Line 152: |
Line 152: |
| इसलिये विद्यार्थी के लिये फीस, शिक्षकों के लिये वेतन और विद्याकेन्द्रों के लिये भरपूर संचालन व्यय इन सब बातों को हम कभी शिक्षा के साथ जोड़ नहीं सकते। इस प्रकार के संदर्भ पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं। अर्थनिरपेक्ष शिक्षातंत्र का विचार ही उचित है। | | इसलिये विद्यार्थी के लिये फीस, शिक्षकों के लिये वेतन और विद्याकेन्द्रों के लिये भरपूर संचालन व्यय इन सब बातों को हम कभी शिक्षा के साथ जोड़ नहीं सकते। इस प्रकार के संदर्भ पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं। अर्थनिरपेक्ष शिक्षातंत्र का विचार ही उचित है। |
| | | |
− | पैसों का संबंध शिक्षा के साथ नहीं है। पैसों का संबंध मनुष्य के साथ है। मनुष्य को आवास, भोजन, वस्त्र इत्यादि आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये पैसों की आवश्यकता रहती है। इसलिये पढ़ने वाले और पढ़ाने वाले दोनों की इन आवश्यकताओं की पूर्ति तो होनी ही चाहिये। भारत में इन बातों की पूर्ति करने का दायित्व समाज का माना गया है। अध्ययन, अध्यापन यह केवल किसी एक व्यक्ति की आवश्यकता नहीं हो सकती; यह पूरे समाज की आवश्यकता है। यदि समाज को सर्वतोमुखी विकास | + | पैसों का संबंध शिक्षा के साथ नहीं है। पैसों का संबंध मनुष्य के साथ है। मनुष्य को आवास, भोजन, वस्त्र इत्यादि आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये पैसों की आवश्यकता रहती है। इसलिये पढ़ने वाले और पढ़ाने वाले दोनों की इन आवश्यकताओं की पूर्ति तो होनी ही चाहिये। भारत में इन बातों की पूर्ति करने का दायित्व समाज का माना गया है। अध्ययन, अध्यापन यह केवल किसी एक व्यक्ति की आवश्यकता नहीं हो सकती; यह पूरे समाज की आवश्यकता है। यदि समाज को सर्वतोमुखी विकास चाहिये तो ज्ञाननिष्ठ बनना चाहिये। |
| + | |
| + | इसलिये अध्ययन अध्यापन करने वाले वर्ग के योगक्षेम की चिंता भी करनी ही चाहिये। यह व्यवस्था किसी विशेष परिस्थिति में, आपद्धर्म के रूप में राज्य करता है तो भी अच्छा है। किन्तु सामान्य परिस्थिति में तो समाज करे यही इष्ट है। समाज यह व्यवस्था किस प्रकार करता है इसके वास्तविक उदाहरण हमें इतिहास में मिल सकते हैं। आज के संदर्भ में इस विषय में नये सिरे से विचार करना चाहिये। |
| + | |
| + | अपने पास जो व्यक्ति ज्ञान प्राप्त करने के लिये आता है, पढ़ने के लिये आता है, उसकी योग्य रूप से परीक्षा करने के बाद अध्यापक उसे पढ़ाने की जिम्मेदारी लेता है। उसके आगे धन विषयक शर्ते नही रखता है। किन्तु भारत में एक परंपरा ऐसी भी है, कि हमें जिनसे ज्ञान प्राप्त करना है उनके पास हम खाली हाथ नहीं जा सकते। अपनी अपनी हैसियत के अनुसार पढ़ने वाले को पढ़ाने वाले के लिये कुछ न कुछ लेकर ही जाना होता है। इसके लिये शब्दप्रयोग हुआ है, 'समित्पाणि'। विद्यार्थी को शिक्षक के पास समित्पाणि होकर ही जाना चाहिये। 'समित्' का अर्थ है, 'समिधा'। और 'समिधा' का अर्थ है, यज्ञ में आहुति देने के लिये उपयोग में आने वाली पवित्र लकड़ी। यह एक प्रतीक है। जब यज्ञ संस्कृति पूर्ण विकसित थी तब यज्ञ में आहुति देने योग्य पदार्थ ही अहम माना जाता था। किन्तु इसका लाक्षणिक अर्थ है, गुरु के लिये उपयोगी हो ऐसा कुछ न कुछ लेकर जाना। क्या और कितना लेकर जाना यह बात निश्चित नहीं होती। अपनी अपनी श्रद्धा के अनुसार लेकर जाना यह भी उचित नहीं। श्रद्धा तो सबकी एक समान ही होती है। अपनी अपनी हैसियत के अनुसार लेकर जाना यही उचित है। राजा का बेटा अपनी हैसियत के अनुसार ले जायेगा, निर्धन का बेटा अपनी हैसियत के अनुसार ले जायेगा। दोनों का ज्ञानप्राप्ति का अधिकार समान ही माना जायेगा। अध्यापक के योगक्षेम का यह भी एक साधन माना जा सकता है। |
| + | |
