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| ==== नई पीढ़ी का मनोबल बढ़ाना ==== | | ==== नई पीढ़ी का मनोबल बढ़ाना ==== |
− | आज घर और विद्यालय दोनों ही नई पीढी को | + | आज घर और विद्यालय दोनों ही नई पीढी को साहसी बनाने के स्थान पर कायर और दुर्बल बना रहे हैं । इसे सर्वथा बदलना चाहिये । |
− | | |
− | साहसी बनाने के स्थान पर कायर और दुर्बल बना रहे हैं । | |
− | | |
− | इसे सर्वथा बदलना चाहिये । | |
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| हम प्रथम विद्यालय की ही बात करेंगे । | | हम प्रथम विद्यालय की ही बात करेंगे । |
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− | १, मन को बलवान बनाने हेतु प्रथम मन को जीतने की | + | १, मन को बलवान बनाने हेतु प्रथम मन को जीतने की आवश्यकता होती है । यदि हमने मन को वश में नहीं किया तो वह भटक जाता है और हमें भी भटका देता है । यदि उसे जीता तो उसकी शक्ति बढती है और वह हमारे भी सारे काम यशस्वी बनाता है । |
− | | |
− | आवश्यकता होती है । यदि हमने मन को वश में | |
− | | |
− | नहीं किया तो वह भटक जाता है और हमें भी भटका | |
− | | |
− | देता है । यदि उसे जीता तो उसकी शक्ति बढती है | |
− | | |
− | और वह हमारे भी सारे काम यशस्वी बनाता है । | |
− | | |
− | 2. मन को वश में करने के लिये संयम आवश्यक है ।
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− | | |
− | छः सात वर्ष की आयु से संयम की शिक्षा शुरु होनी
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− | | |
− | चाहिये । छोटी छोटी बातों से यह शुरू होता है ।
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− | | |
− | 3 एक घण्टे तक बीच में पानी नहीं पीना । इधरउधर
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− | | |
− | नहीं देखना ।
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− | | |
− | पानी नहीं पीने की बात बडों को भी अखरने लगी
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− | | |
− | है। भाषण शुरू है, अध्ययन शुरू है, महत्त्वपूर्ण
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− | | |
− | बातचीत शुरू है तब भी लोग साथ मे रखी बोतल
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− | | |
− | खोलकर पानी पीते हैं । यह पानी की आवश्यकता
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− | | |
− | से भी अधिक मनःसंयम के अभाव की निशानी है ।
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− | | |
− | ४... घर में एक ही बालक होना मनःसंयम के अभाव के
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− | | |
− | लिये. जाने अनजाने. कारणभूत बनता है।
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− | | |
− | शिशुअवस्था ही बिना माँगे सब कुछ मिलता है,
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− | | |
− | आवश्यकता से भी अधिक मिलता है, जो मन में
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− | | |
− | आया मिलता है, आवश्यक नहीं है ऐसा मिलता है ।
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− | | |
− | किसी भी बात के लिये कोई मना नहीं करता ।
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− | | |
− | शिशुअवस्था में लाडप्यार करने ही हैं परन्तु उसमें
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− | | |
− | विवेक नहीं रहता । बालअवस्था में भी वह बढ़ता
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− | | |
− | ही जाता है । किसी बात का निषेध सुनना सहा नहीं
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− | | |
− | जाता । मन में आया वह होना ही चाहिये, माँगी
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− | | |
− | चीज मिलनी ही चाहिये, किसीने मना करना ही नहीं
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− | | |
− | चाहिये ऐसी मनःस्थिति बनती हैं और उसका पोषण
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− | | |
− | किया जाता है ।
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− | २७
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− | मन की शिक्षा के अभाव में
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− | व्यक्त व्यवहार
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− | | |
− | विद्यालय में किसी भी बात के लिये डाँटना नहीं,
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− | | |
− | दण्ड देना नहीं, निषेध करना नहीं ऐसा आग्रह
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− | | |
− | मातापिता की ओर से रखा जाता है । यह प्रवृत्ति
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− | | |
− | आयु बढ़ने पर बढती ही जाती है ।
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− | | |
− | अतः विद्यालयों में हम क्या देखते हैं?
