Changes

Jump to navigation Jump to search
m
no edit summary
Line 6: Line 6:  
वर्तमान में ऐसा माना जाता है कि लोकतंत्र किसी भी समाज के लिये सबसे श्रेष्ठ शासन व्यवस्था है। ऐसा कहना गलत नहीं होगा की वर्तमान में इस विचार का इतना अतिरेक हो गया है कि ‘लोकतंत्र’ साध्य बन गया है। इतना ही नहीं तो लोग इस विषय में विविध कारणों से इतने संवेदनशील हो गये हैं कि वर्तमान लोकतंत्र के लिये वैकल्पिक शासन व्यवस्था के बारे में प्रकट रूप (भाषण या लेखन) से बात करते ही लोग असहिष्णुता पर उतर आते हैं। इस वैकल्पिक शासन व्यवस्था के विचारों में समाज के लिये कुछ लाभकारी है या नहीं इस का विचार किये बगैर ही विकल्प की चर्चा करनेवाले को गालियाँ देने पर या मारने पर उतारू हो जाते हैं। अंतर्राष्ट्रीय  स्तर पर भी यूरोपीय देश और अमरिकी देश लोकतंत्र से भिन्न किसी शासन व्यवस्था को चलने नहीं देते। इसलिये वर्तमान में लोकतंत्र के विरोध में बोलने की किसी की हिम्मत नहीं होती।  
 
वर्तमान में ऐसा माना जाता है कि लोकतंत्र किसी भी समाज के लिये सबसे श्रेष्ठ शासन व्यवस्था है। ऐसा कहना गलत नहीं होगा की वर्तमान में इस विचार का इतना अतिरेक हो गया है कि ‘लोकतंत्र’ साध्य बन गया है। इतना ही नहीं तो लोग इस विषय में विविध कारणों से इतने संवेदनशील हो गये हैं कि वर्तमान लोकतंत्र के लिये वैकल्पिक शासन व्यवस्था के बारे में प्रकट रूप (भाषण या लेखन) से बात करते ही लोग असहिष्णुता पर उतर आते हैं। इस वैकल्पिक शासन व्यवस्था के विचारों में समाज के लिये कुछ लाभकारी है या नहीं इस का विचार किये बगैर ही विकल्प की चर्चा करनेवाले को गालियाँ देने पर या मारने पर उतारू हो जाते हैं। अंतर्राष्ट्रीय  स्तर पर भी यूरोपीय देश और अमरिकी देश लोकतंत्र से भिन्न किसी शासन व्यवस्था को चलने नहीं देते। इसलिये वर्तमान में लोकतंत्र के विरोध में बोलने की किसी की हिम्मत नहीं होती।  
   −
वर्तमान लोकतंत्र में लोग अनेकों विविध और विकट समस्याओं से जूझ रहे हैं। गरीबी, बेरोजगारी, हिंसा, असुरक्षा, आतंकवाद, भ्रष्टाचार, अस्वास्थ्य, प्रदूषण, टूटते परिवार, पगढीलापन, सांस्कृतिक विघटन, बढती मँहगाई, बढती विषमता, प्रकृति और दुर्बलों का शोषण, अपराधीकरण, स्त्रियोंपर अत्याचार, एक-पालकीय बच्चे, अविवाहित संबंध, घटते जंगल, घटता भूजलस्तर, बढता जन-धन-उत्पादन और सत्ता का केंद्रीकरण आदि। यह सूची और भी बढ सकती है। इस के उपरांत भी कोई वर्तमान लोकतंत्र के विषय में नहीं सोचे, चर्चा नहीं करे यह या तो तानाशाही कही जायेगी या फिर ऐसे समाज को एक विचारहीन समाज कहा जायेगा। लेकिन हिंदू या भारतीय समाज तो ऐसा कभी नहीं रहा। यह समाज तो सदैव ज्ञान संपन्न रहा है। युगानुकूल विचार करता रहा है। विश्व में संस्कृति और समृध्दि दोनों बातों में अग्रणी रहा है। फिर यह ऐसा बुद्धू कैसे बन गया? यह भी विचारणीय है।  
+
वर्तमान लोकतंत्र में लोग अनेकों विविध और विकट समस्याओं से जूझ रहे हैं। गरीबी, बेरोजगारी, हिंसा, असुरक्षा, आतंकवाद, भ्रष्टाचार, अस्वास्थ्य, प्रदूषण, टूटते परिवार, पगढीलापन, सांस्कृतिक विघटन, बढती मँहगाई, बढती विषमता, प्रकृति और दुर्बलों का शोषण, अपराधीकरण, स्त्रियोंपर अत्याचार, एक-पालकीय बच्चे, अविवाहित संबंध, घटते जंगल, घटता भूजलस्तर, बढता जन-धन-उत्पादन और सत्ता का केंद्रीकरण आदि। यह सूची और भी बढ सकती है। इस के उपरांत भी कोई वर्तमान लोकतंत्र के विषय में नहीं सोचे, चर्चा नहीं करे यह या तो तानाशाही कही जायेगी या फिर ऐसे समाज को एक विचारहीन समाज कहा जायेगा। लेकिन हिंदू या धार्मिक (भारतीय) समाज तो ऐसा कभी नहीं रहा। यह समाज तो सदैव ज्ञान संपन्न रहा है। युगानुकूल विचार करता रहा है। विश्व में संस्कृति और समृध्दि दोनों बातों में अग्रणी रहा है। फिर यह ऐसा बुद्धू कैसे बन गया? यह भी विचारणीय है।  
    
