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ख्रिस्ती धर्म का सच्चा रहस्य ख्रिस्त का बलिदान देकर क्षमा प्राप्त करने में नहीं परन्तु आत्मार्पण करने में ख्रिस्त का अनुकरण करने में है। और यह सत्य जो कम अधिक लोग देख सके हैं उनकी ही उन्नति होनी है यह स्पष्ट है। परन्तु अगर यह बात सबके गले उतर जाय तो फिर किसे किसके लिए आत्मार्पण करना ? दूसरे के पापों के लिए अपना बलिदान देने के दृष्टान्त हिन्दु आदर्श में एक नहीं अनेक हैं। हिन्दी प्रजा की दन्तकथाओं द्वारा सूचित मध्ययुग के हिन्द के इतिहास से यह जानकारी मिलती है कि राष्ट्र पर आये हुए संकट को टालने के लिए राष्ट्रलक्ष्मी का आदेश होते ही काली माता के चरणों में स्वयं का मस्तक चढानेवाले राजाओं, प्रधानों, सेनापतियों आदि की एक लम्बी शृंखला बनी हुई है। उनके प्रत्येक के नाम से एक एक धर्म की स्थापना नहीं हुई बस इतनी ही कमी रही है। समाज पर आया हुआ संकट ऐसे आत्मयज्ञों से तत्काल
 
ख्रिस्ती धर्म का सच्चा रहस्य ख्रिस्त का बलिदान देकर क्षमा प्राप्त करने में नहीं परन्तु आत्मार्पण करने में ख्रिस्त का अनुकरण करने में है। और यह सत्य जो कम अधिक लोग देख सके हैं उनकी ही उन्नति होनी है यह स्पष्ट है। परन्तु अगर यह बात सबके गले उतर जाय तो फिर किसे किसके लिए आत्मार्पण करना ? दूसरे के पापों के लिए अपना बलिदान देने के दृष्टान्त हिन्दु आदर्श में एक नहीं अनेक हैं। हिन्दी प्रजा की दन्तकथाओं द्वारा सूचित मध्ययुग के हिन्द के इतिहास से यह जानकारी मिलती है कि राष्ट्र पर आये हुए संकट को टालने के लिए राष्ट्रलक्ष्मी का आदेश होते ही काली माता के चरणों में स्वयं का मस्तक चढानेवाले राजाओं, प्रधानों, सेनापतियों आदि की एक लम्बी शृंखला बनी हुई है। उनके प्रत्येक के नाम से एक एक धर्म की स्थापना नहीं हुई बस इतनी ही कमी रही है। समाज पर आया हुआ संकट ऐसे आत्मयज्ञों से तत्काल
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टल जाता है यह पक्की बात है परन्तु उससे समाज की स्थिर एवं स्थायी उन्नति नहीं होती। अगर ऐसा नहीं होता तो भगवान तथागत ने लोगों को स्वावलम्बन से निर्मित अष्टांगिक मार्ग का उपदेश नहीं दिया होता।
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पुराने समय में हमारे यहाँ गाँव का कोई धनिक गृहस्थ परोपकार के लिए कुआँ खुदवाता तो गाँव के सत्त्वशील गृहस्थ उस कुएं का पानी नहीं पीते थे। वे कहते, 'इस प्रकार हम तुम्हें अपना सत्त्व लूटने नहीं देंगे।' गाँव के प्रत्येक मनुष्य की कमाई के अनुपात में अंशदान कर एक सार्वजनिक कुआँ बाँधना वे अधिक श्रेयस्कर मानते थे। समाजकार्य का अपने हिस्से आने वाला बोझ यदि हम नहीं उठा सकते तो हमारे सत्त्व का नाश होगा, अपने समाज के गले में भाररूप होकर पड़े रहने और हमारे कारण दगुने भार से दबे समाज को डुबाने में कारण बनने की भावना उस काल के लोगों में जाग्रत थी, आज के समाज व्यवस्थापकों के मन में जाग्रत नहीं हुई है। वर्तमानकाल के ताजे उदाहरण लूँगा तो जल्दी समझ में आयेगा कि प्रत्येक नागरिक अपने अधिकार और कर्तव्य के विषय में जाग्रत न रहने से कुछ व्यक्तियों को असाधारण भोग देने पड़ते हैं। देश का प्रत्येक व्यक्ति अगर धर्म और तेजस्विता की रक्षा करने हेतु तत्पर रहे तो अधिकारियों की जुल्म करने की वृत्ति ही न हो, अत्याचारी अत्याचार करने के मोह में ही न पड़े, और दूसरे अनेक लोगों को स्वार्थत्याग करने का जोश चढ़े यह बात बिल्कुल सच्ची है और महत्त्वपूर्ण है। मदद करने से पंगु लोग अधिक पंगु होंगे इस डर से यदि कोई स्वार्थत्याग नहीं करता है तो वह ठीक नहीं है। यहाँ तात्पर्य अपना आदर्श अथवा अपना ध्येय क्या होना चाहिए यही बताने का है, निश्चित ही प्रत्येक व्यक्ति की, समाज की अथवा राष्ट्र की आत्मोन्नति यह एक ही ध्येय हो सकता है। मात्र हमारे आसपास दैन्य और दुर्गति छाई हुई रहे तब उस निराशा को दूर करने के लिए भगीरथ प्रयत्न करके मर मिटने के बिना सच्ची आत्मोन्नति हो नहीं सकती, यह बात ध्यान में रखेंगे तो पर्याप्त है।
    
==References==
 
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