| SEM APT के आठ अंगों में पहला अंग है यम । यम पाँच हैं, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य । इनके विषय में कहा गया है कि वे सार्वभोम महाब्रत हैं । इसका अर्थ है कि वह समय के प्रवाह में और स्थान के बदलने से परिवर्तित नहीं होते, वे हमेशा किसी भी परिस्थिति में और किसी भी समय में लागू हैं । इनका आचरण करना ही है । फिर भी उनका स्वरूप परिवर्तित होते रहता है । तत्त्व की अहिंसा और व्यवहार की अहिंसा का स्वरूप अलग होता है । तत्त्व के रूप में वे अमूर्त है परंतु व्यवहार के रूप में वे मूर्त हैं । हम सब जानते हैं कि मन, कर्म, वचन से किसी को भी दुःख नहीं पहुँचाना, किसी का भी अहित नहीं करना अहिंसा है । किसी चींटी को भी मारना हिंसा है । किसी को कठोर वचन कहना हिंसा है । परंतु न्यायालय में न्यायाधीश अपराधी को कोड़े लगाने की सजा देते ही हैं । किसी अपराधी को फाँसी की सजा भी दी जाती है । इतना ही क्यों भगवान कृष्ण ने अर्जुन को बार-बार युद्ध करने का उपदेश दिया । युद्ध में हिंसा होती है । श्री कृष्ण योगेश्वर थे, इसका अर्थ है कि वे योगसाधना करते ही थे । योग का उपदेश भी वे देते ही हैं । फिर उन्होंने हिंसा का उपदेश क्यों दिया ? क्या यह सार्वभौम महाव्रत का उल्लंघन नहीं है, ऐसा प्रश्न कोई भी पूछ सकता है । अनेक लोगों ने पूछा भी है । यही तो रहस्य है । किसी को भी दुःख पहुँचाना, किसी को भी हानि पहुँचाना हिंसा ही है । फिर भी भगवान कृष्ण की दिखने वाली हिंसा, हिंसा नहीं है । क्यों कि धर्म की रक्षा के लिए की जाने वाली तथा दिखाई देने वाली हिंसा, हिंसा नहीं है । धर्म की रक्षा करना विश्व का कल्याण करना ही है । विश्व का कल्याण करने के लिए एक व्यक्ति को या उस व्यक्ति के पक्ष में युद्ध करने वाले अनेक व्यक्तियों को मारना आवश्यक है । यदि उन्हें नहीं मारेंगे तो व्यापक हिंसा होगी इस अर्थ में वह कल्याण होगा । इसलिए उनको मार कर व्यापक रूप में विश्व की रक्षा करना अहिंसा है । अधर्म के पक्ष के लोगों को मारने पर या मरवाने पर भी भगवान कृष्ण के हृदय में सबके लिए प्रेम की ही भावना थी और सब के कल्याण की ही इच्छा थी । इसलिए उन्होंने करवाई हुई हिंसा, अहिंसा ही है । तत्त्व की और व्यवहार की अहिंसा का यही अंतर है । यही बात सत्य के विषय में भी सही है, सत्य सार्वभौमक वैश्विक नियमों की वाचिक अभिव्यक्ति है । वह भी सार्वभौम महाब्रत है परंतु विभिन्न परिस्थितियों में यह अभिव्यक्ति भिन्न-भिन्न होती है, यह तो हमारा सब का अनुभव है । एक महात्मा वृक्ष के नीचे ध्यान लगा कर बैठे थे । उस समय एक घबराई हुई महिला भागती-भागती आई और उसने महात्मा से छिपने का उपाय पूछा । महात्मा ने उसे कुछ दूरी पर स्थित अपने आश्रम में छिप जाने के लिए बताया । वह महिला वहाँ जाकर छिप गई कुछ देर पश्चात एक मनुष्य आया । उसने महात्मा को उस महिला के बारे में पूछा । महात्मा को पता चल गया की वह उस महिला को परेशान करना चाहता था । महात्मा ने उस महिला को बचाने की दृष्टि से झूठ बोला और कहा कि वह महिला यहाँ नहीं आई । उस मनुष्य ने महात्मा पर विश्वास कर लिया और वह दूसरी दिशा में चला गया । यह तो सरासर झूठ है । महात्मा ने झूठ बोला ही है, फिर भी महिला को बचाने की दृष्टि से वह एकमात्र मार्ग था, इसलिए उन्होंने असत्य कहा । व्यापक अर्थ में या व्यापक संदर्भ में यह असत्य नहीं