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Adding content ग्रंथमाला ५ →‎अध्याय २३
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इस विद्याशाखा को 'कल्चरल स्टडीझ' नाम देने के पीछे एक विशेष सैद्धांतिक कारण है ।महाविद्यालयीन विद्यार्थियों में, युवकों में साम्यवादी विचारों की लोकप्रियता बढाने का अवसर समविचारी प्राध्यापकों को देने वाली विद्याशाखा का नाम 'कल्चरल अर्थात 'सांस्कृतिक रखने का कारण समज लेना अत्यंत आवश्यक है । विश्व की सभी सभ्यताओं के एवं देशों के सामाजिक और सांस्कृतिक तथ्यों का अध्ययन करने वाले पारंपरिक सामाजिक शास्त्र याने 'समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, मानववंश शास्त्र, इतिहास और राज्यशास्त्र'। इन सभी विद्याशाखाओं के अंतर्गत सामान्यतः किये गये १५०० जितने सामाजिक अनुसंधानों में पाश्चात्य बुद्धिजीवियों का तथा 'क्लासिकल मार्क्सिझम, का वर्चस्व रहा था । सभी सामाजिक, राजकीय सिद्धांतों को शास्त्रीय स्वरूप के मार्क्सवाद का आधार था । एकांगी स्वरूप के 'पूंजीवादी औद्योगिकता'के तर्क के आधार पर संपूर्ण विश्व में रहे 'वैविध्यपूर्ण सामाजिक और सांस्कृतिक तथ्यों का अध्ययन एवं अनुसंधान ऐसा इन विचारों का स्वरूप होने के परिणाम स्वरूप 'मार्क्सप्रणीत विचारों की अपरिहार्यता निर्माण हुई और वैचारिक अभिसरण की प्रक्रिया में स्थिरता आई । परिणामतः जाने अनजाने 'उदारवाद'का पुरस्कार करनेवाला मार्क्सवाद कालांतर में 'सैद्धांतिक साँचे में अटक जाने के कारण संकुचित हो गया और वैश्विक स्तर पर की भिन्न संस्कृति, और समाज के वास्तविक आकलन की प्रक्रिया में कालबाह्य सिद्ध होने लगा । मार्क्सवाद की अपरिहार्यता से कालबाह्यता तक की उसकी यात्रा की परिणति उसके समाप्त होने में न हो इस लिये तथा उसकी उपयोगिता कायम रखने के लिये उसे कालानुरूप, समाज, स्थान, व्यक्ति, समूह, और देश काल सापेक्ष बनाकर एक ऐसी विद्याशाखा में मार्क्सवाद का समावेश किया गया जो कि मार्क्सवाद के प्रति संपूर्ण निष्ठा, केवल अनुनय की 'सापेक्षता'की पद्धति से कार्य करने का अवसर देगी । जिस में बाह्य रूप से तो 'वैचारिक सापेक्षता अथवा उदारता का स्वीकार हुआ होगा परंतु मूल साम्यवादी रचना अबाधित ही रहेगी । इस प्रकार का उपर से शैक्षिक परंतु वास्तव में राजकीय कार्य करना केवल शिक्षा के, प्रबोधन के माध्यम से ही हो सकता है, वही परिणामकारक है यही बात सामने रखकर इस विद्याशाखा का जन्म हुआ । पूर्व प्रस्थापित सामाजिक शास्त्रों के एकांगी और प्रवंचक 'वस्तुनिष्ठ'वैचारिकता के परिणामहीन होने से साम्यवाद की जो हानि हुई थी उसकी भरपाई करने के लिये 'नये पर्याय'का निर्माण कर वैकल्पिक राजकीय सत्ता की राजनीति में सहभागी होने के उद्देश्य से पूरक सामाजिक परिस्थिति अनिवार्य होने से, उसे सहज स्वीकार्य ऐसा नाम कल्चरल स्टडीझ' (सांस्कृतिक अध्ययन') दिया गया ।
 
