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जो विद्यार्थी अध्ययन में तेजस्वी हैं उन्हें विद्यालय में शिक्षक बनना चाहिए। शिक्षक बनकर पैसे कितने मिलते हैं यह स्वतन्त्र विषय है। हो सकता है कि न भी मिले या कम मिले । जिस प्रकार अच्छा वर या अच्छी वधू पाने के लिए गुण और कर्तृत्व देखे जाते हैं, रूप या पैसा नहीं उसी प्रकार ज्ञानदान का पवित्र और श्रेष्ठ कार्य करने का भाग्य मिलता है तो पैसे नहीं देखे जाते । अतः विद्यालय के लिए शिक्षकों की पीढ़ियाँ विद्यालय ही तैयार करेगा और वर्तमान विद्यार्थी ही भावी शिक्षक होंगे। इस दृष्टि से विद्यालय ने विद्यार्थियों का चयन करना होगा और विद्यार्थी तथा उनके अभिभावकों ने इस बात के लिए अपने आपको प्रस्तुत करना होगा। यह कार्य विद्यालय की आवश्यकता और विद्यार्थियों की क्षमता और सिद्धता के अनुसार होगा।  
 
जो विद्यार्थी अध्ययन में तेजस्वी हैं उन्हें विद्यालय में शिक्षक बनना चाहिए। शिक्षक बनकर पैसे कितने मिलते हैं यह स्वतन्त्र विषय है। हो सकता है कि न भी मिले या कम मिले । जिस प्रकार अच्छा वर या अच्छी वधू पाने के लिए गुण और कर्तृत्व देखे जाते हैं, रूप या पैसा नहीं उसी प्रकार ज्ञानदान का पवित्र और श्रेष्ठ कार्य करने का भाग्य मिलता है तो पैसे नहीं देखे जाते । अतः विद्यालय के लिए शिक्षकों की पीढ़ियाँ विद्यालय ही तैयार करेगा और वर्तमान विद्यार्थी ही भावी शिक्षक होंगे। इस दृष्टि से विद्यालय ने विद्यार्थियों का चयन करना होगा और विद्यार्थी तथा उनके अभिभावकों ने इस बात के लिए अपने आपको प्रस्तुत करना होगा। यह कार्य विद्यालय की आवश्यकता और विद्यार्थियों की क्षमता और सिद्धता के अनुसार होगा।  
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* जो विद्यार्थी शिक्षक नहीं बनते हैं वे अपने घर चलाते हैं और विभिन्न व्यवसाय करते हैं। विद्यालय की आर्थिक आवश्यकतायें पूर्ण करने का दायित्व उनका है। विद्यालय को उनसे मांगना न पड़े परन्तु एक व्यवस्था यह बनी हो कि हर पूर्व छात्र को विद्यालय के लिए निश्चित धनराशि नियमित रूप से देना है । यह विद्यालय का शुल्क नहीं है, विद्यार्थियों की गुरुदक्षिणा है । गुरुदक्षिणा केवल एक ही बार देनी होती है ऐसा नहीं है, वह नियमित रूप से भी दी जा सकती है।
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* गुरुदक्षिणा देने का काम विद्यार्थी की आवश्यकता होना चाहिए, विद्यालय की नहीं ।
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* ऐसी व्यवस्था करने के लिए विद्यालय ने प्रथम तो पढ़ाने हेतु शुल्क लेना बन्द करना चाहिए । शुल्कऔर गुरुदक्षिणा दोनों एक साथ नहीं हो सकता।
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* इसका भावात्मक पक्ष दायित्वबोध का है। कृतज्ञ विद्यार्थियों को होना है, विद्यालय को नहीं ।
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* हम विद्यालय को भी परिवार कहते हैं तो उसका व्यावहारिक पक्ष यही होना चाहिए।
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* विद्यालय में प्रशासन हेतु भी एक व्यवस्था होनी होती है। आज इसके लिए संचालक मंडल होता है। नियुक्तियाँ करना, सरकार के साथ पत्रव्यवहार करना, आवश्यक सामग्री की खरीदी करना, भवन आदि बनवाना, धनसंग्रह करना आदि काम प्रबन्ध समिति के होते हैं । ये सारे काम शिक्षकों को । करना चाहिए। शिक्षकों की नियुक्तियाँ करना प्रधानाचार्य का काम है। प्रशासन की ज़िम्मेदारी शिक्षकों की है । इसमें भी विद्यार्थियों की सहभागिता अपेक्षित है।
