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वर्तमान समय की पक्की धारणा बन गई है कि पढ़ाई केवल विद्यालय में ही होती है। विद्यालय के अलावा घर में या किसी अन्य स्थान पर जो होता है उसे पढ़ाई नहीं कहा जाता । साथ ही जीवन में मुख्य कोई कार्य है तो वह पढ़ाई ही है । यदि पढ़ाई नहीं है तो मनोरंजन है । विद्यालय की पढ़ाई से अधिक महत्त्वपूर्ण और कुछ नहीं है।
 
वर्तमान समय की पक्की धारणा बन गई है कि पढ़ाई केवल विद्यालय में ही होती है। विद्यालय के अलावा घर में या किसी अन्य स्थान पर जो होता है उसे पढ़ाई नहीं कहा जाता । साथ ही जीवन में मुख्य कोई कार्य है तो वह पढ़ाई ही है । यदि पढ़ाई नहीं है तो मनोरंजन है । विद्यालय की पढ़ाई से अधिक महत्त्वपूर्ण और कुछ नहीं है।
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पढ़ाई के सम्बन्ध में भी हमारी धारणा विद्यालय के कक्षाकक्ष में जो होता है उसमें ही सीमित है। उसी काम को अधिक से अधिक कआस्ताव में हमें हमारी पढ़ाईविषयक धारणा बदलने की आवश्यकता है। शिक्षा केवल विद्यालय में पढ़ाये जाने वाले विषयों तक सीमित नहीं होती है। विध रना यही अच्छी पढ़ाई का लक्षण है । इसलिये विद्यालय में जो पढ़ाया जाता है वही कार्य घर जाकर भी करने को कहा जाता है जिसे गृहकार्य कहा जाता है। परन्तु जीवन का गणित इतना सीधासादा नहीं
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पढ़ाई के सम्बन्ध में भी हमारी धारणा विद्यालय के कक्षाकक्ष में जो होता है उसमें ही सीमित है। उसी काम को अधिक से अधिक कआस्ताव में हमें हमारी पढ़ाईविषयक धारणा बदलने की आवश्यकता है। शिक्षा केवल विद्यालय में पढ़ाये जाने वाले विषयों तक सीमित नहीं होती है। विध रना यही अच्छी पढ़ाई का लक्षण है । इसलिये विद्यालय में जो पढ़ाया जाता है वही कार्य घर जाकर भी करने को कहा जाता है जिसे गृहकार्य कहा जाता है। परन्तु जीवन का गणित इतना सीधासादा नहीं है। विद्यालय की पढ़ाई ही सबकुछ नहीं होती, अन्य अनेक कामकाज ऐसे होते हैं जो विद्यालय की पढ़ाई से भी अधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं। वे सब विद्यालय में पढ़ाए नहीं जाते । उनकी पढ़ाई घर में ही होती
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वास्तव में विद्यालय से भी अधिक घर में प्राप्त होने वाली शिक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है । विद्यालय में शिक्षा का एक अंश ही होता है। घर की शिक्षा की अनुपस्थिति में विद्यालय की शिक्षा को अर्थ ही प्राप्त नहीं होता है। हम यह कहने का साहस भी कर सकते हैं कि विद्यालय की पढ़ाई यदि कुछ मात्रा में काम हुई तो भी बहुत हानि नहीं होती परन्तु घर में नहीं हुई तो जो हानि होती है उसकी भरपाई नहीं की जाती।
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घर की पढ़ाई के अभाव में घर में विद्यालय की पढ़ाई पर ही जोर दिया जाता है। विद्यालय के द्वारा दिया गया गृहकार्य तो होता ही है, ऊपर से अनेक प्रकार की अन्य गतिविधियों के लिए भी आग्रह किया जाता है। विभिन्न प्रकार के कोचिंग और ट्यूशन की भरमार होती है, यहाँ तक कि छुट्टियों में चित्रकाम, तैराकी आदि सीखने का आग्रह किया जाता है। संक्षेप में पढ़ने की दुनिया घर से बाहर ही होती है।
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वास्तव में विद्यालय से भी अधिक घर में प्राप्त होने वाली शिक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है । विद्यालय में शिक्षा का एक अंश ही होता है। घर की शिक्षा की अनुपस्थिति में विद्यालय की शिक्षा को अर्थ ही प्राप्त नहीं होता है। हम यह कहने का साहस भी कर सकते हैं कि विद्यालय की पढ़ाई यदि कुछ मात्रा में काम हुई तो भी बहुत हानि नहीं होती परन्तु घर में नहीं हुई तो जो हानि होती है उसकी भरपाई नहीं की जाती।
