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सरकारी प्राथमिक विद्यालयों की दुर्गति को देखकर यदि इस प्रकार के उपाय करने का मानस बनता है तो अच्छा परिणाम मिल सकता है । शिक्षा की गाडी सही पटरी पर चढ सकती है और शिक्षाक्षेत्र की सेवा हो सकती है।
 
सरकारी प्राथमिक विद्यालयों की दुर्गति को देखकर यदि इस प्रकार के उपाय करने का मानस बनता है तो अच्छा परिणाम मिल सकता है । शिक्षा की गाडी सही पटरी पर चढ सकती है और शिक्षाक्षेत्र की सेवा हो सकती है।
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कानून, सुविधा, सामग्री, fem, (२) पढ़ाने न पढ़ाने का मूल्यांकन करने की पद्धति अत्यन्त
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प्रशिक्षण, निरीक्षण, दण्ड का प्रावधान, वेतन की बढ़ोतरी, कृत्रिम है। विद्यार्थी ज्ञाननान और चरित्रवान बनें
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पुरस्कार, आदि कुछ होने पर भी शिक्षा अच्छी ही होगी ऐसा इसका निकर्ष परीक्षा ही है । परीक्षा भी लिखित होती
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नियम नहीं है । अच्छी नहीं होती इसके कारण तो हमारे सामने है। अंक दे सर्के इस स्वरूप की होती है । अंक दे
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ही है । पहला कारण यह है कि शिक्षक यदि पढाना न चाहे देना बहुत सरल है । समाज में या व्यक्तिगत जीवन में
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तो कोई उसे पढ़ाने के लिये बाध्य नहीं कर सकता । पढाया अआअज्ञान और असंस्कार दिखाई दे रहा है यह परीक्षा में
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सा लगता है परन्तु पढाया जाता नहीं है । पढने वाले की इच्छा उत्तीर्ण या अनुत्तीर्ण होने का निकष नहीं है । इसलिये
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न हो तो अच्छे से अच्छा शिक्षक भी उसे पढा नहीं सकता अंक मिल जाते हैं परन्तु ज्ञान या संस्कार नहीं आता ।
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यह भी सत्य है, परन्तु प्राथमिक विद्यालय में विद्यार्थी की इस परिणाम हेतु दण्डित या पुरस्कृत करना असम्भव
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अनिच्छा का संकट नहीं होता । शिक्षक उसे पढने के लिये है। इसलिये विद्यालय में पढाना सम्भव ही नहीं
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प्रेरित कर सकते हैं । अतः इन विद्यालयों में शिक्षा नहीं होती होता ।
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इसका सीधा दायित्व तो शिक्षकों का ही बनता है । (३) कहीं पर भी सीधी कारवाई होने की व्यवस्था सरकारी
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क्यों नहीं aa FH नहीं होती । निरीक्षण करने वाला स्वयं कुछ
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शिक्षक क्यों नहीं पढ़ाते ? नहीं कर सकता, केवल रिपोर्ट भेज सकता है । रिपोर्ट
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सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षक पढाते क्यों नहीं पढने वाला और उपर रिपोर्ट भेजता है । रिपोर्ट को
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है इसका भी ठीक से विचार करना चाहिये । यदि निदान ठीक सिद्द करना बहुत कठिन होता है। उसमें फिर राजकीय
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करेंगे तो उपाय भी ठीक कर पायेंगे । हस्तक्षेप भी होते हैं । कारवाई करने वाले “शिक्षक'
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(१) आज के शैक्षिक वातावरण में प्रेरणा का तत्त्व गायब नहीं होते, प्रशासकीय विभाग के होते हैं ।
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है। कोई कहे या न कहे, कोई देखे या न देखे, वास्तव में निर्णय लेने या कारवाई करने की दृष्टि से
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पुरस्कार या प्रशंसा मिले या न मिले, कोई दण्ड दे या न यह शिक्षा का क्षेत्र नहीं है। नीतियाँ निश्चित
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दे अपना कर्तव्य है इसलिये पढाना ही चाहिये ऐसी करनेवाला राजकीय क्षेत्र है, कारवाई करनेवाला
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भावना बनने के लिये वातावरण चाहिये । सामने प्रशासकीय क्षेत्र है, शिक्षा का क्षेत्र तो उनके अधीन
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आदर्श चाहिये, शिक्षा मिली हुई होनी चाहिये, आज है । राजकीय क्षेत्र वाले चुनावों की और सत्ता की
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ऐसी शिक्षा नहीं है । कर्तव्यपालन करना चाहिये, चिन्ता करते हैं, उनके लिये सरकारी विद्यालय अपने
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स्वेच्छा से करना चाहिये, अपने कारण से किसी का हितों के लिये उपयोग में आनेवाला क्षेत्र है।
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Hea नहीं होना चाहिये ऐसी शिक्षा किसी भी प्रशासनिक अधिकारियों के लिये ये सब कर्मचारी हैं ।
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स्तर पर, किसी भी प्रकार से नहीं दी जाती । समाज में उनका कार्यक्षेत्र नियम, कानून, कानून की धारा, नियम
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अपने से बडे, अपने अधिकारी कर्तव्यपालन कर रहे हैं पालन के या उल्लंघन के शाब्दिक प्रावधान, नियुक्ति
