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की घोर उपेक्षा हो रही है । ये सब पढने लायक विषय नहीं हैं। भाषा और साहित्य की ओर भी सुझान नहीं है। भाषाशुद्धि का आग्रह समाप्त हो गया है । इसका परिणाम यह होता है कि सामाजिकता, सभ्यता, शिष्टता, संस्कारिता, सामाजिक दायित्वबोध, देशभक्ति, मानवीय गुण आदि की शिक्षा नहीं मिलती है । मनुष्य एक यान्त्रिक, पशुतुल्य, आर्थिक प्राणी बनकर रह जाता है । यान्त्रिक शिष्टाचार और सभ्यता विकसित होती है । मानवीय सम्बन्धों को स्वार्थ की प्रेरणा होती है । अर्थात्‌ व्यक्ति अपने सुख का विचार कर दूसरों से सम्बन्ध बनाता है । अपने लिये भी वह हित का नहीं, सुख का ही विचार करता है । भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति को ही पुरुषार्थ मानता है, शिक्षा का प्रयोजन भी वही है और वह प्राप्त कर सकने को यश मानता है । अधिक से अधिकतर की ओर गति को ही विकास मानता है और उसे ऐसा विकास ही चाहिये ।
 
की घोर उपेक्षा हो रही है । ये सब पढने लायक विषय नहीं हैं। भाषा और साहित्य की ओर भी सुझान नहीं है। भाषाशुद्धि का आग्रह समाप्त हो गया है । इसका परिणाम यह होता है कि सामाजिकता, सभ्यता, शिष्टता, संस्कारिता, सामाजिक दायित्वबोध, देशभक्ति, मानवीय गुण आदि की शिक्षा नहीं मिलती है । मनुष्य एक यान्त्रिक, पशुतुल्य, आर्थिक प्राणी बनकर रह जाता है । यान्त्रिक शिष्टाचार और सभ्यता विकसित होती है । मानवीय सम्बन्धों को स्वार्थ की प्रेरणा होती है । अर्थात्‌ व्यक्ति अपने सुख का विचार कर दूसरों से सम्बन्ध बनाता है । अपने लिये भी वह हित का नहीं, सुख का ही विचार करता है । भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति को ही पुरुषार्थ मानता है, शिक्षा का प्रयोजन भी वही है और वह प्राप्त कर सकने को यश मानता है । अधिक से अधिकतर की ओर गति को ही विकास मानता है और उसे ऐसा विकास ही चाहिये ।
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७. वैश्विकता का आकर्षण
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=== ७. वैश्विकता का आकर्षण ===
 
   
शिक्षा अब स्वतः प्रमाण नहीं रही है । अर्थात्‌ शिक्षा
 
शिक्षा अब स्वतः प्रमाण नहीं रही है । अर्थात्‌ शिक्षा
 
अपने आपको अपने ही बल पर प्रमाणित नहीं करती |
 
अपने आपको अपने ही बल पर प्रमाणित नहीं करती |
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व्यक्ति की भाषा, व्यक्ति का व्यवहार, व्यक्ति का दृष्टिकोण उसके शिक्षित होने का प्रमाण है। व्यक्ति के संस्कार, सद्गुण और सत्कार्य उसके शिक्षित होने का प्रमाण है । लिखित प्रमाणपत्र की आवश्यकता नहीं होती है । किसी और ने प्रमाणित करने की बाध्यता नहीं होती । परन्तु हमने इन स्वाभाविक प्रमाणपत्रों के स्थान पर कृत्रिम और औपचारिक प्रमाणों की व्यवस्था की । सच्ची शिक्षा से विमुख होने का यह प्रारम्भ हुआ । इस व्यवस लिये संस्था और प्रक्रिया दोनों की आवश्यकता थी | इसलिये परीक्षा नामक प्रक्रिया और प्रमाणित करने वाला बोर्ड नामक संस्था बनी ।
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अब हमें शिक्षा से प्राप्त ज्ञान की नहीं अपितु परीक्षा के परिणाम स्वरूप मिलने वाले प्रमाणपत्र की आवश्यकता है क्योंकि नौकरी उससे मिलती है । ज्ञान की ही परीक्षा होती है और उसमें उत्तीर्ण होने पर ही प्रमाणपत्र मिलेगा यह
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व्यक्ति की भाषा, व्यक्ति का व्यवहार,
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व्यक्ति का दृष्टिकोण उसके शिक्षित होने का प्रमाण है।
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व्यक्ति के संस्कार, सद्गुण और सत्कार्य उसके शिक्षित होने
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का प्रमाण है । लिखित प्रमाणपत्र की आवश्यकता नहीं
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होती है । किसी और ने प्रमाणित करने की बाध्यता नहीं
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होती । परन्तु हमने इन स्वाभाविक प्रमाणपत्रों के स्थान पर
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कृत्रिम और औपचारिक प्रमाणों की व्यवस्था की । सच्ची
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शिक्षा से विमुख होने का यह प्रारम्भ हुआ । इस व्यवस्था
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के लिये संस्था और प्रक्रिया दोनों की आवश्यकता eft |
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इसलिये परीक्षा नामक प्रक्रिया और प्रमाणित करने वाला
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बोर्ड नामक संस्था बनी ।
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अब हमें शिक्षा से प्राप्त ज्ञान की नहीं अपितु परीक्षा
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के परिणाम स्वरूप मिलने वाले प्रमाणपत्र की आवश्यकता
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है क्योंकि नौकरी उससे मिलती है । ज्ञान की ही परीक्षा
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होती है और उसमें उत्तीर्ण होने पर ही प्रमाणपत्र मिलेगा यह
   
