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शिक्षक प्रबोधन का विषय सर्वाधिक महत्त्व रखता है । इसको सही पटरी पर लाये बिना और कुछ भी कैसे हो सकता है ? सबको मिलकर इस बात के लिये प्रयास करने की आवश्यकता है ।
 
शिक्षक प्रबोधन का विषय सर्वाधिक महत्त्व रखता है । इसको सही पटरी पर लाये बिना और कुछ भी कैसे हो सकता है ? सबको मिलकर इस बात के लिये प्रयास करने की आवश्यकता है ।
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आदर्श शिक्षक
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=== आदर्श शिक्षक ===
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भारतीय शैक्षिक चिंतन में शिक्षक का स्थान बहुत ही आदरणीय, पूज्य, श्रेष्ठ माना गया है। सभी प्रकार के सत्तावान, बलशाली, शौर्यवान, धनवान व्यक्तियों से भी शिक्षक का स्थान ऊँचा है । शिक्षक को आचार्य, अध्यापक, उपाध्याय, गुरु आदि नामों से संबोधित किया जाता है | उनके विद्यादान के प्रकार के अनुसार ये नाम दिये जाते हैं ।
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भारतीय शैक्षिक चिंतन में शिक्षक का स्थान बहुत ही
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दैनंदिन जीवन में शिक्षक का आचार्य नाम स्थापित है । आचार्य की व्याख्या इस प्रकार की गई है -<blockquote>आचिनोति हि शास्त्रार्थ आचारे स्थापयत्युत ।</blockquote><blockquote>स्वयमाचरते यस्तु स आचार्य: प्रचक्षते ।।</blockquote>जो शास्त्रों के अर्थ को अच्छी तरह से जानता है, जो इन अर्थों को आचरण में स्थापित करता है, स्वयं भी आचरण में लाता है और छात्रों से भी आचरण करवाता है उसे 'आचार्य' कहा जाता है ।
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आदरणीय, पूज्य, श्रेष्ठ माना गया है। सभी प्रकार के
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आदर्श शिक्षक सबसे पहले आचार्य होना चाहिये । अपने आचरण से विद्यार्थी को जीवननिर्माण की प्रेरणा और मार्गदर्शन देता है वही आचार्य है ।
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सत्तावान, बलशाली, शौर्यवान, धनवान व्यक्तियों से भी
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आचार्य शासन भी करता है अर्थात्‌ विद्यार्थी को आचार सिखाने के साथ साथ उनका पालन भी करवाता है ।
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शिक्षक का स्थान ऊँचा है । शिक्षक को आचार्य, अध्यापक,
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आचार्य का सबसे बड़ा गुण है उसकी विद्याप्रीति जो जबर्दस्ती पढ़ता है, जिसे पढ़ने में आलस आता है, जो पद, प्रतिष्ठा या पैसा (नौकरी) अधिक मिले इसलिए पढता है, कर्तव्य मानकर पढता है उसे आचार्य (शिक्षक) नहीं कह सकते । पढ़ना, स्वाध्याय करना, ज्ञानचर्चा करना आदि का आनंद जिसे भौतिक वस्तुओं के आनंद से श्रेष्ठ लगता है, जो उसीमें रममाण हो जाता है वही सही आचार्य है । जिनमें ऐसी विद्याप्रीति नहीं है ऐसे शिक्षकों के कारण ही शिक्षाक्षेत्र में अनर्थों की परंपराएँ निर्मित हो रही हैं ।
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उपाध्याय, गुरु आदि नामों से संबोधित किया जाता है |
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आचार्य का दूसरा गुण है उसका ज्ञानवान होना । स्वाध्याय, अध्ययन और चिंतन आदि प्रगल्भ होने से ही मनुष्य ज्ञानवान हो सकता है । बुद्धि को तेजस्वी और निर्मल बनाने के लिए जो अपना आहारविहार, ध्यानसाधना अशिथिल रखते हैं वही आचार्य ज्ञानवान होते हैं ।
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उनके विद्यादान के प्रकार के अनुसार ये नाम दिये जाते हैं
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ज्ञानवान होने के साथ आचार्य का श्रद्धावान होना भी जरुरी है । अपने आप में, ज्ञान में और विद्यार्थी में श्रद्धा होती है तभी विद्यादान का कार्य उत्तम पद्धति से हो सकता है
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दैनंदिन जीवन में शिक्षक का आचार्य नाम स्थापित
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एक ओर जहाँ आचार्य में विद्याप्रीति होनी चाहिये, वहाँ दूसरी ओर विद्यार्थीप्रीति भी होनी चाहिये । आचार्य को विद्यार्थी अपने मानस संतान ओर अपनी देहज संतान से भी अधिक प्रिय लगते हों, विद्यार्थी अपने आराध्य देवता लगते हों तभी वह उत्तम आचार्य है ।
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है । आचार्य की व्याख्या इस प्रकार की गई है -
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आचार्य को विद्यार्थीप्रिय होना चाहिये लेकिन लाड़ करने के लिए प्रिय नहीं । आचार्य उसका चखित्रि निर्माण, उसके कल्याण की चिंता करने वाला होना चाहिये । छात्र को अनुशासन में रखना, सयम सिखाना भी आवश्यक है ।
 