आहार, निद्रा, भय और मैथुन यह प्राणिक आवेग हैं। इन प्राणिक आवेगों के स्तरपर जो जीते हैं उन्हें प्राणी कहते हैं। यह चारों बातें मनुष्य और पशु दोनों में होतीं हैं। इसलिये मनुष्य को भी प्राणी कहा जाता है। लेकिन अन्य जीवों की तरह मनुष्य केवल प्राणी नहीं होता। वह मनुष्य होता है। वह प्राण के स्तर से ऊपर के स्तर पर यानी मन के स्तर पर भी जीता है। अपने प्राणिक आवेगों को मन के द्वारा नियंत्रण में रखता है। और विचार करना यह मन का क्षेत्र है। लोगों ने अनेकों समस्याओं के होते हुए भी यदि विचार करना छोड दिया है तो वर्तमान में मनुष्य, मानव से पतित होकर पशुत्व की ओर बढ रहा है, इस का यह लक्षण है। यह मानव समाज के लिये वांछनीय नहीं है।   
 
आहार, निद्रा, भय और मैथुन यह प्राणिक आवेग हैं। इन प्राणिक आवेगों के स्तरपर जो जीते हैं उन्हें प्राणी कहते हैं। यह चारों बातें मनुष्य और पशु दोनों में होतीं हैं। इसलिये मनुष्य को भी प्राणी कहा जाता है। लेकिन अन्य जीवों की तरह मनुष्य केवल प्राणी नहीं होता। वह मनुष्य होता है। वह प्राण के स्तर से ऊपर के स्तर पर यानी मन के स्तर पर भी जीता है। अपने प्राणिक आवेगों को मन के द्वारा नियंत्रण में रखता है। और विचार करना यह मन का क्षेत्र है। लोगों ने अनेकों समस्याओं के होते हुए भी यदि विचार करना छोड दिया है तो वर्तमान में मनुष्य, मानव से पतित होकर पशुत्व की ओर बढ रहा है, इस का यह लक्षण है। यह मानव समाज के लिये वांछनीय नहीं है।   
Line 12: Line 12:  
वांछनीय तो यह है कि मनुष्य केवल मन के या विचार के स्तर से भी आगे बढ कर बुद्धि के स्तर पर जिये और उस से भी आगे बढ कर ज्ञान के स्तर पर जिये। ऐसे विकास की दृष्टि से भी बौध्दिक स्तर पर वर्तमान लोकतंत्रात्मक शासन जैसी व्यवस्थाओं को परखना केवल आवश्यक ही नहीं तो अनिवार्य भी है।  
 