स्वाभाविक क्रम है परन्तु यह सम्बन्ध विच्छेद कब हो गया
 
स्वाभाविक क्रम है परन्तु यह सम्बन्ध विच्छेद कब हो गया
इसका पता भी नहीं चला और वह हो गया । प्रमाणपत्र के
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इसका पता भी नहीं चला और वह हो गया । प्रमाणपत्र के बिना भी ज्ञान होता है इसका भी विस्मरण हो गया ।
बिना भी ज्ञान होता है इसका भी विस्मरण हो गया ।
      
इसे प्रमाणित करने वाली भी विविध प्रकार की
 
इसे प्रमाणित करने वाली भी विविध प्रकार की
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और आर्न्तर्रष्ट्रीय होती हैं ।
 
और आर्न्तर्रष्ट्रीय होती हैं ।
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अब विकास की दौड में सब को अन्तरराष्ट्रीय संस्था
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अब विकास की दौड में सब को अन्तरराष्ट्रीय संस्था का आकर्षण हो गया है। सब को लगता है कि आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड का प्रमाणपत्र अधिक प्रतिष्ठित है । अब ज्ञान, संस्कार, चरित्र, सामाजिकता, मानवीयता आदि अर्थहीन और अप्रासंगिक बातें हो गई हैं । वैश्विकता ही विकास है ।
का आकर्षण हो गया है। सब को लगता है कि
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आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड का प्रमाणपत्र अधिक प्रतिष्ठित है । अब
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ज्ञान, संस्कार, चरित्र, सामाजिकता, मानवीयता आदि
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अर्थहीन और अप्रासंगिक बातें हो गई हैं । वैश्विकता ही
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विकास है ।
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यह कोई उचित दिशा नहीं है । इस विषय में प्रबोधन
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यह कोई उचित दिशा नहीं है । इस विषय में प्रबोधन की आवश्यकता है ।
की आवश्यकता है ।
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८. जीवनविषयक दृष्टि की विपरीतता
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=== ८. जीवनविषयक दृष्टि की विपरीतता ===
 
