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दूसरा छात्रों की आयु व उनके शरीर स्वास्थ्य की दृष्टि से नीचे बैठने में किसी भी प्रकार की कोई कठिनाई नहीं है। फिर भी डेस्क व बैंच या टेबल-कुर्सी की अनिवार्यता बना देना किसी भी प्रकार से शास्त्र सम्मत नहीं है । फिर भी सर्वदर इसी व्यवस्था को अपनाया हुआ है। हमारे यहाँ तो नीचे भूमि पर मोटा आसन बिछाकर उस पर बैठना और सामने ढालिया (छोटी डेस्क) रखा होना, आदर्श व्यवस्था मानी जाती है । टेबल कुर्सी पर बैठने से शरीरस्थ ऊर्जा अधोगामी होकर पैरों के द्वारा पृथ्वी में चली जाती है। जबकि नीचे पद्मासन या सुखासन में मेरू दण्ड को सीधा रखकर बैठने से शरीरस्थ ऊर्जा उर्ध्वमुखी होकर मस्तिष्क में जाती है । आसन लगाकर बैठने से दोनों पाँवों में बन्ध लग जाता है, इसलिए ऊर्जा अधोगामी नहीं हो पाती । पीठ सीधी रखकर बैठने से एकाग्रता आती है व ग्रहणशीलता बढती है । मस्तिष्क को ऊर्जा मिलते रहने से अधिक समयतक पढ़ा जाता है।
 
दूसरा छात्रों की आयु व उनके शरीर स्वास्थ्य की दृष्टि से नीचे बैठने में किसी भी प्रकार की कोई कठिनाई नहीं है। फिर भी डेस्क व बैंच या टेबल-कुर्सी की अनिवार्यता बना देना किसी भी प्रकार से शास्त्र सम्मत नहीं है । फिर भी सर्वदर इसी व्यवस्था को अपनाया हुआ है। हमारे यहाँ तो नीचे भूमि पर मोटा आसन बिछाकर उस पर बैठना और सामने ढालिया (छोटी डेस्क) रखा होना, आदर्श व्यवस्था मानी जाती है । टेबल कुर्सी पर बैठने से शरीरस्थ ऊर्जा अधोगामी होकर पैरों के द्वारा पृथ्वी में चली जाती है। जबकि नीचे पद्मासन या सुखासन में मेरू दण्ड को सीधा रखकर बैठने से शरीरस्थ ऊर्जा उर्ध्वमुखी होकर मस्तिष्क में जाती है । आसन लगाकर बैठने से दोनों पाँवों में बन्ध लग जाता है, इसलिए ऊर्जा अधोगामी नहीं हो पाती । पीठ सीधी रखकर बैठने से एकाग्रता आती है व ग्रहणशीलता बढती है । मस्तिष्क को ऊर्जा मिलते रहने से अधिक समयतक पढ़ा जाता है।
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वटवृक्ष के नीचे उच्चासन में गुरु बैठे हैं, उनके सामने नीचे भूमि पर सुखासन में मेरुदण्ड को सीधा रखकर सभी शिष्य बैठे हुए हैं । यह मात्र गुरुकुल का चित्र नहीं है, अपितु ज्ञानार्जन के लिए बैठने की आदर्श व्यवस्था का चित्र है । जो
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वटवृक्ष के नीचे उच्चासन में गुरु बैठे हैं, उनके सामने नीचे भूमि पर सुखासन में मेरुदण्ड को सीधा रखकर सभी शिष्य बैठे हुए हैं । यह मात्र गुरुकुल का चित्र नहीं है, अपितु ज्ञानार्जन के लिए बैठने की आदर्श व्यवस्था का चित्र है । जो आज भी विद्यालयों में सम्भव है । परन्तु आज के विद्यालयों का चित्र तो भिन्न है । धनदाता अभिभावकों के बालक तो टेबलकुर्सी पर आराम से बैठे हुए और ज्ञानदाता शिक्षक अनिवार्यतः खड़े खड़े पढ़ा रहे है ऐसा चित्र दिखाई देता है । इस व्यवस्था के मूल में पाश्चात्य विचार है । गुरु का खड़े रहना और शिष्यों का बैठे रहना उचित नहीं हैं । गुरु छात्रों से ज्ञान में, आयु में, अनुभव में बड़े हैं, श्रेष्ठ हैं इसलिए उन्हें उच्चासन पर बैठना और शिष्यों को उनके चरणों में बैठकर ज्ञानार्जन करना यह भारतीय विचार है ।
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क्या हो यह किसी के भी ध्यान में नहीं आया सातवें प्रश्न के
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==== विषयानुसार कक्ष व्यवस्था ====
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दूसरा, भारतीय व्यवस्था में विषयानुसार अलग अलग व्यवस्था करना भी सुगम रहता है । कक्षा कक्ष की स्वच्छता भी आसानी हो जाती है, जबकि डेस्क बैंच या टेबल कुर्सी की व्यवस्था में अच्छी सफाई नहीं हो पाती । भारतीय बैठक व्यवस्था केवल कक्षा कक्षों में ही नहीं वरन शिक्षक कक्ष, प्रधानाध्यापक कक्ष, कार्यालय, पुस्तकालय आदि सबमें भी उतनी ही उपयोगी व सम्भव है । बहुत कम लोग ऐसे होते हैं, जिन्हें वृद्धावस्था के कारण अथवा शारीरिक अस्वस्थता के कारण नीचे बैठने में कष्ट होता है, उनके लिए कुर्सी का उपयोग करना चाहिए परन्तु बच्चों के लिए व स्वस्थ तथा सक्षम व्यक्तियों के लिए भी टेबल कुर्सी की बाध्यता करना तो उनके शरीरका लोच कम करके उन्हें पंगु बनाने का उपक्रम ही सिद्ध हो रहा है । अतः हर दृष्टि से भारतीय बैठक व्यवस्था अधिक श्रेष्ठ व वैज्ञानिक भी है |