वांछनीय तो यह है कि मनुष्य केवल मन के या विचार के स्तर से भी आगे बढ कर बुद्धि के स्तर पर जिये और उस से भी आगे बढ कर ज्ञान के स्तर पर जिये। ऐसे विकास की दृष्टि से भी बौध्दिक स्तर पर वर्तमान लोकतंत्रात्मक शासन जैसी व्यवस्थाओं को परखना केवल आवश्यक ही नहीं तो अनिवार्य भी है।  
   −
हिंदू समाज को ऐसा बनाने में सबसे बडा कारण विपरीत शिक्षा है। विदेशी मुस्लिम शासन के काल में शासित होने के उपरांत भी हिंदू अपने को मुसलमान से श्रेष्ठ ही मानता रहा। किंतु अंग्रेजी शासन ने इस स्थिति को बदल दिया। विशेषत: अंग्रेजी शिक्षा ने भारतीय समाज को आत्मनिंदाग्रस्त बना दिया, इसे स्वत्वहीन बना दिया। पश्चिम का अंधा अनुगामी बना दिया।   
+
हिंदू समाज को ऐसा बनाने में सबसे बडा कारण विपरीत शिक्षा है। विदेशी मुस्लिम शासन के काल में शासित होने के उपरांत भी हिंदू अपने को मुसलमान से श्रेष्ठ ही मानता रहा। किंतु अंग्रेजी शासन ने इस स्थिति को बदल दिया। विशेषत: अंग्रेजी शिक्षा ने धार्मिक (भारतीय) समाज को आत्मनिंदाग्रस्त बना दिया, इसे स्वत्वहीन बना दिया। पश्चिम का अंधा अनुगामी बना दिया।   
    
स्वामी विवेकानंदजीने वर्तमान शिक्षा के बारे में कहा था - टुडेज एज्युकेशन इज ऑल राँग। माईंड इज क्रॅम्ड विथ फॅक्ट्स् बिफोर इट इज टॉट हाऊ टु थिंक (Today's education is all wrong. Mind is crammed with facts before it is taught how to think.)। यानी वर्तमान शिक्षा पूरी गलत है। मन को ‘विचार कैसे किया जाता है’ यह सिखाये बिना ही जानकारी ठूँस ठूँस कर दिमाग में भर दी जाती है। लोकतंत्र के संबंध में उपर बताई वैचारिक धांधली का शायद यही कारण है।   
 
स्वामी विवेकानंदजीने वर्तमान शिक्षा के बारे में कहा था - टुडेज एज्युकेशन इज ऑल राँग। माईंड इज क्रॅम्ड विथ फॅक्ट्स् बिफोर इट इज टॉट हाऊ टु थिंक (Today's education is all wrong. Mind is crammed with facts before it is taught how to think.)। यानी वर्तमान शिक्षा पूरी गलत है। मन को ‘विचार कैसे किया जाता है’ यह सिखाये बिना ही जानकारी ठूँस ठूँस कर दिमाग में भर दी जाती है। लोकतंत्र के संबंध में उपर बताई वैचारिक धांधली का शायद यही कारण है।   
Line 25: Line 25:  
* क्षात्रतेज और  ब्राह्मतेज। शास्त्रों का ज्ञाता होना आवश्यक।  
 
* क्षात्रतेज और  ब्राह्मतेज। शास्त्रों का ज्ञाता होना आवश्यक।  
 
* अन्याय ही नहीं हो ऐसी शासन व्यवस्था हो। जिस राज्य में माँगने से न्याय मिलता है वह घटिया शासन है। जिस राज्य में झगडने से न्याय मिलता है वह निकम्मा शासन है। माँगने से मिलने वाला न्याय घटिया होता है। झगडकर मिलने वाले न्याय में तो अन्याय होने की ही सम्भावनाएँ रहतीं हैं। झगड कर (मुकदमे चलाकर) मिलने वाला न्याय बलवानों के पक्ष में ही जाता है।  
 
