवश्य है परन्तु उसे अनेक प्रयत्नों से योग्यता अर्जित करनी होगी। सम्भावनायें वस्तुस्थिति तभी बनती हैं जब उसे तपश्चर्या और साधना का खादपानी मिलता है । भारत ऐसा करे ऐसी विश्व उससे अपेक्षा करता है।
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==== प्रश्न १२ विश्व में शिक्षाक्षेत्र की भूमिका क्या होनी चाहिये ? ====
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उत्तर :
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भारत में तो क्या सम्पूर्ण विश्व में शिक्षा की भूमिका एक साधन के रूप में ही होगी । वह जिसके हाथ में होगी वह अपने हित में उसका प्रयोग करेगा । कभी वह धनवानों का तो कभी सत्तावानों का साधन बनती है । बलवानों को शिक्षा की खास आवश्यकता नहीं होती, बल ही पर्याप्त होता है।
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धनवानों के हाथ में शिक्षा धन बढाने के और सत्तावानों को सत्ता स्थापित करने में सहायता करती है। अध्यापक और विद्यार्थी यह सब सिखाते और सीखते हैं और बदले में वेतन पाते हैं।
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परन्तु भारत का विचार अलग है। भारत के अनुसार शिक्षा ज्ञान की व्यवस्था है और धर्म सिखानेवाली है। वह सर्वत्र धर्म का साम्राज्य प्रस्थापित करने वाली है, अर्थ और सत्ता को भी धर्म के अविरोधी बनाने वाली है।
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शिक्षाक्षेत्र के लोगों के दो ही पद हैं, शिक्षक और विद्यार्थी, उनका प्रमुख कार्य है ज्ञानर्जन करना । परिस्थिति का, घटनाओं का, व्यक्तियों के या राष्ट्रों के व्यवहारों का आकलन करना और समस्याओं का ज्ञानात्मक हल खोजना । शिक्षक और विद्यार्थियों का कर्तव्य है कि वे प्रजाको ज्ञानवान बनायें, ज्ञान की पवित्रता और श्रेष्ठता की रक्षा करें और धर्म का अनुसरण करें । शिक्षक जगत को हित और सुख को पहचानना सिखाये और सुख की अपेक्षा हित के सम्पादन करने में उनकी सहायता करे, मार्गदर्शन दे।
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==== प्रश्न १३ कल्पना करें कि भारत के प्रधानमन्त्री विश्व के अन्यान्य देशों में कार्यरत भारतीय वैज्ञानिकों, प्राध्यापकों, डॉक्टरों, इन्जिनीयरों, मैनेजरों, संगणक निष्णातों को आवाहन कर कहते हैं कि भारत वापस आ जाओ, देश को आपकी आवश्यकता है, तो क्या होगा ? ====
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उत्तर
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(१) ऐसा यदि आवाहन करते हैं और वे सब भारत में वापस आ जाते हैं तो देश को बहुत लाभ होगा। देश का विकास होगा। प्रधानमन्त्री ने ऐसा आवाहन करना ही चाहिये ।
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(२) परन्तु यह सम्भव नहीं है । ऐसे उच्च श्रेणी के लोगों को काम दे सके, सुविधायें दे सके, उनकी कदर बूझ सके ऐसी क्षमता ही भारत में नहीं है । वे आयेंगे तो भी यहाँ का वातावरण और व्यवस्था देखकर वापस चले जायेंगे । प्रधानमन्त्री
    
==References==
 
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