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रंगमंच कार्यक्रम को अब मनोरंजन का ही विषय माना जाता है, शैक्षिक या सांस्कृतिक नहीं । ऐसा मानने के बाद भी उसमें कला का आविष्कार नहीं दिखाई देता है । अतिशय निम्न स्तर का मनोरंजन ही उसमें होता है। विद्या के धाम में अभिजात कला और श्रेष्ठ कोटी की रसिकता दिखाई देनी चाहिए उसका कहीं दर्शन नहीं होता है।
 
रंगमंच कार्यक्रम को अब मनोरंजन का ही विषय माना जाता है, शैक्षिक या सांस्कृतिक नहीं । ऐसा मानने के बाद भी उसमें कला का आविष्कार नहीं दिखाई देता है । अतिशय निम्न स्तर का मनोरंजन ही उसमें होता है। विद्या के धाम में अभिजात कला और श्रेष्ठ कोटी की रसिकता दिखाई देनी चाहिए उसका कहीं दर्शन नहीं होता है।
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अधिकतर फिल्म ही रंगमंच कार्यक्रमों का आदर्श होता है। फिल्मी गीतों की सीडी के साथ भोंडा नाच करना उसका मुख्य अंग होता है।
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कई विद्यालय ऐसे होते हैं जहां नाटक, नृत्य,रास, लोककला आदि का प्रदर्शन होता है। वहाँ विद्यार्थियों की कुशलता से भी अधिक व्यावसायिक कलाकारों का निर्देशन ही मुख्य रहता है अर्थात् व्यावसायिक कलाकारों को ठेका दिया जाता है और विद्यालय के छात्रों को सिखाने की व्यवस्था की जाती है। इसका प्रदर्शन किया जाता है ।
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वास्तव में रंगमंच कार्यक्रम शिक्षाक्रम से स्वतंत्र विषय नहीं है। वह अध्ययन का एक अंग है और उसका नियोजन उसी प्रकार होना चाहिए।
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रंगमंच कार्यक्रम कक्षाकक्ष की शिक्षा का ही विस्तार है । वह मौखिक और कलात्मक अभिव्यक्ति के लिए अवसर देता है।
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उदाहरण के लिए विद्यालय में भाषा के विषय में कविता, नाटक या कहानी सीखी जाती है। नाटक केवल पढ़ने के लिए नहीं होता है, वह अभिनय के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है । अत: कक्षाकक्ष में ही उसे प्रस्तुत करना उसे पढ़ने पढ़ाने की उत्तम विधि है। पहले विद्यार्थी नाटक देखें और बाद में प्रस्तुत करें यह क्रम होना चाहिए । ऐसी प्रस्तुति के समय साजसज्जा, प्रसाधन, वेषभूषा आदि का कोई महत्त्व नहीं है । अभिनय, संवाद बोलने का कौशल, वाणी का प्रभुत्व, आवाज का नियमन, अंगविन्यास, लिखित विषय को वाणी तथा अभिनय में परिवर्तित करने का कौशल आदि शैक्षिक विषय हैं। इनकी ओर ध्यान दिया जाय तभी वह शिक्षाक्रम का अंग बनता है अन्यथा केवल मनोरंजन है। केवल मनोरंजन के लिए विद्यालय में कोई अवकाश नहीं, वह घर में और घर के बाहर भी बहुत है।
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साजसज्जा, वेषभूषा आदि नहीं होने से प्रेक्षक के रूप में भी कल्पनाशक्ति का विकास होता है। अभिनय देखकर ही चरित्र समझने की क्षमता बढ़ती है। पात्र के साथ तादात्म्य निर्माण होता है । कलाकृति का रसानुभव करना और उससे प्रेरणा प्राप्त करना तभी सम्भव है। हम सुनते हैं कि महात्मा गांधी ने राजा हरिश्चंद्र का नाटक देखा और उससे प्रेरणा प्राप्त कर जीवन में सत्य ही बोलने का व्रत लिया । आज छोटे छोटे बच्चे भी फिल्म में जो देखते हैं वह झूठ है ऐसा समझते हैं । उन्हें नट और नटियाँ दिखती हैं, उनके चरित्र नहीं । वे चरित्रों के नाम नहीं बोलते, नातों के ही नाम बोलते हैं। प्रेरणा लेते हैं तो उनके शृंगार और वेषभूषा तथा केशभूषा की क्योंकि कला अब अभिनय में नहीं अपितु साजसज्जा और शृंगार के ऊपरी सतह पर आ गई है।
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इस छिछलेपन तथा कला के आभासी स्तर को सही करने का स्थान विद्यालय का कक्षाकक्ष है जहां कला का आस्वाद और कला की प्रस्तुति की सही समझ दी जाती है।
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कला का क्षेत्र आज बहुत बड़ी मात्रा में अक्रिय मनोरंजन का क्षेत्र बन गया है । लोग संगीत सुनते हैं, स्वयं गाते नहीं, नाटक या नृत्य देखते हैं, स्वयं करते नहीं, खेल भी देखते हैं, खेलते नहीं। बहुत ही अल्प मात्रा में लोग यह सब करते हैं परन्तु संकट यह है कि उनके लिए यह सब कमाई करने के साधन हैं, आनन्द और रसास्वादन के नहीं। अच्छी से अच्छी बातों को बिकाऊ बना देने की क्षुद्र वृत्ति आज चारों अल्प मात्रा में लोग यह सब करते हैं परन्तु संकट यह है कि उनके लिए यह सब कमाई करने के साधन हैं, आनन्द और रसास्वादन के नहीं। अच्छी से अच्छी बातों को बिकाऊ बना देने की क्षुद्र वृत्ति आज चारों ओर दिखाई दे रही है इसलिए आनन्द कला का नहीं कला से मिलने वाले पैसे का रह गया है। यह सांस्कृतिक अवनति है।
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आजकल अक्रिय मनोरंजन के प्रचलन के परिणामस्वरूप एक ओर तो निष्क्रियता बढ़ी है, दूसरी ओर जब भी विद्यार्थी नाचते गाते हैं तब उसमें किसी भी प्रकार का सौंदर्य नहीं होता। संगीत, नृत्य या अभिनय का उसमें दर्शन नहीं होता । एक प्रकार का भोंडापन ही दिखाई देता है । या तो उसमें परा कोटी का व्यावसायीकरण होता है। उसमें फिर सब लोग सहभागी नहीं हो सकते । हमारे लोकउत्सवों में छोटे
    
परन्तु हम सब जानते हैं कि हमें इनमें से एक भी
 
परन्तु हम सब जानते हैं कि हमें इनमें से एक भी
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