* अन्याय ही नहीं हो ऐसी शासन व्यवस्था हो। जिस राज्य में माँगने से न्याय मिलता है वह घटिया शासन है। जिस राज्य में झगडने से न्याय मिलता है वह निकम्मा शासन है। माँगने से मिलने वाला न्याय घटिया होता है। झगडकर मिलने वाले न्याय में तो अन्याय होने की ही सम्भावनाएँ रहतीं हैं। झगड कर (मुकदमे चलाकर) मिलने वाला न्याय बलवानों के पक्ष में ही जाता है।  
* लोकतंत्र की मर्यादाएं और दोषों को समझना। सर्वसहमति का लोकतंत्र ही भारतीय लोकतंत्र है। लोकतंत्रात्मक शासन व्यवस्था नहीं सुशासन - जिससे “सर्वे भवन्तु सुखिन: साध्य होगा” वह लक्ष्य हो।  
+
* लोकतंत्र की मर्यादाएं और दोषों को समझना। सर्वसहमति का लोकतंत्र ही धार्मिक (भारतीय) लोकतंत्र है। लोकतंत्रात्मक शासन व्यवस्था नहीं सुशासन - जिससे “सर्वे भवन्तु सुखिन: साध्य होगा” वह लक्ष्य हो।  
 
* भारतीय शासन व्यवस्था में किसी अधिकारी के दायरे में अपराध होने से वह व्यक्ति अपराधी माना जाता था। किसी अधिकारी के क्षेत्र में आनेवाले किसी के घर में चोरी हुए माल को वह अधिकारी यदि ढूण्ढने में असफल हो जाता था तो जिसका नुकसान हुआ है उस की नुकसान भरपाई उस अधिकारी को करनी पडती थी।  
 
* भारतीय शासन व्यवस्था में किसी अधिकारी के दायरे में अपराध होने से वह व्यक्ति अपराधी माना जाता था। किसी अधिकारी के क्षेत्र में आनेवाले किसी के घर में चोरी हुए माल को वह अधिकारी यदि ढूण्ढने में असफल हो जाता था तो जिसका नुकसान हुआ है उस की नुकसान भरपाई उस अधिकारी को करनी पडती थी।  
   −
== राज्य की आवश्यकता - भारतीय दृष्टि ==
+
== राज्य की आवश्यकता - धार्मिक (भारतीय) दृष्टि ==
 
मनुष्य जन्म से तो प्राणी ही होता है। जो प्राणिक आवेगों के स्तर पर जीता है, उसे प्राणी कहते हैं। प्राणिक स्तर पर व्यवहार करना इस का अर्थ है आहार, निद्रा, भय और मैथुन इन प्राणिक आवेगों के अधीन रहकर काम करना। सामान्यत: पशू, पक्षी और प्राणियों के आवेग अनियंत्रित ही होते हैं। ऐसे प्राणिक आवेग की स्थिति में वह केवल अपने आवेग की पूर्ति के विषय में ही सोचता है। लेकिन पशुओं में भी आवेगों की पूर्ति के उपरांत पशु उस आवेग को कुछ काल के लिये भूल जाता है। यानी जब तक फिर उसे उस आवेग का दौर नहीं पडता तब तक भूल जाता है। भूख मिट जाने के उपरांत वह सामने कितना भी ताजा, सहज प्राप्त अन्न मिलने पर भी उस की वासना नहीं रखता।  
 