जीवन को भौतिकता की दृष्टि से ही देखने का
 
जीवन को भौतिकता की दृष्टि से ही देखने का
प्रभाव शिक्षा पर पड रहा है । ऐसे दृष्टिकोण का बढ़ना
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प्रभाव शिक्षा पर पड रहा है । ऐसे दृष्टिकोण का बढ़ना और सार्वत्रिक होना शिक्षा का ही परिणाम है। परन्तु अब उससे निपटना और उसमें बदल करना केवल शिक्षाक्षेत्र के बस की बात नहीं रही । अभिभावकों के सहयोग के बिना यह कार्य होना असम्भव
और सार्वत्रिक होना शिक्षा का ही परिणाम है। परन्तु
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है । इस दृष्टि से शिक्षा, जीवन, संस्कृति आदि विषयों को लेकर अभिभावक प्रबोधन की व्यापक योजना होने की आवश्यकता है । वर्तमान स्थिति ऐसी है कि अभिभावक विद्यालय के अनुकूल नहीं बनते विद्यालय अभिभावकों के अनुकूल हो ऐसा मानस अभिभावक रखते हैं । विद्यालय कभी मजबूरी में और कभी स्वाभाविक रूप में इस भूमिका को स्वीकार करते हैं क्योंकि बाजार का दृष्टिकोण सर्वत्र प्रतिष्ठित हो गया है जहाँ अभिभावक ग्राहक हैं और विद्यालय शिक्षा को बेचने वाले हैं । ग्राहकों के अनुकूल होना व्यापारी का धर्म होता है ।
अब उससे निपटना और उसमें बदल करना केवल
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इन विषयों की शैक्षिक दृष्टि से विस्तारपूर्वक चर्चा अन्यत्र स्वतन्त्र रूप से की गई है। यहाँ उसकी आवश्यकता नहीं । यहाँ अभिभावक प्रबोधन के विषय
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कौन से हैं और उनकी योजना कैसे करना इसका विचार किया है ।
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यहाँ जिन विषयों का उल्लेख हुआ हैं उनको ठीक करना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है क्योंकि ये देशव्यापी हैं, अत्यन्त प्रभावी रूप से पकड जमाये हुए हैं । सम्पूर्ण समाज कहीं न कहीं अभिभावक के रूप में ही व्यवहार करता है । सरकार भी इसका ही एक अंग है । बाजार ने इस पर पकड जमाई है । विज्ञापन मानस को प्रभावित करते हैं ।
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शिक्षाक्षेत्र के बस की बात नहीं रही
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परन्तु विषय गम्भीर है। जीवन की सर्वप्रकार की गुणवत्ता का ह्रास हो रहा है मनुष्यजीवन और पशुजीवन में जो अन्तर होता है वही समाप्त होता जा रहा है । इतना ही क्यों, पशु तो फिर भी प्राकृतिक जीवन जीते हैं और अनेक प्रकार की समस्याओं से बच जाते हैं मनुष्य सुसंस्कृत जीवन व्यतीत करे ऐसी उससे अपेक्षा होती है परन्तु संस्कृति के शिखर से च्युत होने पर वह प्राकृत नहीं होता, विकृति के गर्त में गिरता है मनुष्य जीवन को अपने ही द्वारा निर्मित समस्याओं के परिणाम स्वरूप विकृत हो
अभिभावकों के सहयोग के बिना यह कार्य होना असम्भव
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जाने की स्थिति आज निर्माण हुई है । शिक्षा को लेकर अभिभावक प्रबोधन का प्रयोजन शिक्षा को और शिक्षा क माध्यम से मनुष्यजीवन को विकृति से बचाना है, विकृति के गर्त से बाहर लाना है। परिवार अभिभावक के लिये पर्यायबाची संज्ञा है अतः हम अभिभावक प्रबोधन को
है । इस दृष्टि से शिक्षा, जीवन, संस्कृति आदि विषयों को
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परिवार प्रबोधन ही कहेंगे
लेकर अभिभावक प्रबोधन की व्यापक योजना होने की
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आवश्यकता है वर्तमान स्थिति ऐसी है कि अभिभावक
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विद्यालय के अनुकूल नहीं बनते विद्यालय अभिभावकों के
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अनुकूल हो ऐसा मानस अभिभावक रखते हैं विद्यालय
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कभी मजबूरी में और कभी स्वाभाविक रूप में इस भूमिका
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को स्वीकार करते हैं क्योंकि बाजार का दृष्टिकोण सर्वत्र
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प्रतिष्ठित हो गया है जहाँ अभिभावक ग्राहक हैं और
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विद्यालय शिक्षा को बेचने वाले हैं । ग्राहकों के अनुकूल
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होना व्यापारी का धर्म होता है
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इन विषयों की शैक्षिक दृष्टि से विस्तारपूर्वक चर्चा
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परिवार प्रबोधन की योजना का पहला अंग है परिवार प्रबोधन का पाठ्यक्रम तैयार करना जिसके आधार पर आगे
aa स्वतन्त्र रूप से की गई है। यहाँ उसकी
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की योजना बनेगी पाठ्यक्रम के विषय कुछ इस प्रकार हो सकते हैं...
आवश्यकता नहीं यहाँ अभिभावक प्रबोधन के विषय
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कौन से हैं और उनकी योजना कैसे करना इसका विचार
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किया है ।
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यहाँ जिन विषयों का उल्लेख हुआ हैं उनको ठीक
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परिवार का अर्थ, परिवार का महत्त्व, सामाजिक,
करना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है क्योंकि ये
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सांस्कृतिक राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य
देशव्यापी हैं, अत्यन्त प्रभावी रूप से पकड जमाये हुए हैं ।
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सम्पूर्ण समाज कहीं न कहीं अभिभावक के रूप में ही
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परिवार की रचना, परिवार भावना एवं परिवार
व्यवहार करता है । सरकार भी इसका ही एक अंग है ।
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व्यवस्था
बाजार ने इस पर पकड जमाई है । विज्ञापन मानस को
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प्रभावित करते हैं ।
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परन्तु विषय गम्भीर है। जीवन की सर्वप्रकार की
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परिवार में शिक्षा और परिवार की शिक्षा
गुणवत्ता HI SM हो रहा है । मनुष्यजीवन और पशुजीवन
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में जो अन्तर होता है वही समाप्त होता जा रहा है । इतना
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ही क्यों, पशु तो फिर भी प्राकृतिक जीवन जीते हैं और
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अनेक प्रकार की समस्याओं से बच जाते हैं । मनुष्य
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सुसंस्कृत जीवन व्यतीत करे ऐसी उससे अपेक्षा होती है
