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वैसे तो इन तत्वों के विषय में हमने जीवन के प्रतिमान के अध्याय में जाना है। यहाँ हम केवल एक सरसरी निगाह से उसका स्मरण करेंगे।
 
वैसे तो इन तत्वों के विषय में हमने जीवन के प्रतिमान के अध्याय में जाना है। यहाँ हम केवल एक सरसरी निगाह से उसका स्मरण करेंगे।
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दुनिया में परस्पर सामाजिक संबंधों के पीछे केवल दो ही कारण है। इन में एक है ' स्वार्थ '। और दूसरा है ' आत्मीयता '। यह दो कारण त्रिकालाबाधित है। इन्ही के आधार पर व्यक्ति की और समज की पहचान बनती है। प्राचीन काल से यह विभाजन चलता आया है। 'आत्मीयता' पर आधारित परस्पर संबंधों से जो समाज चलता है उसे 'दैवी' समाज कहा जाता है। और 'स्वार्थ' पर आधारित परस्पर संबंधों से जो समाज चलता है उसे 'आसुरी' समाज कहा जाता है। पाश्चात्य समाज इस आसुरी परस्पर संबंधों के आधार पर खडा है। पाश्चात्य समाजशास्त्र में समाज निर्माण का कारण बताया गया है ‘सामाजिक समझौता कल्पना ( सोशल काँट्रॅक्ट थियरी )’। इस के अनुसार लोग अपने अपने 'स्वार्थ' के लिये इकठ्ठे आकर समझौता करते हैं। एक दूसरे से लाभान्वित होते हैं। ऐसे लोगों के समूह को जो परस्पर स्वार्थ की पूर्ति के लिये समझौते से बाँधा गया है उसे समाज कहते है। इसलिये अभारतीय विवाह भी करार होता है। समझौता होता है। शासनकर्ता भी समझौते (किग्ज् चार्टर) के आधार पर ही शासन करता है। और सभी समझौतों का आधार स्वार्थ ही होता है।
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दुनिया में परस्पर सामाजिक संबंधों के पीछे केवल दो ही कारण है। इन में एक है ' स्वार्थ '। और दूसरा है ' आत्मीयता '। यह दो कारण त्रिकालाबाधित है। इन्ही के आधार पर व्यक्ति की और समज की पहचान बनती है। प्राचीन काल से यह विभाजन चलता आया है। 'आत्मीयता' पर आधारित परस्पर संबंधों से जो समाज चलता है उसे 'दैवी' समाज कहा जाता है। और 'स्वार्थ' पर आधारित परस्पर संबंधों से जो समाज चलता है उसे 'आसुरी' समाज कहा जाता है। पाश्चात्य समाज इस आसुरी परस्पर संबंधों के आधार पर खडा है। पाश्चात्य समाजशास्त्र में समाज निर्माण का कारण बताया गया है ‘सामाजिक समझौता कल्पना ( सोशल काँट्रॅक्ट थियरी )’। इस के अनुसार लोग अपने अपने 'स्वार्थ' के लिये इकठ्ठे आकर समझौता करते हैं। एक दूसरे से लाभान्वित होते हैं। ऐसे लोगों के समूह को जो परस्पर स्वार्थ की पूर्ति के लिये समझौते से बाँधा गया है उसे समाज कहते है। इसलिये अधार्मिक (अभारतीय) विवाह भी करार होता है। समझौता होता है। शासनकर्ता भी समझौते (किग्ज् चार्टर) के आधार पर ही शासन करता है। और सभी समझौतों का आधार स्वार्थ ही होता है।
    
पाश्चात्य जीवनदृष्टि का दूसरा महत्वपूर्ण तत्व है 'इहवादिता'। इहवादिता का अर्थ है जो कुछ है वह यही जीवन है। मेरे इस जन्म से पहले मेरा कुछ नहीं था। और मेरे इस जन्म के बाद में भी मेरा कुछ नहीं रहेगा।
 