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ऐसा प्रेरणादायक चरित्र कहीं दिखाई sel ta, ada वेतन आदि हैं, शिक्षा नहीं । शिक्षा के प्रश्न को शैक्षिक
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वातवरण ही अपने लाभ का विचार करने का है। दृष्टि से समझनेवाला, शैक्षिक दृष्टि से हल करनेवाला
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शिक्षाक्षेत्र में प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक तो बहुत इस तन्त्र में कोई नहीं है । जब शिक्षा प्रशासन और
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छोटे हैं । अन्य सरकारी विभागों में भी वातावरण तो राजनीति के अधीन हो जाती है तब वह निर्जीव और
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ऐसा ही है । शिक्षा के उपर के स्तरों पर भी वातावरण यांत्रिक हो जाती है । प्राणवान व्यक्ति अपनी अंगभूत
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तो ऐसा ही है । सर्वत्र सबका व्यवहार ऐसा है इसलिये ऊर्जा से कार्य करता है, यन्त्र बाहरी ऊर्जा से ।
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इन शिक्षकों का व्यवहार भी ऐसा ही है । प्राणवान व्यक्ति अपने ही बल, इच्छा और प्रेरणा से
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पर्व २ : विद्यार्थी, शिक्षक, विद्यालय, परिवार
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(x
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al
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चलता है । यन्त्र चलाने पर चलता है । सरकारी शिक्षा
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का तन्त्र भी चलाने पर चलने वाला तन्त्र है । शिक्षा
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स्वभाव से प्राणवान है, प्रशासन स्वभाव से यान्त्रिक
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है। चलाने वाला यान्त्रि हो और चलनेवाला
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प्राणवान यह अपने आप में बहुत विचित्र व्यवस्था
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है। ऐसी विचित्र व्यवस्था होने के कारण ही ज्ञान,
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चरित्र, कर्तृत्व, कुशलता आदि जीवमान तत्त्व पलायन
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कर जाते हैं । इस मूल कारण से सरकारी प्राथमिक
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विद्यालयों में अच्छी शिक्षा नहीं होती ।
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सरकारी तन्त्र अ-मानवीय है । यह एक व्यवस्था है ।
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यहाँ व्यक्ति गौण है, नियम ही मुख्य है । इस व्यवस्था
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में नियम के आधार पर व्यवहार होता है, भावना और
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विवेक के आधार पर नहीं, कर्तृत्व और चित्र के
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आधार पर नहीं । उदाहरण के लिये शिक्षामन्त्री
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शिक्षक, विद्वान अथवा शिक्षाशास्त्री ही होगा ऐसा नहीं
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है। यह शिक्षा मनोविज्ञान जाननेवाला होगा यह
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जरूरी नहीं है। वह लोगों के मतों से चुनकर देश
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चलानेवाली संसद या धारासभा में पहुँचा हुआ सांसद
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या विधायक है । यह स्वभाव से और कार्य से, विचार
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और अनुभव से व्यापारी भी हो सकता है, उद्योजक हो
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सकता है या मजदूर भी हो सकता है । उसका शिक्षा
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के साथ ज्ञानोपासक या ज्ञानसेवक जैसा कोई सम्बन्ध
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नहीं है । प्रशासनिक अधिकारी तन्त्र को चलानेवाला
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है। वह शिक्षा को, चिकित्सा को, कारखानों को,
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खानों-खदानों को, विद्युत उत्पादन को, मजदूरों को
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एक ही पद्धति से चलाता है । उसे सजीव निर्जीव का,
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अच्छे बुरे का, सज्जन और दुर्जन का कोई भेद नहीं
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है । वह अन्धे की तरह “समदृष्टि' है, कानून अन्धे की
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लकडी है ।
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इस तन्त्र में विवेक पक्षपात बन जाता है, इसलिये
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कोई अपनी दृष्टि से, अपनी पद्धति से, अपने विवेक से
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निर्णय नहीं कर सकता, कारवाई नहीं कर सकता ।
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भले ही उल्टे सीधे, टेढे मेढे रास्ते निकाले जाय तो भी
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उन्हें नियम कानून के द्वारा न्याय्य ठहराने ही होते हैं ।