मनुष्य जन्म से तो प्राणी ही होता है। जो प्राणिक आवेगों के स्तर पर जीता है, उसे प्राणी कहते हैं। प्राणिक स्तर पर व्यवहार करना इस का अर्थ है आहार, निद्रा, भय और मैथुन इन प्राणिक आवेगों के अधीन रहकर काम करना। सामान्यत: पशू, पक्षी और प्राणियों के आवेग अनियंत्रित ही होते हैं। ऐसे प्राणिक आवेग की स्थिति में वह केवल अपने आवेग की पूर्ति के विषय में ही सोचता है। लेकिन पशुओं में भी आवेगों की पूर्ति के उपरांत पशु उस आवेग को कुछ काल के लिये भूल जाता है। यानी जब तक फिर उसे उस आवेग का दौर नहीं पडता तब तक भूल जाता है। भूख मिट जाने के उपरांत वह सामने कितना भी ताजा, सहज प्राप्त अन्न मिलने पर भी उस की वासना नहीं रखता।  
   Line 43: Line 43:  
कुछ राजाओं का कार्यकाल तो ठीक चला किंतु एक राजा मनमानी करने लगा। अधर्माचरण करने लगा। तब विद्वानों के नेतृत्व में प्रजा ने उस का वध कर दिया। अब राजा के राज्याभिषेक के साथ ही यह स्पष्ट कर दिया जाने लगा की राजा की इच्छा या सत्ता सर्वोपरि नहीं है। धर्म ही सर्वोपरि है। राजा के राज्याभिषेक के समय सिंहासन पर आरूढ होने से पहले राजा कहता ‘अदंडयोऽस्मि’ धर्मगुरू या राजपुरोहित धर्मदंड से राजा के सिर पर हल्की चोट देकर कहता था ‘धर्मदंडयोसि’। ऐसा तीन बार दोहराने के बाद यानी धर्मसत्ता के नियंत्रण में रहने को मान्य कर राजा सिंहासन पर बैठने का अधिकारी बनता था।
 
कुछ राजाओं का कार्यकाल तो ठीक चला किंतु एक राजा मनमानी करने लगा। अधर्माचरण करने लगा। तब विद्वानों के नेतृत्व में प्रजा ने उस का वध कर दिया। अब राजा के राज्याभिषेक के साथ ही यह स्पष्ट कर दिया जाने लगा की राजा की इच्छा या सत्ता सर्वोपरि नहीं है। धर्म ही सर्वोपरि है। राजा के राज्याभिषेक के समय सिंहासन पर आरूढ होने से पहले राजा कहता ‘अदंडयोऽस्मि’ धर्मगुरू या राजपुरोहित धर्मदंड से राजा के सिर पर हल्की चोट देकर कहता था ‘धर्मदंडयोसि’। ऐसा तीन बार दोहराने के बाद यानी धर्मसत्ता के नियंत्रण में रहने को मान्य कर राजा सिंहासन पर बैठने का अधिकारी बनता था।
   −
भारतीय सामाजिक व्यवस्थाओं के संबंध में एक और महत्व की बात यह है कि भारतीय समाज में सभी सामाजिक संबंधों का आधार और इसलिये सभी व्यवस्थाओं का आधार भी कौटुम्बिक संबंध ही हुआ करते हैं। गुरू शिष्य का मानस पिता होता है। व्याख्यान सुनने आए हुए लोग केवल ‘लेडीज ऍंड जंटलमेन’ नहीं होते। वे होते हैं ‘मेरे प्रिय भाईयों और बहनों<ref>स्वामी विवेकानंद का शिकागो धर्मपरिषद में संबोधन</ref> (स्वामी विवेकानंद का शिकागो धर्मपरिषद में संबोधन)’। इस कारण से ही राजा द्वारा शासित जनसमूह को प्रजा (संतान) कहा जाता है। राजा प्रजा का मानस पिता होता है। पालनकर्ता होता है। पोषण और रक्षण का जिम्मेदार होता है। प्रजा दुखी हो तो राजा की नींद हराम होनी चाहिये। प्रजा दुखी होने पर राजा को सुख की नींद सोने का कोई अधिकार नहीं है ऐसा माना जाता है।
+
भारतीय सामाजिक व्यवस्थाओं के संबंध में एक और महत्व की बात यह है कि धार्मिक (भारतीय) समाज में सभी सामाजिक संबंधों का आधार और इसलिये सभी व्यवस्थाओं का आधार भी कौटुम्बिक संबंध ही हुआ करते हैं। गुरू शिष्य का मानस पिता होता है। व्याख्यान सुनने आए हुए लोग केवल ‘लेडीज ऍंड जंटलमेन’ नहीं होते। वे होते हैं ‘मेरे प्रिय भाईयों और बहनों<ref>स्वामी विवेकानंद का शिकागो धर्मपरिषद में संबोधन</ref> (स्वामी विवेकानंद का शिकागो धर्मपरिषद में संबोधन)’। इस कारण से ही राजा द्वारा शासित जनसमूह को प्रजा (संतान) कहा जाता है। राजा प्रजा का मानस पिता होता है। पालनकर्ता होता है। पोषण और रक्षण का जिम्मेदार होता है। प्रजा दुखी हो तो राजा की नींद हराम होनी चाहिये। प्रजा दुखी होने पर राजा को सुख की नींद सोने का कोई अधिकार नहीं है ऐसा माना जाता है।
   −
== राजा और प्रजा संबंधी भारतीय मान्यताएँ ==
+
== राजा और प्रजा संबंधी धार्मिक (भारतीय) मान्यताएँ ==
 
