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अपितु घर में ही सीखाई जाती हैं । ये बातें इस प्रकार हैं
अपितु घर में ही सीखाई जाती हैं । ये बातें इस प्रकार हैं
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==== १, गर्भावस्था के संस्कार : ====
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====१, गर्भावस्था के संस्कार :====
बालक का इस जन्म
बालक का इस जन्म
का जीवन गर्भाधान से शुरू होता है । इसमें निमित्त उसके मातापिता होते हैं । मातापिता के माध्यम से उसे पिता की
का जीवन गर्भाधान से शुरू होता है । इसमें निमित्त उसके मातापिता होते हैं । मातापिता के माध्यम से उसे पिता की
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श्रेष्ठ और सुसंस्कृत समाज के लिये घर में होनेवाली इस शिक्षा का महत्त्व बहुत है। आज इस बात का विस्मरण हो गया है । घर केवल भोजन और निवास की व्यवस्था के केन्द्र बन गये हैं । मकान के रूप में सम्पत्ति बन गया है। इसे पुनः संस्कृति का केन्द्र बनाना शिक्षाविषयक चिन्तन का महत्त्वपूर्ण मुद्दा है ।
श्रेष्ठ और सुसंस्कृत समाज के लिये घर में होनेवाली इस शिक्षा का महत्त्व बहुत है। आज इस बात का विस्मरण हो गया है । घर केवल भोजन और निवास की व्यवस्था के केन्द्र बन गये हैं । मकान के रूप में सम्पत्ति बन गया है। इसे पुनः संस्कृति का केन्द्र बनाना शिक्षाविषयक चिन्तन का महत्त्वपूर्ण मुद्दा है ।
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=== २. बालक की विद्यालयीन शिक्षा का प्रारम्भ उचित समय पर हो ===
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===२. बालक की विद्यालयीन शिक्षा का प्रारम्भ उचित समय पर हो===
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समाज में आम धारणा बन गई है कि शिक्षा विद्यालय
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समाज में आम धारणा बन गई है कि शिक्षा विद्यालय में ही होती है । व्यक्ति के जीवन में शिक्षा अनिवार्य है, इसलिये उसका विद्यालय जाना भी अनिवार्य है । मातापिता को शिक्षा की इतनी जल्दी हो जाती है कि वे ढाई वर्ष की
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में ही होती है । व्यक्ति के जीवन में शिक्षा अनिवार्य है,
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आयु में ही बालक को विद्यालय में भेज देते हैं । यह कवल बालक के साथ ही नहीं तो शिक्षा के साथ और समाज के साथ भी अन्याय है । जल्दी करने से अधिक शिक्षा नहीं होती, जल्दी करने से अच्छी शिक्षा नहीं होती । उल्टे अनेक प्रकार से हानि होती है। दुनियाभर के
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इसलिये उसका विद्यालय जाना भी अनिवार्य है । मातापिता
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शिक्षाशासत्री बालक की शिक्षा कम से कम पाँच वर्ष पूर्ण होने के बाद ही शुरू होनी चाहिये यह आग्रहपूर्वक कहते हैं । परन्तु देशमें पूर्व प्राथमिक, नर्सरी, के.जी., बालवाडी, शिशुविहार, शिशुवाटिका आदि नामों से यह शिक्षा जोरशोर से चलती है । अनेक स्थानों पर तो यह एक उद्योग बन गया है और कम्पनियाँ बनी हैं । बाजार के
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को शिक्षा की इतनी जल्दी हो जाती है कि वे ढाई वर्ष की
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लोभ से और मातापिता के आअज्ञान से यह शिक्षा चलती है । शिक्षाशास्त्र, मनोविज्ञान, व्यवहारशास्त्र इस बात का समर्थन नहीं करते तो भी यह चलता है । कई विद्यालय तो अपने
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आयु में ही बालक को विद्यालय में भेज देते हैं । यह
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पूर्वप्राथमिक विभाग में यदि प्रवेश नहीं लिया तो आगे की शिक्षा के लिये प्रवेश ही नहीं देते । “शिशुशिक्षा' नामक यह वस्तु महँगी भी बहुत है । शिशु शिक्षा होनी चाहिये घर में, आग्रह रखा जाता है विद्यालय में होने का । इसका एक कारण घर अब शिक्षा के केन्द्र नहीं रहे यह भी है । इस
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कवल बालक के साथ ही नहीं तो शिक्षा के साथ और
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विषय को ठीक करने हेतु एक बडा समाजव्यापी आन्दोलन करने की आवश्यकता है । परिवार प्रबोधन अर्थात् माता-
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समाज के साथ भी अन्याय है । जल्दी करने से अधिक
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शिक्षा नहीं होती, जल्दी करने से अच्छी शिक्षा नहीं होती ।
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उल्टे अनेक प्रकार से हानि होती है। दुनियाभर के
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शिक्षाशासत्री बालक की शिक्षा कम से कम पाँच वर्ष पूर्ण
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होने के बाद ही शुरू होनी चाहिये यह आग्रहपूर्वक कहते
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हैं । परन्तु देशमें पूर्व प्राथमिक, नर्सरी, के.जी., बालवाडी,
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शिशुविहार, शिशुवाटिका आदि नामों से यह शिक्षा जोरशोर
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से चलती है । अनेक स्थानों पर तो यह
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एक उद्योग बन गया है और कम्पनियाँ बनी हैं । बाजार के
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लोभ से और मातापिता के आअज्ञान से यह शिक्षा चलती है ।
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शिक्षाशास्त्र, मनोविज्ञान, व्यवहारशास्त्र इस बात का समर्थन
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नहीं करते तो भी यह चलता है । कई विद्यालय तो अपने
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पूर्वप्राथमिक विभाग में यदि प्रवेश नहीं लिया तो आगे की
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शिक्षा के लिये प्रवेश ही नहीं देते । “शिशुशिक्षा' नामक यह
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वस्तु महँगी भी बहुत है । शिशु शिक्षा होनी चाहिये घर में,
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आग्रह रखा जाता है विद्यालय में होने का । इसका एक
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कारण घर अब शिक्षा के केन्द्र नहीं रहे यह भी है । इस
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विषय को ठीक करने हेतु एक बडा समाजव्यापी आन्दोलन
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करने की आवश्यकता है । परिवार प्रबोधन अर्थात् माता-
पिता की शिक्षा इस आन्दोलन का महत्त्वपूर्ण अंग है ।
पिता की शिक्षा इस आन्दोलन का महत्त्वपूर्ण अंग है ।