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४. . व्यावहारिक दृष्टि से बैठक व्यवस्था के सम्बन्ध में उत्तर में पुस्तकालय, प्रयोगशाला, कार्यालय आदि में भारतीय
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==== बैठक की लेक्चर थियेटर व्यवस्था ====
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अध्ययन और अध्यापन बैठकर होता है । इसके लिए विभिन्न प्रकार की व्यवस्थाएँ करनी होती हैं, सुविधा के अनुसार भिन्नता का अनुसरण किया जाता है । व्यवस्था करने में हमारा दृष्टिकोण भी कारणीभूत होता है । हम एक के बाद एक विभिन्न प्रकार की व्यवस्थाओं के बारे में विचार करेंगे । आपने पुराने सरकारी महाविद्यालय देखे होंगे । वहाँ बड़े बड़े कक्ष होते हैं । उन्हें लेक्चर थियेटर कहा जाता है । आजकल यदि नहीं भी कहा जाता होगा तो भी जब उन का प्रारंभ हुआ था तब तो इसी नाम से जाने जाते थे । उनके नाम से ही पता चलता है कि इन कक्षों की रचना थिएटर जैसी ही होती थी । प्रारंभ में एक मंच होता था जो अध्यापक के लिए होता था । अध्यापक के लिए यहाँ कुर्सी और टेबल होते थे और उसके पीछे की दीवार पर एक श्याम फलक होता था तब सामने सिनेमा थिएटर की तरह ही नीचे से ऊपर जाने वाली सीढ़ियों पर छात्रों को बैठने के लिए बेंच होते थे । एक साथ एक कक्षा में लगभग डेढ़ सौ छात्र बैठते थे । अध्यापक खड़े खड़े भाषण करता था । उसे छात्रों की ओर देखने के लिए ऊपर देखना पड़ता था । छात्रों को अध्यापक की ओर देखने के लिए नीचे की तरफ देखना होता था । यह रचना उस समय स्वाभाविक लगती थी, परतु आज अगर हम विचार करेंगे तो भारतीय परिवेश में यह अत्यंत अस्वाभाविक है । भारतीय परिवेश में शिक्षक खड़ा हो और छात्र बैठे हैं ऐसी रचना असंभव नहीं तो कम से कम अस्वाभाविक है । खड़े खड़े अध्यापन करना भी भारतीय परिवेश में अस्वाभाविक है । अध्यापक खड़े हैं और छात्र बैठे हैं इसकी कल्पना भी भारत में नहीं हो सकती | अध्यापक का स्थान नीचे हो और छात्रों का ऊपर यह भी अस्वाभाविक है । इसलिए इस प्रकार की बैठक व्यवस्था वाले कक्षा कक्ष भारत के विद्यालयों और महाविद्यालयों में नहीं हो सकते । उस समय ऐसी रचना की गई थी क्योंकि ये सारे महाविद्यालय पाश्चात्य शिक्षा व्यवस्था में शुरु हुए थे । यूरोप अमेरिका में यह रचना स्वाभाविक मानी जाती है । इसलिए यहाँ भी इस प्रकार की रचना की गई थी । आज ऐसी रचना लगभग कहीं पर दिखाई नहीं देती ।
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'विचार करते समय किन किन बातों का ध्यान... बैठक व्यवस्था उचित नहीं ऐसा ही सबका मत था ।
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==== दृष्टिकोण का अन्तर ====
 
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अमेरिका और यूरोप में ऐसी रचना स्वाभाविक है और भारत में अस्वाभाविक है इसका कारण क्या है ? किसी भी बात में दृष्टिकोन महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है । अमेरिका और भारत में शिक्षा के प्रति देखने की दृष्टि ही अलग है । वहाँ जीवन रचना में अर्थ का स्थान सबसे ऊपर है । जो पैसा देता है वह बड़ा है, उस का अधिकार ज्यादा है और जो पैसा लेता है वह छोटा है और देने वाले के समक्ष नीचा ही स्थान पाता
रखना चाहिये ? अभिमत : भारतीय और अभारतीय बैठक व्यवस्था में
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G. बैठक व्यवस्था का. संस्कारक्षम वातावरण. क्या अन्तर है इसकी स्पष्टता तो है। परन्तु आजकल
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निर्मिति की दृष्टि से क्या महत्त्व है ? विद्यालय, महाविद्यालय, सार्वजनिक सभागृह, कार्यालय एवं
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६. बैठक व्यवस्था के सम्बन्ध में लोगों की. घरों में टेबलकुर्सी का उपयोग हमें इतना अनिवार्य लगता है
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मानसिकता कैसी होती है ? कि अब हमें भारतीय बैठक व्यवस्था सर्वथा निरुपयोगी लगने
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७. क्या. कक्षाकक्ष, praia, पुस्तकालय, लगी है । कुर्सी पर बैठकर भाषण सुनना प्रतिष्ठा का लक्षण
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प्रयोगशाला आदि विभिन्न कार्यस्थलों के अनुरूप... माना जाता है । जबकि सुनने का सम्बन्ध कुर्सी से नहीं है,