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* इस व्यवस्था हेतु विद्यालय स्वायत्त होने चाहिए । आज की शेष व्यवस्था वैसी ही रखकर यह व्यवस्था नहीं हो सकती। फिर भी संचालक मंडल, शिक्षक, अभिभावक और शासन को साथ मिलकर यह प्रयोग कैसे हो इसका विचार करना चाहिए । एक विद्यालय यदि दस वर्ष की योजना बनाता है तो यह आज भी व्यावहारिक बन सकती है।
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* शिक्षकों को इस बात में अग्रसर होना चाहिए । वे स्वयं विद्यालय शुरू करें । प्रथम कुछ वर्ष इसे समाज के सहयोग से चलाएं । प्रारम्भ से गुरुदक्षिणा का विषय नहीं हो सकता । प्रयोग व्यावहारिक बन सके इसलिए बारह वर्ष की आयु के विद्यार्थियों से शुरू करें । ये विद्यार्थी बीस वर्ष के होते होते अर्थार्जन शुरू करेंगे, साथ ही चयनित छात्र विद्यालय में अध्यापन शुरू करेंगे।
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* किसी भी विचार को मूर्त रूप देने के लिए बौद्धिक और मानसिक तैयारी करनी होती है वह इसमें भी करनी चाहिए । शिक्षा के भारतीय प्रतिमान के लिए यह करणीय कार्य है इसका बौद्धिक स्वीकार प्रथम चरण है। सम्बन्धित लोगों की मानसिकता बनाना दूसरा चरण है। व्यावहारिक पक्ष की योजना बनाना तीसरा चरण है।
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* इस प्रकार करने से विद्यालय परिवार की भी संकल्पना साकार हो सकती है। अनौपचारिक पद्धति से कहीं कहीं पर आज भी यह चलती है, परन्तु इसे एक व्यवस्था में प्रस्थापित करने की आवश्यकता है ।
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जो विद्यार्थी शिक्षक नहीं बनते हैं वे अपने घर चलाते हैं और विभिन्न व्यवसाय करते हैं। विद्यालय की आर्थिक आवश्यकतायें पूर्ण करने का दायित्व उनका है। विद्यालय को उनसे मांगना न पड़े परन्तु एक व्यवस्था यह बनी हो कि हर पूर्व छात्र को विद्यालय के लिए निश्चित धनराशि नियमित रूप से देना है । यह विद्यालय का शुल्क नहीं है, विद्यार्थियों की गुरुदक्षिणा है । गुरुदक्षिणा केवल एक ही बार देनी होती है ऐसा नहीं है, वह नियमित रूप से भी दी जा सकती है।  
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===== विद्यालय तंत्र कैसा है ? =====
 
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वर्तमान व्यवस्था में विद्यालय तंत्र में विद्यार्थी को लाभार्थी माना जाता है और विद्यालय पैसे के बदले में लाभ उपलब्ध कराने वाली संस्था है। जिस प्रकार किसी बड़े डीपार्टमेंटल स्टोर में विभिन्न वस्तुओं को बेचने के केन्द्र बने होते हैं और उन केन्द्रों पर बेचने का काम करने वाले नौकर नियुक्त होते हैं उस प्रकार शिक्षक विद्यालय में कर्मचारी हैं। भारत में विद्यालय का स्वरूप इस प्रकार के बाजार का नहीं है। विद्यालय का स्वरूप परिवार का है। अतः विद्यालय चलाने का काम विद्यालय परिवार का होता है।
गुरुदक्षिणा देने का काम विद्यार्थी की आवश्यकता होना चाहिए, विद्यालय की नहीं ।
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ऐसी व्यवस्था करने के लिए विद्यालय ने प्रथम तो पढ़ाने हेतु शुल्क लेना बन्द करना चाहिए । शुल्कऔर गुरुदक्षिणा दोनों एक साथ नहीं हो सकता।
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इसका भावात्मक पक्ष दायित्वबोध का है। कृतज्ञ विद्यार्थियों को होना है, विद्यालय को नहीं ।
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हम विद्यालय को भी परिवार कहते हैं तो उसका व्यावहारिक पक्ष यही होना चाहिए।
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विद्यालय परिवार में शिक्षक और विद्यार्थी होते हैं । विद्यालय संचालन में शिक्षक और विद्यार्थी समान रूप से सहभागी होने चाहिए । यद्यपि शिक्षक प्रथम और अधिक जिम्मेदार हैं और विद्यार्थी उनके मार्गदर्शन में काम करते हैं । विद्यार्थी के मातापिता और समाज विद्यालय के सहयोगी हैं ।
 