इस विद्याशाखा को 'कल्चरल स्टडीझ' नाम देने के पीछे एक विशेष सैद्धांतिक कारण है ।महाविद्यालयीन विद्यार्थियों में, युवकों में साम्यवादी विचारों की लोकप्रियता बढाने का अवसर समविचारी प्राध्यापकों को देने वाली विद्याशाखा का नाम 'कल्चरल अर्थात 'सांस्कृतिक रखने का कारण समज लेना अत्यंत आवश्यक है । विश्व की सभी सभ्यताओं के एवं देशों के सामाजिक और सांस्कृतिक तथ्यों का अध्ययन करने वाले पारंपरिक सामाजिक शास्त्र याने 'समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, मानववंश शास्त्र, इतिहास और राज्यशास्त्र'। इन सभी विद्याशाखाओं के अंतर्गत सामान्यतः किये गये १५०० जितने सामाजिक अनुसंधानों में पाश्चात्य बुद्धिजीवियों का तथा 'क्लासिकल मार्क्सिझम, का वर्चस्व रहा था । सभी सामाजिक, राजकीय सिद्धांतों को शास्त्रीय स्वरूप के मार्क्सवाद का आधार था । एकांगी स्वरूप के 'पूंजीवादी औद्योगिकता'के तर्क के आधार पर संपूर्ण विश्व में रहे 'वैविध्यपूर्ण सामाजिक और सांस्कृतिक तथ्यों का अध्ययन एवं अनुसंधान ऐसा इन विचारों का स्वरूप होने के परिणाम स्वरूप 'मार्क्सप्रणीत विचारों की अपरिहार्यता निर्माण हुई और वैचारिक अभिसरण की प्रक्रिया में स्थिरता आई । परिणामतः जाने अनजाने 'उदारवाद'का पुरस्कार करनेवाला मार्क्सवाद कालांतर में 'सैद्धांतिक साँचे में अटक जाने के कारण संकुचित हो गया और वैश्विक स्तर पर की भिन्न संस्कृति, और समाज के वास्तविक आकलन की प्रक्रिया में कालबाह्य सिद्ध होने लगा । मार्क्सवाद की अपरिहार्यता से कालबाह्यता तक की उसकी यात्रा की परिणति उसके समाप्त होने में न हो इस लिये तथा उसकी उपयोगिता कायम रखने के लिये उसे कालानुरूप, समाज, स्थान, व्यक्ति, समूह, और देश काल सापेक्ष बनाकर एक ऐसी विद्याशाखा में मार्क्सवाद का समावेश किया गया जो कि मार्क्सवाद के प्रति संपूर्ण निष्ठा, केवल अनुनय की 'सापेक्षता'की पद्धति से कार्य करने का अवसर देगी । जिस में बाह्य रूप से तो 'वैचारिक सापेक्षता अथवा उदारता का स्वीकार हुआ होगा परंतु मूल साम्यवादी रचना अबाधित ही रहेगी । इस प्रकार का उपर से शैक्षिक परंतु वास्तव में राजकीय कार्य करना केवल शिक्षा के, प्रबोधन के माध्यम से ही हो सकता है, वही परिणामकारक है यही बात सामने रखकर इस विद्याशाखा का जन्म हुआ । पूर्व प्रस्थापित सामाजिक शास्त्रों के एकांगी और प्रवंचक 'वस्तुनिष्ठ'वैचारिकता के परिणामहीन होने से साम्यवाद की जो हानि हुई थी उसकी भरपाई करने के लिये 'नये पर्याय'का निर्माण कर वैकल्पिक राजकीय सत्ता की राजनीति में सहभागी होने के उद्देश्य से पूरक सामाजिक परिस्थिति अनिवार्य होने से, उसे सहज स्वीकार्य ऐसा नाम कल्चरल स्टडीझ' (सांस्कृतिक अध्ययन') दिया गया ।
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संपूर्ण रूप से साम्यवादी, मार्क्सवादी संरचना रखनेवाली कल्चरल स्टडीझ की विद्याशाखा पूरे विश्व के जो भी देशों के विश्वविद्यालय अथवा संशोधन केंद्रों में सीखाई जाती है, उन सभी देशों में 'वहाँ के 'राष्ट्रवाद' को सिर से पाँव तक छेद कर, मार्क्सवाद के, साम्यवाद के गृहितों को, तर्कों को बुद्धिप्रमाण्यवादी, तर्कशुद्ध वैज्ञानिक ऐसी प्रतिष्ठा प्राप्त करा कर शैक्षिक पाठ्यक्रम के रूप में अध्ययन के लिये उपलब्ध करवाया जाता हैं । १९१० से १९३० के दौरान इटली की 'कम्युनिस्ट पार्टी के अध्यक्ष अन्तोनिओ ग्रामची ( -पींपळे ऋवशीलळ) के क्लासिकल