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भिन्न भिन्न प्रकार की बैठक व्यवस्था होनी. एकाग्रता व ग्रहणशीलता से है । परन्तु हमने तो इसे प्रतिष्ठा व
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चाहिये ? अआप्रतिष्ठा का रंग चढ़ा दिया है ।
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८... बैठक व्यवस्था के सम्बन्ध में छोटी छोटी किन
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बातों विमर्श
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किन बातों का ध्यान करना चाहिये ?
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आसन पर बैठना
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प्रश्नावली से प्राप्त उत्त दूसरा छात्रों की आयु व उनके शरीर स्वास्थ्य की दृष्टि
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विद्यालय की बैठक व्यवस्था से सम्बन्धित आठ प्रश्नों... से नीचे बैठने में किसी भी प्रकार की कोई कठिनाई नहीं है ।
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की यह प्रश्नावली महाराष्ट्र के अकोला जिले के १९ शिक्षकों, .. फिर भी डेस्क व बैंच या टेबल-कुर्सी की अनिवार्यता बना
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५ मुख्याध्यापकों, १५ अभिभावकों एवं ४ संस्था संचालकों देना किसी भी प्रकार से शास्त्र सम्मत नहीं है । फिर भी सर्वदूर
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अर्थात्‌ कुल ४३ लोगों ने भरकर भेजी है । इसी व्यवस्था को अपनाया हुआ है । हमारे यहाँ तो नीचे
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प्रथम प्रश्न के उत्तर से यह तो स्पष्ट ध्यान में आता है... भूमि पर मोटा आसन बिछाकर उस पर बैठना और सामने
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कि यह तो सभी जानते हैं कि भारतीय और अभारतीय ऐसी. ढालिया (छोटी डेस्क) रखा होना, आदर्श व्यवस्था मानी
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दो प्रकार की बैठक व्यवस्था होती है । किन्तु आगे के... जाती है । टेबल कुर्सी पर बैठने से शरीरस्थ ऊर्जा अधोगामी
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उपप्रश्नों का उत्तर लिखते समय कुछ वैचारिक संश्रम दिखाई. होकर पैरों के द्वारा पृथ्वी में चली जाती है । जबकि नीचे
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देता है। भारतीय बैठक व्यवस्था सस्ती होने के कारण... पद्मासन या सुखासन में मेरू दण्ड को सीधा रखकर बैठने से
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कमजोर आर्थिक स्थिति वाले विद्यालयों के लिए ठीक है... शरीरस्थ ऊर्जा उर्ध्वमुखी होकर मस्तिष्क में जाती है । आसन
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ऐसा मानते हैं । शास्त्रीय दृष्टि से बैठक व्यवस्था का विचार... लगाकर बैठने से दोनों पाँवों में बन्ध लग जाता है, इसलिए
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किसी भी उत्तर में नहीं मिला । व्यावहारिक दृष्टि से बैठक... ऊर्जा अधोगामी नहीं हो पाती । पीठ सीधी रखकर बैठने से
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व्यवस्था का विचार करने वाले बिन्दु और लोगों की... एकाग्रता आती है व ग्रहणशीलता बढती है । मस्तिष्क को
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मानसिकता इन दोनों प्रश्नों के उत्तर में सब मौन रहे हैं ।. ऊर्जा मिलते रहने से अधिक समयतक पढ़ा जाता है ।
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पाँचवे प्रश्न में संस्कारक्षम वातावरण निर्माण करने हेतु कक्षा- वटवृक्ष के नीचे उच्चासन में गुरु बैठे हैं, उनके सामने
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कक्ष में चित्र, चार्ट्स, सुविचार आदि लगाने चाहिए ऐसे उत्तर... नीचे भूमि पर सुखासन में मेरुदण्ड को सीधा रखकर सभी
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मिले हैं । परन्तु वास्तव में ये सारी सामग्री लगाना तो कक्षा... शिष्य बैठे हुए हैं । यह मात्र गुरुकुल का चित्र नहीं है, अपितु
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कक्ष का सुशोभन करना मात्र ही है, यह तो केवल बाहरी... ज्ञानार्जन के लिए बैठने की आदर्श व्यवस्था का चित्र है । जो
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श्स्ढ
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पर्व ३ : विद्यालय की शैक्षिक व्यवस्थाएँ
