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आज इस विषय की सर्वथा विस्मृति हुई है। उसे पुनः स्मरण में लाने हेतु योजनापूर्वक प्रयास करने की आवश्यकता है। शिक्षाक्षेत्र के सौजन्य लोगों को इस ओर ध्यान देने की आवश्यकता है ।
आज इस विषय की सर्वथा विस्मृति हुई है। उसे पुनः स्मरण में लाने हेतु योजनापूर्वक प्रयास करने की आवश्यकता है। शिक्षाक्षेत्र के सौजन्य लोगों को इस ओर ध्यान देने की आवश्यकता है ।
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_ विद्यालयों के विषय, विषयवस्तु, अन्यान्य गतिविधियाँ, व्यवस्था, वातावरण आदि सब यह विवेक सिखाने के लिये प्रयुक्त होने चाहिये । महाविद्यालयों में तो समाजशास्त्र का स्वरूप ही प्रथम चरण में सामाजिकता सिखाने का होना चाहिये । सामाजिकता की कसौटी पर ही अन्य विषयों का मूल्यांकन होना चाहिये । उदाहरण के लिये
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ज्ञान और धर्म. गतिविधियाँ, व्यवस्था, वातावरण आदि सब यह विवेक
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का पक्ष भी लेना चाहिये और अन्याय, seca, set सिखाने के लिये प्रयुक्त होने चाहिये । महाविद्यालयों में तो
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और अआज्ञान का त्याग, उपेक्षा, तिरस्कार या दण्ड - जहाँ. समाजशाख्र का स्वरूप ही प्रथम चरण में सामाजिकता
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जो भी आवश्यक है - भी करना चाहिये । उदाहरण के... सिखाने का होना चाहिये । सामाजिकता की कसौटी पर ही
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लिये स्वयं अन्याय नहीं करेंगे यह प्रथम चरण है, किसी. अन्य विषयों का मूल्यांकन होना चाहिये । उदाहरण के लिये
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के द्वारा किये गये अन्याय को नहीं सहेंगे परन्तु समाज में .. सामाजिकता को हानि. पहुंचाने वाला. अर्थशास्त्र,
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किसी छोटे, दुर्बल या दीन व्यक्ति के प्रति बडा, बलवान... टैक्नोलोजी, वाणिज्यशाख्र, राजशास्त्र या मनोविज्ञान, खेल
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और समर्थ व्यक्ति अन्याय कर रहा है तो दीन, दुर्बल, .. आदि मान्य ही नहीं होने चाहिये । समाजशाख्र केवल
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छोटे व्यक्ति का पक्ष लेना और उसकी रक्षा करना तथा... धर्मशाख्र के अनुकूल होता है । वह धर्मशास्र का अंग है
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अन्याय करने वाले व्यक्ति का विरोध करना भी अपेक्षित. जबकि शेष सभी शास्त्रों का अंगी है। सारे शास्त्र
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है। सुपात्र, सद्गुणी व्यक्ति की प्रशंसा करनी ही चाहिये, समाजशाख््र के अविरोधी होने अपेक्षित है ।
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भले ही वह गरीब हो, परन्तु अपने लाभ के लिये समर्थ, शिक्षा धर्म सिखाती है । धर्म का एक अंग सृष्टि धर्म
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गुणहीन व्यक्ति की प्रशंसा नहीं करना चाहिये । वह प्रशंसा... है और दूसरा समष्टि धर्म है । समष्टि धर्म सृष्टि धर्म के
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नहीं चाटुकारिता है । व्यक्ति भले ही विद्वान, धनवान या... अनुकूल होता है । समष्टि धर्म ही सामाजिकता है । अतः
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सत्तावान हो, यदि वह अधर्म और अन्यायपूर्ण व्यवहार. शिक्षा का मुख्य कार्य ही सामाजिकता सिखाना है ।
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करता है तो उसकी मित्रता नहीं करनी चाहिये, भले ही सामाजिकता सिखाने के लिये विद्यालयों की वर्तमान
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वह हमारे साथ बहुत अच्छा व्यवहार करता हो । विद्वान. रीतिनीति में बहुत परिवर्तन करना होगा यह सत्य हैं, परन्तु
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व्यक्ति यदि धनवान की चाटुकारिता करता है तो वह ज्ञान... ऐसा परिवर्तन किये बिना शिक्षा का स्वरूप भारतीय नहीं
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की अवमानना करता है यही समझना चाहिये । धर्माचार्थ. बन सकता । भारतीयकरण केवल सिद्धान्त में नहीं होता,
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यदि सत्तावान व्यक्ति के अनुकूल बनने का प्रयास करता. सिद्धान्त को व्यवहार में परिणत करने से होता है ।
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है तो वह धर्म का अनादर करता है । आततायी व्यक्ति
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८. सत्य, धर्म, ज्ञान, सेवा न्याय आदि की परख होना
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पर्व २ : विद्यार्थी, शिक्षक, विद्यालय, परिवार
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छात्रों का विकास केवल विद्यालय में ही नहीं
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होता, विद्यालय के बाहर, घर में भी होता है, इस दृष्टि से
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मातापिता को निम्न लिखित बातों में विद्यालय ने क्या
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मार्गदर्शन करना चाहिये ?
