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# थैला कैसा होना चाहिए ? इस प्रश्न के उत्तर में यह मत उभरकर आया कि अध्ययन से सम्बन्धित सारी शैक्षिक सामग्री थैले में समा जाय इतना बड़ा हो, सामग्री भीगे नहीं इसलिए प्लास्टिक कॉटेड हो । बिना बस्ते के अध्ययन संभव नहीं है, यह समीकरण सबके मन में गहरा बैठ गया है।
 
# थैला कैसा होना चाहिए ? इस प्रश्न के उत्तर में यह मत उभरकर आया कि अध्ययन से सम्बन्धित सारी शैक्षिक सामग्री थैले में समा जाय इतना बड़ा हो, सामग्री भीगे नहीं इसलिए प्लास्टिक कॉटेड हो । बिना बस्ते के अध्ययन संभव नहीं है, यह समीकरण सबके मन में गहरा बैठ गया है।
 
# बस्तों की कीमतें भी ७०० से १००० रुपये तक होती हैं। जो बस्ते में रखी हुई कॉपी किताबों से भी अधिक होती है। कुल मिलाकर बस्ते बहुत अधिक खर्चीले हो गये हैं; जो वास्तव में अनावश्यक खर्च है।
 
# बस्तों की कीमतें भी ७०० से १००० रुपये तक होती हैं। जो बस्ते में रखी हुई कॉपी किताबों से भी अधिक होती है। कुल मिलाकर बस्ते बहुत अधिक खर्चीले हो गये हैं; जो वास्तव में अनावश्यक खर्च है।
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फिर भी प्रतिवर्ष नया बस्ता चाहिए, नई कक्षा, नया बस्ता की माँग बनी ही रहती है । एक शिक्षक ने यह सुझाव अवश्य दिया है कि यदि बस्ता घर पर ही सिलाया जाय तो बहुत सस्ता पड़ सकता है ।
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बस्ते का बोझ कम करने के उपायों में ये सुझाव आये - १. समय सारिणी के अनुसार किताबें-कॉपियाँ ले जाना। २. संगणक, टेब आदि इलेक्ट्रोनिक साधनों का उपयोग । ३. स्लेट-पेंसिल, कृष्णफलक का अधिकाधिक मात्रा में उपयोग । कुल मिलाकर कहें तो शिक्षा माने भारी बस्ता, यह गृहीत आज सर्वसामान्य होने के कारण, इतना बोझ अच्छा नहीं यह समझते हुए भी व्यवहार में यही चल रहा है।
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==== अभिमत : ====
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शिक्षा के बारे में जो चित्र-विचित्र धारणायें मन में बैठ गई हैं उनका ही परिपाक उत्तरो में दिखाई देता है। साध्य-साधन विवेक न होने के कारण साधन को श्रेष्ठ मानने का अविवेकी व्यवहार सर्वत्र दिखाई देता है । विद्या के बारे में एक सुभाषित में कहा गया है - 'न चौर्यहारं न च भारकारी' फिर भी बस्तों का महत्त्व आज अकारण बढ़ गया है। के. जी. कक्षा से ही बालक ज्ञानवाही (ज्ञान को वहन करने वाला) न होकर भारवाही बन गया है। शालेय वस्तुओं का व्यवसाय होने के कारण आकर्षक छूट, कमिशन, रंग-रूप में नवीनता एवं विविधता ये सब अभिभावकों पर भारी पड़ रहे हैं, ऐसा लगता है।
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शिशु वाटिका में डिब्बे के लिए थैली पर्याप्त होती है। और प्राथमिक कक्षाओं में स्लेट पेंसिल एवं एक दो किताब कॉपी बहुत होती हैं। आज भारी बस्ता उठाना
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कठिन है, इसलिए बस, रिक्शा, दादा-दादी या नौकर चाहिए । छात्रों के मन में बस्ते के प्रति आदर व पवित्रता का भाव न होने के कारण वे उसे मालगाड़ी के सामान की तरह फेंक देते हैं। बस्ते के पाँव लग जाने पर सौरी शब्द बोलकर उसका परिमार्जन कर लेते हैं । बस्ते का बोझ कम करने के लिए एक विद्यालय ने अच्छा उपक्रम किया। प्रत्येक छात्र ने अपनी वार्षिक परीक्षाएँ पूर्ण होने के बाद अपनी सारी पुस्तकों की मरम्मत
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यह प्रश्नावली छत्तीसगढ के प्रधानाचार्य श्री हंसा रागीजी के द्वारा भरकर भेजी है। उनके उत्तरों का आशय
 
यह प्रश्नावली छत्तीसगढ के प्रधानाचार्य श्री हंसा रागीजी के द्वारा भरकर भेजी है। उनके उत्तरों का आशय
  
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