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==== किसकी शिक्षा कहाँ और कैसे हो ====
 
==== किसकी शिक्षा कहाँ और कैसे हो ====
 
भारतीय शिक्षा की पुनर्रचना का एक और आयाम है किसकी शिक्षा कहाँ और कैसे होगी इसका विचार करना । इसका विचार कुछ इस प्रकार किया जा सकता है....
 
भारतीय शिक्षा की पुनर्रचना का एक और आयाम है किसकी शिक्षा कहाँ और कैसे होगी इसका विचार करना । इसका विचार कुछ इस प्रकार किया जा सकता है....
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# गर्भाधान से लेकर सात वर्ष की आयु तक की शिक्षा घर में ही मातापिता के सान्निध्य में होगी। इसी दृष्टि से माता को बालक की प्रथम गुरु कहा है।
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# इसके बाद पन्द्रह वर्ष तक की शिक्षा तीन केन्द्रों में विभाजित होगी। एक केन्द्र होगा घर जहाँ गृहस्थ बनने की शिक्षा होगी। इस सन्दर्भ में पिता गुरु है और माता उसकी सहायक । दूसरा केन्द्र विद्यालय है जहाँ उसे देशदुनिया का और धर्म का ज्ञान मिलेगा। विद्यालय के शिक्षक उसके गुरु होंगे। तीसरा केन्द्र होगा उत्पादन का केन्द्र जहाँ वह व्यवसाय सीखेगा। व्यवसाय का मालिक उसका गुरु होगा। तीनों केन्द्रों पर एक विद्यार्थी की तरह ही उसके साथ व्यवहार होगा। यदि उसे शिक्षक, पुरोहित, राज्यकर्ता, अमात्य आदि बनना है तो विद्यालय में ही जायेगा, उत्पादन केन्द्र में जाने की आवश्यकता नहीं।
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# पन्द्रह वर्ष से लेकर विवाह करता है तब तक तीनों केन्द्र पर ही रहेगा परन्तु अब उसका विद्यार्थी और शिक्षक दोनों का काम शुरू होगा। अर्थात् वह विद्यालय में है तो पढेगा और पढायेगा, व्यवसाय केन्द्र में है तो व्यवसाय सीखेगा और करेगा घर में है तो पिता के साथ गृहस्थी के कामों में सहभागी बनेगा। पिता इस स्थिति में व्यवसाय और गृहस्थी दोनों में गुरु हैं। 
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# गृहस्थाश्रम में प्रवेश के साथ उसकी गृहस्थी की शिक्षा शुरू होती है। अब वह पिता, शिक्षक या व्यवसाय के मालिक का विद्यार्थी नहीं है। ये सब उसके मार्गदर्शक हैं। अपनी शिक्षा की चिन्ता अब उसे स्वयं करनी है। 
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# अब मार्गदर्शन प्राप्त करने हेतु उसके घर में बडे बुझुर्ग हैं। ये तो हमेशा साथ ही रहते हैं और नित्य उपलब्ध है। विचारविमर्श करने के लिये पत्नी है जिसकी गृहस्थी की शिक्षा उसके समान ही हुई है। क्रियात्मक अनुभव लेने के लिये घर है जहाँ उसे जिम्मेदारीपूर्वक जीना है। उसका मित्रपरिवार है जो उसके समान ही शिक्षा पूर्ण कर अब गृहस्थ बना है । विद्यालय में तथा घर में प्राप्त शिक्षा का स्मरण रखते हुए अब उसे शिक्षा को क्रियात्मक स्वरूप देना है। घर में बच्चों का जन्म होता है। उनका संगोपन करते करते वह अनुभव प्राप्त करता है। अब अपने बच्चों के लिये वह शिक्षक है । जिस प्रकार मार्गदर्शन के लिये अपने मातापिता से परामर्श करता है उसी प्रकार समय समय पर विद्यालय में भी जाता है जहाँ उसका शिक्षक वृन्द है । इस प्रकार उसकी शिक्षा का यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण चरण है। इस अवस्था की शिक्षा के लिये दो प्रकार की व्यवस्था करनी चाहिये । एक तो विद्यालय में पूर्व छात्र परिषद बनानी चाहिये जिसके माध्यम से विद्यालय में पढकर गये हुए विद्यार्थी निश्चित किये हुए कार्यक्रमों के माध्यम से विद्यालय में आ सकें । दूसरी समाज में भी शिक्षित लोगों की परिषद की रचना करनी चाहिये । यह उनके लिये विश्वविद्यालय का अंग ही होगा जिसमें वे आपस में अनुभवों