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यन्त्र की व्यवस्था में ऐसा होना अनिवार्य है । कोई भी
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(५
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यन्त्र स्वतन्त्र व्यवहार कर ही नहीं
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सकता । यदि करने लगता है तो पूरी व्यवस्था चरमरा
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जाती है । तात्पर्य यह है कि विशाल और व्यापक
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सरकारी तन्त्र को अ-मानवीय होना ही पड़ता है ।
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सूझबूझ, कल्पनाशक्ति, अन्तर्दष्टि, देशकाल परिस्थिति
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के अनुसार स्वविवेक आदि इसमें सम्भव ही नहीं होते
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हैं। शिक्षा का स्वभाव इससे सर्वथा उल्टा है । उसे
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इन सबकी आवश्यकता होती है । परन्तु शिक्षक के
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हाथ में अधिकार नहीं है । अधिकार यान्त्रिक व्यवस्था
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के हैं । ऐसे अ-मानवीय तन्त्र में शिक्षा का विचार,
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शिक्षा की प्रक्रिया, शिक्षा के निर्णय, योजनायें, नीतियाँ
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शैक्षिक दृष्टि से, शैक्षिक पद्धति से नहीं लिये जाते हैं,
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लिये जाना सम्भव भी नहीं है । इसका परिणाम यह
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होता है कि विद्यालय, शिक्षक और विद्यार्थियों के होते
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हुए भी शिक्षा नहीं चलती ।
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इसका अर्थ यह नहीं है कि निजी प्राथमिक विद्यालयों
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में शिक्षा अच्छी चलती है । वहाँ अच्छी चलती
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दिखाई देती है इसके कारण वहाँ के शिक्षक नहीं हैं,
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वहाँ का तन्त्र है । सरकारी प्राथमिक विद्यालय में
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शिक्षा अच्छी नहीं चलती इसका कारण शिक्षक नहीं
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हैं तन्त्र है । निजी विद्यालयों में अच्छी चलती दिखाई
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दे रही है इसका कारण भी शिक्षक नहीं है, aa at
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हैं । सरकारी तन्त्र बहुत बडा होने के कारण से और
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अ-मानवीय होने के कारण से वहाँ शिक्षक से
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“पढवाना' सम्भव नहीं होता । निजी विद्यालयों में तन्त्र
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छोटा होने के कारण से, मानवीय होने के कारण से
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शिक्षक से “'पढवाना' सम्भव होता है । सरकारी तन्त्र में
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नौकरी देने वाली व्यवस्था है, निजी तन्त्र में मनुष्य है ।
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मनुष्य इच्छा, भावना, विवेक आदि से परिचालित
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होकर व्यवहार करता है । इसलिये यहाँ शिक्षक को
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पढाना पड़ता है । निजी विद्यालयों में शुल्क देनेवाला
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अभिभावक भी एक महत्त्वपूर्ण घटक है । अभिभावक
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और संचालक मिलकर शिक्षक को पढ़ाने के लिये
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बाध्य कर सकते हैं ।
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इस कारण से जो शुल्क दे सकते हैं ऐसे अभिभावक
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भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
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सरकारी विद्यालयों में अपनी सन्तानों को उपाय हो जायेगा । यह भी आज का विकट प्रश्न बना
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भेजना पसन्द नहीं करते । सरकारी विद्यालय तो चलेंगे ही हुआ है ।
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क्योंकि उन्हें चलाना सरकारी बाध्यता है, परन्तु उसमें पढने. (२) प्रबोधन की आवश्यकता सरकार को भी है । सरकारी
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के लिये कोई जायेगा नहीं । इसस्थिति में लालच देकर पढने प्राथमिक शिक्षकों के पास पढ़ाने के अतिरिक्त इतने
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के लिये बुलाना पडता है । अब जो आते हैं वे भोजन, कपडे अधिक काम रहते हैं कि वे पढाने का काम कम कर
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आदि के आकर्षण से आते हैं, भोजन करके भाग जाते हैं । पाते हैं । उदाहरण के लिये जनगणना, विभिन्न प्रकार
