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आज के युग में शिक्षा को उद्योग माना जाता है। इसलिये पैसों के संदर्भ में ही इसका विचार किया जाता है। उसको खरीदने बेचने की चीज़ या तो फिर धन कमाने का साधन माना जाता है। इसलिये हर एक चरण पर शुल्क (फीस), वेतन, भत्ता, संचालन व्यवस्था, प्रशासन आदि बातों का संदर्भ लिया जाता है। इस परिप्रेक्ष्य में भारत का विचार मूल से जानने की आवश्यकता है।  
 
आज के युग में शिक्षा को उद्योग माना जाता है। इसलिये पैसों के संदर्भ में ही इसका विचार किया जाता है। उसको खरीदने बेचने की चीज़ या तो फिर धन कमाने का साधन माना जाता है। इसलिये हर एक चरण पर शुल्क (फीस), वेतन, भत्ता, संचालन व्यवस्था, प्रशासन आदि बातों का संदर्भ लिया जाता है। इस परिप्रेक्ष्य में भारत का विचार मूल से जानने की आवश्यकता है।  
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१. शिक्षा कोई खरीदने की या बेचने की वस्तु नहीं है,
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१. शिक्षा कोई खरीदने की या बेचने की वस्तु नहीं है, यह प्रथम मुद्दा है। शिक्षा समाज को ज्ञाननिष्ठ बनाने की व्यवस्था है। शिक्षा का संबंध बुद्धि, भावना और कुशलता के साथ है। ये तीनों बातें पैसे से पर है। 'पर' का अर्थ अधिक गुणों से युक्त। 'पर' अर्थात् श्रेष्ठ, 'पर' अर्थात् उसके अधिकारक्षेत्र से बाहर की बात । ऐसा होने के कारण शिक्षा की - चाहे वह अध्ययन हो या अध्यापन - कीमत पैसे से आँकी नहीं जा सकती।
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व्यवहार में भी देखा जाय तो अधिक पैसे देने वाला अधिक ज्ञान पा सकता है यह बात संभव नहीं है। क्योंकि ज्ञान बुद्धि, श्रद्धा, एकाग्रता, संयम, सेवाभावना और साधना से प्राप्त किया जा सकता है। ये सभी योग्यताएँ केवल धनवान के पास हों और निर्धन के पास न हों ऐसा तो होता नहीं। उसी प्रकार अधिक वेतन पाने पर अध्यापक अच्छा पढ़ाएँगे यह समीकरण भी ठीक नहीं है। विद्यार्थीनिष्ठा, समाजनिष्ठा और ज्ञाननिष्ठा के परिणामस्वरूप अध्यापन की कुशलता प्राप्त होती है, पैसों के कारण नहीं।
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अत्यंत सुविधापूर्ण स्थान में बैठ कर ही अच्छा अध्ययन हो सकता है यह बात भी ठीक नहीं।
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इसलिये विद्यार्थी के लिये फीस, शिक्षकों के लिये वेतन और विद्याकेन्द्रों के लिये भरपूर संचालन व्यय इन सब बातों को हम कभी शिक्षा के साथ जोड़ नहीं सकते। इस प्रकार के संदर्भ पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं। अर्थनिरपेक्ष शिक्षातंत्र का विचार ही उचित है।
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पैसों का संबंध शिक्षा के साथ नहीं है। पैसों का संबंध मनुष्य के साथ है। मनुष्य को आवास, भोजन, वस्त्र इत्यादि आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये पैसों की आवश्यकता रहती है। इसलिये पढ़ने वाले और पढ़ाने वाले दोनों की इन आवश्यकताओं की पूर्ति तो होनी ही चाहिये। भारत में इन बातों की पूर्ति करने का दायित्व समाज का माना गया है। अध्ययन, अध्यापन यह केवल किसी एक व्यक्ति की आवश्यकता नहीं हो सकती; यह पूरे समाज की आवश्यकता है। यदि समाज को सर्वतोमुखी विकास
    
आज हर विद्यालय सशुल्क ही चलता है । इसमें किसी को आपत्ति भी नहीं होती । विद्यालय की शुल्कव्यवस्था इस प्रश्नावली के प्रश्न पुछकर कुछ लोगों से बातचीत हुई उनसे प्राप्त उत्तर इस प्रकार रहे -  
 
आज हर विद्यालय सशुल्क ही चलता है । इसमें किसी को आपत्ति भी नहीं होती । विद्यालय की शुल्कव्यवस्था इस प्रश्नावली के प्रश्न पुछकर कुछ लोगों से बातचीत हुई उनसे प्राप्त उत्तर इस प्रकार रहे -  
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