का आदानप्रदान कर सकते हैं और एकदूसरे से सहयोग प्राप्त कर सकते हैं। ये परिषदें किसी न किसी स्वरूप में विश्वविद्यालय के साथ जुडी रहेंगी। इन परिषदों का एक काम अपने विश्वविद्यालयों की आर्थिक तथा अन्य प्रकार की चिन्ता करने का भी रहेगा । जिस प्रकार वह अपने परिवारजनों के प्रति अपना दायित्व निभाता है उसी प्रकार अपने विद्यालय के प्रति दायित्व भी निभायेगा । इनके माध्यम से विद्यालय भी समाज के साथ जुडा रहेगा । विद्यालय के अन्य व्यवस्थात्मक कार्यों जैसे कि सभा सम्मेलनों या परिषद के आयोजनों में वह सहभागी होता रहेगा। विद्यालय के समाज प्रबोधन कार्यक्रम में भी वह सहभागी बनेगा। वह मातापिता का पुत्र और विद्यालय का विद्यार्थी बना ही रहेगा। 
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# वह प्रौढ अवस्था का होता है तब उसके दो प्रकार के शिक्षक होंगे । एक होंगे ग्रन्थ जिनका स्वाध्याय उसे करना है। अब उसके अध्ययन का स्वरूप चिन्तनात्मक रहेगा। घर में, विद्यालय में और समाज में वह विद्यार्थी कम और शिक्षक अधिक रहेगा। वह धीरे धीरे अनुभवी मार्गदर्शक बनेगा। दूसरा शिक्षक है सन्त, कथाकार, तीर्थयात्रा, धार्मिक अनुष्ठान आदि। यह उसका सत्संग है। यहाँ वह विद्यार्थी के रूप में ही जाता है। अब तक प्राप्त की हुई अनुभवात्मक शिक्षा को और अधिक परिपक्व बनाता है। ऐसी शिक्षा के लिये विश्वविद्यालय के कुलपति और धर्माचार्यों ने मिलकर लोकविद्यालयों की रचना करनी चाहिये । इन विद्यालयों में सत्संग, अनुष्ठान, कथा, प्रवचन आदि के माध्यम से धर्माचर्चा चले । लोकशिक्षा के इन विद्यालयों में जिन्होंने शास्त्रों का अध्ययन किया है ऐसे लोग भी आ सकते हैं और नहीं किया है ऐसे भी लोग आ सकते हैं। दोनों के लिये आवश्यकता के अनुसार शिक्षा की योजना होगी। जरूरी नहीं कि इन विद्यालयों में वानप्रस्थी ही विद्यार्थी के रूप में आयें। जो अभी वानप्रस्थी नहीं हुए हैं ऐसे गृहस्थ भी आ सकते हैं। इनमें उपनिषदों और पुराणों का अध्ययन और देशविदेश की जानकारी देने का प्रबन्ध होगा । सम्पूर्ण समाज को देशकाल परिस्थिति के अनुसार शिक्षित करने हेतु ये विद्यालय होंगे। इन विद्यालयों के संचालन का प्रमुख दायित्व धर्माचार्यों का रहेगा जिन्हें शिक्षक सहायता करेंगे। ऐसे लोकविद्यालयों के नाम भिन्न भिन्न हो सकते हैं परन्तु यह विधिवत्लो कशिक्षा की ही योजना के अंग होंगे।
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# इसके साथ ही वानप्रस्थों, सन्यासियों के लिये जो विद्यालय होंगे वे आश्रम, मन्दिर, मठ आदि नामों से जाने जायेंगे। ये भी सत्संग और धर्माचर्चा, कथाकीर्तन और प्रवचन के माध्यम से समाजशिक्षा का काम ही करेंगे।
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# वानप्रस्थियों के लिये समाजसेवा यह अपेक्षित आचार बनाया जाना चाहिये । समाजेसवा की सारी संस्थायें वानप्रस्थियों के दायित्व में चलेंगी जिनमें वेतन की कोई व्यवस्था नहीं रहेगी। वानप्रस्थियों के निर्वाह का दायित्व उनके परिवार का ही रहेगा। यदि वे घर छोडकर संस्था में ही रहना चाहेंगे तो संस्था निर्वाह कर सकती है परन्तु संस्था में निर्वाह की व्यवस्था हो सके इस उद्देश्य से वे समाजेसवा नहीं करेंगे।
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# समाज में गृहस्थ परिषद, वानप्रस्थ परिषद, प्रौढ वानप्रस्थ परिषद, वृद्ध वानप्रस्थ परिषद आदि अनेक प्रकार की रचनायें हो सकती हैं। गृहसंचालन, समाजसेवा की विभिन्न संस्थाओं का संचालन, सामाजिक उत्सवों, पर्वो आदि का आयोजन इन परिषदों के लिये सीखने सिखाने के विषय रहंगे। इनका नियमन धर्माचार्य करेंगे।