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शिक्षक उनके इतने विमुख है कि वे भगा भी देते हैं । के सर्वेक्षण, चुनाव के समय जानकारी पहुँचाने का
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उपाय क्या है काम आदि विभिन्न सरकारी योजनाओं का काम
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प्राथमिक शिक्षकों को करना पडता है । शिक्षक और
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अभिभावक इससे तंग आ जाते हैं । यदि सरकारी
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विद्यालय ठीक से चलते हैं तो शिक्षकों को इस प्रकार
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परिस्थिति की आलोचना या शिकायत करके तो काम
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बनने वाला नहीं है । मार्ग क्या है इसका विचार करना
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होगा । की व्यस्तता से मुक्त करना होगा । अ-मानवीयतन्त्र
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कुछ इस प्रकार विचार कर सकते हैं... सहजता से ऐसा करता नहीं है इसलिये उसके लिये
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(१) अभिभावकों को अपनी सन्तानों को सरकारी प्राथमिक प्रबोधन की अधिक आवश्यकता होगी ।
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विद्यालयों में भेजने हेतु प्रेरित करना यह वर्तमान. (३) प्रबोधन का कार्य निःस्वार्थ लोग या संस्थायें ही कर
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परिस्थिति में करनेलायक प्रथम उपाय है । सरकारी सकती हैं । यदि वे भी किसी प्रकार के लाभ की अपेक्षा
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प्राथमिक विद्यालयों में जो सुविधा है वह पर्याप्त है, जो करेंगे तो राजकीय पक्ष उनका लाभ उठायेंगे । फिर
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शिक्षक हैं वे नीयत से कैसे भी हों शैक्षिक पात्रता की प्रबोधन भी एक व्यवसाय बन जायेगा । सरकार यदि
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दृष्टि से पर्याप्त हैं । सरकारी विद्यालय में शुल्क नहीं है, अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने हेतु पैसे का आधार लेती है तो
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वह सस्ता है । घर के पास है इसलिये वाहन का खर्च उसका लाभ उठाने वाले तत्त्व निकल AM | इसलिये
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नहीं है । अन्य तामझाम नहीं हैं। बालक चलकर स्वेच्छा से, निरपेक्ष भाव से, समाजसेवा करने वाले
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विद्यालय जा सकते हैं इसलिये समय और श्रम की लोग ही शिक्षा की तथा समाज की सेवा करने की दृष्टि
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बचत होती है । अतः इन विद्यालयों में भेजना अधिक से अभिभावक और सरकार का प्रबोधन करने का काम
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अच्छा है | ea a शिक्षकों को पढ़ाने हेतु बाध्य नहीं करेंगे तो कुछ परिणाम मिलने की सम्भावना है ।
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कर सकता परन्तु अभिभावक कर सकते हैं। (४) कई सेवाभावी संस्थायें सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में
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अभिभावकों के आग्रह का परिणाम तन्त्र पर भी होता भोजन, शैक्षिक सामग्री, कपडे आदि की सहायता करते
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है । अतः यह प्रबोधन का विषय बनना चाहिये । प्रश्न हैं । कई संस्थायें यहाँ के विद्यार्थियों के लिये पढाने की
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केवल यह है कि सरकार की इस मामले में सहायता और संस्कार देने की अतिरिक्त व्यवस्था करते हैं । यह
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करने हेतु कोई आयेगा नहीं, आयेगा तो किसी न इसी कारण से करते हैं क्योंकि सब जानते हैं कि इन
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किसी प्रकार के लाभ की अपेक्षा से आयेगा । सरकार विद्यालयों में पढाई होती नहीं है । यह अच्छा है,
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से मिलने वाले लाभ या तो आर्थिक या राजनीतिक परन्तु इससे भी अच्छा यह है कि सब मिलकर शिक्षकों
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होते हैं । यह होते हुए भी सरकारी विद्यालयों में अपनी को पढ़ाने हेतु प्रेरित करें । अभिभावक और अन्य
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सन्तानों को पढाना लोगों के लिये लाभकारी ही है । संस्थायें मूल प्रश्न की ओर ध्यान न देकर बीच में से
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समाजसेवी संगठनों को अभिभावक प्रबोधन का रास्ता निकालने का प्रयास करते हैं । इससे तो कुल
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कार्य करना चाहिये । शिक्षा महँगी हो गई है उसका भी मिलाकर लाभ के स्थान पर हानि ही अधिक होती है ।
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पर्व २ : विद्यार्थी, शिक्षक, विद्यालय, परिवार
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(५)
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(६)