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संपूर्ण रूप से साम्यवादी, मार्क्सवादी संरचना रखनेवाली कल्चरल स्टडीझ की विद्याशाखा पूरे विश्व के जो भी देशों के विश्वविद्यालय अथवा संशोधन केंद्रों में सीखाई जाती है, उन सभी देशों में 'वहाँ के 'राष्ट्रवाद' को सिर से पाँव तक छेद कर, मार्क्सवाद के, साम्यवाद के गृहितों को, तर्कों को बुद्धिप्रमाण्यवादी, तर्कशुद्ध वैज्ञानिक ऐसी प्रतिष्ठा प्राप्त करा कर शैक्षिक पाठ्यक्रम के रूप में अध्ययन के लिये उपलब्ध करवाया जाता हैं । १९१० से १९३० के दौरान इटली की 'कम्युनिस्ट पार्टी के अध्यक्ष अन्तोनिओ ग्रामची ( -पींपळे ऋवशीलळ) के क्लासिकल मासिझम की पुनर्रचना पर लेखन तथा लुइस अल्थुझर के 'संरचनावाद के आधार पर विकसित यह विद्याशाखा माने बहुसंख्य देशों में राजकीय दृष्टि से असफल सिद्ध हुई साम्यवादी विचारधारा को एक बार फिर से खडा होने के लिये निर्माण किया हआ रंगमंच है। ग्रामची के मतानुसार कारीगर और कृषिमझदूरों ने सांप्रदायिक (फासीस्ट) लोगों को मत नहीं देना चाहिये । बुद्धिनिष्ठ साम्यवादी विचारों के प्रति सामान्य लोगों की पसंद निर्माण करने के लिये योजनाबद्ध पद्धति से कार्य करना पड़ेगा क्लासिकल मार्क्सिझम के अनुसार सामाजिक वर्गव्यवस्था आर्थिक स्थिति के अनुसार परिभाषित होती है इसलिये मार्क्स ने वर्ग विग्रह को क्रांति का कारण और ध्येय माना । परंतु ग्रामची ने मार्क्स के वर्ग विग्रह के तर्क को अधिक व्यापक बना कर ‘राजकीय एवं सामाजिक संघर्ष का क्षेत्र आर्थिकता न हो कर संस्कृति हैं' ऐसा विचार प्रस्तुत किया । उसके मतानुसार पूंजीवादी सामाजिक और राजकीय नियंत्रण करने के लिये केवल पुलिस, केद, दमन और लश्कर के ही पाशवी माध्यमों का प्रयोग करते हैं ऐसा नहीं है । बल्कि पूंजीवादी जो सामाजिक अथवा राजकीय नियंत्रण करते हैं उसके प्रति सामान्य लोगों की सम्मति प्राप्त करने का माध्यम संस्कृति है । इस प्रकार के 'संस्कृतिजन्यराजकीय, आर्थिक नियंत्रण को ग्रामची 'सांस्कृतिक आपखुदशाही कहता है । इसलिये 'संघर्ष का, क्रांति का आधार आर्थिक वर्ग व्यवस्था अथवा राजकीय व्यवस्था नहीं, परंतु सांस्कृतिक आधार पर क्रांति करने से ही साम्यवादी व्यवस्था का लक्ष्य प्राप्त हो सकता है कल्चरल स्टडीझ का संपूर्ण लेखन इसी 'प्रतिकारवादी'तर्क पर आधारित रहा है।
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अंत में यही कहना है कि उपरोक्त जानकारी तो थोडासा हिस्सा ही है । १९५७ में शुरु हुई 'कल्चरल स्टडीझ' विद्याशाखा वर्तमान में विश्व के प्रमुख विश्वविद्यालयों की 'आंतरविद्याशाखा' स्तर की सब से अधिक लोकप्रिय शाखा मानी जाती है । उसमें कार्यरत वर्तमान बुद्धिवादियों की सूची बहुत लम्बी है । वैश्विक स्तर पर कुल मिला कर ३२ देशों के सभी प्रमुख विश्वविद्यालयों में यह विषय पढा और पढाया जाता है । इन विश्वविद्यालयों में इस विद्याशाखा में कार्यरत प्राध्यापक, विचारक हमेशां परस्पर संपर्क में रहते हैं । उनका नेटवर्क बहुत सक्रिय है। परस्पर विचार विमर्श निरंतर चलता रहता है । अपनी कारकिर्द को परदेश गमन का स्पर्श हो कर वह अधिकाधिक विकसित हो ऐसी महत्त्वाकांक्षा के साथ अनेक प्राध्यापक लोग 'कल्चरल स्टडीझ के 'ट्रेंड'का अनुसरण कर के कुछ भी वैचारिक स्पष्टता के बिना ही इस विद्याशाखा के अंतर्गत अनुसन्धान करते हैं और विद्यार्थियों को भी उसके लिये प्रोत्साहित करते हैं । विशेष रूप से कुछ सीमित स्वरूप में इस विषय की 'वैल्कपिक' रचना का तर्क कुशलतापूर्वक भारत देश के संदर्भ में प्रस्तुत हो सकता है।
