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# धर्माचार्यों को भोग विलास के साधन बहत सुलभ हो जाते हैं। इनसे प्रभावित नहीं होना भी मानसिक तप है.
 
# धर्माचार्यों को भोग विलास के साधन बहत सुलभ हो जाते हैं। इनसे प्रभावित नहीं होना भी मानसिक तप है.
 
* धर्माचार्यों के लिये तप का तीसरा आयाम है शारीरिक तप का । इसके कुछ आयाम इस प्रकार हैं...
 
* धर्माचार्यों के लिये तप का तीसरा आयाम है शारीरिक तप का । इसके कुछ आयाम इस प्रकार हैं...
१. धर्माचार्य गृहस्थ हो, वानप्रस्थ हो या संन्यासी उसे धर्म के विरोधी किसी भी प्रकार का आचरण नहीं करना चाहिये।
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# धर्माचार्य गृहस्थ हो, वानप्रस्थ हो या संन्यासी उसे धर्म के विरोधी किसी भी प्रकार का आचरण नहीं करना चाहिये।
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# खानपान, वेशभूषा, बोलचाल, उपभोग आदि में संयम, सादगी और त्याग होना ही चाहिये । उदाहरण के लिये न खाने के पदार्थ खाना, शृंगार और अलंकारों का अतिरेक करना, शृंगार की बातें करना, टीवी सिनेमा आदि में अधिक रुचि लेना किसी को प्रेरणा देने वाला आचरण नहीं होता। भारतीय मानस संयम, सदाचार, त्याग, अनुशासन आदि से ही प्रेरित होता है । दम्भ समझता है, उससे प्रभावित नहीं होता। जिसे समाज का मार्गदर्शन करना है उसे शारीरिक स्तर के वैभव विलास से परहेज करना ही होता है। दिखावे के लिये संयम और एकान्त में असंयम से चरित्र दुर्बल होता है और लोग छले नहीं जाते इसलिये ऐसा करने से सब कुछ नष्ट होता है।
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# जो समाजविरोधी, पर्यावरणविरोधी, स्वास्थ्यविरोधी है वह धर्मविरोधी है। जरा इन बातों पर विचार करना चाहिये...
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* विदेशी वस्तुयें आकर्षक और सुविधायुक्त हैं, क्या उन्हें अपनाने से बच सकते हैं ? ए.सी. पर्यावरण विरोधी है। क्या उससे बचकर गर्मी सह सकते हैं ?
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* बिना स्नान के भोजन करने का नियम अपनाने में कभी चौबीस घण्टे भूखा रहना पड़ सकता है। क्या ऐसा नियम अपना सकते हैं ?
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* प्लास्टिक और पोलीएस्टर पर्यावरण का भयंकर नुकसान करते हैं। क्या उनका त्याग कर अनेक प्रकार की असुविधाओं का स्वीकार कर सकते हैं, और अन्यों को भी इनका त्याग करने हेतु प्रेरित कर सकते हैं?
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* क्या काले धन का अस्वीकार कर सकते हैं?
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ऐसे तो अनेक आयाम हैं जो शारीरिक स्तर पर असुविधा, कष्ट, अभाव आदि का स्वीकार करने हेतु बाध्य बना सकते हैं। यही एक धर्माचार्य के लिये तप है। धर्माचार्य स्वयं जब ऐसा तप करते हैं तब वे समाज का मार्गदर्शन कर सकते हैं, समाज को प्रभावित कर सकते हैं।
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उपरी स्तर पर प्रभावित करने के तरीके अपनाना सरल है, परन्तु उनसे आन्तरिक और स्थायी परिवर्तन नहीं होता । समाज को शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक स्तर पर प्रभावित और प्रेरित करने हेतु तीनों प्रकार के तप करने होते है।
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जितनी तपश्चर्या उग्र उतना ही प्रभाव स्थायी यह वैज्ञानिक नियम है । समाज यदि दुर्बल है तो उसका कारण धर्माचार्यों की तपश्चर्या कम पड़ रही है यही समझना चाहिये।
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ऐसा नहीं है कि आज ऐसा तप करनेवाले लोग हैं ही नहीं । तपश्चर्या करने वाले लोग हैं इसीलिये समाज पूर्ण रूप से नष्ट नहीं हो रहा है और अच्छे भविष्य की सम्भावना बची है। परन्तु तप कम पड रहा है यह भी स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है। आसुरी शक्तियों का प्रभाव बढ़ रहा है यही इसका प्रमाण है। जो हैं उन धर्माचार्यों को अपनी तपश्चर्या बढाना यह एक आवश्यकता है, तपश्चर्या करने वालों की संख्या बढाना दूसरी आवश्यकता है। यह भी ध्यान में रखने की बात है कि केवल संख्या बढ़ने से होगा नहीं, तपश्चर्या की मात्रा भी बढनी चाहिये । सत्ययुग हो या कलियुग तपश्चर्या की उग्रता तो होना आवश्यक ही है।
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==== समाज के लिये तप ====
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अच्छे धर्माचार्य प्राप्त हों यह समाजका भी भाग्य है। ऐसा भाग्य प्राप्त होने हेतु समाज को भी तप करने की आवश्यकता होती है।
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समाज के तप के कुछ आयाम इस प्रकार हैं...
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आस्था, विश्वास और श्रद्धा का भाव सांस्कृतिक विकास के लिये आवश्यक है। आज इन तीनों बातों का अभाव सार्वत्रिक रूप में दिखाई दे रहा है। किसी की किसी बात पर या किसी व्यक्ति पर श्रद्धा नहीं है। इसी प्रकार किसी पर विश्वास भी नहीं है। किसी तत्त्व पर, किसी सिद्धान्त पर, किसी ग्रन्थ पर आस्था भी नहीं है। ये तीनों बातें दिखाई भी देती हैं तो बहुत जल्दी नष्ट भी हो जाती हैं । इसका कारण यह है कि किसी न किसी स्वार्थ की पूर्ति के आलम्बन से जब आस्था, विश्वास या श्रद्धा जुड़ जाते हैं
    
कर्तव्य का विचार प्रथम करना है, भोग और सुविधा के बारे में अपने आपको अन्त में रखना है। इस तथ्य का स्वीकार करना तप का प्रथम चरण है। तप त्याग की अपेक्षा करता है । वर्तमान स्थिति को देखते हुए प्रथम त्याग सम्मान और प्रतिष्ठा का करना होगा । आज अनुयायिओं की ओर से जो सम्मान मिलता है और उसके कारण जो प्रतिष्ठा मिलती है वह हमें तप नहीं करने देती। इन दो बातों के लिये सिद्धता करेंगे तो आगे के तप के लिये भी सिद्धता होगी। धर्माचार्यों को आज बौद्धिक तप की बहुत आवश्यकता है। इस तप के मुख्य आयाम इस प्रकार
 
कर्तव्य का विचार प्रथम करना है, भोग और सुविधा के बारे में अपने आपको अन्त में रखना है। इस तथ्य का स्वीकार करना तप का प्रथम चरण है। तप त्याग की अपेक्षा करता है । वर्तमान स्थिति को देखते हुए प्रथम त्याग सम्मान और प्रतिष्ठा का करना होगा । आज अनुयायिओं की ओर से जो सम्मान मिलता है और उसके कारण जो प्रतिष्ठा मिलती है वह हमें तप नहीं करने देती। इन दो बातों के लिये सिद्धता करेंगे तो आगे के तप के लिये भी सिद्धता होगी। धर्माचार्यों को आज बौद्धिक तप की बहुत आवश्यकता है। इस तप के मुख्य आयाम इस प्रकार
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