| + | ४. उसी प्रकार अध्ययन पूर्ण होने के बाद गुरुदक्षिणा देना यह भी प्रत्येक अध्येता का नैतिक दायित्व माना जाता है। इस दायित्व को भूलने की तो अच्छे विद्यार्थी को कल्पना भी नहीं आती। गुरुदक्षिणा भी शिष्य की हैसियत के अनुसार ही होगी यह एक व्यावहारिक बात है। किसी विशेष परिस्थिति में गुरु की अपेक्षा के अनुसार गुरुदक्षिणा देना भी शिष्य का कर्तव्य बनता है। गुरु भी शिष्य की हैसियत का, सामर्थ्य का विचार करने के बाद ही गुरुदक्षिणा माँगेंगें यह भी एक स्वाभाविक बात है। इस स्थिति में यदि शिष्य गुरु की अपेक्षा के प्रति संदेह करे, या उस अपेक्षा के औचित्य या अनौचित्य का मूल्यांकन करे यह भी कल्पना के परे की बात मानी जायेगी। |
| + | |
| + | गुरु जब गुरुदक्षिणा के विषय में अपनी अपेक्षा व्यक्त करते हैं, तब अधिकांश वह सामाजिक हित के विषय की ही बात हो सकती है। गुरु कभी भी व्यक्तिगत रूप से अपने लिये किसी भी बात की अपेक्षा व्यक्त नहीं करते। फिर भी यह अपेक्षा किसी सामाजिक हित के लिये है या किसी व्यक्तिगत स्वार्थ के लिये यह सोचने का काम शिष्य का नहीं है। |
| + | |
| + | ५. भारत में गुरुकुल परंपरा रही है। गुरुकुल के अधिष्ठाता को कुलपति कहा जाता है। कुलपति उसे कहते हैं जो दस हजार शिष्यों की शिक्षा और निर्वाह का दायित्व अपने ऊपर ले। इसका वास्तविक अर्थ तो यह हुआ कि पढ़ने वाले की कोई जिम्मेदारी नहीं है। शिक्षा देने की सभी प्रकार की जिम्मेदारी पढ़ाने वाले की ही है। आज के समय में इसकी कल्पना तक करना कठिन है। लेकिन यह काल्पनिक बात नहीं है, यह भी हम सब जानते हैं। अनेक कुलपतियों के नाम भी हम सब जानते हैं। कुलपति किस प्रकार यह व्यवस्था करते होंगे यह एक बहुत बड़ा, महत्त्वपूर्ण शोध का विषय है। |
| + | |
| + | ६. केवल गुरुकुल ही नहीं, आश्रम भी चलते थे। आश्रमों में शिष्य भिक्षा माँगने जायेंगे ऐसी व्यवस्था थी। यह भी निर्वाह की एक पद्धति ही है। इस भिक्षातंत्र का नियोजन भी गुरु ही करते थे, किन्तु उसका निर्वाह समाज के आधार पर ही होता था। भिक्षा को विवशता मान लेना अथवा एक तिरस्करणीय कार्य मान लेना यह उसका गलत अर्थघटन होगा। विद्याकेंद्रों के निर्वाह के लिये समाज की सहभागिता होना यह एक मानवीय व्यवस्था मानी जानी चाहिये। |
| + | |
| + | ७. भारत के शिक्षा के इतिहास में तक्षशिला, नालंदा जैसे बड़े बड़े विद्यापीठों के नाम भी प्रसिद्ध हैं। ये विद्यापीठ विद्याभवन, ग्रंथभांडार, निवास, भोजन जैसी व्यवस्थाओं में समृद्ध थे। ये सभी व्यवस्थाएँ राज्य और समाज के द्वारा होती थी, किन्तु इसको 'अनुदान' नहीं कहा जाता था। अनुदान कहने के साथ ही शर्ते और अधीनता आ जाती है। विद्यीपीठों ने कभी राज्य या समाज की अधीनता का स्वीकार नहीं किया था। अर्थात् समाज अथवा राज्य के द्वारा विद्याकेन्द्रों का योगक्षेम चल रहा हो तो भी समग्र योजना का सूत्र संचालन अध्यापक के हाथ में ही हो यह भारतीय शिक्षा व्यवस्था की एक विशेषता रही है। |
| + | |
| + | ये सभी मुद्दे पर्याप्त शोध और अध्ययन की अपेक्षा रखते हैं। साथ ही यह चिंतन का विषय भी है। ये सभी रखते हैं। साथ ही यह चिंतन का विषय भी है। ये सभी बातें आज के युग में अकल्प्य, अवास्तविक और अव्यावहारिक लग सकती हैं। आज के युग में इस प्रकार की व्यवस्था चलाने का कोई विचार भी नहीं कर सकता। फिर भी हमें यह भूलना नहीं चाहिये कि अभी अभी तक ये सभी व्यवस्थाएँ हमारे देश में मौजूद थीं। इसलिये अर्थनिरपेक्ष, फिर भी (या तो इसीलिये) टिकाऊ और गुणवत्ता से पूर्ण व्यवस्थाओं के विषय में विचार करने की आवश्यकता है। |
| + | |
| + | आहति देने योग्य पदार्थ ही अहम माना जाता था। किन्तु इसका लाक्षणिक अर्थ है, गुरु के लिये उपयोगी हो ऐसा कुछ न कछ लेकर जाना। क्या |
| | | |
| आज हर विद्यालय सशुल्क ही चलता है । इसमें किसी को आपत्ति भी नहीं होती । विद्यालय की शुल्कव्यवस्था इस प्रश्नावली के प्रश्न पुछकर कुछ लोगों से बातचीत हुई उनसे प्राप्त उत्तर इस प्रकार रहे - | | आज हर विद्यालय सशुल्क ही चलता है । इसमें किसी को आपत्ति भी नहीं होती । विद्यालय की शुल्कव्यवस्था इस प्रश्नावली के प्रश्न पुछकर कुछ लोगों से बातचीत हुई उनसे प्राप्त उत्तर इस प्रकार रहे - |