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आज भी विद्यालयों में सम्भव है । परन्तु आज के विद्यालयों
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का चित्र तो भिन्न है । धनदाता अभिभावकों के बालक तो
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टेबलकुर्सी पर आराम से बैठे हुए और ज्ञानदाता शिक्षक
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अनिवार्यतः खड़े खड़े पढ़ा रहे है ऐसा चित्र दिखाई देता है ।
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इस व्यवस्था के मूल में पाश्चात्य विचार है । गुरु का खड़े
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रहना और शिष्यों का बैठे रहना उचित नहीं हैं । गुरु छात्रों से
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ज्ञान में, आयु में, अनुभव में बड़े हैं, श्रेष्ठ हैं इसलिए उन्हें
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उच्चासन पर बैठना और शिष्यों को उनके चरणों में बैठकर
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ज्ञानार्जन करना यह भारतीय विचार है ।
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विषयानुसार कक्ष व्यवस्था
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दूसरा, भारतीय व्यवस्था में विषयानुसार अलग अलग
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व्यवस्था करना भी सुगम रहता है । कक्षा कक्ष की स्वच्छता
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भी आसानी हो जाती है, जबकि डेस्क बैंच या टेबल कुर्सी
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की व्यवस्था में अच्छी सफाई नहीं हो पाती । भारतीय बैठक
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व्यवस्था केवल कक्षा कक्षों में ही नहीं वरन शिक्षक कक्ष,
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प्रधानाध्यापक कक्ष, कार्यालय, पुस्तकालय आदि सबमें भी
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उतनी ही उपयोगी व सम्भव है । बहुत कम लोग ऐसे होते हैं,
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जिन्हें वृद्धावस्था के कारण अथवा शारीरिक अस्वस्थता के
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कारण नीचे बैठने में कष्ट होता है, उनके लिए कुर्सी का
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उपयोग करना चाहिए । परन्तु बच्चों के लिए व स्वस्थ तथा
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सक्षम व्यक्तियों के लिए भी टेबल कुर्सी की बाध्यता करना तो
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उनके शरीरका लोच कम करके उन्हें पंगु बनाने का उपक्रम
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ही सिद्ध हो रहा है । अतः हर दृष्टि से भारतीय बैठक व्यवस्था
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अधिक श्रेष्ठ व वैज्ञानिक भी है |
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बैठक की लेक्चर थियेटर व्यवस्था
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अध्ययन और अध्यापन बैठकर होता है । इसके लिए
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विभिन्न प्रकार की व्यवस्थाएँ करनी होती हैं, सुविधा के
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अनुसार भिन्नता का अनुसरण किया जाता है । व्यवस्था करने
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में हमारा दृष्टिकोण भी कारणीभूत होता है । हम एक के बाद
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एक विभिन्न प्रकार की व्यवस्थाओं के बारे में विचार करेंगे ।
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आपने पुराने सरकारी महाविद्यालय देखे होंगे । वहाँ बड़े बड़े
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कक्ष होते हैं । उन्हें लेक्चर थियेटर कहा जाता है । आजकल
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यदि नहीं भी कहा जाता होगा तो भी जब उन का प्रारंभ हुआ
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था तब तो इसी नाम से जाने जाते थे ।
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उनके नाम से ही पता चलता है कि इन कक्षों की रचना