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− | | |
− | मध्यावकाश के समय में विद्यार्थी जोर जोर से चीखते
| |
− | | |
− | रहते हैं, भागते रहते हैं, एक स्थान पर बैठते नहीं
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− | | |
− | हैं । इन्हें मोबाइल के बिना चलता नहीं है, विडियो
| |
− | | |
− | क्लीपिंग, चैटिंग, वॉट्स अप से खेल चलते ही रहते
| |
− | | |
− | हैं । शान्ति से बैठ नहीं पाते, कुछ खाते ही रहते हैं ।
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− | | |
− | इसके लिये स्थिर बैठना, चुप बैठना, एकाग्रता से
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− | | |
− | कुछ सुनना, विचार करना, समझने का प्रयास करना,
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− | | |
− | कल्पना करना असम्भव हो जाता है । विभिन्न विषयों
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− | | |
− | में कुछ समझ में नहीं आता, एकाग्रता नहीं होती,
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− | | |
− | रुचि नहीं होती, जिज्ञासा नहीं होती । पढाई के प्रति
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− | | |
− | उनके मन में प्रेम नहीं लगता |
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− | | |
− | किशोर आयु के होते होते उनका मन शृंगार की ओर
| |
− | | |
− | faa जाता है । कपडे, अलंकार, जूते, मोबाईल,
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− | | |
− | सौन्दर्यप्रसाधन, केशभूषा, टीवी आदि में इतनी
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− | | |
− | अधिक रुचि निर्माण होती है कि उनकी बातें इन्हीं
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− | | |
− | विषयों की होती हैं । उनकी कल्पना में यही सब
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− | | |
− | कुछ होता है । टी.वी. के धारावाहिकों और फिल्मों
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− | | |
− | में दीखने वाले नटनटियों का अनुकरण बोलचाल में
| |
− | | |
− | भी होता रहता है । इनमें से मन को निकालकर
| |
− | | |
− | अध्ययन के विषयों में लगाना इनके लिये बहुत
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− | | |
− | कठिन होता है । अध्ययन उनके लिये जबरदस्ती
| |
− | | |
− | करने वाला काम है, वे सदा इससे मुक्त होना चाहते
| |
− | | |
− | हैं ।
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− | | |
− | उनकी वाणी असंयमी होती है । विनय उन्हें मालूम
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− | | |
− | नहीं है । भगवान, आस्था, श्रद्धा, शुभ भावना आदि
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− | | |
− | जगने नहीं पाते । जीवन और जगत का विचार आता
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− | | |
− | नहीं । ऊपरी सतह छोड़कर कभी गहराई में जाना
| |
− | | |
− | होता नहीं । होटेल, बाइक, फिल्मे, वसख्त्रालंकार के
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− | | |
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− | | |
− | परे कोई दुनिया होती है इसका भान ही
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− | नहीं आता ।
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− | ०... महाविद्यालय में तो स्थिति अत्यन्त भयावह है ।
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− | | |
− | अविनय बहुत मुखर होता है। उनकी प्रत्येक
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− | | |
− | हलचल में उन्माद प्रकट होता है । मजाक, मस्ती,
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− | | |
− | छेडछाड, बाइक सवारी, लड़कों की लडकियों के
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− | | |
− | साथ और लडकियों की लड़कों के साथ दोस्ती,