पाश्चात्य जीवनदृष्टि का दूसरा महत्वपूर्ण तत्व है 'इहवादिता'। इहवादिता का अर्थ है जो कुछ है वह यही जीवन है। मेरे इस जन्म से पहले मेरा कुछ नहीं था। और मेरे इस जन्म के बाद में भी मेरा कुछ नहीं रहेगा।
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समाज का एक घटक मानता है कि परमात्मा आस्था रखना या नहीं रखना, परमात्मा की पूजा करना या नहीं करना, करना तो कैसे करना, कब करना, यह हर व्यक्ति का अपना विचार है। और उस के इस विचार का आदर सब समाज करे। किंतु समाज का दूसरा तबका यह मानता है की केवल मेरी पूजा पद्दति ही श्रेष्ठ है। केवल इतना ही नहीं, जो मेरी पूजा पद्दति और आस्थाओं का स्वीकार नहीं करेगा उस का मैं कत्ल करूंगा। क्या ऐसे दो विपरीत विचार रखने वाले लोग अपने विचार बदले बगैर साझी संस्कृति के बन सकते है? और यदि साझी संस्कृति का इतना ही आग्रह है तो जो असहिष्णु विचार वाले समाज के गुट है, उन्हें सहिष्णु बनाने के लिये शिक्षा में प्रावधान रखने की नितांत आवश्यकता है। किंतु वास्तविकता यह है कि जो सहिष्णु विचार वाला समाज है, उसे ही अपनी संस्कृति के रक्षण करने में असहिष्णु गुटों द्वारा साझी विरासत के आधार पर चुनौती दी जाती है। और गलत संवैधानिक मार्गदर्शन के चलते कानून भी असहिष्णु गुटों के पक्ष में खडा दिखाई देता है।  
 
समाज का एक घटक मानता है कि परमात्मा आस्था रखना या नहीं रखना, परमात्मा की पूजा करना या नहीं करना, करना तो कैसे करना, कब करना, यह हर व्यक्ति का अपना विचार है। और उस के इस विचार का आदर सब समाज करे। किंतु समाज का दूसरा तबका यह मानता है की केवल मेरी पूजा पद्दति ही श्रेष्ठ है। केवल इतना ही नहीं, जो मेरी पूजा पद्दति और आस्थाओं का स्वीकार नहीं करेगा उस का मैं कत्ल करूंगा। क्या ऐसे दो विपरीत विचार रखने वाले लोग अपने विचार बदले बगैर साझी संस्कृति के बन सकते है? और यदि साझी संस्कृति का इतना ही आग्रह है तो जो असहिष्णु विचार वाले समाज के गुट है, उन्हें सहिष्णु बनाने के लिये शिक्षा में प्रावधान रखने की नितांत आवश्यकता है। किंतु वास्तविकता यह है कि जो सहिष्णु विचार वाला समाज है, उसे ही अपनी संस्कृति के रक्षण करने में असहिष्णु गुटों द्वारा साझी विरासत के आधार पर चुनौती दी जाती है। और गलत संवैधानिक मार्गदर्शन के चलते कानून भी असहिष्णु गुटों के पक्ष में खडा दिखाई देता है।  
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समानतावाद की अभारतीय जीवनदृष्टि के कारण हमने स्त्री और पुरुष को एक दूसरे का स्पर्धक बना दिया है। दुर्बल और बलवान को स्पर्धक बना दिया है। लोकतंत्र तो साधन है। वास्तव में सर्वे भवन्तु सुखिन: हमारा लक्ष्य होना चाहिए। हमने एक घटिया अल्पमत-बहुमतवाले लोकतंत्र को ही साध्य बना दिया है। सेक्युलरीझम तो एकदम ही अभारतीय संकल्पना है। इसका अनुवाद धर्मनिरपेक्षता जिन्होंने किया है वे घोर अज्ञानी हैं। वे न तो धर्म का अर्थ जानते हैं और न ही सेक्युलारिझम का।
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समानतावाद की अधार्मिक (अभारतीय) जीवनदृष्टि के कारण हमने स्त्री और पुरुष को एक दूसरे का स्पर्धक बना दिया है। दुर्बल और बलवान को स्पर्धक बना दिया है। लोकतंत्र तो साधन है। वास्तव में सर्वे भवन्तु सुखिन: हमारा लक्ष्य होना चाहिए। हमने एक घटिया अल्पमत-बहुमतवाले लोकतंत्र को ही साध्य बना दिया है। सेक्युलरीझम तो एकदम ही अधार्मिक (अभारतीय) संकल्पना है। इसका अनुवाद धर्मनिरपेक्षता जिन्होंने किया है वे घोर अज्ञानी हैं। वे न तो धर्म का अर्थ जानते हैं और न ही सेक्युलारिझम का।
    
पर्यावरण सुरक्षा का विचार तो अच्छा ही है। लेकिन पर्यावरण की समझ गलत है। केवल पृथ्वी, जल और वायु का विचार इस पर्यावरण की सुरक्षा में हो रहा दिखाई देता है। भारतीय पर्यावरण की संकल्पना इससे बहुत व्यापक है।
 
पर्यावरण सुरक्षा का विचार तो अच्छा ही है। लेकिन पर्यावरण की समझ गलत है। केवल पृथ्वी, जल और वायु का विचार इस पर्यावरण की सुरक्षा में हो रहा दिखाई देता है। भारतीय पर्यावरण की संकल्पना इससे बहुत व्यापक है।

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