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थिएटर जैसी ही होती थी । प्रारंभ में एक मंच होता था जो
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अध्यापक के लिए होता था । अध्यापक के लिए यहाँ कुर्सी
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और टेबल होते थे और उसके पीछे की दीवार पर एक श्याम
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फलक होता था तब सामने सिनेमा थिएटर की तरह ही नीचे
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से ऊपर जाने वाली सीढ़ियों पर छात्रों को बैठने के लिए बेंच
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होते थे । एक साथ एक कक्षा में लगभग डेढ़ सौ छात्र बैठते
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थे । अध्यापक खड़े खड़े भाषण करता था । उसे छात्रों की
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ओर देखने के लिए ऊपर देखना पड़ता था । छात्रों को
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अध्यापक की ओर देखने के लिए नीचे की तरफ देखना होता
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था । यह रचना उस समय स्वाभाविक लगती थी, परतु आज
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अगर हम विचार करेंगे तो भारतीय परिवेश में यह अत्यंत
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अस्वाभाविक है । भारतीय परिवेश में शिक्षक खड़ा हो और
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छात्र बैठे हैं ऐसी रचना असंभव नहीं तो कम से कम
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अस्वाभाविक है । खड़े खड़े अध्यापन करना भी भारतीय
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परिवेश में अस्वाभाविक है । अध्यापक खड़े हैं और छात्र
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बैठे हैं इसकी कल्पना भी भारत में नहीं हो सकती |
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अध्यापक का स्थान नीचे हो और छात्रों का ऊपर यह भी
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अस्वाभाविक है । इसलिए इस प्रकार की बैठक व्यवस्था
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वाले कक्षा कक्ष भारत के विद्यालयों और महाविद्यालयों में
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नहीं हो सकते । उस समय ऐसी रचना की गई थी क्योंकि ये
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सारे महाविद्यालय पाश्चात्य शिक्षा व्यवस्था में शुरु हुए थे ।
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यूरोप अमेरिका में यह रचना स्वाभाविक मानी जाती है ।
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इसलिए यहाँ भी इस प्रकार की रचना की गई थी । आज
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ऐसी रचना लगभग कहीं पर दिखाई नहीं देती ।
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दृष्टिकोण का अन्तर
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अमेरिका और यूरोप में ऐसी रचना स्वाभाविक है और
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भारत में अस्वाभाविक है इसका कारण क्या है ? किसी भी
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बात में दृष्टिकोन महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है । अमेरिका और
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भारत में शिक्षा के प्रति देखने की दृष्टि ही अलग है । वहाँ
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जीवन रचना में अर्थ का स्थान सबसे ऊपर है । जो पैसा देता
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है वह बड़ा है, उस का अधिकार ज्यादा है और जो पैसा लेता
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है वह छोटा है और देने वाले के समक्ष नीचा ही स्थान पाता
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भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
      
है । अध्ययन-अध्यापन के कार्य में छात्र... व्यवस्था का संबंध पैसे से जोड़ते हैं । उनका मानना होता है
 
है । अध्ययन-अध्यापन के कार्य में छात्र... व्यवस्था का संबंध पैसे से जोड़ते हैं । उनका मानना होता है
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