Changes

Jump to navigation Jump to search
Line 45: Line 45:  
समाजसेवा में मेरा मोक्ष होना है ऐसा मानना अर्थात् पहले तो समाज की सेवा करने का मुझे अवसर मिलना चाहिए और ऐसा अवसर मुझे मिले इसके लिए समाज सदैव पांगला ही रहना चाहिए यह सिद्ध होता है। परन्तु कम या अधिक लोगों की अपंग दशा पर मेरे मोक्ष का आधार रहे यह स्थिति ईष्ट भी नहीं और युक्तिपूर्ण भी नहीं। और समाज की सेवा करके उसका पंगुपना कुछ अंशों में दूर करना हो तो भी समाज हित सदैव सामने रहता है, इसका मुझे पूरापूरा भान होना चाहिए। और भार उठाने से समाज का भला ही होने वाला है, बुरा नहीं होगा ऐसी दृढ श्रद्धा भी होनी चाहिए। अर्थात् हो या न हो परन्तु अधिकांश युरोपीयन समाजसेवकों में यह श्रद्धा होती है। इसीलिए वे अपना काम इतने उत्साह से करते हैं और उनके काम के अनुपात में कमअधिक लोग अधिक सुखी हुए दिखाई देते हैं। परन्तु व्यापक दृष्टि से देखने वाले को कुलमिलाकर समाज की उन्नति होने के कुछ भी लक्षण दिखाई नहीं देते। युरोप में सारा काम व्यवस्थित होता है। समाज सेवा का और परोपकार का काम भी इतना व्यवस्थित हुआ है कि अनेक का तो यह एक धंधा ही बन गया है।  
 
समाजसेवा में मेरा मोक्ष होना है ऐसा मानना अर्थात् पहले तो समाज की सेवा करने का मुझे अवसर मिलना चाहिए और ऐसा अवसर मुझे मिले इसके लिए समाज सदैव पांगला ही रहना चाहिए यह सिद्ध होता है। परन्तु कम या अधिक लोगों की अपंग दशा पर मेरे मोक्ष का आधार रहे यह स्थिति ईष्ट भी नहीं और युक्तिपूर्ण भी नहीं। और समाज की सेवा करके उसका पंगुपना कुछ अंशों में दूर करना हो तो भी समाज हित सदैव सामने रहता है, इसका मुझे पूरापूरा भान होना चाहिए। और भार उठाने से समाज का भला ही होने वाला है, बुरा नहीं होगा ऐसी दृढ श्रद्धा भी होनी चाहिए। अर्थात् हो या न हो परन्तु अधिकांश युरोपीयन समाजसेवकों में यह श्रद्धा होती है। इसीलिए वे अपना काम इतने उत्साह से करते हैं और उनके काम के अनुपात में कमअधिक लोग अधिक सुखी हुए दिखाई देते हैं। परन्तु व्यापक दृष्टि से देखने वाले को कुलमिलाकर समाज की उन्नति होने के कुछ भी लक्षण दिखाई नहीं देते। युरोप में सारा काम व्यवस्थित होता है। समाज सेवा का और परोपकार का काम भी इतना व्यवस्थित हुआ है कि अनेक का तो यह एक धंधा ही बन गया है।  
   −
हमारी प्राचीन कल्पना के आधार पर परोपकार करने में जितना पुण्य मिलता है उतनी ही दूसरों की सेवा लेने में सत्त्वहानि होती है। शेक्सपियर का 'मर्चेन्ट ऑफ वेनिस' पढ़ते समय एक कठिनाई आई। 'Mercy is twice blessed; It blesseth him that gives' यहाँ तक तो गाड़ी सीधी चली परन्तु and him that takes' का पहाड़ कूद पड़ना सरल नहीं रहा, कारण मदद लेने से गरज मिटती है। परन्तु गरज के साथ साथ सत्त्व भी मिटता है यह कल्पना हमारे जीवन के साथ बनाई हुई है। फिर कठिनाई में किसीकी मदद करना वह एक बात है और मुसीबत के मारे को मदद करने का धन्धा बना लेना यह दूसरी बात है। समाज सेवा का नौकरीपेशा वाला वर्ग जब खड़ा हुआ तब ऐसी मदद पर ही पेट भरने वालों का एक वर्ग खड़ा होना स्वाभाविक ही है। और इस वर्ग में सत्त्व और पराक्रम के नाम पर भीरू होते हैं, यह सिद्ध करके बताने की कोई आवश्यकता नहीं। आजकल की सामाजिक हलचल का सूक्ष्म निरीक्षण करने वाले को इसका कटु अनुभव है ही। पुराने लोगों को भी यजमान के पास सफेद को काला बनाने वाले अनपढ़ भटभिक्षुक की श्वानवृत्ति देखकर उपर्युक्त कथन की यथार्थता सहज ही ध्यान में आ जायेगी। हम कॉलेज में पढ़ते थे तब हमारे अर्थशास्त्र के अध्यापक एक बात कहा
+
हमारी प्राचीन कल्पना के आधार पर परोपकार करने में जितना पुण्य मिलता है उतनी ही दूसरों की सेवा लेने में सत्त्वहानि होती है। शेक्सपियर का 'मर्चेन्ट ऑफ वेनिस' पढ़ते समय एक कठिनाई आई। 'Mercy is twice blessed; It blesseth him that gives' यहाँ तक तो गाड़ी सीधी चली परन्तु and him that takes' का पहाड़ कूद पड़ना सरल नहीं रहा, कारण मदद लेने से गरज मिटती है। परन्तु गरज के साथ साथ सत्त्व भी मिटता है यह कल्पना हमारे जीवन के साथ बनाई हुई है। फिर कठिनाई में किसीकी मदद करना वह एक बात है और मुसीबत के मारे को मदद करने का धन्धा बना लेना यह दूसरी बात है। समाज सेवा का नौकरीपेशा वाला वर्ग जब खड़ा हुआ तब ऐसी मदद पर ही पेट भरने वालों का एक वर्ग खड़ा होना स्वाभाविक ही है। और इस वर्ग में सत्त्व और पराक्रम के नाम पर भीरू होते हैं, यह सिद्ध करके बताने की कोई आवश्यकता नहीं। आजकल की सामाजिक हलचल का सूक्ष्म निरीक्षण करने वाले को इसका कटु अनुभव है ही। पुराने लोगों को भी यजमान के पास सफेद को काला बनाने वाले अनपढ़ भटभिक्षुक की श्वानवृत्ति देखकर उपर्युक्त कथन की यथार्थता सहज ही ध्यान में आ जायेगी। हम कॉलेज में पढ़ते थे तब हमारे अर्थशास्त्र के अध्यापक एक बात कहा करते थे कि आज की समाज व्यवस्था ऐसी है कि गरीब लोग और अधिक गरीब होते जा रहे हैं और अमीर अधिक से अधिक अमीर होते जा रहे हैं।
 +
 