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घर की पढाई के अभाव में घर में विद्यालय की पढाई पर ही ज़ोर दिया जाता है। विद्यालय के द्वारा दिया गया गृहकार्य तो होता ही है, ऊपर से अनेक प्रकार की अन्य गतिविधियों के लिए भी आग्रह किया जाता है। विभिन्न प्रकार के कोचिंग और ट्यूशन की भरमार होती है, यहाँ तक कि छुट्टियों में चित्रकाम, तैराकी आदि सीखने का आग्रह किया जाता है। संक्षेप में पढ़ने की दुनिया घर से बाहर ही होती है।
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सत्य तो यह है कि घर की भी एक दुनिया होती है जो विद्यालय के समान महत्त्वपूर्ण होती है। घर के ही अनेक काम होते हैं जो सीखने होते हैं। वे भी बाल, किशोर और तरुण आयु में ही सीखे जाते हैं।
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घर में उसे छात्र नहीं कहा जाता है। वह पुत्र, भाई, पौत्र आदि भूमिका में रहता है। इन्हीं भूमिकाओं को लेकर उसे अनेक बातें सीखनी होती हैं। वह अपने दादा - दादी का पौत्र है तो उसे उनकी सेवा करनी है। इस सन्दर्भ में उसे अनेक छोटे बड़े काम सीखने होते हैं। उनकी सेवा करते करते वह उनके अनेक अनुभव सुनता है जिससे उसे ज्ञान प्राप्त होता है। वह अपने मातापिता का पत्र है। उस रूप में उसे उनके कामों में सहयोगी बनना होता है। यह भी उसे सीखना ही है। वह अपने भाईयबहनों का भाई होता है। इस भूमिका में उसे उनके साथ खेलना औए सीखना सिखाना होता है। घर में अतिथि आते हैं। उसे अतिथिसत्कार करना सीखना होता है। घर में अनेक उत्सव मनाए जाते हैं। उनके विषय में जानना होता है।
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विद्यालय में जीवन का बहुत अल्प समय जाना होता है। सम्पूर्ण जीवन घर में ही जीना होता है। इस दृष्टि से जीवनविकास के महत्त्वपूर्ण आयामों की शिक्षा घर में होती है। भोजन, निद्रा, व्यायाम आदि शरीर को स्वस्थ रखने की बातें घर में सीखी जाती हैं। केवल खाना और सोना ही नहीं होता है तो भोजन बनाना और परोसना तथा बिस्तर लगाना और समेटना भी होता है। उनसे संबंधित कपड़े धोना, कमरे की सफाई करना,घर के लिए आवश्यक सामान की खरीदी करना आदि अनेक बातें सीखनी होती हैं।
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मातापिता के काम में सहयोग करते करते स्वयं की ज़िम्मेचलाना है। विद्यालय में ऐसी कोई ज़िम्मेदारी नहीं होती। पढ़ाई का काल पूर्ण होने पर वह विद्यालय छोड़ देता है परन्तु घर में तो वह आजीवन रहता है। इसलिये घर चलाना सीखना बहुत महत्त्वपूर्ण है । दारी से इन कामों को करना सीखा जाता है । यह सीखना इसलिये आवश्यक होता है क्योंकि भविष्य में उसे यही घर का स्वामी बनना होता है।
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सभ्य और सुसंस्कृत जीवन जीने के लिए पैसे कमाना ही पर्याप्त नहीं होता। जीवनव्यवहार की अनेक बातें अच्छी तरह से करनी होती हैं। ये सब उसे सीखनी होती है। 
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यह सब सिखाने वाले मातापिता और अन्य सदस्य होते हैं। वह जीवनमूल्य सीखता है, कुलपरम्परा ग्रहण करता है। समाजसेवा सीखता है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वह जीवन का दृष्टिकोण भी घर में ही सीखता है।
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आज इस विषय की सर्वथा विस्मृति हुई है। उसे पुनः स्मरण में लाने हेतु योजनापूर्वक प्रयास करने की आवश्यकता है। शिक्षाक्षेत्र के सौजन्य लोगों को इस ओर ध्यान देने की आवश्यकता है ।
    
_ विद्यालयों के विषय, विषयवस्तु, अन्यान्य गतिविधियाँ, व्यवस्था, वातावरण आदि सब यह विवेक सिखाने के लिये प्रयुक्त होने चाहिये । महाविद्यालयों में तो समाजशास्त्र का स्वरूप ही प्रथम चरण में सामाजिकता सिखाने का होना चाहिये । सामाजिकता की कसौटी पर ही अन्य विषयों का मूल्यांकन होना चाहिये । उदाहरण के लिये
 
_ विद्यालयों के विषय, विषयवस्तु, अन्यान्य गतिविधियाँ, व्यवस्था, वातावरण आदि सब यह विवेक सिखाने के लिये प्रयुक्त होने चाहिये । महाविद्यालयों में तो समाजशास्त्र का स्वरूप ही प्रथम चरण में सामाजिकता सिखाने का होना चाहिये । सामाजिकता की कसौटी पर ही अन्य विषयों का मूल्यांकन होना चाहिये । उदाहरण के लिये
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