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विद्यालय में प्रशासन हेतु भी एक व्यवस्था होनी होती है। आज इसके लिए संचालक मंडल होता है। नियुक्तियाँ करना, सरकार के साथ पत्रव्यवहार करना, आवश्यक सामग्री की खरीदी करना, भवन आदि बनवाना, धनसंग्रह करना आदि काम प्रबन्ध समिति के होते हैं । ये सारे काम शिक्षकों को । करना चाहिए। शिक्षकों की नियुक्तियाँ करना प्रधानाचार्य का काम है। प्रशासन की ज़िम्मेदारी शिक्षकों की है । इसमें भी विद्यार्थियों की सहभागिता अपेक्षित है।
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इस व्यवस्था हेतु विद्यालय स्वायत्त होने चाहिए । आज की शेष व्यवस्था वैसी ही रखकर यह व्यवस्था नहीं हो सकती। फिर भी संचालक मंडल, शिक्षक, अभिभावक और शासन को साथ मिलकर यह प्रयोग कैसे हो इसका विचार करना चाहिए । एक विद्यालय यदि दस वर्ष की योजना बनाता है तो यह आज भी व्यावहारिक बन सकती है।
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शिक्षकों को इस बात में अग्रसर होना चाहिए । वे स्वयं विद्यालय शुरू करें । प्रथम कुछ वर्ष इसे समाज के सहयोग से चलाएं । प्रारम्भ से गुरुदक्षिणा का विषय नहीं हो सकता । प्रयोग व्यावहारिक बन सके इसलिए बारह वर्ष की आयु के विद्यार्थियों से शुरू करें । ये विद्यार्थी बीस वर्ष के होते होते अर्थार्जन शुरू करेंगे, साथ ही चयनित छात्र विद्यालय में अध्यापन शुरू करेंगे।
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किसी भी विचार को मूर्त रूप देने के लिए बौद्धिक और मानसिक तैयारी करनी होती है वह इसमें भी करनी चाहिए । शिक्षा के भारतीय प्रतिमान के लिए यह करणीय कार्य है इसका बौद्धिक स्वीकार प्रथम चरण है। सम्बन्धित लोगों की मानसिकता बनाना दूसरा चरण है। व्यावहारिक पक्ष की योजना बनाना तीसरा चरण है।
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इस प्रकार करने से विद्यालय परिवार की भी संकल्पना साकार हो सकती है। अनौपचारिक पद्धति से कहीं कहीं पर आज भी यह चलती है, परन्तु इसे एक व्यवस्था में प्रस्थापित करने की आवश्यकता है
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===== विद्यालय तंत्र कैसा है ? =====
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वर्तमान व्यवस्था में विद्यालय तंत्र में विद्यार्थी को लाभार्थी माना जाता है और विद्यालय पैसे के बदले में लाभ
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===== विद्यालय में विद्यार्थियों का काम क्या होगा ? =====
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* विद्यालय की नित्य स्वच्छता करना
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* विद्यालय की खरीदी करना
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* विद्यालय का सामान व्यवस्थित रखना
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* विद्यालय के बेंक, यातायात, डाकघर आदि के कामकाज करना
 
परन्तु हम सब जानते हैं कि हमें इनमें से एक भी
 
परन्तु हम सब जानते हैं कि हमें इनमें से एक भी
  
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