भारतीय सोच में राजा और प्रजा के संबंध में कई स्वस्थ मान्यताएँ स्थापित थीं। वे निम्न हैं:
 
भारतीय सोच में राजा और प्रजा के संबंध में कई स्वस्थ मान्यताएँ स्थापित थीं। वे निम्न हैं:
 
# यथा राजा तथा प्रजा : सामान्य जन राजा का अनुकरण करते हैं। इस से यदि राजा श्रेष्ठ होता है तो प्रजा भी वैसी ही बन जाती है।
 
# यथा राजा तथा प्रजा : सामान्य जन राजा का अनुकरण करते हैं। इस से यदि राजा श्रेष्ठ होता है तो प्रजा भी वैसी ही बन जाती है।
Line 82: Line 82:  
# प्रत्याशी लोगों को क्या आश्वासन दे इस के कोई नियम नहीं बनाये जाते। चाँद तोडकर लाने जैसे झूठे आश्वासन भी वे दे सकते हैं। सामान्यत: सभी प्रत्याशी लोगों के काम (अपेक्षाओं) और मोह को बढाने वाले आश्वासन ही देते हैं। आश्वासनों की पूर्ति नहीं होने पर समाज में अराजक निर्माण होता है।
 
# प्रत्याशी लोगों को क्या आश्वासन दे इस के कोई नियम नहीं बनाये जाते। चाँद तोडकर लाने जैसे झूठे आश्वासन भी वे दे सकते हैं। सामान्यत: सभी प्रत्याशी लोगों के काम (अपेक्षाओं) और मोह को बढाने वाले आश्वासन ही देते हैं। आश्वासनों की पूर्ति नहीं होने पर समाज में अराजक निर्माण होता है।
 
# चुन कर आने के लिये प्रत्याशी का चालाक होना अनिवार्य होता है। बुद्धिमान होना, विवेकी होना इन गुणों से चालाकी को वरीयता मिलती है। चालाक प्रत्याशी लोगों को अच्छी तरह से भ्रमित कर (वास्तव में बेवकूफ बना) सकता है। बार बार भ्रमित कर सकता है।
 
# चुन कर आने के लिये प्रत्याशी का चालाक होना अनिवार्य होता है। बुद्धिमान होना, विवेकी होना इन गुणों से चालाकी को वरीयता मिलती है। चालाक प्रत्याशी लोगों को अच्छी तरह से भ्रमित कर (वास्तव में बेवकूफ बना) सकता है। बार बार भ्रमित कर सकता है।
# कोई भी ऐरा गैरा श्रेष्ठ शासक नहीं बन सकता। श्रेष्ठ शासक तो जन्मजात होता है ऐसी भारतीय मान्यता है। ऐसा व्यक्ति जो जन्मजात शासक के गुण लक्षणोंवाला हो, जिसे संस्कार, शिक्षण और प्रशिक्षण भी शासक बनने का मिला हो, मिलना लोकतंत्र में अपघात से ही होता है। ऐसे शासक निर्माण की व्यवस्था भारतीय राज-कुटुम्ब अपने बच्चों के लिये करते थे। वर्तमान अभारतीय लोकतंत्र में नौकरशाही और नौकरशाहों का निर्माण मात्र हो सकता है।
+
# कोई भी ऐरा गैरा श्रेष्ठ शासक नहीं बन सकता। श्रेष्ठ शासक तो जन्मजात होता है ऐसी धार्मिक (भारतीय) मान्यता है। ऐसा व्यक्ति जो जन्मजात शासक के गुण लक्षणोंवाला हो, जिसे संस्कार, शिक्षण और प्रशिक्षण भी शासक बनने का मिला हो, मिलना लोकतंत्र में अपघात से ही होता है। ऐसे शासक निर्माण की व्यवस्था धार्मिक (भारतीय) राज-कुटुम्ब अपने बच्चों के लिये करते थे। वर्तमान अधार्मिक (अभारतीय) लोकतंत्र में नौकरशाही और नौकरशाहों का निर्माण मात्र हो सकता है।
    