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− | | |
− | खानापीना, पार्टी, विभिन्न डे मनाने की कल्पनायें
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− | | |
− | यही दुनिया बन जाती है । अध्ययन बहाना है, मजे
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− | | |
− | करना ही मुख्य है । महाविद्यालय है ही इसलिये ऐसा
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− | | |
− | भाव बनता है ।
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− | | |
− | ०... ये युवक और युवतियाँ परीक्षाओं में अच्छे अंक नहीं
| |
− | | |
− | लाते ऐसा तो नहीं है परन्तु परीक्षा में अच्छे अंक
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− | | |
− | पाने का अर्थ उनमें ज्ञान है, बुद्धि है, समझ है अथवा
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− | | |
− | विनय है ऐसा नहीं है । परीक्षा में अच्छे अंक, प्रगत
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− | | |
− | अध्ययन में प्रवेश मिलना, पीएचडी, करना, उसके
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− | | |
− | आधार पर अच्छी नौकरी मिलना, अच्छा वेतन
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− | | |
− | मिलना आदि सब यान्त्रिक प्रक्रियायें हैं । उनका मन
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− | | |
− | अच्छा होने या बुद्धि गहरी होने के साथ कोई
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− | | |
− | सम्बन्ध नहीं है। मन तो वेसा ही अशिक्षित और
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− | | |
− | असंयमी ही रह जाता है । अब तो वे समाज के अंग
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− | | |
− | हैं, गृहस्थाश्रमी हैं ।
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− | | |
− | इनका गृहस्थाश्रम वैसा ही असंयत, छिछला और
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− | | |
− | भौतिकता की चाह रखने वाला ही होता है । कमाई
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− | | |
− | कम हो या अधिक उससे कोई अन्तर नहीं आता ।
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− | | |
− | जीवन और जगत की समझ का विकास नहीं होता ।
| |
− | | |
− | पशुता की प्रवृत्ति ही बढती जाती है । पशु तो प्रकृति
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− | | |
− | के नियमन में रहते हैं, असंयत मनुष्य विकृति की
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− | | |
− | ओर ढल जाते हैं ।
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− | | |
− | ०... यह तो बहुत संक्षिप्त वर्णन है । तात्पर्य यह है कि
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− | | |
− | मन की शिक्षा का अभाव असंस्कारी समाज बनाता
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− | | |
− | है । समाज में आभिजात्य, शील, उत्कृष्टता, श्रेष्ठता,
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− | | |
− | मूल्यनिष्ठा, संस्कारों का अभाव फैल जाता है ।
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− | | |
− | व्यक्ति का स्वतः का तो पतन होता है, सम्पूर्ण
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− | | |
− | समाज ही गुणवत्ताहीन बन जाता है ।
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− | शर्ट
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− | भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
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− | | |
− | इसलिये विद्यालयों में मन की शिक्षा का प्रबन्ध करना
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− | | |
− | अत्यन्त आवश्यक है ।
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− | | |
− | यह सत्य है कि आज ऐसा कोई विषय है ही नहीं ।