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एक ओर तो सरकारी प्राथमिक विद्यालयों को प्रबोधन
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और प्रेरणा के माध्यम से पुष्ठ करने का काम करना
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चाहिये, दूसरी ओर सरकार से मुक्त करने का भी प्रयास
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होना चाहिये । वास्तव में शिक्षा सरकार की जिम्मेदारी
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नहीं है, अंग्रेजी शासन के प्रभाव में यह सरकार की
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बाध्यता बन गई है । सरकारी ढंग से चलने वाला कोई
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भी काम ऐसे ही चलेगा । इसमें सरकार का दोष नहीं
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है । लोकतन्त्र में भी ऐसे ही चलेगा । इसमें लोकतन्त्र
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का भी दोष नहीं है । वास्तव में शिक्षा यदि इस प्रकार
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चलनी है तो समाज शिक्षित होगा ऐसी अपेक्षा ही नहीं
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करनी चाहिये । सरकार से मुक्त होने पर ही कुछ किया
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जा सकता है ।
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सरकार से शिक्षा को मुक्त करने के लिये समाज को
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इस दायित्व को स्वीकार करना होगा । समाज आज
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इस मानसिकता में नहीं है। निजी संस्थायें कुछ
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विद्यालय तो चला लेंगी परन्तु देश की इतनी जनसंख्या
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के लिये आवश्यक है उतनी संख्या में विद्यालय
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चलाना उसके बस की बात नहीं । यह भी समाज
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प्रबोधन का ही बहुत बडा विषय है । शिक्षा की
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स्वायत्तता की माँग करने वाले लोगों और संगठनों को
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इस विषय में विचार करना होगा ।
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कुछ इस प्रकार उपाय हो सकते हैं ।
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सभी शिक्षित मातापिता अपने बच्चों को स्वयं पढायेंगे,
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साथ ही जो स्वयं अपने बच्चों को नहीं पढा सकते ऐसे
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मातापिता को बच्चों को भी पढायेंगे ऐसा विचार प्रस्तुत
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करना चाहिये । भोजन, वस्त्र, औषध आदि की
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व्यवस्था जिस प्रकार अपनी जिम्मेदारी पर की जाती है
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उसी प्रकार शिक्षा की भी व्यवस्था की जाय इसमें कुछ
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अस्वाभाविक नहीं लगना चाहिये ।
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दस वर्ष की आयु तक की शिक्षा तो इसी प्रकार से
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चल सकती है । चलनी भी चाहिये । एक शिक्षक को
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पाँच विद्यार्थी होना शिक्षा मनोविज्ञान की दृष्टि से भी
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बहुत अच्छा होगा दस वर्ष की आयु के बाद कुछ
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सामूहिक शिक्षा की व्यवस्था का विचार करना होगा |
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हर सोसाइटी अपना अपना विद्यालय भी चलाये ऐसा
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प्रचलन शुरू हो सकता है।
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सोसाइटी में जिस प्रकार कॉमन प्लॉट होता है,
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कम्युनिटी हॉल होता है, कई कॉलनियों में तरणताल
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और जिम होते हैं उसी प्रकार से विद्यालय भी हो
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सकता है, होना चाहिये । पन्‍्द्रह वर्ष की आयु तक
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ऐसा विद्यालय चल सकता है ।
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उद्योगगृहों को अपने कर्मचारियों की सन्तानों की शिक्षा
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की व्यवस्था करने का आग्रह होना चाहिये । ये
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प्राथमिक विद्यालय ही होंगे । दस वर्ष की आयु तक
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ऐसी शिक्षा दी जायेगी ।
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अपने उद्योग के लिये आवश्यक कौशलों की शिक्षा
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का प्रबन्ध उद्योगगृह ही करे और उसके साथ सामान्य
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ज्ञान और संस्कारों की शिक्षा का प्रबन्ध भी किया जाय