== भारतीय  समाज  की  व्यवस्थाओं का  स्वरूप ==
 
== भारतीय  समाज  की  व्यवस्थाओं का  स्वरूप ==
Line 100: Line 100:  
धर्मराज्य को हम आज की भाषा में संवैधानिक शासन कह सकते हैं। लेकिन संवैधानिक शासन में संविधान बनानेवाले लोग कौन हैं यह महत्त्वपूर्ण है। धर्म के सिद्धांत समाधि अवस्था प्राप्त लोगों ने तय किये हुए हैं। वे काल की कसौटीपर भी खरे उतरे हैं। ऐसे धर्म के तत्त्वोंपर आधारित संविधान के अनुसार चलनेवाला शासन धर्मराज्य ही होगा। धर्मविरोधी शासक को बदलने का अधिकार प्रजा को होता है। लेकिन धर्माधिष्ठित शासन चलाने वाले शासक को हटाने का अधिकार प्रजा को नहीं होता। धर्म के अनुसार आचरण करना यह प्रजा का धर्म है। राजा को हटाना यह प्रजा का धर्म नहीं है। लेकिन जब प्रजा के धर्म पालन में राजा अवरोध बनता है तब राजा को हटाना प्रजा का धर्म बन जाता है।  
 
धर्मराज्य को हम आज की भाषा में संवैधानिक शासन कह सकते हैं। लेकिन संवैधानिक शासन में संविधान बनानेवाले लोग कौन हैं यह महत्त्वपूर्ण है। धर्म के सिद्धांत समाधि अवस्था प्राप्त लोगों ने तय किये हुए हैं। वे काल की कसौटीपर भी खरे उतरे हैं। ऐसे धर्म के तत्त्वोंपर आधारित संविधान के अनुसार चलनेवाला शासन धर्मराज्य ही होगा। धर्मविरोधी शासक को बदलने का अधिकार प्रजा को होता है। लेकिन धर्माधिष्ठित शासन चलाने वाले शासक को हटाने का अधिकार प्रजा को नहीं होता। धर्म के अनुसार आचरण करना यह प्रजा का धर्म है। राजा को हटाना यह प्रजा का धर्म नहीं है। लेकिन जब प्रजा के धर्म पालन में राजा अवरोध बनता है तब राजा को हटाना प्रजा का धर्म बन जाता है।  
   −
वर्तमान अभारतीय प्रजातंत्र में राजा और प्रजा के हितसंबंधों में स्थाई विरोध होता है ऐसा मानकर एक विरोधी दल का प्रावधान किया होता है। राजा को प्रजा के हित का विरोधी नहीं बनने देना ही इस विरोधी दल का उद्देष्य होता है। भारतीय जीवनदृष्टि के ज्ञाता और एकात्म मानव दर्शन के प्रस्तोता पं. दीनदयालजी उपाध्याय कहते हैं कि प्रजातंत्र के इस स्वरूप का विचार शायद बायबल के गॉड और इंप (शैतान) इनके द्वैतवादी सिद्धांत से उभरा होगा। धर्मराज्य में कोई विरोधक नहीं होता। शुभेच्छुक और अभिभावक ही होते हैं। अभिभावक बच्चों के विरोधक नहीं होते किंतु बच्चा अच्छा बने, बिगडे नहीं यह देखना उनका दायित्व होता है, उसी प्रकार धर्मराज्य में विरोधक नहीं होते हुए भी अभिभावक धर्मसत्ता के कारण शासन बिगड नहीं पाता।  
+
वर्तमान अधार्मिक (अभारतीय) प्रजातंत्र में राजा और प्रजा के हितसंबंधों में स्थाई विरोध होता है ऐसा मानकर एक विरोधी दल का प्रावधान किया होता है। राजा को प्रजा के हित का विरोधी नहीं बनने देना ही इस विरोधी दल का उद्देष्य होता है। धार्मिक (भारतीय) जीवनदृष्टि के ज्ञाता और एकात्म मानव दर्शन के प्रस्तोता पं. दीनदयालजी उपाध्याय कहते हैं कि प्रजातंत्र के इस स्वरूप का विचार शायद बायबल के गॉड और इंप (शैतान) इनके द्वैतवादी सिद्धांत से उभरा होगा। धर्मराज्य में कोई विरोधक नहीं होता। शुभेच्छुक और अभिभावक ही होते हैं। अभिभावक बच्चों के विरोधक नहीं होते किंतु बच्चा अच्छा बने, बिगडे नहीं यह देखना उनका दायित्व होता है, उसी प्रकार धर्मराज्य में विरोधक नहीं होते हुए भी अभिभावक धर्मसत्ता के कारण शासन बिगड नहीं पाता।  
    
