वर्तमान समय की बात करें तो यह सिद्धान्त कल्पनातीत लगता है। छोटे बच्चों की शिशुवाटिका से लेकर आयुर्विज्ञान, अभियान्त्रिकी, संगणक, वाणिज्य आदि सभी क्षेत्रों की शिक्षा बहुत महँगी हो गई है। निर्धन या कम पैसे वाले लोग शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकते । शिक्षा के लिये बैंकों से कर्जा अवश्य मिलता है परन्तु वह बहुत बड़ी चिन्ता का कारण बनता है, यह भी अनेक भुक्तभोगियों का अनुभव है। सरकार प्राथमिक शिक्षा निःशुल्क देने की व्यवस्था करती है परन्तु उसका लाभ लेने वाले कम ही लोग होते हैं। ऐसी स्थिति में अर्थ निरपेक्ष शिक्षा का प्रचलन अवास्तविक और अव्यावहारिक लगना स्वाभाविक है। परन्तु शिक्षा वैसी थी अवश्य । इसका सामाजिक सन्दर्भ ही इस व्यवस्था के लिये अनुकूल था, इसलिये यह समाज में स्वीकृत था। | वर्तमान समय की बात करें तो यह सिद्धान्त कल्पनातीत लगता है। छोटे बच्चों की शिशुवाटिका से लेकर आयुर्विज्ञान, अभियान्त्रिकी, संगणक, वाणिज्य आदि सभी क्षेत्रों की शिक्षा बहुत महँगी हो गई है। निर्धन या कम पैसे वाले लोग शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकते । शिक्षा के लिये बैंकों से कर्जा अवश्य मिलता है परन्तु वह बहुत बड़ी चिन्ता का कारण बनता है, यह भी अनेक भुक्तभोगियों का अनुभव है। सरकार प्राथमिक शिक्षा निःशुल्क देने की व्यवस्था करती है परन्तु उसका लाभ लेने वाले कम ही लोग होते हैं। ऐसी स्थिति में अर्थ निरपेक्ष शिक्षा का प्रचलन अवास्तविक और अव्यावहारिक लगना स्वाभाविक है। परन्तु शिक्षा वैसी थी अवश्य । इसका सामाजिक सन्दर्भ ही इस व्यवस्था के लिये अनुकूल था, इसलिये यह समाज में स्वीकृत था। |