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१, भोजन, २. निद्रा, ३. व्यायाम, ४. गृहजीवन,
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५. सामाजिक जीवन, ६. सेवाकार्य, ७. श्रमकार्य,
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८. योगाभ्यास, ९. सांस्कृतिक कार्य, १०. उपासना,
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११. अभ्यास, १२. स्वाध्याय, १३. कौशल विकास,
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१४. शौक, १५. मित्र परिवार, es. दिनचर्या,
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१७, मानसिकता, १८. जीवनदृष्टि, १९, कुल परम्परा
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छात्र का विकास तो सब चाहते है, मातापिता भी
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बालक के विकास की इच्छा करते है । विकास के कुल
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१९ महत्त्वपूर्ण बिन््दुओं पर शिक्षक, मातापिता, दादादादी
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और अन्य लोगों के साथ जो वार्तालाप हुआ उनका
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अभिप्राय ऐसा रहा ।
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शिक्षकोने बताया यह सारे बिन्दु उनके पढाई के
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कोर्स के बाहर है, अतिरिक्त है । यह सब बातें करवाना
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मातापिता का कर्तव्य है । इतना सब पढ़ाने के लिये समय
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ही नहीं बचता क्योंकि पूरे वर्ष कोर्स, परीक्षा कार्यक्रम यह
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सारे तंत्र से फुरसत ही नहीं मिलती ।
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बडे बुजुर्ग लोगों को उन बिन्दुओं मे तथ्य समझमें
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आता है परंतु आजकल की पिढी सुनती समझती ही नहीं
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अतः वे हतबल थे ।
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मातापिता अच्छा भोजन, व्यायाम, Aare,
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योगाभ्यास, उपासना आदि का महत्व तो जानते है परंतु
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बच्चे सुनते नहीं, करते नही या तो विद्यालय की पढ़ाई में
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उनका यह सब होता नहीं है । केवल होमवर्क हम पुरा
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करवाते है । यह सब बातों की तरफ ध्यान देने के लिए
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हमे घर मे फुरसद नहीं मिलती दोनों नोकरी करते हैं
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इसलिये । इसी संबंध में कोई अच्छा क्लास होगा तो
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एडमिशन दिलवा देने के लिये वे तैयार है ।
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घर में छात्रविकास
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अभिमत
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प्रश्नावली के ७९ बिंदु विकास मे अत्यंत उपयुक्त है ।
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परंतु इस संबंध में मार्गदर्शन करने हेतू शिक्षको के पास ही
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कोई मार्ग नहीं है ।
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विद्यालय में अभिभावक एसे विषय चुनने के लिये
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आते नहीं हैं । जीवनदृष्टि, भोजन, व्यायाम आदि विषयों में
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शिक्षक, अभिभावक भी आज पाश्चात्य शैली का शिकार
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बने हैं अतः वे मार्गदर्शन तो करेंगे परंतु उनको साकार रूप
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नहीं देते हैं । बच्चों का मित्र परिवार उन्हे गलत मार्ग पर ही
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ले जाता है । अतः वह विकास का मार्ग उन्हे मान्य नहीं ।
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घर में माता, पिता संतानो के अपने अपने व्यक्तिगत मित्र
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होते हैं । ये सब घर के मित्र होते तो विकास अवश्य करते
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। श्रम करने से पढाई मे रुकावट आती है, थकान आती है,
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पढाई कम होती है ऐसी भ्रामक मान्यताओं से अभिभावक
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के लिये है । शिक्षक यह दायित्व लेने समर्थ भी नहीं तैयार
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भी नहीं ।
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घर में छात्रविकास
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वर्तमान समय की पक्की धारणा बन गई है कि पढ़ाई
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केवल विद्यालय में ही होती है । विद्यालय के अलावा घर
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में या किसी अन्य स्थान पर जो होता है उसे पढ़ाई नहीं
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कहा जाता । साथ ही जीवन में मुख्य कोई कार्य है तो वह
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पढ़ाई ही है । यदि पढ़ाई नहीं है तो मनोरंजन है । विद्यालय
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की पढ़ाई से अधिक महत्त्वपूर्ण और कुछ नहीं है ।
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पढ़ाई के सम्बन्ध में भी हमारी धारणा विद्यालय के
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कक्षाकक्ष में जो होता है उसमें ही सीमित है । उसी काम
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को अधिक से अधिक aren में हमें हमारी