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# इसी प्रकार से विभिन्न उत्पादन केन्द्रों में कार्यरत, अपने ही घर में व्यवसाय करने वाले लोगों की भी परिषदें होंगी जिनका संचालन महाजन करेंगे । इनमें व्यावसायिक कुशलताओं की तथा समाज की समृद्धि की चर्चा होगी।
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इस प्रकार समाजव्यापी शिक्षा की व्यवस्था करनी होगी । देश में कोई अशिक्षित न रहे यह देखने का दायित्व विश्वविद्यालयों का, असंस्कारी न रहे यह देखने का दायित्व धर्माचार्यों का और अभावग्रस्त न रहे यह देखने का काम महाजनों का रहेगा । ये तीनों संस्थायें अपना अपना कार्य अच्छी तरह से कर सकें, निर्विघ्नरूप से कर सकें यह देखने का काम शासक का अर्थात् सरकार का रहेगा।
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१. गर्भाधान से लेकर सात वर्ष की आयु तक की शिक्षा घर में ही मातापिता के सान्निध्य में होगी। इसी दृष्टि से माता को बालक की प्रथम गुरु कहा है।
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इस प्रकार केवल शिक्षा की ही नहीं, उसके साथ साथ धर्मतन्त्र और अर्थतन्त्र की भी पुनर्रचना होगी । अकेले शिक्षा की पुनर्रचना का विचार पर्याप्त नहीं है, साथ में अन्य व्यवस्थाओं की पुनर्रचना का विचार भी करना होगा।
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२. इसके बाद पन्द्रह वर्ष तक की शिक्षा तीन केन्द्रों में विभाजित होगी। एक केन्द्र होगा घर जहाँ गृहस्थ बनने की शिक्षा होगी। इस सन्दर्भ में पिता गुरु है और माता उसकी सहायक दूसरा केन्द्र विद्यालय है जहाँ उसे देशदुनिया का और धर्म का ज्ञान मिलेगा। विद्यालय के शिक्षक उसके गुरु होंगे। तीसरा केन्द्र होगा उत्पादन का केन्द्र जहाँ वह व्यवसाय सीखेगा। व्यवसाय का मालिक उसका गुरु होगा। तीनों केन्द्रों पर एक विद्यार्थी की तरह ही उसके साथ व्यवहार होगा। यदि उसे शिक्षक, पुरोहित, राज्यकर्ता, अमात्य आदि बनना है तो विद्यालय में ही जायेगा, उत्पादन केन्द्र में जाने की आवश्यकता नहीं।
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कहने की आवश्यकता नहीं कि सर्व पुनर्रचना की शुरुआत विश्वविद्यालय में ही होती है । वहाँ जिस प्रकार की शिक्षा प्राप्त होती है वैसे व्यक्ति का आगे का तथा पूरे समाज का जीवन चलता है।
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३. पन्द्रह वर्ष से लेकर विवाह करता है तब तक तीनों केन्द्र पर ही रहेगा परन्तु अब उसका विद्यार्थी और शिक्षक दोनों का काम शुरू होगा। अर्थात् वह विद्यालय में है तो पढेगा और पढायेगा, व्यवसाय केन्द्र में है तो व्यवसाय सीखेगा और करेगा घर में है तो पिता के साथ गृहस्थी के कामों में सहभागी बनेगा। पिता इस स्थिति में व्यवसाय और गृहस्थी दोनों में गुरु हैं। 
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वर्तमान विश्वविद्यालयों का कार्यक्षेत्र और कार्य का स्वरूप अत्यन्त संकुचित, सीमित और एकांगी है। भारत के विश्वविद्यालय ऐसे नहीं हो सकते । उन्हें समाज के साथ समरस होने की आवश्यकता है, जीवनलक्षी होने की आवश्यकता है। इस प्रकार की पुनर्रचना का एक परिणाम यह होगा कि समाज स्वायत्त बनेगा। स्वायत्त समाज अधिक जिम्मेदार होता है, अधिक सक्रिय होता है, अधिक समरस होता हैं। ऐसे समाज में संस्कृति चिरंजीव बनती है और सभ्यता का विकास होता है। ऐसे समाज में भौतिकता भी अभिजात बनती है, निकृष्टता कम होती है। ऐसे समाज के कला, साहित्य, संगीत आदि मनोरंजन से भी अधिक आत्मसाक्षात्कार की दिशा में जा सकते हैं। वैभव नष्ट नहीं होता, परिष्कृत होता है। भारत में इतिहास में अनेक बार ऐसी पुनर्रचनायें हुई हैं, आज भी हो सकती है। भारत की सम्भावना कभी नष्ट नहीं होती।
 