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− | | |
− | इसका कारण भी स्पष्ट है। जब हम शिक्षा को विषयों में
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− | | |
− | बाँध लेते हैं, विषयों को प्रश्नोत्तरों में प्रस्तुत करते हैं,
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− | | |
− | प्रश्नोत्तरों को ढाँचे में जकड लेते हैं, ढाँचा परीक्षा को केन्द्र
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− | | |
− | बनाता है, जब सारी सफलता, अंकों में सीमित हो जाती है
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− | | |
− | तब सब कुछ यान्त्रिक बन जाता है । शिक्षा भौतिक पदार्थ
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− | | |
− | हो, शिक्षाक्षेत्र बाजारीकरण का अंग हो और प्रक्रिया
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− | | |
− | यान्त्रिक हो तब मन की शिक्षा का प्रश्न ही नहीं उठता
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− | | |
− | क्योंकि मन भौतिकता से परे है। वह अन्तःकरण का
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| | | |
− | WARMER है, अन्दर जाने की, गहराई का अनुभव करने की,
| + | 2. मन को वश में करने के लिये संयम आवश्यक है । छः सात वर्ष की आयु से संयम की शिक्षा शुरु होनी चाहिये । छोटी छोटी बातों से यह शुरू होता है । |
| | | |
− | मनुष्य बनने की प्रक्रिया का प्रारम्भ है ।
| + | 3 एक घण्टे तक बीच में पानी नहीं पीना । इधरउधर नहीं देखना । |
| | | |
− | मन की शिक्षा के विचारणीय बिन्दु
| + | पानी नहीं पीने की बात बडों को भी अखरने लगी है। भाषण शुरू है, अध्ययन शुरू है, महत्त्वपूर्ण बातचीत शुरू है तब भी लोग साथ मे रखी बोतल खोलकर पानी पीते हैं । यह पानी की आवश्यकता से भी अधिक मनःसंयम के अभाव की निशानी है । |
| | | |
− | अतः मन की शिक्षा का महत्त्व इस सन्दर्भ में समझने
| + | ४... घर में एक ही बालक होना मनःसंयम के अभाव के लिये. जाने अनजाने. कारणभूत बनता है। शिशुअवस्था ही बिना माँगे सब कुछ मिलता है, आवश्यकता से भी अधिक मिलता है, जो मन में आया मिलता है, आवश्यक नहीं है ऐसा मिलता है । किसी भी बात के लिये कोई मना नहीं करता । शिशुअवस्था में लाडप्यार करने ही हैं परन्तु उसमें विवेक नहीं रहता । बालअवस्था में भी वह बढ़ता ही जाता है । किसी बात का निषेध सुनना सहा नहीं जाता । मन में आया वह होना ही चाहिये, माँगी चीज मिलनी ही चाहिये, किसीने मना करना ही नहीं चाहिये ऐसी मनःस्थिति बनती हैं और उसका पोषण किया जाता है । |
| | | |
− | की और उसका स्वीकार करने की प्रथम आवश्यकता है । | + | ==== मन की शिक्षा के अभाव में व्यक्त व्यवहार ==== |
| + | विद्यालय में किसी भी बात के लिये डाँटना नहीं, दण्ड देना नहीं, निषेध करना नहीं ऐसा आग्रह मातापिता की ओर से रखा जाता है । यह प्रवृत्ति आयु बढ़ने पर बढती ही जाती है । |
| | | |
− | मन की शिक्षा के विषय में इस प्रकार विचार किया जा
| + | अतः विद्यालयों में हम क्या देखते हैं? मध्यावकाश के समय में विद्यार्थी जोर जोर से चीखते रहते हैं, भागते रहते हैं, एक स्थान पर बैठते नहीं हैं । इन्हें मोबाइल के बिना चलता नहीं है, विडियो क्लीपिंग, चैटिंग, वॉट्स अप से खेल चलते ही रहते हैं । शान्ति से बैठ नहीं पाते, कुछ खाते ही रहते हैं । |
| | | |
− | सकता है
| + | इसके लिये स्थिर बैठना, चुप बैठना, एकाग्रता से कुछ सुनना, विचार करना, समझने का प्रयास करना, कल्पना करना असम्भव हो जाता है । विभिन्न विषयों में कुछ समझ में नहीं आता, एकाग्रता नहीं होती, रुचि नहीं होती, जिज्ञासा नहीं होती । पढाई के प्रति उनके मन में प्रेम नहीं लगता | |
| | | |
− | १, सबसे प्रथम आवश्यकता है मन को शान्त करने की ।