लोकतंत्र की व्यवस्था का वर्णन लोगों का लोगों के हित में लोगोंद्वारा चलायी जानेवाली शासन व्यवस्था ऐसा लोकतंत्र का वर्णन किया जाता है। वर्तमान में विश्व के १२५ से ऊपर देशों में लोकतंत्रात्मक शासन चलते हैं। इन सब के लोकतंत्रों में भिन्नता है। लेकिन इन लोकतंत्रों से जो समाज के अंतिम छोर के व्यक्ति के भी हित में काम करने की  अपेक्षा की जाती है वह ये जबतक सर्वे भवन्तु सुखिन: के आधारपर शासन नहीं चलाते पूर्ण नहीं होतीं। इसलिये हम कह सकते हैं कि लोकतंत्र हो तानाशाही हो या राजा का तंत्र वह लोगों के लिये तभी होगा, लोकराज्य तब ही कहलाएगा जब वह धर्मराज्य हो।  
 
लोकतंत्र की व्यवस्था का वर्णन लोगों का लोगों के हित में लोगोंद्वारा चलायी जानेवाली शासन व्यवस्था ऐसा लोकतंत्र का वर्णन किया जाता है। वर्तमान में विश्व के १२५ से ऊपर देशों में लोकतंत्रात्मक शासन चलते हैं। इन सब के लोकतंत्रों में भिन्नता है। लेकिन इन लोकतंत्रों से जो समाज के अंतिम छोर के व्यक्ति के भी हित में काम करने की  अपेक्षा की जाती है वह ये जबतक सर्वे भवन्तु सुखिन: के आधारपर शासन नहीं चलाते पूर्ण नहीं होतीं। इसलिये हम कह सकते हैं कि लोकतंत्र हो तानाशाही हो या राजा का तंत्र वह लोगों के लिये तभी होगा, लोकराज्य तब ही कहलाएगा जब वह धर्मराज्य हो।  
Line 117: Line 117:  
१. महाभारत  
 
१. महाभारत  
   −
२. भारतीय राज्यशास्त्र, लेखक गो. वा. टोकेकर और मधुकर महाजन, प्रकाशक : विद्या प्रकाशन, मुम्बई
+
२. धार्मिक (भारतीय) राज्यशास्त्र, लेखक गो. वा. टोकेकर और मधुकर महाजन, प्रकाशक : विद्या प्रकाशन, मुम्बई
    
३. प्रजातंत्र अथवा वर्णाश्रम व्यवस्था, लेखक गुरुदत्त, प्रकाशक हिन्दी साहित्य सदन, नई दिल्ली
 
३. प्रजातंत्र अथवा वर्णाश्रम व्यवस्था, लेखक गुरुदत्त, प्रकाशक हिन्दी साहित्य सदन, नई दिल्ली

Navigation menu