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आचिनोति हि शास्त्रार्थ आचारे स्थापयत्युत ।
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स्वयमाचरते यस्तु स आचार्य: प्रचक्षते ।।
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जो शास्त्रों के अर्थ को अच्छी तरह से जानता है, जो
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इन अर्थों को आचरण में स्थापित करता है, स्वयं भी आचरण
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में लाता है और छात्रों से भी आचरण करवाता है उसे
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“आचार्य' कहा जाता है ।
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आदर्श शिक्षक सबसे पहले आचार्य होना चाहिये ।
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अपने आचरण से विद्यार्थी को जीवननिर्माण की प्रेरणा और
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मार्गदर्शन देता है वही आचार्य है ।
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आचार्य शासन भी करता है अर्थात्‌ विद्यार्थी को
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आचार सिखाने के साथ साथ उनका पालन भी करवाता है ।
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आचार्य का सबसे बड़ा गुण है उसकी विद्याप्रीति । जो
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जबर्दस्ती पढ़ता है, जिसे पढ़ने में आलस आता है, जो पद,
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प्रतिष्ठा या पैसा (नौकरी) अधिक मिले इसलिए पढता है,
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कर्तव्य मानकर पढता है उसे आचार्य (शिक्षक) नहीं कह
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सकते । पढ़ना, स्वाध्याय करना, ज्ञानचर्चा करना आदि का
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आनंद जिसे भौतिक वस्तुओं के आनंद से श्रेष्ठ लगता है, जो
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उसीमें रममाण हो जाता है वही सही आचार्य है । जिनमें ऐसी
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विद्याप्रीति नहीं है ऐसे शिक्षकों के कारण ही शिक्षाक्षेत्र में
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अनर्थों की परंपराएँ निर्मित हो रही हैं ।
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आचार्य का दूसरा गुण है उसका ज्ञानवान होना ।
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स्वाध्याय, अध्ययन और चिंतन आदि प्रगल्भ होने से ही
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मनुष्य ज्ञानवान हो सकता है । बुद्धि को तेजस्वी और निर्मल
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बनाने के लिए जो अपना आहारविहार, ध्यानसाधना
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अशिथिल रखते हैं वही आचार्य ज्ञानवान होते हैं ।
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ज्ञानवान होने के साथ आचार्य का श्रद्धावान होना भी
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जरुरी है । अपने आप में, ज्ञान में और विद्यार्थी में श्रद्धा होती
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है तभी विद्यादान का कार्य उत्तम पद्धति से हो सकता है ।
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एक औओर जहाँ आचार्य में विद्याप्रीति होनी चाहिये,
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वहाँ दूसरी ओर विद्यार्थीप्रीति भी होनी चाहिये । आचार्य को
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विद्यार्थी अपने मानस संतान ओर अपनी देहज संतान से भी
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अधिक प्रिय लगते हों, विद्यार्थी अपने आराध्य देवता लगते
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हों तभी वह उत्तम आचार्य है ।
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आचार्य को विद्यार्थीप्रिय होना चाहिये लेकिन लाड़
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करने के लिए प्रिय नहीं । आचार्य उसका चखित्रि निर्माण,
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उसके कल्याण की चिंता करने वाला होना चाहिये । छात्र
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भी आवश्यक है ।
      
आचार्य कभी विद्या का सौदा नहीं करता । पद, पैसा,
 
आचार्य कभी विद्या का सौदा नहीं करता । पद, पैसा,
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