| + | किशोर आयु के होते होते उनका मन शृंगार की ओर खिंच जाता है । कपडे, अलंकार, जूते, मोबाईल, सौन्दर्यप्रसाधन, केशभूषा, टीवी आदि में इतनी अधिक रुचि निर्माण होती है कि उनकी बातें इन्हीं विषयों की होती हैं । उनकी कल्पना में यही सब कुछ होता है । टी.वी. के धारावाहिकों और फिल्मों में दीखने वाले नटनटियों का अनुकरण बोलचाल में भी होता रहता है । इनमें से मन को निकालकर अध्ययन के विषयों में लगाना इनके लिये बहुत कठिन होता है । अध्ययन उनके लिये जबरदस्ती करने वाला काम है, वे सदा इससे मुक्त होना चाहते हैं । |
| | | |
− | चारों ओर से मन को उत्तेजित, उद्देलित और व्यथित
| + | उनकी वाणी असंयमी होती है । विनय उन्हें मालूम नहीं है । भगवान, आस्था, श्रद्धा, शुभ भावना आदि जगने नहीं पाते । जीवन और जगत का विचार आता नहीं । ऊपरी सतह छोड़कर कभी गहराई में जाना होता नहीं । होटेल, बाइक, फिल्मे, वसख्त्रालंकार के परे कोई दुनिया होती है इसका भान ही नहीं आता । |
| | | |
− | करने वाली बातों का इतना भीषण आक्रमण हो रहा
| + | ०... महाविद्यालय में तो स्थिति अत्यन्त भयावह है । अविनय बहुत मुखर होता है। उनकी प्रत्येक हलचल में उन्माद प्रकट होता है । मजाक, मस्ती, छेडछाड, बाइक सवारी, लड़कों की लडकियों के साथ और लडकियों की लड़कों के साथ दोस्ती, खानापीना, पार्टी, विभिन्न डे मनाने की कल्पनायें यही दुनिया बन जाती है । अध्ययन बहाना है, मजे करना ही मुख्य है । महाविद्यालय है ही इसलिये ऐसा भाव बनता है । |
| | | |
− | होता है कि मन कभी शान्त हो ही नहीं सकता ।
| + | ०... ये युवक और युवतियाँ परीक्षाओं में अच्छे अंक नहीं लाते ऐसा तो नहीं है परन्तु परीक्षा में अच्छे अंक पाने का अर्थ उनमें ज्ञान है, बुद्धि है, समझ है अथवा विनय है ऐसा नहीं है । परीक्षा में अच्छे अंक, प्रगत अध्ययन में प्रवेश मिलना, पीएचडी, करना, उसके आधार पर अच्छी नौकरी मिलना, अच्छा वेतन मिलना आदि सब यान्त्रिक प्रक्रियायें हैं । उनका मन अच्छा होने या बुद्धि गहरी होने के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। मन तो वेसा ही अशिक्षित और असंयमी ही रह जाता है । अब तो वे समाज के अंग हैं, गृहस्थाश्रमी हैं । |
| | | |
− | चूल्हे पर रखा पानी जैसे खौलता ही रहता है वैसे ही
| + | इनका गृहस्थाश्रम वैसा ही असंयत, छिछला और भौतिकता की चाह रखने वाला ही होता है । कमाई कम हो या अधिक उससे कोई अन्तर नहीं आता । जीवन और जगत की समझ का विकास नहीं होता । पशुता की प्रवृत्ति ही बढती जाती है । पशु तो प्रकृति के नियमन में रहते हैं, असंयत मनुष्य विकृति की ओर ढल जाते हैं । |
| | | |
− | मन हमेशा खौलता ही रहता है । | + | ०... यह तो बहुत संक्षिप्त वर्णन है । तात्पर्य यह है कि मन की शिक्षा का अभाव असंस्कारी समाज बनाता है । समाज में आभिजात्य, शील, उत्कृष्टता, श्रेष्ठता, मूल्यनिष्ठा, संस्कारों का अभाव फैल जाता है । व्यक्ति का स्वतः का तो पतन होता है, सम्पूर्ण समाज ही गुणवत्ताहीन बन जाता है । |
| | | |
− | 2. इसे शान्त बनाने के उपायों का प्रारम्भ अनिवार्य रूप
| + | इसलिये विद्यालयों में मन की शिक्षा का प्रबन्ध करना अत्यन्त आवश्यक है । |
| | | |
− | से घर से ही होगा । वह भी आहार से । आहार का
| + | यह सत्य है कि आज ऐसा कोई विषय है ही नहीं । इसका कारण भी स्पष्ट है। जब हम शिक्षा को विषयों में बाँध लेते हैं, विषयों को प्रश्नोत्तरों में प्रस्तुत करते हैं, प्रश्नोत्तरों को ढाँचे में जकड लेते हैं, ढाँचा परीक्षा को केन्द्र बनाता है, जब सारी सफलता, अंकों में सीमित हो जाती है तब सब कुछ यान्त्रिक बन जाता है । शिक्षा भौतिक पदार्थ हो, शिक्षाक्षेत्र बाजारीकरण का अंग हो और प्रक्रिया यान्त्रिक हो तब मन की शिक्षा का प्रश्न ही नहीं उठता क्योंकि मन भौतिकता से परे है। वह अन्तःकरण का प्रवेशद्वार है, अन्दर जाने की, गहराई का अनुभव करने की, मनुष्य बनने की प्रक्रिया का प्रारम्भ है । |
| | | |
− | मन पर बहुत गहरा असर होता है । मन को शान्त | + | ==== मन की शिक्षा के विचारणीय बिन्दु ==== |
| + | अतः मन की शिक्षा का महत्त्व इस सन्दर्भ में समझने की और उसका स्वीकार करने की प्रथम आवश्यकता है । मन की शिक्षा के विषय में इस प्रकार विचार किया जा सकता है |