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परन्तु संस्कृति के शिखर से च्युत होने पर वह प्राकृत नहीं
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होता, विकृति के गर्त में गिरता है । मनुष्य जीवन को अपने
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ही द्वारा निर्मित समस्याओं के परिणाम स्वरूप विकृत हो
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जाने की स्थिति आज निर्माण हुई है । शिक्षा को लेकर
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वसुधैव कुट्म्बकम्‌
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भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
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भारतीय परिवार की विशेषता
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परिवार की भारतीय और पश्चिमी संकल्पना की तुलना
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अभिभावक प्रबोधन का प्रयोजन शिक्षा को और शिक्षा के
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परिवार एक विद्यालय
माध्यम से मनुष्यजीवन को विकृति से बचाना है, विकृति के
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गर्त से बाहर लाना है। परिवार अभिभावक के लिये
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पर्यायबाची संज्ञा है अतः हम अभिभावक प्रबोधन को
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परिवार प्रबोधन ही कहेंगे ।
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परिवार प्रबोधन की योजना का पहला अंग है परिवार
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प्रबोधन का पाठ्यक्रम तैयार करना जिसके आधार पर आगे
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की योजना बनेगी । पाठ्यक्रम के विषय कुछ इस प्रकार हो
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सकते हैं...
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(१) परिवार का अर्थ, परिवार का महत्त्व, सामाजिक,
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सांस्कृतिक राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य
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(2) परिवार की रचना, परिवार भावना एवं परिवार
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व्यवस्था
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(३) परिवार में शिक्षा और परिवार की शिक्षा
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(४) वसुधैव कुट्म्बकम्‌
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(५) भारतीय परिवार की विशेषता
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(६) परिवार की भारतीय और पश्चिमी संकल्पना की तुलना
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(७) परिवार एक विद्यालय
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ये तो एक भूमिका बनाने के अधारभूत विषय हैं ।
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इसके बाद व्यावहारिक विषयों की सूची बन सकती है ।
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परिवार रचना हेतु आवश्यक विषय
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वरवधूचयन और विवाहसंस्कार
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समर्थ राष्ट्र हेतु समर्थ बालक को जन्म देने वाले समर्थ
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मातापिता बनने की शिक्षा
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शिशुसंगोपन और शिशुसंस्कार
  −
संस्कार विचार
  −
मातापिता और सन्तान का आपसी व्यवहार
  −
परिवार में सन्तानों की शिक्षा
  −
परिवार में विद्यार्थी जीवन और वानप्रस्थ जीवन
  −
दादादादी कैसे बनें
  −
परिवार और कुलपरम्परा
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ये तो एक भूमिका बनाने के अधारभूत विषय हैं । इसके बाद व्यावहारिक विषयों की सूची बन सकती है ।
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परिवार रचना हेतु आवश्यक विषय
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पर्व २ : विद्यार्थी, शिक्षक, विद्यालय, परिवार
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# वरवधूचयन और विवाहसंस्कार
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# समर्थ राष्ट्र हेतु समर्थ बालक को जन्म देने वाले समर्थ मातापिता बनने की शिक्षा
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# शिशुसंगोपन और शिशुसंस्कार
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# संस्कार विचार
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# मातापिता और सन्तान का आपसी व्यवहार
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# परिवार में सन्तानों की शिक्षा
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# परिवार में विद्यार्थी जीवन और वानप्रस्थ जीवन
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# दादादादी कैसे बनें
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# परिवार और कुलपरम्परा
    
परिवार और समाज के अन्तर्सम्बन्ध के विषय
 
परिवार और समाज के अन्तर्सम्बन्ध के विषय
गृहस्थाश्रमी का समाजधर्म
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परिवार और राष्ट्र, धर्म, संस्कृति
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परिवार एक आर्थिक इकाई
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परिवार और पर्यावरण
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Fx wwe
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इष्टदेवता, कुलदेवता, ग्रामदेवता, राष्ट्रदेवता
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# गृहस्थाश्रमी का समाजधर्म
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# परिवार और राष्ट्र, धर्म, संस्कृति
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# परिवार एक आर्थिक इकाई
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# परिवार और पर्यावरण
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# इष्टदेवता, कुलदेवता, ग्रामदेवता, राष्ट्रदेवता
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परिवार संचालन हेतु उपयोगी विषय : a विषय
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परिवार संचालन हेतु उपयोगी विषय : ये  विषय सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक दोनों आयामों में होंगे ।
सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक दोनों आयामों में होंगे ।
      
१... आहारशास्त्र जिसमें भोजन बनाना, करना और
 
१... आहारशास्त्र जिसमें भोजन बनाना, करना और
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