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४. गृहस्थाश्रम में प्रवेश के साथ उसकी गृहस्थी की शिक्षा शुरू होती है। अब वह पिता, शिक्षक या व्यवसाय के मालिक का विद्यार्थी नहीं है। ये सब उसके मार्गदर्शक हैं। अपनी शिक्षा की चिन्ता अब उसे स्वयं करनी है। 
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५. अब मार्गदर्शन प्राप्त करने हेतु उसके घर में बडे बुझुर्ग हैं। ये तो हमेशा साथ ही रहते हैं और नित्य उपलब्ध है। विचारविमर्श करने के लिये पत्नी है जिसकी गृहस्थी की शिक्षा उसके समान ही हुई है। क्रियात्मक अनुभव लेने के लिये घर है जहाँ उसे जिम्मेदारीपूर्वक जीना है। उसका मित्रपरिवार है जो उसके समान ही शिक्षा पूर्ण कर अब गृहस्थ बना है । विद्यालय में तथा घर में प्राप्त शिक्षा का स्मरण रखते हुए अब उसे शिक्षा को क्रियात्मक स्वरूप देना है। घर में बच्चों का जन्म होता है। उनका संगोपन करते करते वह अनुभव प्राप्त करता है। अब अपने बच्चों के लिये वह शिक्षक है । जिस प्रकार मार्गदर्शन के लिये अपने मातापिता से परामर्श करता है उसी प्रकार समय समय पर विद्यालय में भी जाता है जहाँ उसका शिक्षक वृन्द है । इस प्रकार उसकी शिक्षा का यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण चरण है। इस अवस्था की शिक्षा के लिये दो प्रकार की व्यवस्था करनी चाहिये । एक तो विद्यालय में पूर्व छात्र परिषद बनानी चाहिये जिसके माध्यम से विद्यालय में पढकर गये हुए विद्यार्थी निश्चित किये हुए कार्यक्रमों के माध्यम से विद्यालय में आ सकें । दूसरी समाज में भी शिक्षित लोगों की परिषद की रचना करनी चाहिये । यह उनके लिये विश्वविद्यालय का अंग ही होगा जिसमें वे आपस में अनुभवों का आदानप्रदान कर सकते हैं और एकदूसरे से सहयोग प्राप्त कर सकते हैं। ये परिषदें किसी न किसी स्वरूप में विश्वविद्यालय के साथ जुडी रहेंगी। इन परिषदों का एक काम अपने विश्वविद्यालयों की आर्थिक तथा अन्य प्रकार की चिन्ता करने का भी रहेगा । जिस प्रकार वह अपने परिवारजनों के प्रति अपना दायित्व निभाता है उसी प्रकार अपने विद्यालय के प्रति दायित्व भी निभायेगा । इनके माध्यम से विद्यालय भी समाज के साथ जुडा रहेगा । विद्यालय के अन्य व्यवस्थात्मक कार्यों जैसे कि सभा सम्मेलनों या परिषद के आयोजनों में वह सहभागी होता रहेगा। विद्यालय के समाज प्रबोधन कार्यक्रम में भी वह सहभागी बनेगा। वह मातापिता का पुत्र और विद्यालय का विद्यार्थी बना ही रहेगा। 
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६.वह प्रौढ अवस्था का होता है तब उसके दो प्रकार के शिक्षक होंगे । एक होंगे ग्रन्थ जिनका स्वाध्याय उसे करना है। अब उसके अध्ययन का स्वरूप चिन्तनात्मक रहेगा। घर में, विद्यालय में और समाज में वह विद्यार्थी कम और शिक्षक अधिक रहेगा। वह धीरे धीरे अनुभवी मार्गदर्शक बनेगा। दूसरा शिक्षक है सन्त, कथाकार, तीर्थयात्रा, धार्मिक अनुष्ठान आदि। यह उसका सत्संग है। यहाँ वह विद्यार्थी के रूप में ही जाता है। अब तक प्राप्त की हुई अनुभवात्मक शिक्षा को और अधिक परिपक्व बनाता है। ऐसी शिक्षा के लिये विश्वविद्यालय के कुलपति और धर्माचार्यों ने मिलकर लोकविद्यालयों की रचना करनी चाहिये । इन विद्यालयों में सत्संग, अनुष्ठान, कथा, प्रवचन आदि के माध्यम से धर्माचर्चा चले । लोकशिक्षा के इन विद्यालयों में जिन्होंने शास्त्रों का अध्ययन किया है ऐसे लोग भी आ सकते हैं और नहीं किया है ऐसे भी लोग आ सकते हैं। दोनों के लिये आवश्यकता के अनुसार शिक्षा की योजना
      
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