| | | |
− | बनाने हेतु सात्ततिक आहार आवश्यक है । पौष्टिक
| + | १, सबसे प्रथम आवश्यकता है मन को शान्त करने की । चारों ओर से मन को उत्तेजित, उद्देलित और व्यथित करने वाली बातों का इतना भीषण आक्रमण हो रहा होता है कि मन कभी शान्त हो ही नहीं सकता । चूल्हे पर रखा पानी जैसे खौलता ही रहता है वैसे ही मन हमेशा खौलता ही रहता है । |
| | | |
− | आहार से शरीर पुष्ट होता है, सात्विक आहार से मन | + | 2. इसे शान्त बनाने के उपायों का प्रारम्भ अनिवार्य रूप से घर से ही होगा । वह भी आहार से । आहार का मन पर बहुत गहरा असर होता है । मन को शान्त बनाने हेतु सात्ततिक आहार आवश्यक है । पौष्टिक आहार से शरीर पुष्ट होता है, सात्विक आहार से मन अच्छा बनता है। वास्तव में अध्ययन अध्यापन करने वालों को सबसे पहले होटेल का खाना बन्द करना चाहिये । विद्यार्थी घर में भी सात्त्विक आहार लें, विद्यालय में भी घर का भोजन लायें, विद्यालय के समारोहों में भी होटेल का अन्न न खाया जाय |
− | | |
− | अच्छा बनता है। वास्तव में अध्ययन अध्यापन | |
− | | |
− | करने वालों को सबसे पहले होटेल का खाना बन्द | |
− | | |
− | करना चाहिये । विद्यार्थी घर में भी सात्त्विक आहार | |
− | | |
− | लें, विद्यालय में भी घर का भोजन लायें, विद्यालय | |
− | | |
− | के समारोहों में भी होटेल का अन्न न खाया जाय | |
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| महत्त्व है । हमने इनकी उपेक्षा कर बहुत खोया है । | | महत्त्व है । हमने इनकी उपेक्षा कर बहुत खोया है । |
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| + | ==== मन की एकाग्रता के उपाय ==== |
| ५.. संगीत भी उत्तेजक हो सकता है यह समझकर | | ५.. संगीत भी उत्तेजक हो सकता है यह समझकर |
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| | | |
− | है। छोटी आयु से ही इसका अभ्यास | + | है। छोटी आयु से ही इसका अभ्यास होना लाभकारी है । इसे विधिवत् सिखाना चाहिये । बडी कक्षाओं में इसके विषय में भी सिखाना चाहिये ताकि वह केवल कर्मकाण्ड न बन जाय । |
− | | |
− | होना लाभकारी है । इसे विधिवत् सिखाना चाहिये । | |
− | | |
− | बडी कक्षाओं में इसके विषय में भी सिखाना चाहिये | |
− | | |
− | ताकि वह केवल कर्मकाण्ड न बन जाय । | |
− | | |
− | 35कार् उच्चारण, मन्त्रपाठ और ध्यान भी मन को
| |
− | | |
− | एकाग्र करने में सहायक हैं ।
| |
− | | |
− | प्राणायाम भी बहुत सहायक है ।
| |
− | | |
− | शरीर के अंगों की निर्स्थक और अनावश्यक हलचल
| |
− | | |
− | रोकना चाहिये । उदाहरण के लिये लोगों को हाथ पैर
| |
− | | |
− | हिलाते रहने की, कपडों पर हाथ फेरते रहने की,
| |
− | | |
− | इधरउधर देखते रहने की, हाथ से कुछ करते रहने
| |
− | | |
− | की, बगीचें में बैठे है तो घास तोडते रहने की, मोज
| |
− | | |
− | पर या पैर पर हाथ से बजाते रहने की आदत होती
| |
− | | |
− | @ | अनजाने में भी ये क्रियाएँ होती रहती है । इन्हें
| |
− | | |
− | प्रयासपूर्वक रोकना चाहिये ।
| |
− | | |
− | वायु करने वाला पदार्थ खाने से, बहुत चलते, भागते
| |
− | | |
− | रहने से, बहुत बोलने से मन चंचल हो जाता है।
| |
− | | |
− | बोलते समय दूसरे का बोलना पूर्ण होने से पहले ही
| |
− | | |
− | बोलना शुरू कर देते हैं । इसे अभ्यासपूर्वक रोकना
| |
− | | |
− | चाहिये । बोलने से पूर्व ठीक से विचार कर लेने के
| |
− | | |
− | बाद बोलना चाहिये । ठीक से योजना कर लेने के
| |
− | | |
− | बाद काम शुरू करना चाहिये । परिस्थिति का ठीक
| |
− | | |
− | से आकलन कर लेने के बाद कार्य का निश्चय कर
| |
− | | |
− | लेना चाहिये । किसी भी बात का समग्र पहलुओं में
| |
− | | |
− | विचार करने से आकलन ठीक से होता है । ये सब
| |
− | | |
− | अभ्यास के विषय हैं । इन सबका अभ्यास हो सके
| |
− | | |
− | ऐसा आयोजन विद्यालय में होना चाहिये ।
| |
− | | |
− | भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
| |
− | | |
