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==== विद्यालय सामाजिक चेतना का केंद्र ====
 
==== विद्यालय सामाजिक चेतना का केंद्र ====
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===== समाज का अर्थ =====
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समाज की अन्यान्य व्यवस्थाओं में विद्यालय का स्थान अत्यन्त विशिष्ट है। इसे ठीक से समझने के लिये प्रथम समाज से हमारा तात्पर्य क्या है यह समझना आवश्यक है।
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समाज मनुष्यों का समूह है। परन्तु समूह तो प्राणियों का भी होता है। कई प्राणी कभी भी अकेले नहीं रहते, छोटे बडे समूह में ही रहते हैं और घूमते हैं। उनके समूह को समाज नहीं कहते । जो मनुष्य प्राणियों की तरह केवल आहार, निद्रा, मैथुन और भय से प्रेरित होकर उन वृत्तियों को सन्तुष्ट करने के लिये ही जीते हैं उनके समूह को भी समाज नहीं कहते । जो मनुष्य संस्कारयुक्त हैं, किसी उदात्त लक्ष्य के लिये जीते हैं, उदार अन्तःकरण से युक्त हैं ऐसे मनुष्यों के समूह को समाज कहते हैं।
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उदार अन्तःकरण से युक्त लोगों की एक जीवनशैली होती है, एक रीति होती है । इस रीति को संस्कृति कहते हैं। संस्कृति का प्रेरक तत्त्व धर्म होता है। वर्तमान परिस्थिति में धर्म संज्ञा के सम्बन्ध में हमें बार बार खुलासा करना पडता है। धर्म संज्ञा सम्प्रदाय, पंथ, मत, मजहब, रिलिजन आदि में सीमित नहीं है। वह अत्यन्त व्यापक है। धर्म एक ऐसी व्यवस्था है जो विश्वनियमों से बनी है और सृष्टि को धारण करती है अर्थात् नष्ट नहीं होने देती । धर्म मनुष्य समाज के लिये भी ऐसी ही व्यवस्था देता है जो उसे नष्ट होने से बचाती है। संस्कृति धर्म की ही व्यवहार प्रणाली है।
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अर्थात् जो धर्म के अनुसार अपनी जीवन रचना करते हैं ऐसे मनुष्यों का समूह समाज कहा जाता है ।
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===== परिवार भावना मूल आधार है =====
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सामान्य अर्थ में साथ मिलकर रहनेवाला समूह समाज है। साथ रहने की प्रेरणा और प्रकार भिन्न भिन्न होते हैं। एक प्रकार है परिवार के रूप में साथ रहना । स्त्री और पुरुष ऐसा मूल द्वन्द्व जब पतिपत्नी बनकर साथ रहता है तब परिवार बनने का प्रारम्भ होता है। स्त्री और पुरुष अन्य प्राणियों में नर और मादा काम से प्रेरित होकर साथ नहीं रहते । काम का उन्नयन प्रेम में करते हैं और अपने सम्बन्ध को एकात्म सम्बन्ध तक ले जाते हैं । इनको जोडने वाला
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विवाह-संस्कार होता है। इस परिवार का ही विस्तार मातापिता और सन्तान, भाईबहन आदि में होते होते वसुधैव कुटुम्बकम् तक पहुँचता है । मनुष्य समाज की साथ मिलकर रहने की यह एक व्यवस्था है। यह सर्व व्यवस्थाओं का भावात्मक मूल है अर्थात् अन्य सभी व्यवस्थाओं में परिवार भावना मूल आधाररूप रहती है ।
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मनुष्य की अनेक आवश्यकतायें होती हैं । आहार तो सभी प्राणियों की आवश्यकता है, उसी प्रकार से मनुष्य की भी है । परन्तु मनुष्य प्राणी की तरह नहीं जीता । उसे मन, बुद्धि, अहंकार आदि भी मिले हैं। इन सबकी आवश्यकतायें भी होती हैं। अपनी इच्छायें, अपनी जिज्ञासा, अपना कर्ताभाव आदि से प्रेरित होकर मनुष्य अनेक प्रकार की वस्तुयें चाहता है। इन्हें प्राप्त करने का प्रयास करता है। अनेक वस्तुओं का निर्माण करता है। इसमें से विभिन्न वस्तुयें निर्माण करनेवाले, अनेक प्रकार के कार्य करनेवाले समूह निर्माण हुए जिन्हें जाति कहा जाने लगा।
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===== समाज धर्म व संस्कृति से चलता है =====
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मनुष्य का मन बहुत सक्रिय है । रागद्वेष, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि से उद्वेलित होकर वह अनेक प्रकार के
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परन्तु हम सब जानते हैं कि हमें इनमें से एक भी
 
परन्तु हम सब जानते हैं कि हमें इनमें से एक भी
  
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