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साम्यवाद के 'सामाजिक वर्ग विग्रह के तर्क एवं सिद्धांत पर आधारित तथा सशस्त्र अथवा आंदोलनात्मक प्रतिकार की कार्य पद्धति पर आधारित 'कल्चरल स्टडीझ' नामक विद्याशाखा अथवा विषय भारत में पढाया जाना अपने आप में दुर्भाग्य की बात है। भारत पहले ही सेंकडों वर्षों से मुगल अथवा ब्रिटिश साम्राज्य के आधिपत्य में रहने के कारण अपना स्वत्व एवं अस्मिता बड़े पैमाने पर गँवा बैठा है । ऐसे आघातों के कारण दुर्बल मानसिकता प्राप्त देश में ऐसा विषय पढाने का अर्थ है वैविध्यपूर्ण भारतीय समाज को राष्ट्रीयता की भावना से एक करने वाले विचारों के स्थान पर देश विघातक विचारों की सहायता से देश के युवकों की उर्जा और उत्साह नष्ट करना । सामाजिक सौहार्दपूर्ण वातावरण नष्ट करना, प्रत्येक समुदाय को एक
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दूसरे के विरुद्ध, व्यक्ति को व्यक्ति विरुद्ध, युवा पीढी को अपनी पूर्व पीढी विरुद्ध, स्त्रियों को पुरुषों के विरुद्ध, व्यक्ति को अपने परिवार एवं समाज विरुद्ध, नागरिकों को सरकार विरुद्ध, कर्मचारियों को अपनी अपनी कम्पनी के विरुद्ध,
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देश के लोगों को अपने देश विरुद्ध निरंतर संघर्षमय रखने का प्रशिक्षण देनेवाली यह शिक्षा के माध्यम से निर्माण की गई व्यवस्था है । उसका उद्देश्य भारत के वैशिष्ट्यपूर्ण विविधतायुक्त समाज को एकत्व के संस्कारों द्वारा संगठित कर देश की शक्ति बढाने के कार्य में बाधा उत्पन्न करना है । तथा उसके परिणामस्वरूप विभाजित और असंगठित समाज का, युवा, महिला, दलित, अल्पसंख्यांक, मझदूर, शोषित, पीडित वर्ग का, कुलमिलाकर 'सामाजिक विषमता का लाभ उठाकर, सदियों के राजकीय एवं सांस्कृतिक पारतंत्र्य के बाद फिर से विश्व स्तर पर अपनी पहचान बनाने का प्रयत्न कर रहे भारत को फिर एक बार स्वविस्मृति की गर्ता में धकेलने का यह कारस्थान शिक्षा के माध्यम से हो रहा है यह बडे दुर्भाग्य की बात है।
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युरोपीय एवं अमेरिकन विश्वविद्यालयों के साथ संबंधित वामपंथी विचारक कल्चरल स्टडीझ के वैकल्पिक संस्कृति' के तर्क के आधार पर वास्तव में 'साम्यवादी व्यवस्था' के विकल्प का ही समर्थन करते हैं। क्यों कि उन लोगों का प्रमुख ध्येय स्थानिक संस्कृति को प्रवाहित रखने का न हो कर चीन की माओवादी 'सांस्कृतिक क्रांति' की भारतीय आवृत्ति साकार करना है । जो भारत के साथ हो रहा है वह विश्व के किसी भी देश के साथ हो सकता है।
    
==References==
 
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