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पढ़ाई विषयक धारणा बदलने की आवश्यकता है । शिक्षा
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केवल विद्यालय में पढ़ाये जाने वाले विषयों तक सीमित
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नहीं होती है । विध रना यही अच्छी पढ़ाई का लक्षण है ।
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इसलिये विद्यालय में जो पढ़ाया जाता है वही कार्य घर
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जाकर भी करने को कहा जाता है. जिसे गृहकार्य कहा
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जाता है । परन्तु जीवन का गणित इतना सीधासादा नहीं
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@ | विद्यालय की पढ़ाई ही सबकुछ
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नहीं होती, अन्य अनेक कामकाज ऐसे होते हैं जो विद्यालय
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की पढ़ाई से भी अधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं। वे सब
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विद्यालय में पढ़ाए नहीं जाते । उनकी पढ़ाई घर में ही होती
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वास्तव में विद्यालय से भी अधिक घर में प्राप्त होने
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वाली शिक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है । विद्यालय में शिक्षा का
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एक अंश ही होता है । घर की शिक्षा की अनुपस्थिति में
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विद्यालय की शिक्षा को अर्थ ही प्राप्त नहीं होता है । हम
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यह कहने का साहस भी कर सकते हैं कि विद्यालय की
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पढ़ाई यदि कुछ मात्रा में काम हुई तो भी बहुत हानि नहीं
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होती परन्तु घर में नहीं हुई तो जो हानि होती है उसकी
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भरपाई नहीं की जाती ।
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घर की पढ़ाई के अभाव में घर में विद्यालय की पढ़ाई
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पर ही ज़ोर दिया जाता है । विद्यालय के ट्वारा दिया गया
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गृहकार्य तो होता ही है, ऊपर से अनेक प्रकार की अन्य
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गतिविधियों के लिए भी आग्रह किया जाता है । विभिन्न
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प्रकार के कोचिंग और स्यूशन की भरमार होती है, यहाँ
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तक कि छुट्टियों में चित्रकाम, तैराकी आदि सीखने का
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आग्रह किया जाता है । संक्षेप में पढ़ने की दुनिया घर से
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बाहर ही होती है ।
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सत्य तो यह है कि घर की भी एक दुनिया होती है
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जो विद्यालय के समान महत्त्वपूर्ण होती है । घर के ही
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अनेक काम होते हैं जो सीखने होते हैं। वे भी बाल,
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किशोर और तरुण आयु में ही सीखे जाते हैं ।
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घर में उसे छात्र नहीं कहा जाता है। वह पुत्र,
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भाई, पौत्र आदि भूमिका में रहता है । इन्हीं भूमिकाओं
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को लेकर उसे अनेक बातें सीखनी होती हैं । वह अपने
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दादा - दादी का पौत्र है तो उसे उनकी सेवा करनी है ।
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इस सन्दर्भ में उसे अनेक छोटे बड़े काम सीखने होते हैं ।
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उनकी सेवा करते करते वह उनके अनेक अनुभव सुनता
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है जिससे उसे ज्ञान प्राप्त होता है । वह अपने मातापिता
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का पुत्र है। उस रूप में उसे उनके कामों में सहयोगी
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बनना होता है । यह भी उसे सीखना ही है । वह अपने
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भाईयबहनों का भाई होता है । इस भूमिका में उसे उनके
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भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
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साथ खेलना औए सीखना सिखाना होता है। घर में
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अतिथि आते हैं । उसे अतिथिसत्कार करना सीखना होता
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है । घर में अनेक उत्सव मनाए जाते हैं । उनके विषय में
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जानना होता है ।
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विद्यालय में जीवन का बहुत अल्प समय जाना
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होता है । सम्पूर्ण जीवन घर में ही जीना होता है। इस
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दृष्टि से जीवनविकास के महत्त्वपूर्ण आयामों की शिक्षा घर
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में होती है। भोजन, निद्रा, व्यायाम आदि शरीर को
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स्वस्थ रखने की बातें घर में सीखी जाती हैं । केवल
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खाना और सोना ही नहीं होता है तो भोजन बनाना और
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परोसना तथा बिस्तर लगाना और समेटना भी होता है ।