कहा जाएगा । यही बात सभी महाब्रतों को लागू है । जो स्वार्थी के लिए सत्य है, जो केवल अपनी ही दृष्टि से या अनिष्ट हेतु सिद्ध करने के लिए बोला जाता है, वह दिखने में सत्य होने पर भी असत्य है, दिखने में अहिंसा होने पर भी हिंसा है । अपराधी के पक्ष में लाभ हो और निरपराधी को हानि हो ऐसा सत्य भी असत्य ही होता है या ऐसी अहिंसा भी हिंसा ही होती है । अन्याय का पक्ष लेना असत्य है, अपराधी का पक्ष लेना हिंसा है, फिर हम चाहे कितने ही सत्यवादी हैं या अहिंसावादी हैं । अन्याय होते हुए देखकर मौन रहना भी असत्य भाषण है । शक्तिमान के आगे निष्क्रिय रहना, दुर्बल को नहीं बचाना और अपनी सुरक्षा कर लेना हिंसा है । इस प्रकार सभी बातों के लिए तत्त्व और व्यवहार का स्वरूप अलग अलग होता है । तत्त्व अमूर्त है इसलिए भिन्नता दिखती नहीं है परंतु व्यवहार दिखते हैं, इसलिए यह भिन्नता दिखाई देती है । कहाँ क्या करना इसके विवेक से और मनोभाव प्रेमपूर्ण होने से विभिन्न परिस्थितियों में कौन सा अच्छा है, कौन सा व्यवहार सत्य और अहिंसा का होगा इसका निर्णय होता है । कहने का तात्पर्य यह है कि व्यवहार करते समय हमें अनेक बातों का विचार करना होता है । व्यवहार का मूल्यांकन करते समय भी हमें अनेक बातों का विचार करना होता है । सत्य और असत्य का, हिंसा और अहिंसा का, इसी प्रकार अच्छे और बुरे का विवेक करना आवश्यक होता है । इसका अर्थ यह है कि शास्त्रों में और स्मृतियों में भिन्न-भिन्न बातें कही हुई होती हैं परंतु वह निरपेक्ष रूप से हमारे लिए प्रमाण नहीं हो सकती, हमें या तो विवेक सीखना है या फिर महाजनों के उदाहरण देखकर अपना आचरण निश्चित करना है । | | SEM APT के आठ अंगों में पहला अंग है यम । यम पाँच हैं, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य । इनके विषय में कहा गया है कि वे सार्वभोम महाब्रत हैं । इसका अर्थ है कि वह समय के प्रवाह में और स्थान के बदलने से परिवर्तित नहीं होते, वे हमेशा किसी भी परिस्थिति में और किसी भी समय में लागू हैं । इनका आचरण करना ही है । फिर भी उनका स्वरूप परिवर्तित होते रहता है । तत्त्व की अहिंसा और व्यवहार की अहिंसा का स्वरूप अलग होता है । तत्त्व के रूप में वे अमूर्त है परंतु व्यवहार के रूप में वे मूर्त हैं । हम सब जानते हैं कि मन, कर्म, वचन से किसी को भी दुःख नहीं पहुँचाना, किसी का भी अहित नहीं करना अहिंसा है । किसी चींटी को भी मारना हिंसा है । किसी को कठोर वचन कहना हिंसा है । परंतु न्यायालय में न्यायाधीश अपराधी को कोड़े लगाने की सजा देते ही हैं । किसी अपराधी को फाँसी की सजा भी दी जाती है । इतना ही क्यों भगवान कृष्ण ने अर्जुन को बार-बार युद्ध करने का उपदेश दिया । युद्ध में हिंसा होती है । श्री कृष्ण योगेश्वर थे, इसका अर्थ है कि वे योगसाधना करते ही थे । योग का उपदेश भी वे देते ही हैं । फिर उन्होंने हिंसा का उपदेश क्यों दिया ? क्या यह सार्वभौम महाव्रत का उल्लंघन नहीं है, ऐसा प्रश्न कोई भी पूछ सकता है । अनेक लोगों ने पूछा भी है । यही तो रहस्य है । किसी को भी दुःख पहुँचाना, किसी को भी हानि पहुँचाना हिंसा ही है । फिर भी भगवान कृष्ण की दिखने वाली हिंसा, हिंसा नहीं है । क्यों कि धर्म की रक्षा के लिए की जाने वाली तथा दिखाई देने वाली हिंसा, हिंसा नहीं है । धर्म की रक्षा करना विश्व का कल्याण करना ही है । विश्व का कल्याण करने के लिए एक व्यक्ति को या उस व्यक्ति के पक्ष में युद्ध करने वाले अनेक व्यक्तियों को मारना आवश्यक है । यदि उन्हें नहीं मारेंगे तो व्यापक हिंसा होगी इस अर्थ में वह कल्याण होगा । इसलिए उनको मार कर व्यापक रूप में विश्व की रक्षा करना अहिंसा है । अधर्म के पक्ष के लोगों को मारने पर या मरवाने पर भी भगवान कृष्ण के हृदय में सबके लिए प्रेम की ही भावना थी और सब के कल्याण की ही इच्छा थी । इसलिए उन्होंने करवाई हुई हिंसा, अहिंसा ही है । तत्त्व की और व्यवहार की अहिंसा का यही अंतर है । यही बात सत्य के विषय में भी सही है, सत्य सार्वभौमक वैश्विक नियमों की वाचिक अभिव्यक्ति है । वह भी सार्वभौम महाब्रत है परंतु विभिन्न परिस्थितियों में यह अभिव्यक्ति भिन्न-भिन्न होती है, यह तो हमारा सब का अनुभव है । एक महात्मा वृक्ष के नीचे ध्यान लगा कर बैठे थे । उस समय एक घबराई हुई महिला भागती-भागती आई और उसने महात्मा से छिपने का उपाय पूछा । महात्मा ने उसे कुछ दूरी पर स्थित अपने आश्रम में छिप जाने के लिए बताया । वह महिला वहाँ जाकर छिप गई कुछ देर पश्चात एक मनुष्य आया । उसने महात्मा को उस महिला के बारे में पूछा । महात्मा को पता चल गया की वह उस महिला को परेशान करना चाहता था । महात्मा ने उस महिला को बचाने की दृष्टि से झूठ बोला और कहा कि वह महिला यहाँ नहीं आई । उस मनुष्य ने महात्मा पर विश्वास कर लिया और वह दूसरी दिशा में चला गया । यह तो सरासर झूठ है । महात्मा ने झूठ बोला ही है, फिर भी महिला को बचाने की दृष्टि से वह एकमात्र मार्ग था, इसलिए उन्होंने असत्य कहा । व्यापक अर्थ में या व्यापक संदर्भ में यह असत्य नहीं कहा जाएगा । यही बात सभी महाब्रतों को लागू है । जो स्वार्थी के लिए सत्य है, जो केवल अपनी ही दृष्टि से या अनिष्ट हेतु सिद्ध करने के लिए बोला जाता है, वह दिखने में सत्य होने पर भी असत्य है, दिखने में अहिंसा होने पर भी हिंसा है । अपराधी के पक्ष में लाभ हो और निरपराधी को हानि हो ऐसा सत्य भी असत्य ही होता है या ऐसी अहिंसा भी हिंसा ही होती है । अन्याय का पक्ष लेना असत्य है, अपराधी का पक्ष लेना हिंसा है, फिर हम चाहे कितने ही सत्यवादी हैं या अहिंसावादी हैं । अन्याय होते हुए देखकर मौन रहना भी असत्य भाषण है । शक्तिमान के आगे निष्क्रिय रहना, दुर्बल को नहीं बचाना और अपनी सुरक्षा कर लेना हिंसा है । इस प्रकार सभी बातों के लिए तत्त्व और व्यवहार का स्वरूप अलग अलग होता है । तत्त्व अमूर्त है इसलिए भिन्नता दिखती नहीं है परंतु व्यवहार दिखते हैं, इसलिए यह भिन्नता दिखाई देती है । कहाँ क्या करना इसके विवेक से और मनोभाव प्रेमपूर्ण होने से विभिन्न परिस्थितियों में कौन सा अच्छा है, कौन सा व्यवहार सत्य और अहिंसा का होगा इसका निर्णय होता है । कहने का तात्पर्य यह है कि व्यवहार करते समय हमें अनेक बातों का विचार करना होता है । व्यवहार का मूल्यांकन करते समय भी हमें अनेक बातों का विचार करना होता है । सत्य और असत्य का, हिंसा और अहिंसा का, इसी प्रकार अच्छे और बुरे का विवेक करना आवश्यक होता है । इसका अर्थ यह है कि शास्त्रों में और स्मृतियों में भिन्न-भिन्न बातें कही हुई होती हैं परंतु वह निरपेक्ष रूप से हमारे लिए प्रमाण नहीं हो सकती, हमें या तो विवेक सीखना है या फिर महाजनों के उदाहरण देखकर अपना आचरण निश्चित करना है । |