 +
नीतिवादी अर्थशास्त्री कहते हैं कि इन सभी दुःखो का कारण श्रम विभाग है। स्वावलम्बन समाप्त होकर परस्परावलम्बन आ जाय तो यही परिणाम आता है। सम्पत्ति को जो तत्त्व लागू होते हैं वे ही तत्त्व सत्त्व को भी लागू होते हैं। समाजसेवा करने के लिए सर्वस्व अर्पण करनेवाले का सत्त्व बढ़ता है, इसमें तनिक भी शंका नहीं है। परन्तु साथ ही साथ ऐसे सत्पुरुष की एहिक सम्पत्ति पर अपना गुजारा करनेवाले का सत्त्व निर्मूल हो जाता है, यह नहीं भूलना चाहिए। यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं कि समाज सेवा के मार्ग पर जाने वाला मनुष्य जब स्वर्ग का अधिकारी बनता है, तब उसके सामने ऐसे मनुष्य के दान पर ही अपनी जिन्दगी गुजारने वाला मनुष्य नरक में जाता है। ख्रिस्ती धर्म के मूल में ही इस श्रमविभाग का तत्त्व ही निहीत है। प्रभु इशु ने सम्पूर्ण मानव जाति का पाप स्वयं के माथे ओढ़कर अपना बलिदान किया इसीलिए जितने श्रद्धावान लोग थे, वे सभी पाप मुक्त हो गये।
 +
 
 +
ख्रिस्ती धर्म का सच्चा रहस्य ख्रिस्त का बलिदान देकर क्षमा प्राप्त करने में नहीं परन्तु आत्मार्पण करने में ख्रिस्त का अनुकरण करने में है। और यह सत्य जो कम अधिक लोग देख सके हैं उनकी ही उन्नति होनी है यह स्पष्ट है। परन्तु अगर यह बात सबके गले उतर जाय तो फिर किसे किसके लिए आत्मार्पण करना ? दूसरे के पापों के लिए अपना बलिदान देने के दृष्टान्त हिन्दु आदर्श में एक नहीं अनेक हैं। हिन्दी प्रजा की दन्तकथाओं द्वारा सूचित मध्ययुग के हिन्द के इतिहास से यह जानकारी मिलती है कि राष्ट्र पर आये हुए संकट को टालने के लिए राष्ट्रलक्ष्मी का आदेश होते ही काली माता के चरणों में स्वयं का मस्तक चढानेवाले राजाओं, प्रधानों, सेनापतियों आदि की एक लम्बी शृंखला बनी हुई है। उनके प्रत्येक के नाम से एक एक धर्म की स्थापना नहीं हुई बस इतनी ही कमी रही है। समाज पर आया हुआ संकट ऐसे आत्मयज्ञों से तत्काल
    
==References==
 
==References==
1,815

edits

Navigation menu