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उनसे संबंधित कपड़े धोना, कमरे की सफाई करना,घर के
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लिए आवश्यक सामान की खरीदी करना आदि अनेक
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बातें सीखनी होती हैं ।
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मातापिता के काम में सहयोग करते करते स्वयं की
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ज़िम्मेचलाना है । विद्यालय में ऐसी कोई ज़िम्मेदारी नहीं
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होती । पढ़ाई का काल पूर्ण होने पर वह विद्यालय छोड़
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देता है परन्तु घर में तो वह आजीवन रहता है । इसलिये
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घर चलाना सीखना बहुत महत्त्वपूर्ण है । दारी से इन कामों
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को करना सीखा जाता है । यह सीखना इसलिये आवश्यक
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होता है क्योंकि भविष्य में उसे यही घर का स्वामी बनना
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होता है ।
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सभ्य और सुसंस्कृत जीवन जीने के लिए पैसे कमाना
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ही पर्याप्त नहीं होता । जीवनव्यवहार की अनेक बातें
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अच्छी तरह से करनी होती हैं । ये सब उसे सीखनी होती
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हैं ।
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यह सब सिखाने वाले मातापिता और अन्य सदस्य
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होते हैं । वह जीवनमूल्य सीखता है, कुलपरम्परा ग्रहण
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करता है । समाजसेवा सीखता है । सबसे महत्त्वपूर्ण बात
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यह है कि वह जीवन का दृष्टिकोण भी घर में ही सीखता
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आज इस विषय की सर्वथा विस्मृति हुई है। उसे
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पुन: स्मरण में लाने हेतु योजनापूर्वक प्रयास करने की
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आवश्यकता है । शिक्षाक्षेत्र के सौजन्य लोगों को इस ओर
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ध्यान देने की आवश्यकता है ।
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पर्व ३ : विद्यालय की शैक्षिक व्यवस्थाएँ
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LABS
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पर्व ३
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विद्यालय की शैक्षिक व्यवस्थाएँ
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शैक्षिक व्यवस्थाओं की छोटी छोटी बातों का भी जब भारतीय जीवनदृष्टि
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के प्रकाश में विचार करते हैं तब ध्यान में आता है कि शिक्षा के पश्चिमीकरण
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की पैठ कितनी अन्दर तक गई है । जडवादी, अनात्मवादी दृष्टि ने छोटी छोटी
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बातों का स्वरूप बदल दिया है । शिक्षा का भारतीयकरण करने हेतु हमें भी
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गहराई में जाकर परिवर्तन करना होगा । ऐसा परिवर्तन सरल तो नहीं होगा ।
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वह केवल बाहरी स्वरूप का परिवर्तन नहीं होगा । इन व्यवस्थाओं के पीछे
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जो मानस है उसका परिवर्तन किये बिना बाहरी परिवर्तन सम्भव नहीं है । अतः
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छोटी से छोटी बातों का पुनर्विचार करने का प्रयास इस पर्व में किया गया है ।
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इसके पूर्व के पर्व में विद्यालय और परिवार का सम्बन्ध बताया गया था |
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भोजन और पानी, गणवेश और बस्ता, वाहन और अन्य सुविधाओं का विचार
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विद्यालय और परिवार दोनों मिलकर करेंगे तभी परिवर्तन सम्भव होगा, तभी
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वह सार्थक भी होगा । शिक्षा की समस्त प्रक्रियाओं में दोनों कितने अनिवार्य
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रूप से जुडे हुए हैं यही बताने का प्रयास इसमें किया गया है ।
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खण्ड खण्ड में विचार करने से शिक्षा कितनी यान्त्रिक और निर्रर्थक बन
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जाती है । और संश्लेष्ट रूप में देखने से छोटी बातें भी कितनी महत्त्वपूर्ण बन
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जाती हैं यह भी इस चर्चा का निष्कर्ष है ।
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अनुक्रमणिका
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विद्यालय की शैक्षिक व्यवस्थाएँ
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छात्र के शैक्षिक कार्य
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विद्यालय में भोजन एवं जल व्यवस्था
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विद्यालय का समाज में स्थान
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विद्यालय में अध्ययन विचार
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श्१श्द
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भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
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श१७
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शु४६०
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R&R
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श्९६
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