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विशेष बात यह है कि इन दोनों के लिये भारत में धर्मान्तरण बहुत कठिन सिद्ध हो रहा है। दोनों के तरीके उनके स्वभाव के अनुरूप अलग अलग हैं, परन्तु प्रयास आज भी हो रहे हैं । इस्लाम प्रकट हिंसा, जोरतलबी और आतंकवाद का सहारा लेता है जबकि इसाइयत लोभ, लालच, चिकित्सा, छल आदि का । भारत में वनवासी, दलित, पिछडे कहे जाने वाले लोगों में 'सेवा' के माध्यम से तो अमीर, नगरवासी, शिक्षित लोगों में 'शिक्षा' के माध्यम से निधार्मिकता फैलाने के प्रायस होते हैं । एक का स्वरूप भौतिक है, दूसरे का मानसिक । परन्तु इतने शतकों से प्रयास चलते रहने के बाद भी अभी भारत पूर्ण रूप से धर्मान्तरित नहीं हुआ है । यही भारत की शक्ति है और विश्व की आशा।
 
विशेष बात यह है कि इन दोनों के लिये भारत में धर्मान्तरण बहुत कठिन सिद्ध हो रहा है। दोनों के तरीके उनके स्वभाव के अनुरूप अलग अलग हैं, परन्तु प्रयास आज भी हो रहे हैं । इस्लाम प्रकट हिंसा, जोरतलबी और आतंकवाद का सहारा लेता है जबकि इसाइयत लोभ, लालच, चिकित्सा, छल आदि का । भारत में वनवासी, दलित, पिछडे कहे जाने वाले लोगों में 'सेवा' के माध्यम से तो अमीर, नगरवासी, शिक्षित लोगों में 'शिक्षा' के माध्यम से निधार्मिकता फैलाने के प्रायस होते हैं । एक का स्वरूप भौतिक है, दूसरे का मानसिक । परन्तु इतने शतकों से प्रयास चलते रहने के बाद भी अभी भारत पूर्ण रूप से धर्मान्तरित नहीं हुआ है । यही भारत की शक्ति है और विश्व की आशा।
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क्या अपने सम्प्रदाय का प्रचार गलत है ? नहीं, गलत नहीं है। यदि कोई श्रद्दा और विश्वासपूर्वक, विवेकपूर्वक, आस्थापूर्वक, किसी भी सम्प्रदाय का स्वीकार करना चाहता है, या कोई किसी को किसी भी सम्प्रदाय का स्वीकार करने के लिये प्रेरित करता है तो उसमें कोई बुराई नहीं है। इन तत्त्वों के आधार पर अपने सम्प्रदाय को फैलाने की स्वतन्त्रता भी सबको है। परन्तु अन्य सम्प्रदायों की निन्दा करना, उन सम्प्रदाय का पालन करने वालों को परेशन करना, उनके साथ छल करना बुरा है । उसे अपराध ही मानना चाहिये । उसी प्रकार बिना इस प्रकार के ठोस कारणों के अपना सम्प्रदाय छोडना भी नहीं चाहिये । विश्व में अशान्ति और अस्थिरता के लिये जबरदस्ती या टेढे मार्गों से होने वाला धर्मान्तरण भी बडी मात्रा में कारणरूप है।
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सहअस्तित्व को नहीं मानना ही साम्प्रदायिक कट्टरता का कारण है। प्रत्यक्ष रूप से दूसरों को जीने की मनाही नहीं की जा सकती, जीने से रोका नहीं जा सकता, प्रत्यक्ष उन्हें मारा भी नहीं जा सकता तथापि अन्तःकरण की इच्छा तो यही रहती है । इसलिये पहला चरण होता है स्वतन्त्रता और समानता के स्तर पर किसी का स्वीकार नहीं करना । दूसरे का आदर नहीं करना, सेवा भी करना तो उपकार के भाव से, कुछ देना भी तो विवशता से अथवा कोई स्वार्थी हेतु मन में रखकर । मौका मिलने पर उसे लूटना, मारना और समाप्त करना । इस सहअस्तित्व को नकारने वालों की समाजव्यवस्था भी वैसी ही होती है । उनके न्याय के, सत्य के, उदारता के मापदण्ड अपने और परायों के लिये अलग होते हैं । विश्वव्यवस्था में ऐसा कभी चलता नहीं ।
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ऐसे दोहरे मापदण्ड वाले लोग विज्ञान को मानते नहीं है। इस कारण से उनका विज्ञान के साथ विरोध होता है। तात्पर्य यह है कि विज्ञान को नहीं मानने वाली, न्यायनीति के वैश्विक मापदण्डों को नहीं माननेवाली, विश्व के सहअस्तित्व के सिद्धान्त को नहीं माननेवाली, स्वतन्त्रता और समानता के सिद्धान्त को नहीं मानने वाली साम्प्रदायिक कट्टरता को नकारना चाहिये और उसे नकारने का सामर्थ्य भारत को प्राप्त करना चाहिये।
    
==References==
 
==References==
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