− | आग्रह कर रहे हैं तो भी नहीं खाना ।
| |
− | | |
− | इतना काम करना है और आज ही पूरा करना है ऐसा
| |
− | | |
− | विचार किया तो अब पूरा करके ही सोना है ऐसा
| |
− | | |
− | निश्चय करना और पार उतारना ।
| |
− | | |
− | कैसी भी विपरीत परिस्थिति हो, धैर्य नहीं खोना,
| |
− | | |
− | हिम्मत नहीं हारना ।
| |
− | | |
− | असफल होने पर भी निराश नहीं होना, हताश नहीं
| |
− | | |
− | होना, पुनः प्रयास करने के लिये उद्यत होना ।
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− | | |
− | आज इस बात का कुछ विपर्यास भी दीखता है ।
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− | | |
− | काम पूरा नहीं होने पर भी खेद नहीं, प्रश्न का उत्तर
| |
− | | |
− | नहीं आने पर भी संकोच नहीं, वादा पूरा नहीं करने
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− | | |
− | पर भी खेद नहीं, भरोसा तोड़ देने पर भी शरम नहीं,
| |
− | | |
− | अयशस्वी होने पर भी आपत्ति नहीं... होता है तो
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− | | |
− | करो नहीं तो छोड दो, आसानी से सफलता मिलती है
| |
− | | |
− | तो ठीक नहीं तो छोड दो, जितना हुआ उतना ठीक
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− | | |
− | है, जैसा हुआ वैसा किया, और कितना करें, दबाव
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− | | |
− | मत बनाओ, टेन्शन मत लो, चिन्ता मत करो,
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− | | |
− | परेशानी मत उठाओ, स्ट्रेस नहीं होने दो... ऐसी ही
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− | | |
− | बातें होती हैं । मन को कोई कसाव नहीं मिलता,
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− | | |
− | कोई व्यायाम ही नहीं मिलता । इससे उसकी शक्ति
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− | | |
− | नहीं बढती । जीवन ही पोला पोला बन जाता है ।
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− | | |
− | इस दृष्टि से विद्यालय में मन के कसाव की तो
| |
− | | |
− | चिन्ता करनी चाहिये । छोटे छोटे चुनौतीपूर्ण काम
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| | | |
− | करने को बताना चाहिये । उलझना पडे ऐसे कार्य | + | २. ॐकार् उच्चारण, मन्त्रपाठ और ध्यान भी मन को एकाग्र करने में सहायक हैं । |
| | | |
− | और ऐसी स्थितियाँ निर्माण करनी चाहिये । धैर्य रखे
| + | ३. प्राणायाम भी बहुत सहायक है । |
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− | बिना रास्ता नहीं मिलेगा ऐसा अनुभव होना चाहिये |
| + | ४. शरीर के अंगों की निर्स्थक और अनावश्यक हलचल रोकना चाहिये । उदाहरण के लिये लोगों को हाथ पैर हिलाते रहने की, कपडों पर हाथ फेरते रहने की, इधरउधर देखते रहने की, हाथ से कुछ करते रहने की, बगीचें में बैठे है तो घास तोडते रहने की, मोज पर या पैर पर हाथ से बजाते रहने की आदत होती है। अनजाने में भी ये क्रियाएँ होती रहती है । इन्हें प्रयासपूर्वक रोकना चाहिये । |
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− | भाषण प्रतियोगिता में हार गये तो कुछ नहीं बिगडता
| + | ५. वायु करने वाला पदार्थ खाने से, बहुत चलते, भागते रहने से, बहुत बोलने से मन चंचल हो जाता है। बोलते समय दूसरे का बोलना पूर्ण होने से पहले ही बोलना शुरू कर देते हैं । इसे अभ्यासपूर्वक रोकना चाहिये । बोलने से पूर्व ठीक से विचार कर लेने के बाद बोलना चाहिये । ठीक से योजना कर लेने के बाद काम शुरू करना चाहिये । परिस्थिति का ठीक से आकलन कर लेने के बाद कार्य का निश्चय कर लेना चाहिये । किसी भी बात का समग्र पहलुओं में विचार करने से आकलन ठीक से होता है । ये सब अभ्यास के विषय हैं । इन सबका अभ्यास हो सके ऐसा आयोजन विद्यालय में होना चाहिये । |
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− | ऐसा विचार कर तैयारी करने का श्रम ही नहीं करना