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ऐसी व्यवस्था प्रचलित करनी चाहिये ।
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मन्दिरों में देश, धर्म, संस्कृति का ज्ञान देने की व्यवस्था
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अनिवार्यरूप से करनी चाहिये । मन्दिर विभिन्न
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सम्प्रदायों के हो सकते हैं । उनके साथ ही सामाजिक
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संगठन सम्प्रदाय-निरपेक्ष शिक्षा देने की व्यवस्था कर
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सकते हैं, उन्हें करनी भी चाहिये ।
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किसे किस प्रकार की शिक्षा लेना इसकी बाध्यता नहीं
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होनी चाहिये । शिक्षित और संस्कारी होना यह कानूनी
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बाध्यता नहीं होनी चाहिये, सामाजिक और सांस्कृतिक
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आग्रह होना चाहिये ।
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रोटरी क्लब जैसी संस्थायें, अनेक धार्मिक सांस्कृतिक
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संगठन भोजन, वस्त्र आदि का दान करते हैं उसी प्रकार
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से शिक्षा का दान भी करना चाहिये ।
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सारी शिक्षा निःशुल्क दी जाय इसका भी आग्रह बढना
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चाहिये । शिक्षा देना पुण्य का काम है, इसके कोई पैसे
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लेगा नहीं, पैसे लेना हीनता है ऐसी भावना प्रचलित
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होनी चाहिये ।
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शिक्षा पारिवारिक मामला है, साथ ही धर्मक्षेत्र का भी
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मामला है । देश के धार्मिक और सांस्कृतिक संगठनों
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को देश की शिक्षा का दायित्व लेना चाहिये । सरकार
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की सहायता की अपेक्षा नहीं करनी चाहिये, सरकारी
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दखल भी नहीं होने देनी चाहिये । समाज का भला हो
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भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
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ऐसी भावना से ही यह काम चलना वाला यह काम नहीं है । शिक्षक संगठनों ने धुरी
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चाहिये । बनकर सम्बन्धित घटकों की सहमति बनानी होगी,
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१०, प्राथमिक विद्यालय चसरित्रनिर्माण, सामान्य ज्ञान और सहभागिता सुनिश्चित करनी होगी । बलशाली पर्याय
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कुशलताओं के विकास का क्षेत्र है । चरित्रनिर्माण तैयार करने के बाद सरकार से भी बात करनी होगी ।
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मातापिता और धर्माचार्य कर सकते हैं । सामान्य ज्ञान... १२. कोई कारण नहीं कि सरकार इससे सहमत न हो ।
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शिक्षक दे सकते हैं। कुशलताओं का विकास सरकार भी इस बाध्यता से मुक्त होना चाहेंगी |
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अथर्जिन हेतु तथा गृहस्थाश्रम चलाने हेतु आवश्यक शैक्षिक संगठनों का दायित्व है कि वे सरकार को इस
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है। इसमें से एक भी काम सरकार का नहीं है। बोज से मुक्त करें, समाज को उसके दायित्व का बोध
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मातापिता, धर्माचार्य, शिक्षक और उद्योजक मिलकर करायें, धर्माचार्यों को देश के संस्कारों की चिन्ता
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इसकी व्यवस्था करें यह अपक्षित है । करने हेतु निवेदन करें, मातापिता और उद्योगगृहों को
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११, शैक्षिक संगठन यदि केन्द्रवर्ती भूमिका निभाते हैं तो यह कौशल विकास के दायित्व का स्वीकार करने हेतु
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कार्य सरल होगा । प्राथमिक शिक्षा के तंन्त्र की सिद्द करें ।
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पुररचना होना अत्यन्त आवश्यक है इस बात से तो सरकारी प्राथमिक विद्यालयों की दुर्गति को देखकर यदि
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सबकी सहमति है । किसी को अग्रेसर होना है । किसी... इस प्रकार के उपाय करने का मानस बनता है तो अच्छा
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एक व्यक्ति के अग्रसर होने से यह बात बनेगी नहीं । .... परिणाम मिल सकता है । शिक्षा की गाडी सही पटरी पर चढ
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व्यक्ति या व्यक्तिसमूह से या छोटी संस्थाओं से होने... सकती है और शिक्षाक्षेत्र की सेवा हो सकती है ।
 
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