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| मन की शक्ति बढ़ाने के उपाय | | मन की शक्ति बढ़ाने के उपाय |
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− | मन को शान्त और एकाग्र बनाने के साथ साथ | + | मन को शान्त और एकाग्र बनाने के साथ साथ उसकी शक्ति बढाने की भी आवश्यकता है । इसके लिये कुछ इस प्रकार के उपाय हो सकते हैं |
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− | उसकी शक्ति बढाने की भी आवश्यकता है । इसके लिये | |
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− | कुछ इस प्रकार के उपाय हो सकते हैं | |
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| १, व्रत और उपवास करना । | | १, व्रत और उपवास करना । |
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− | २... निग्रह करना । सामने प्रिय और स्वादिष्ट पदार्थ हैं, | + | २... निग्रह करना । सामने प्रिय और स्वादिष्ट पदार्थ हैं, मुँह में पानी आ रहा है, लोग खा रहे हैं, खाने का आग्रह कर रहे हैं तो भी नहीं खाना । |
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− | मुँह में पानी आ रहा है, लोग खा रहे हैं, खाने का | |
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− | यह स्थिति ठीक नहीं है और बहुत अच्छी तैयारी की
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− | और प्रस्तुति भी अच्छी हुई परन्तु दूसरे किसी की
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− | प्रस्तुति अच्छी थी इसलिये प्रथम पारितोषिक उसे
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− | मिला इस स्थिति को भी अच्छे मन से स्वीकार
| + | ३. इतना काम करना है और आज ही पूरा करना है ऐसा विचार किया तो अब पूरा करके ही सोना है ऐसा निश्चय करना और पार उतारना । |
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− | करना चाहिये, साथ ही प्रस्तुति सही में सर्वश्रेष्ठ थी तो
| + | ४. कैसी भी विपरीत परिस्थिति हो, धैर्य नहीं खोना, हिम्मत नहीं हारना । |
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− | भी परीक्षक ने पक्षपातपूर्वक दूसरे को प्रथम क्रमांक | + | ५. असफल होने पर भी निराश नहीं होना, हताश नहीं होना, पुनः प्रयास करने के लिये उद्यत होना । |
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− | दिया और में इसे स्वीकार करने के अलावा कुछ नहीं
| + | आज इस बात का कुछ विपर्यास भी दीखता है । काम पूरा नहीं होने पर भी खेद नहीं, प्रश्न का उत्तर नहीं आने पर भी संकोच नहीं, वादा पूरा नहीं करने पर भी खेद नहीं, भरोसा तोड़ देने पर भी शरम नहीं, अयशस्वी होने पर भी आपत्ति नहीं... होता है तो करो नहीं तो छोड दो, आसानी से सफलता मिलती है तो ठीक नहीं तो छोड दो, जितना हुआ उतना ठीक है, जैसा हुआ वैसा किया, और कितना करें, दबाव मत बनाओ, टेन्शन मत लो, चिन्ता मत करो, परेशानी मत उठाओ, स्ट्रेस नहीं होने दो... ऐसी ही बातें होती हैं । मन को कोई कसाव नहीं मिलता, कोई व्यायाम ही नहीं मिलता । इससे उसकी शक्ति नहीं बढती । जीवन ही पोला पोला बन जाता है । |
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| + | इस दृष्टि से विद्यालय में मन के कसाव की तो चिन्ता करनी चाहिये । छोटे छोटे चुनौतीपूर्ण काम करने को बताना चाहिये । उलझना पडे ऐसे कार्य और ऐसी स्थितियाँ निर्माण करनी चाहिये । धैर्य रखे बिना रास्ता नहीं मिलेगा ऐसा अनुभव होना चाहिये | भाषण प्रतियोगिता में हार गये तो कुछ नहीं बिगडता ऐसा विचार कर तैयारी करने का श्रम ही नहीं करना यह स्थिति ठीक नहीं है और बहुत अच्छी तैयारी की और प्रस्तुति भी अच्छी हुई परन्तु दूसरे किसी की प्रस्तुति अच्छी थी इसलिये प्रथम पारितोषिक उसे मिला इस स्थिति को भी अच्छे मन से स्वीकार करना चाहिये, साथ ही प्रस्तुति सही में सर्वश्रेष्ठ थी तो भी परीक्षक ने पक्षपातपूर्वक दूसरे को प्रथम क्रमांक दिया और में इसे स्वीकार करने के अलावा कुछ नहीं |
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